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अर्से पहले
मेरे मुहल्ले में
आया करते थे कभी कभी
तमाशा दिखलाने
मदारी और बाज़ीगर
मनोरंजन करने
और धन कमाने
ताकि परिवार का
हो सके भरण पोषण।

मैं उस समय बच्चा था
उनके साथ चल पड़ता था
किसी और कूचे गली में
तमाशा देखने के निमित्त।
उस समय जीवन लगता था
एकदम शांत चित्त।
आसपास,देश समाज की हलचलों से अनभिज्ञ।

अब समय बदल चुका है
रंग तमाशे का दौर हो चुका समाप्त।
उस समय का बालक
अब एक सेवानिवृत्त बूढ़ा
वरिष्ठ नागरिक हो चुका है,
एक भरपूर जीवन जी चुका है।

अब गली कूचे मुहल्ले
पहले सी हलचलों से
हो चुके हैं मुक्त,
शहर और कस्बे में,
यहां तक कि गांवों में भी
संयुक्त परिवार  
कोई विरले,विरले बचे हैं
एकल परिवार उनका स्थान ले चुके हैं।
इन छोटे और एकाकी परिवारों में
रिश्ते और रास्ते बिखर गए हैं
स्वार्थ का सर्प अपना फन उठाए
अब व्यक्ति व्यक्ति को भयभीत रहा है कर
और कभी कभी कष्ट,दर्द के रूबरू देता है कर।


आजकल
मेरे देश,घर,समाज, परिवार के सिर पर
हर पल लटकी रहती तलवार
मतवातर कर्ज़,मर्ज का बोझ
लगातार रहा है बढ़
मन में फैला रहता डर
असमय व्यवस्था के दरकने की व्यापी है शंका,आशंका।

ऐसे में
आप ही बताएं,
देश ,समाज , परिवार को
एकजुट, इकठ्ठा रखने का
कोई कारगर उपाय।

डीप स्टेट का आतंक
चारों और फैल रहा है ,
विपक्ष मदारी बना हुआ
खेल रहा है खेल,
रच रहा है सतत साज़िश,
सत्ता पर आसीन नेतृत्व को
धूल चटाने के लिए
कर रहा है षडयंत्र
ताकि रहे न कोई स्वतंत्र
और देश पर फिर से
विदेशी ताकतें करने लगें राज।
वे साधन सम्पन्न लोग
वर्तमान
सत्ता के सिंहासन पर आसीन
नेता का अक्स
एक तानाशाह के रूप में
करने लगे हैं चित्रित।

अब आगे क्या कहूँ?
पीठासीन तानाशाह,
और सत्ता से हटाए तानाशाह की
आपसी तकरार पर
कोई ढंग का फैसला कीजिए।
लोकतंत्र को ठगतंत्र से मुक्ति दिलवाइए।
आओ !सब मिलकर
इन हालातों को अपने अनुकूल बनाएं।
वैसे तानाशाहों का तमाशा ज़ारी है।
लगता है ...
अब तक तो
अपने प्यारे वतन पर
गैरों ने कब्ज़ा करने की,की हुई तैयारी है।
जनता के संघर्ष करने की अब आई बारी है।
उम्मीद है...
इस तमाशे से देश,समाज
बहुत जल्दी बाहर आएगा।
आम आदमी निकट भविष्य में
अपने भीतर सोए विजेता को बाहर लाएगा,
देश और  दुनिया पर
मंडराते संकट से
निजात दिलवाएगा।
कोई न कोई
इस आपातकाल को नेस्तनाबूद करने का
साहस जुटाएगा।
तभी सांस में सांस आएगा।
समय
इस दौर की कहानी
इतिहास का हिस्सा बन
सभी को सुनाएगा ताकि लोग
स्वार्थ की आंधी से
अपने अपने घर,परिवार बचा सकें।
निर्विघ्न कहीं भी आ जा सकें।
जीवन युद्ध
है एक सतत संघर्ष,
इसमें उत्कर्ष भी है,
तो अपकर्ष भी।
अनमोल मोती सा
उत्कृष्ट निष्कर्ष भी।

यदि
आप चाहते हैं कि
जीवन युद्ध रहे ज़ारी।
यह तानाशाह के हाथों में
बने न नासूर सी बीमारी।
...
बनना होगा
भीतर तक निष्पक्ष।
करना होगा
भीतर बाहर संघर्ष।
आप
काले दिन झेलने की
करें प्राण, प्रण से तैयारी।
....और हाँ,खुद को
सच केवल सच
कहने, सुनने के लिए
करें तैयार।
जीवन मोह सहर्ष दें त्याग।
२६/०१/२०१०
मूल्य विघटन के
दौर में
नहीं चाहते लोग जागना ,
वे डरते हैं
तो बस
भीतरी शोर से।

बाह्य शोर
भले ही उन्हें
पगला दे!
बहरा बना दे!!
ध्वनि प्रदूषण में
वे सतत इज़ाफ़ा करते हैं।
बिन आई मौत का
आलिंगन करते हैं।
पर नहीं चेताते,
न ही स्वयं जागते,
सहज ही
वे बने
रहते घाघ जी!
मूल्य विघटन के
दौर में
बुराई और खलनायकों का
बढ़ रहा है दबदबा और प्रभाव,
और...
सच, अच्छाई और सज्जनों का
खटक रहा है अभाव।
लोग
डर, भय और कानून
जड़ से भूले हैं,
आदमियत के पहरेदार तक
अब बन बैठे
लंगड़े लूले हैं।
कहीं गहरे तक पंगु!
वे लटक रहे हवा में
बने हुए हैं त्रिशंकु!!
अब
कहना पड़ रहा है
जनता जनार्दन की बाबत,
अभी नहीं जगे तो
शीघ्र आ जाएगी सबकी शामत।
लोग /अब लगने लगे हैं/ त्रिशंकु सरीखे,
जो खाते फिरते
बेशर्मी से धक्के!
घर,बाहर, बाजारों में!!
त्रिशंकु सरीखे लोग
कैसे मनाए अब ?
आदमियत की मृत्यु का शोक!
जड़ विहीन, एकदम संवेदना रहित होंगे
उन्हें  हो गया है विश्व व्यापी रोग!!
   १६/०२/२०१०.
जनाब
यहां थूकिए मत।

थू!थू! थूक ना!
जीवन में
आपात काल आ चुका है।
अगर
किसी ने देख लिया
आफत आ जाएगी ।
जान बचानी
मुश्किल हो जाएगी।
जुर्माना तो देना ही होगा,
बल्कि हवालात की
सैर भी करनी पड़ सकती है।
जीवन में मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
अच्छा होगा
भूल कर भी न थूक।
यह बन सकती है एक
सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी चूक।
१४/०५/२०२०.क
कोरोना काल के भयभीत करने वाले काल खंड को ध्यान में रखते हुए कविता को पढ़ा जाए।
हे दर्पणकार! कुछ ऐसा कर।
दर्प का दर्पण टूट जाए।
अज्ञान से पीछा छूट जाए।
सृजन की ललक भीतर जगे।
हे दर्पणकार!कोई ऐसा
दर्पण निर्मित कर दो जी,
कि भीतर का सच सामने आ जाए।
यह सब को दिख जाए जी।

हे दर्पणकार!
कोई ऐसा दर्पण
दिखला दो जी।
जो
आसपास फैले आतंक से
मुक्ति दिलवा दे जी ।

हे दर्पणकार!
अपने दर्पण को
कोई आत्मीयता से
ओतप्रोत छुअन दो
कि यह जादुई होकर
बिगड़ों के रंग ढंग बदल दे,
उनके अवगुण कुचल दे ,
ताकि कर न सकें वे अल छल।
उनका अंतःकरण हो जाए निर्मल।

हे दर्पणकार!
तोड़ो इसी क्षण
दर्प का दर्पण ,
ताकि हो सके  
किसी उज्ज्वल चेतना से साक्षात्कार ,
और हो सके
जन जन की अंतर्पीड़ा का अंत,
इसके साथ ही
अहम् का विसर्जन भी।
सब सच से नाता जोड़ सकें,
जीवन नैया को
परम चेतना की ओर मोड़ सकें।
८/६/२०१६
सुना है,
स्पर्श की भी
अपनी एक स्मृति होती है
जो अवचेतन का हिस्सा बन जाती है।
यदि
दिव्य की अनुभूति
करना चाहते हो तो प्रार्थना करो
पांच तत्वों के सुमेल के लिए !
भीतर के उजास के लिए !
दिव्यता के प्रकाश के लिए!
इस के लिए
संभावना खोजने के प्रयास करो।
हो सके तो दुर्भावना से बचो।
दिव्यता से साक्षात्कार कर पाने के लिए।
वैसे...
धरा पर भटकाव बहुत हैं
पर सब निरर्थक
सार्थक है तो केवल
नैतिकता,
जिस पर हावी होना चाहती अनैतिकता।


दिव्यता का संस्पर्श
हमें साहसी बनाता है।

अन्यथा हम पीड़ित बने रहेंगे।
इस बाबत आप क्या कहेंगे?
दीन ओ धर्म के नाम पर
जब अवाम को
बरगलाया जाता है,
तब क्या ईश्वर को
भुलाया नहीं जाता है?

दीन ओ धर्म
तब तक बचा रहेगा ,
जब तक आदमी का किरदार
सच्चा बना रहेगा ।

दीन ओ धर्म
तभी तक असरकारी है,
जब तक आदमी की
आंखों में
शर्म ओ हया के
जज़्बात जिंदा रहते हैं,
अन्यथा लोग हेराफेरी,
चोरी सीनाज़ोरी में
संलिप्त रहते हैं,
अंहकारी बने रहते हैं,
जो धर्म और कर्म को
दिखावा ही नहीं,
बल्कि छलावा तक मानते हैं।
ऐसे लोग
धर्म की रक्षा के नाम पर
देश, समाज, दुनिया को बांटते हैं,
नफ़रत फैला कर
अपनी दुकान चलाते हैं,
भोले भाले और भले आदमी
उनके झांसे में आकर
बेमौत मारे जाते हैं।
सबके भीतर से
बेहतर बहे,
इस के लिए
हर कोई
न केवल दुआ करे,
बल्कि
प्रयास भी करे ,
.....
ताकि
जीवन जीवंत लगे,
जिंदगी
बेहतरी की ओर बढ़े।

हर कोई
दुआ दिल से करे,
न कि खुद और गैरों को छले
ताकि
यह दुनिया
प्यार और विश्वास की
सुरक्षा छतरी बने ।

सब के भीतर से
सच का मोती बहे ,
सब सहिष्णु बनें।
आओ! आज कुछ नया करें।
आशा और विश्वास के संग
जीवन के नित्य नूतन क्षितिज छूएं।
सब सहिष्णु बने।
अब तो सभी पर यह सुरक्षा छतरी तने।
८/६/२०१६.
देह से नेह कर ,
मगर
इस राह में
ख़तरे बहुत हैं !!
यह
कुछ कुछ
मन के परिंदे के
पंख कुतरने जैसा है,
वह उड़ने के दिवास्वप्न ले जरूर,
मगर
परवाज़ पर
पाबंदी लगा दी जाए।

इसलिए
देह से नेह करने पर
नियंत्रण
व्यक्ति के लिए
बेहद ज़रूरी है।
हाँ,यह भी एक सच है
कि देह से नेह रखने पर
उल्लासमय हो जाता है जीवन,
वह
बाहर भीतर से
होता जाता है दृढ़
इस हद तक
कि यदि तमाम सरहदें तोड़ कर
बह निकले
जज़्बात की नदी
तो कर सकता है वह
निर्मित
उस दशा में
अटल रह,
जीवन रण में
जूझने में सक्षम तट बंध
भले ही
देह में नेह रहना चाहे
निर्बंधन !
यानिकि
सर्वथा सर्वथा बन्धन मुक्त!!


देह से नेह
अपनी सोच की सीमा में रह कर,कर।
ताकि झेलना न पड़ें संताप!
करना न पड़े पल प्रति पल प्रलाप!!

वैसे
सच यह है...
यह सब घटित हुआ नहीं, कि तत्काल
मानस अदृश्य बन्धन में बंधता जाता है।
वह
आज़ादी,सुख की सांस लेना तक भूल जाता है।
काल का कपाल उस की चेतना पर हावी होता जाता है।

इसलिए
मनोज और रति का जीवन प्रसंग
हमें अपनी दिनचर्या में
बसाए रखना अपरिहार्य हो जाता है।
नियंत्रित जीवन
देह से नेह में चटक रंग भरता है !
रंगीले चटकीले रंगों से ही यौवन निखरता है!!
   १७/११/२००९.
दंगा
दंग नहीं
तंग करता है,
यह मन की शांति को
भंग करता है।
दंगाई
बेशक  
अक्ल पर पर्दा पड़ने से
जीवन के रंगों को
न केवल
काला करता है ,
बल्कि वह खुद को
एक कटघरे में खड़ा करता है।

उसकी अस्मिता पर
लग जाता है प्रश्नचिह्न।
दंगे के बाद
भीतर उठे प्रश्न भी मन को
कोयले सरीखा
एक दम स्याह काला
कर देते हैं
कि वहां उजाला पहुंचना
नामुमकिन हो जाता है,
फिर दंगाई
कैसे उज्ज्वल हो सकता है ?
वो तो
समाज के चेहरे पर
स्याही पोतने का काम करता है।
उसके कृत्यों से  
उसका हमसफ़र भी घबराता है।
वह धीरे-धीरे
दंगाई से कटता जाता है।
बेशक वह लोक दिखावे की वज़ह से
साथ निभाता लगे।

दंगा
मानव के चेहरे से
नक़ाब उतार देता है
और असलियत का अहसास कराता है।
दंगाई न केवल नफ़रत फैलाता है,
बल्कि उसकी वज़ह से
आसपास कराहता सुन पड़ता है।

इस कर्कश
कराहने के पीछे-पीछे
विकास के विनाश का
आगमन होता है ,
इसे दंगाई कहां
समझ पाता है?
यह भी सच है कि
दंगा
सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाता है।
दंगा
अराजकता फैलाने की
ग़र्ज से प्रायोजित होता है।
इसके साथ ही
यह
समाज का असली चेहरा दिखाता है
और आडंबरकारी व्यवस्था की  
असलियत को
जग ज़ाहिर कर देता है।

भीड़ तंत्र का  
अहसास है दंगा,
जो यदा-कदा व्यक्ति और समाज के
डाले परदे उतार देता है ,साथ ही नक़ाब भी।
यह देर तक
इर्द-गिर्द  बेबसी की दुर्गन्ध बनाये रखता है ,
सोई हुई चेतना को जगाये रखता है।
कभी
देश में फैला था
एक दंगा।
अर्से बाद हुआ
खुलासा ,
जिससे
नेतृत्व हुआ
नंगा।
सोचता हूँ,
अब
क्या होगा?
नेतृत्व
खुद को
बचा पाएगा
या कुछ
अप्रत्याशित
घट जाएगा।
क्या
समाज
जातियों में
बंट जाएगा?
३/६/२०२०
कोई
बरसात के मौसम की तरह
बिना वज़ह
मुझ पर
बरस गया।
सच! मैं सहानुभूति को
तरस गया,
यह मिलनी नहीं थी।
सो मैं खुद को समझा गया,
यहाँ अपनी लड़ाई
अपने भीतर की आग़ धधकाए रख कर
लड़नी पड़ती है।

अचानक
कोई देख लेने की बात कर
मुझे टेलीफ़ोन पर
धमकी दे गया।
मैं..... बकरे सा
ममिया कर रह गया,
जुर्म ओ सितम सह गया।
कुछ पल बाद
होश में आने के बाद
धमकी की याद आने के बाद
एक सिसकी भीतर से निकली।
उस पल खुद को असहाय महसूस किया।

जब तब यह धमकी
मेरी अंतर्ध्वनियों पर
रह रह हावी होती गई,
भीतर की बेचैनी बढ़ती गई।

समझो बस!
मेरा सर्वस्व आग बबूला हो गया।

मैंने उसे ताड़ना चाहा,
मैने उसे तोड़ना चाहा।
मन में एक ख्याल
समय समंदर में से
एक बुलबुले सा उभरा,
...अरे भले मानस !
तुम सोचो जरा,
तुम उससे कितना ही लड़ो।
उसे तोड़ो या ताड़ना दो।
टूटोगे तुम ही।
बल्कि वह अपनी बेशर्म हँसी से
तुम्हे ही रुलाएगा और करेगा प्रताड़ित
अतः खुद पर रोक लगाओ।
इस धमकी को भूल ही जाओ।
अपने सुकून को अब और न आग लगाओ।
वो जो तुम्हारे विरोध पर उतारू है,
सिरे का बाजारू है।
तुम उसे अपशब्द कह भी दोगे ,तो भी क्या होगा?
वो खुद को डिस्टर्ब महसूस कर
ज़्यादा से ज़्यादा पाव या अधिया पी लेगा।
कुछ गालियां देकर
कुछ पल साक्षात नरक में जी लेगा।

तुम रात भर सो नहीं पाओगे।
अगले दिन काम पर
उनींदापन झेलते हुए, बेआरामी में
खुद को धंसा पाओगे।

यह सब घटनाक्रम
मुझे अकलमंद बना गया।

एक पल सोचा मैंने...
अच्छा रहेगा
मैं उसे नजरअंदाज करूँ।
खुद से उसे न छेड़ने का समझौता करूँ ।
यूं ही हर पल घुट घुट कर न मरूं ।
क्यों न मैं
उस जैसी काइयां मानस जात से
परहेज़ करूँ।
२७/०७/२०१०.
E
सुना है,
वह धमकी बहादुर है।
उम्मीद है,
पूरा पूरा भरोसा है
वह अपने शब्दों पर
एकदम खरा उतरेगा,
गहरी मार करेगा,
चूंकि वह धमकी बहादुर है,
जिसे वह धमकी दे रहा है,
वह सिरे का कायर हो,
यह भला यकीन से
कैसे कहा जा सकता है?
कभी कभी
शेर को सवा शेर
मिल ही जाया करता है।
जिस से पराजित होने वाला डरता है।
न केवल डरता है, बल्कि दबता भी है।

मुझे यकीन है कि वह
गीदड़ भभकी नहीं दे रहा!
दिल से दहशत को हवा दे रहा !!

अब मेरी भी सुन लीजिए,
धमकी बहादुर को
हवा न दीजिए।
बल्कि उसका सामना कीजिए।
सौ बातों की एक बात कर रहा हूँ,
न कि भीतर डर भर रहा हूँ।
यहाँ
सब स्वाभिमानी हैं,
समय आने पर बनते बलिदानी हैं।
प्रतिक्रिया स्वरूप
हम भी
धमकी बहादुर और उसके गुर्गों पर
करना चाहते प्रबल प्रहार ।
हम उन पर
करेंगे
दिमाग से
घात प्रतिघात
और संहार...!
लौटाएंगे
उनको उनका उपहार
उनके ही अंदाज़ में।
हम उनसे उनकी बोली में
करेंगे संवाद।
निज भाषा का अपना स्वाद!!
हम चाहते हैं करना सामना
अपनी अतीत की पराजय को भूल कर
धमकी बहादुरों की आसुरी शक्तियों से दो दो हाथ।
हमारी रही है कामना,
सदैव शोषितों वंचितों को समय रहते थामना।
हम  मूलतः अहिंसक हैं,
नहीं चाहते मरना और मारना।
न ही चाहते कभी, धमकियों के आकाओं से ...
लड़ना, भिड़ना,मरना,डरना,
अपने सुकून को
खत्म होते देखना, बेशक
कभी धमकियों के बूते आगे बढ़ना पड़े,
कभी कभी समझौता करना पड़े।
१३/०५/२०२०
नाहक
नायक बनने की
पकड़ ली थी ज़िद।
अब
उतार चढ़ाव की तरंगों पर
रहा हूं चढ़ और उतर
टूटती जाती है
अपने होश खोती जाती है
अहम् से
जन्मी अकड़।

निरंतर
रहा हूं तड़प
निज पर से
ढीली होती जा रही है
पकड़।

एकदम
बिखरे खाद्यान्न सा होकर...
जितना भी
बिखराव को समेटने का
करता हूं प्रयास,
भीतर बढ़ती जाती
भूख प्यास!
अंतस में सुनाई देता
काल का अट्टहास!!
  १३/१०/२००६.
यदि मेरा
फिर से
कोई मेरा नाम रखना चाहे  
तो मुझे अच्छा लगेगा यह नाम ।
चूंकि भाता नहीं मुझे कोई काम।
श्रीमान जी,
रखिए मेरा नाम निखट्टू,सुबह से शाम तक
सुननी पड़ती
तरह तरह की बातें...!

प्रतिक्रिया देना मैने छोड़ दिया है।
गूंगा बन जीना सीख लिया है।
अकलमंद बन समझौता किया है।
फिर भी बहुत सी
अंतर्ध्वनियों ने मुझे ढेर किया है
सो अब निःशब्द हूं।

आप भी कहेंगे
निखट्टू
निशब्द कैसे हो सकता है?
उत्तर है जी,
यह तो वही जानता है।
जो कुछ अच्छा बुरा खोजने पर
प्रतिक्रिया न कर चुप रहना सीख गया है।
जिसके पास संवेदना के बावजूद चुप्पी है,
वह नि:शब्द नहीं तो क्या है?
है कोई प्रत्युत्तर जी??

अब
निखट्टू को
परिभाषित करता हूँ,
ऐसा व्यक्ति
जो देश काल से
निर्लिप्त रहे,
आदेशों के बावजूद
कुछ भी न करे।
कोई उस पर कितना ही चिल्लाए,
पर वह चुप रहने से बाज़ न आए।
...और जो जरूरत के बावजूद
कुछ न करे,
निष्क्रियता की चादर ओढ़कर
देश, घर,दुनिया में कहीं पड़ा रहे।
ऐसे आदमी को निखट्टू कहते हैं।
जिसके वजूद को सब सहने को मजबूर हैं।
कमल देखिए, उसे सारी समझ है,फिर भी चुप है।
वह निखट्टू नहीं तो क्या है?

मुझे विदित है कि निखट्टू
आदतन
लिखती, निखट्टू रह जाते हैं।
वरना,मौका मिले तो वह सब के कान कतर दें।
यदि किसी व्यक्ति  को जीवन में उद्देश्य न मिले,
तो वह धीरे धीरे  एक निखट्टू में तब्दील हो जाता है।
एक दिन चिकना घड़ा बन जाता है,
जिस के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।
कोई कितना ही अपनी खीझ उस पर निकाले,
निखट्टू हर दम हंसता मुस्कुराता रहता है।
निखट्टू  तो निखट्टू है,
वह तो बेअसर है।
उसे अपने तरीके से जिंदगी जीनी है, भले ही
किसी को वह एकदम
सिर से पैर तक   ढीठ लगे,
बेशर्मी का ताज उसके सिर ही सजे।
भई वाह!निखट्टू के मजे ही मजे!!
निजता को
यदि बचाना है
तो कीजिए एक काम।
मोबाइल तंत्र से
प्रतिदिन
कुछ घंटों के लिए
ले लीजिए विश्राम।
ताकि तनाव भी
तन से दूर रहे,
निज देह में
नेह और संवेदना बनी रहे।
वत्स का उत्स
उत्सव में छिपा है!
समय और उसने
कहीं कुछ छिपाया नहीं!!
आगे बढ़ने की ललक
बराबर भीतर बनी रही,
इसे कभी दबाया नहीं।
बस आप इसे समझिए सही।
जीवन में गड़बड़ी न होगी कभी।
००५/२०२०.
जीवन की ऊहापोह और आपाधापी के बीच
किसी निर्णय पर पहुँचना है
यकीनन महत्वपूर्ण।
....और उसे जिन्दगी में उतारना
बनाता है हमें किसी हद तक पूर्ण।

कभी कभी भावावेश में,
भावों के आवेग में बहकर
अपने ही निर्णय पर अमल न करना,
उसे सतत नजरअंदाज करना,
उसे कथनी करनी की कसौटी पर न कसना,
स्वप्नों को कर देता है चकनाचूर ।
समय भी ऐसे में लगने लगता, क्रूर।

कहो, इस बाबत
तुम्हें क्या कहना है?
यही निर्णय क्षमता का होना
मानव का अनमोल गहना है।
यह जीवन को श्रेष्ठ बनाना है।
जीवन में गहरे उतर जाना है ।
जीवन रण में
स्वयं को सफल बनाना है।
   ८/६/२०१६.
एक पत्ता
पेड़ से गिरा ही था कि
मुझे हुआ अहसास,
कोई अपना पता भूल गया है,
उसे तो सृजनहार से मिलने जाना था।
जाने अनजाने ही!
शायद गिरने के बहाने से ही!!

सोचता हूं...
वो कैसे
उस सृजनहार को
अपना मुख दिखला पाएगा।
कहीं वह भी तो नहीं
डाल से गिरे पत्ते जैसा हो जाएगा।
कभी मूल तक न पहुंच पाएगा।
१४/०५/२०२०.
जिन्दगी भर गुनाह किए ,
फिर भी है चाहत ,
मुझे तेरे दर पर
पनाह मिले।

कर कुछ इनायत
मुझ पर
कुछ इस तरह ,जिंदगी!

अब और न भटकना पड़े,
क़दम दर क़दम मरना न पड़े !
शर्मिंदा हूँ....कहना न पड़े!!
    २१/०४/२००९
निज के रक्षार्थ
दूर रखिए
स्वयं से स्वार्थ।
कैसे नहीं अनुभूत होगा परमार्थ?
पिता श्री,
एक दिन अचानक
आपने कहा था जब,
"मैं तुम से
कुछ भी अपेक्षा नहीं करता।
बस तुम्हें
एक काम सौंपना चाहता हूँ।
वह काम है...
जाकर अपनी प्रसन्नता खोजो!"
यह सुनकर
अनायास
तब मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा था ।
  

अब महसूस होने लगा है,
जीवन में कुछ ठगा गया है।
अब क़दम दर कदम लगता है कि
आजकल
प्रसन्नता ढूंढ़ी जाती है
चारों ओर....
अंदर क्या बाहर...
सुप्रिया के इर्द गिर्द भंवरे सा मंडरा कर
शेखचिल्ली बन खयाली पुलाव पका कर
अपनों को मूर्ख बना कर


प्रसन्नता ढूंढना अब एक चुनौती बन गई है
सौ,सौ प्रयास के बाद
फिर भी कुछ गारंटी नहीं है कि वह मिले,
मिले तो किसी दिलजले मनचले को जा मिले
अन्यथा.... असफलता का चल पड़ता एक सिलसिला,
आदमी खुद के भंवरजाल में धंसा,
किस से करे शिकवा गिला।
आदमी का अंतर्मानस बन जाता एक शिला!

पिता,
आज अंतर्द्वंद्वों से घिरा
मैं आप के कहे पर करता हूँ सोच विचार
तो लगने लगा है कि
सचमुच प्रसन्नता खोजना,
अपनी खुशी तलाशना,
आखिरकार उसे दिल ओ दिमाग से वरना,
किसी एवरेस्ट सरीखी दुर्गम शिखर पर चढ़ना है ।


तुम्हारा  "अपनी प्रसन्नता खोजो " कहना
आज की युवा पीढ़ी के लिए एक अद्भुत पैग़ाम है।

आज मैं बुध बनना चाहता हूँ।
पर सच है कि मैं इर्द गिर्द की चकाचौंध से भ्रमित
बुद्धू सा हो गया हूँ।
बेशक प्रबुद्ध होने का अभिनय कर
लगातार एक फिरकी बना नाच रहा हूँ।

आपका अंश!
नन्ही सी गुड़िया सल्लू
अपने मामा के हाथ पर हल्के से मार,
"हुआ दर्द?"
"बिल्कुल नहीं। "
सोचा मैंने...
पर यदि वह
मां,बाप,बड़ों का
कहा नहीं मानेगी
तो होगा बेइंतहा दर्द!...

मेरी अपनी बिटिया
गुड्डू पूछती है पापा से
गोदी में चढ़े चढ़े,
"भगवान् बच्चों की
रक्षा करते हैं न पापा?
भगवान् बच्चों की
बातों को मानते हैं न पापा!"
"बिल्कुल ।"
सोचा मैंने...
पर यदि वह
माँ,बाप, बड़ों की
करेगी अवहेलना,
तो जिन्दगी में
उसे अपमान पड़ेगा झेलना।


छोटू सा काकू
मियां प्रणव से
पूछते हैं पापा,
" कितनी चीज़ी लेगा,तू?"
वह कहता है,"दो ।"
सोचता हूँ...
यदि वह करेगा शरारत कभी।
गोविंदा की फिल्म सरीखा होकर
घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में पड़
तो जिन्दगी उसे कर देगी बेघर,
अनायास जिन्दगी देगी थप्पड़ जड़।


नन्हा सा पुनीत
उर्फ़ गोलू
अपनी माँ की गोदी में
लेटा हुआ कर रहा दुग्ध पान।

वह अभी शिशु है
बोल सकता नहीं,
अपनी बात रख सकता नहीं।
शायद सब कुछ जान कह रहा हो
चुप रह कर,
"अरे मामा!इधर उधर न भटक
मेरी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध रख
ना कि दुनियावी प्रदूषण में हो लिप्त।

समय यह लीला देख समझ मुस्करा कर रह गया।
आसपास की जिन्दगी खामोश हँसी का जलवा दिखाकर मचलने लगी।
बच्चे मस्त थे और...उनसे बातें करने वाला एकदम अनभिज्ञ।
प्रवास की चाहत
बेशक भीतर छुपी है,
परन्तु प्रयास
कुछ नहीं किया,
जहां था, वहीं रुका रहा।
दोष किस पर लगाऊं?
अपनी अकर्मण्यता पर..?
या फिर अपने हालात पर?
सच तो यह है कि
असफलता
बहानेबाजी का सबब भी बनती है।
सब कुछ समझते बूझते हुए भी
भृकुटी  तनती है।
    १७/१०/२०२४
बिकती देह,
घटता स्नेह
यह सब क्या है?
यह सब क्या है?
शायद
यही स्वार्थ है!
हम निस दिन
करते रहते ढोंग,
कि पाना चाहते हैं परमार्थ।
परन्तु
पल प्रति पल
होते जाते हम उदासीन।
सभ्यता के जंगल में
यह है एक जुर्म संगीन।
जो बिकती देह
और बिखरते स्नेह के बीच
हमें सतत रहा है लील ।
जिसने आज़ादी, सुख चैन,
लिया है छीन।
यह कतई नहीं ठीक
हमारे वजूद के लिए।

मूल्य विघटन के दौर में
यदि संवेदना बची रहे
तो कुछ हद तक
न बिके देह बाजार में,
और न घटे स्नेह संसार में
बने रहें सब इन्सान निःसंदेह।
सच! हरेक को प्राप्त हो तब स्नेह,
जिसकी खातिर वह भटकता आया है
नाना विध ख्वाबों को बुनते हुए
वह स्वयं को भरमाता आया है,
जो रिश्तों को झूठलाया आया है।
और जिस के अभाव में
आज का इन्सान
निज देह और पर देह तक को
टुकड़ों टुकड़ों में
गिरवी रखता आया है !
आज उसने बाजार सजाया है!!
वो व्यापारी बना हुआ गली गली घूमता है।
अपने रिश्तों को नये नये नाम दे,
सरे बाजार बेचता पाया गया है।
मूल्य विहीन सोच वाला होकर
उसने खुद को
खूब सताया है।
उसने खुद को
कहां कहां नहीं
भटकाया है?
आज रिश्ते बिखरे गये हैं,
सभ्यता का मुलम्मा ओढ़े
हम जो निखर गये हैं।
बिखरे रिश्तों के बीच
हम एक संताप
मन के भीतर रखें
जर्जर रिश्तों को ढोते आ रहे हैं,
स्व निर्मित बिखराव में खोते जा रहे हैं,
जागे हुए होते हैं प्रतीत,
मगर सब कुछ समझ कर भी सोये हुए हैं।

  १०/०६/२०१६.
बड़े बुजुर्ग
अक्सर कहते हैं ,
बच्चे मस्तमौला होते हैं,
उनका खेल तो शरारत है,
अगर बचपन में न कोई शरारत की
तो ज़िन्दगी ख़ाक जी!
अभी अभी
एक बंदर
एकदम मस्त खिलंदर
दादा जी के चश्मे को
सलीके से लगा कर इधर उधर देख
उधम मचाने की फिराक में था
कि देख लिया
दादा ने अचानक

वे अपनी छड़ी उठा कर चिल्लाए, बोले," भाग।"
बंदर भी
आज्ञाकारी बच्चे की तरह
भाग गया।
उसने कोई प्रतिकार नहीं किया।
इससे पहले
कई बार उसने
बूढ़े दादू को खूब खिजाया था।
यही नहीं
कई खाद्य पदार्थों को कब्जाया था।
आज
कुछ ख़ास नहीं हुआ।
उसने बस चश्मे को छुआ
और पल भर को आंखों पर लगाया बस!
और दादा की घुड़की सुन भाग गया।
चश्मा नीचे गिरा
और उसके शीशे पर
खरोंच आ गई।
शुक्र है
चश्मा ठीक ही था
दादा जी
अखबार पढ़ने बैठ गए,
बंदर किसी दूसरे मकान की छत पर
धमाचौकड़ी कर रहा था।
पास ही बंदर का बच्चा
अपनी मां की गोद से लिपटा पड़ा था,
बंदरिया उसे साथ लेकर
मकानों की दूसरी कतार की ओर निकल गई थी।
यह घटनाक्रम देख मेरी हँसी निकल गई।
दादा जी ने मुझे घूर कर देखा,
तो मैं सकपका गया।
एक बार फिर से डांट खाने से बच गया।
१३/११/२०२४.
आज फिर बंदर
दादा जी को छेड़ने
आ पहुंचा।
दादा ने छड़ी दिखाई, कहा,"भाग।"
जब नहीं भागा तो दादू  पुनः चिल्लाए,"भाग, सत्यानाशी...।"
तत्काल,बंदर ने कुलाठी लगाई
और नीम के पेड़ पर चढ़कर
पेड़ के साथ लगी, ग्लो की बेल,
जिसकी लताएं  ,  नीम पर चढ़ी थीं,से एक टहनी तोड़,
दांतों से चबाने लगा।
मुझे लगा, चबाने के साथ,वह कुछ सतर्कता भी
दिखा रहा था।
बूढ़े दादू उस पर लगातार चिल्ला रहे थे ,
उसे भगा रहे थे।
पर वह भी ढीठ था,पेड़ की शाखा पर बैठा रहा,
अपनी ग्लो की डंडी चबाने की क्रिया को सतत करता रहा।
  उसने आराम किया और बंदरों की टोली से जा मिला।

दादू अपने पुत्र और पोते को समझा रहे थे।
ये होते हैं समझदार।
वही खाते हैं,जो स्वास्थ्यवर्धक हो ।
इंसान की तरह   बीमार करने वाला भोजन नहीं करते।

मुझे ध्यान आया,
बस यात्रा के दौरान पढ़ा एक सूचना पट्ट,
जिस पर लिखा था,
"वन क्षेत्र शुरू।
कृपया बंदरों को खाद्य सामग्री न दें,
यह उन्हें बीमार करती है ।"
मुझे अपने बस के कंडक्टर द्वारा
बंदरों के लिए केले खरीदने और बाँटने का भी ध्यान आया।
साथ ही भद्दी से नूरपुरबेदी जाते समय
बंदरों के लिए केले,ब्रेड खरीदने
और बाँटने वाले धार्मिक कृत्य का ख्याल भी।

हम कितने नासमझ और गलत हैं।
यदि उनका ध्यान ही रखना है तो क्यों नहीं
उनके लिए उनकी प्रकृति के अनुरूप वनस्पति लगाते?
इसके साथ साथ उनके लिए
शेड्स और पीने के पानी का इंतजाम करवाते।
  
भिखारियों को दान देने से
अच्छा है
वन विभाग के सहयोग से
वन्य जीव संरक्षण का काम किया जाए।
प्रकृति मां ने
जो हमें अमूल्य धन  सम्पदा
और जीवन दिया है ,
उससे ऋण मुक्त हुआ जाए।
प्रकृति को बचाने,उसे बढ़ाने के लिए
मानव जीवन में जागरूकता बढ़ाई जाए।
समाज को वनवासियों के जीवन
और उनकी संस्कृति से जोड़ा जाए।
निज जीवन में भी
सकारात्मक सोच विकसित की जाए ,
ताकि जीवन शैली प्रकृति सम्मत हो पाए।
व्यथित मन
आजकल मनमानियों पर
उतारू है,
इस ने बनाया हुआ
बहुतों को
बीमारू है।
उसके अंदर व्याप्त
प्रदूषण पर कैसे रोक लगे।
आओ,इस बाबत जरा बात करें ।
मन के भीतर का
सूख चुका जंगल तनिक हो सके हरा भरा।

मन के प्रदूषण पर रोक लगे,
कुछ तो हो कि
मानव का व्यक्तित्व
आकर्षण का केंद्र बने ।

जब मन
मनमानियां करने लगे,
और आदमी
अनुशासन भंग करने लगे ,
तो कैसे नहीं ?
आदमी औंधे मुँह गिरे!
फिर तो मतवातर
भीतर डर भरे।
अब सब सोचें,
मन की मनमानी कैसे रुके?

मन की उच्छृंखलता पर
लगाम कसने की
सब कोशिश करें,
ताकि आदमी
सच से नाता जोड़ सके,
और वह पूर्ववत के
अपने अधूरे छूट चुके कामों को
निष्पादित करने का यत्न करे।

इसी प्रक्रिया से आदमी निज को गुजारे।
उसके भीतर
खोया हुआ आत्मविश्वास लौटे
और शनै: शनै:
उसकी मनोदशा में सुधार हो,
वह आगे बढ़ने के लिए तैयार हो।

उसके मन की संपन्नता बढ़े,
और मन में जो मुफलिसी के ख्यालात भर चुके हैं,
वे धीरे धीरे से समाप्त हों।
मन के आकाश में से
दुश्चिंतता,अनिश्चितता, अस्पष्टता,
अंधेरे के बादल
छंटने लगें,
मन के भीतर
फिर से
उजास भर जाए।
सब आगे बढ़ने के प्रयास करते जाएं।

मन का उदास जंगल
फिर से खिल उठे,
सब इस खातिर प्रयास करें।
आओ,इस मुरझाए
मन के जंगल में
हरियाली के बीज फैलाएं।
यह हरा भरा होता चला जाए।

आओ,
मन के जंगल में
कुछ
प्रसन्नता, संपन्नता की खाद डालकर ,
वहां अंकुरित बीजों को
सुरक्षा का आवरण प्रदान करें,
ताकि वहां शांति वन बनाया जा सके।

कालांतर में
यही वन
व्यक्ति,समाज,देश को
अशांति, दुःख,दर्द, मुफलिसी के दौर में
तेज तीखी धूप में
छाया देते प्रतीत हों।
मन में कुछ ठंडक महसूस हो।

जब मन के भीतर खुशियां भर जाती हैं,
तब मन को नियंत्रित करना सरल है,
मन के भीतर से कड़वाहट खत्म होती जाती है,
एक पल सुख सुकून का भी आता है,
उस समय मन की मनमानी पर रोक लग ही जाती है।
और मन का वातावरण
हरियाली के बढ़ने,
पुष्पों के खिलने,
परिंदों के चहकने,
बयार के चलने से
सुवासित हो जाता है।
मन के भीतर कमल खिल जाता है!
आदमी स्वत: खिल खिल जाता है।!!
यह सब कुछ
भीतर के ताप को
कम कर देता है।
आदमी शीतलता की अनुभूति करता है।
धीरे धीरे मन के प्रदूषण पर रोक लग जाती है।
मन के भीतर सकारात्मकता भर जाती है।
आदमी  के मन की मरुभूमि
नखलिस्तान सरीखी हो जाती है।
हर किसी की सोच बदल जाती है।
मन का प्रदूषण दूर हुआ तो
अमन चैन की दुनिया घर में बस जाती है।
ऐसे में
संपन्नता की खनक भी सुनी जाती है।
हे मेरे मन!
अब और न करो निर्मित
बंधनयुक्त घेरे
स्वयं की कैद से
मुझे इस पल
मुक्त करो।
अशांति हरो।

हे मन!
तुमने मुझे खूब भटकाया है,
नित्य नूतन चाहतों को जन्म दे
बहुत सताया है।
अब
मैं कोई
भ्रांति नहीं, शान्ति चाहता हूँ।
जर्जर देह और चेहरे पर
कांति चाहता हूँ।
देश समाज में क्रांति का
आकांक्षी हूँ।

हे मेरे मन!
यदि तुम रहते शांत हो
तो बसता मेरे भीतर विराट है
और यदि रहते कभी अशांत हो
तो आत्म की शरण स्थली में,
देह नेह की दुनिया में
होता हाहाकार है।

हे मन!
सर्वस्व तुम्हें समर्पण!
तुम से एक अनुरोध है
अंतिम श्वास तक
जीवन धारा के प्रति
दृढ़ करते रहो पूर्व संचित विश्वास।
त्याग सकूँ
अपने समस्त दुराग्रह और पूर्वाग्रह ,
ताकि ढूंढ सकूँ
तुम्हारे अनुग्रह और सहयोग से
सनातन का सत्य प्रकाश,
छू सकूँ
दिव्य अनुभूतियुक्त आकाश।

हे मेरे मन!
अकेले में मुझे
कामनाओं के मकड़जाल में
उलझाया न करो।
तुम तो पथ प्रदर्शक हो।
भूले भटकों को राह दिखाया करो।
अंततः तुम से विनम्र प्रार्थना है...
सभी को अपनी दिव्यता और प्रबल शक्ति के
चमत्कार की अनुभूति के रंग में रंग
यह जीवन एक सत्संग है, की प्रतीति कराया करो।
बेवजह अब और अधिक जीवन यात्रा में भटकाया न करो।


हे मेरे मन!
नमो नमः

मन मंदिर में सहजता से
प्रवेश करवाया करो,
सब को सहज बना दरवेश बनाया करो।
सभी का सहजता से साक्षात्कार कराया करो,
हे मन के दरवेश!
मर्यादा
माया से डरें नहीं
बल्कि
वह अपनी सीमा से बंधी रहे।
कुछ ऐसा
तुम पार्थ करो,
सार्थक जीवन के लिए
जन जन के
प्रेरक बनो ।
कहे है इतिहास सभी से
कृष्ण सा चेतना पुंज बनो।
जीवन युद्ध के संघर्षों में  
शत्रुहंता होने के निमित्त
धनुष पर राम बाण से होकर तनो ।
जीवन के वर्चस्व को  
राष्ट्र प्रथम के सिद्धांत की तरह चुनो।
किसे लिखें ?
अपने हाल ए दर्द की तफ़्सील।
महंगाई ने कर दिया
अवाम का फटे हाल।


पिछले साल तक
चार पैसे खर्च के बावजूद
बच जाते थे!
तीज त्योहार भी
मन को भाते थे!!

अब त्योहार की आमद पर
होने लगी है घबराहट
सब रह गए ठाठ बाठ!
डर दिल ओ दिमाग पर
हावी हो कर, करता है
मन की शांति भंग!
राकेट सी बढ़ती महंगाई ने
किया अब सचमुच नंग!
अब वेतनभोगी, क्या व्यापारी
सब महंगाई से त्रस्त एवं तंग!!
किस से कहें?
अपनी बदहाली का हाल!
अब तो इस महंगाई ने
बिगाड़ दी है अच्छे अच्छों की चाल!
सब लड़खड़ाते से, दुर्दिनों को कोसते हैं
सब लाचारी के मारे हैं!
बहुत जल्दी बन बैठे बेचारे हैं!!
सब लगने लगे थके हारे हैं!!
कोई उनका दामन थाम लो।
कहीं तो इस मंहगाई रानी पर लगाम लगे ।
सब में सुख चैन की आस जगे।
  १६/०२/२०१०.
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
तू अनाप शनाप खर्च न किया कर।
कठिन समय है,कुछ बचत किया कर।
खुदगर्ज़ी छिपाने की मंशा से दान देता है,
बिना वज़ह धन को लुटाने से बचा कर।
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
मत बन बेपरवाह, मितव्ययिता अपना,
अनाप शनाप खर्च से जीवन होता तबाह।
धोखा खाने, पछताने से अपना आप बचा।
देख, कहीं यह जीवन बन न जाए एक सज़ा।।
अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
भूले भटके से
होती है
और
जीवन के बीते दिनों के
भूले बिसरे लम्हों की
आती है याद।

ये भूले बिसरे लम्हे
रचाना चाहते संवाद।
ऐसा होने पर
मैं अक्सर रह जाता मौन ।


आजकल
मैं बना हूं भुलक्कड़
मिलने, याद दिलाने,,..के बावजूद
कुछ ख़ास नहीं रहता याद
नहीं कायम कर पाता संवाद।

हां, कभी-कभी भीतर
एक प्रतिक्रिया होती है,
'हम कभी साथ साथ रहें हैं,
यकीन नहीं होता!
कसमें वादे करने और तोड़ने के जुर्म में
हम शरीक रहे हैं,
दोस्ती में हम शरीफ़ रहे हैं,
यकीन नहीं होता।'

अपने और जमाने की
खुद ग़र्ज हवा के बीच
        यारी  दोस्ती,
गुमशुदा अहसास सी
होकर रह गई है
एकदम संवेदनहीन!
और जड़ विहीन भी।


अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
अख़बार, रेडियो पर बजते नगमों,
टैलीविजन पर टेलीकास्ट हो रहे
इंटरव्यू के रूप में
होती है।
सच यह है कि
दोस्त की उपलब्धि से जलन,
अपनी  नाकामियों से घुटन,
आलोचक वक्त की मीठी मीठी चुभन,सरीखी
तीखी प्रतिक्रियाएं होती हैं भीतर
पर... अपने भीतर व्यापे शातिरपने की बदौलत,
सब संभाल जाता हूं...
खुद को खड़ा रख पाता हूं,बस!
खुद को समझा लेता हूं,

....कि समय पर नहीं चलता किसी का वश!!
यह किसी को देता यश, किसी को अपयश,बस!!

अब
कभी कभार
दोस्त, दोस्ती का उलाहना देते हुए मिलते हैं,
तो उनके सामने नतमस्तक हो जाता हूं
उन को हाथ जोड़कर,
उन से हाथ मिलाया,
और अंत में
नज़रों नज़रों से
फिर से मिलने के वास्ते वायदा करता हूं
भीतर ही भीतर
न मिल सकने का डर
सतत् सिर उठाता है, इस डर को दबा कर
घर वापसी के लिए
भारी मन से क़दम बढ़ाता हूं।
कभी कभी
दोस्तों से मुलाक़ात
किसी दुस्वप्न सरीखी होती है
एकदम समय की तेज तर्रार छुरी से कटने की मानिंद।
९/६/२०१६.
सुख की खोज,
दुःख की खीझ,

सचमुच!

रूप बदल देती।

यह दर्द भी है देती!

यह मृगतृष्णा बनकर
सतत चुभती रहती।

२५/०४/२०२०
आधी दुनिया
भूखी सोती है।
सोचता हूं,
क्या कभी लोग
भूखी नंगी
गुरबत से
जूझ रही दुनिया की
बाबत फ़िक्र करते हैं?

मुझे
थाली में जूठन
छोड़ने वाले अच्छे नहीं लगते।
मुझे
वे लोग
नफरत के लायक़
लगते हैं।
दुनिया खाने का
सलीका
सीख ले,
यही काफ़ी है।
हे अन्न देवता!
कोई जूठन छोड़ कर
आप का अपमान न करें।
यही मेरी हसरत है।
कोई भी खाना बर्बाद  होने न दे,
तो देशभर में बरकत होगी।
यही मानवता के लिए
बेहतर है।
भूखे को अन्न मिल जाए।
उसके प्राण बच जाए,
इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता
क्यों कि
आदमी का जमीर
कभी मर नहीं सकता।
यदि
मूल्य अवमूल्यन के दौर में
आदमी अपने आदर्श ढंग से अपना पाए
तो क्यों न  
सब उसे
सराहना का पात्र मान लें।
जीवन की
शतरंज में मोहरे
रणनैतिक योद्धे हैं;
केवल
ऊँट,घोड़े,हाथी,
सिपाही,
वज़ीर, बेग़म, बादशाह नहीं।
वे यथार्थ में
जीवन धारा को
दिशा देना चाहते हैं,
अपने मालिक की रक्षा करना चाहते हैं ।
इस के लिए
अपना बलिदान भी देते हैं।
यथा सामर्थ्य
अपनी जिंदगी जीते हैं,
एक एक करके जीवन रण से
विदा होते हैं।

कभी कभी मोहरे सोचते हैं,
सोचते भर हैं, कुछ कहते नहीं।
वे तो मोहरे हैं,
उन्हें तो जीवन की बिसात पर
चलाया भर जाता है,
आगे,पीछे,दाएं,बाएं,
इधर उधर ले जाया और
सरकाया जाता है।
वे नियमों में बंध कर
अपनी भूमिका निभाते हैं।
बादशाह को बचाना उनका फ़र्ज़ होता है,
प्यादे से लेकर वज़ीर,बेगम सभी बादशाह को
जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
मोहरे तो बस
अपने प्राण न्योछावर करते हैं।
उनके वश में कुछ नहीं,
मालिक की मर्ज़ी ही उनके लिए सही।
वे मालिक की इच्छा को
अपनी इच्छा मानते हैं
क्योंकि वे केवल मोहरे हैं,
मोह से वे बचते हैं,
मरकर  ही वे मोक्ष पा जाते हैं।
इनका जीवन काल कुछ क्षण का होता है,
जब तक खेल जारी रहता है, वे हैं,वरना डिब्बे में कैद!!

जीवन में खेल खेला,
कुछ पल के लिए उतार चढ़ाव,
झंझट,झमेला, मोहरों ने झेला!
और खेल खत्म के साथ ही रीत गए!
समय यात्रा पूरी कर रीत, बीत गए!
दो खिलाड़ी मनोरंजन के लिए खेले।
कभी जीते,कभी हारे,कभी हार न जीत ।

मोहरे तो बस अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं।
लोग बेवजह शतरंजी चालें चल,
एक दूसरे को निर्वसन करते हैं।

मोहरे इंसानों की तरह
स्वतंत्र सोच नहीं रखते ।
वे तो मोहरे हैं,
वे उसी के हैं,
जिसकी बिसात में वे बिछे हैं।
खिलाड़ी बदला नहीं कि
वे छिछोरे  हो जाते हैं,
वे उसका कहना मानते हैं,
जिसके वे अधीन होते हैं,
एकदम मोह विहीन! निर्मोही!!
  ०९/०५/२०२०.
मौत को मात
अभी तक
कौन दे पाया?

कोई विरला
इससे पंजे लड़ाकर,
अविचल खड़ा रहकर
लौट आता है
जीवन धारा में
कुछ समय बहने के लिए।

बहुत से सिरफिरे
मौत को मात देना चाहकर भी
इसके सम्मुख घुटने टेक देते हैं।
मौत का आगमन
जीवन धारा के संग
बहने के लिए
अपरिहार्य है!
सब जीवों को
यह घटना स्वीकार्य है!!

कोई इसे चुनौती नहीं दे पाया।
सब इसे अपने भीतर बसाकर,
जीवन की डोर थाम कर ,
चल रहे हैं...अंत कथा के समानांतर ,
होने अपनी कर्मभूमि से यकायक छूमंतर।

महाकाल के विशालकाय समन्दर में
सम्पूर्ण समर्पण और स्व विसर्जन के
अनूठे क्षण सृजित कर रहे ,
जीवन से प्रस्थान करने की घटना का चित्र
प्रस्तुत करते हुए एक अनोखी अंतर्कथा।
मान्यता है यह पटकथा तो
जन्म के साथ ही लिखी जाती है।
इस बाबत आपकी समझ क्या कहती है?
तू जिंदगी की राह में
राहत क्यों ढूंढता ‌है?
तुम्हें उतार चढ़ाव से भरी
डगर पर चलना है।
आखिरकार लक्ष्य हासिल कर
मंज़िल तक पहुंचना है।
सकारात्मक सोचना है।
शोषण को भी रोकना है।
सच से नाता जोड़ना है।
निज अस्मिता को खोजना है।
ताकि मिले खोई हुई पहचान,
बना रहे जीवन में आत्मसम्मान।
यह ठीक है कि
राजनीति
होनी चाहिए     लोक नीति ।

पर    लोक    तो   बहिष्कृत  हैं ,
राजनीति के      जंगल    में।

कैसे   जुटे...
आज       राजनीति   लोक मंगल   में  ?

क्या   वह    समाजवाद  के  लक्ष्य  को
अपने   केन्द्र   में  रख    आगे    बढे   ?
.....  या   फिर   वह   पूंजीवाद  से  जुड़े  ?
..... या   फिर  लौटे वह सामंती ढर्रे   पर  ?

आजकल  की   राजनीति
राजघरानों  की  बांदी   नहीं  हो   सकती   ।
न  ही  वह  धर्म-कर्म  की  दासी बन  सकती  ।
हां,  वह जन गण    के   सहयोग  से...
अपनी    स्वाभाविक   परिणति     चुने   ।

क्यों  न   वह ‌ ...
परंपरागत  परिपाटी  पर  न   चलकर
परंपरा    और    आधुनिकता  का  सुमेल  बने ‌?
वह  लोकतंत्र   का   सच्चा   प्रतिनिधित्व  करे  ?

काश  !  राजनीति  राज्यनीति  का  पर्याय  बन उभरे  ।
देश भर  में   लगें  न  कभी  लोक  लुभावन   नारे   ।
नेतृत्व   को  न   करने पड़ें जनता  जनार्दन से  बहाने ।
न  ही  लगें   धरने  ,  न  ही  जलें   घर ,  बाजार  ,  थाने ।

   १०/६/२०१६.
रिश्ते पाकीज़गी के जज़्बात हैं,इनका इस्तेमाल न कर।
पहले दिल से रिश्ता तोड़,फिर ही कोई गुनाह कर ।।
रिश्ते समझो, तो ही,ये जिंदगी में रंग भरते हैं।
ये लफ़्फ़ाज़ी से नहीं बनते,नादान,तू खुद कोआगाह कर।।
दोस्तों ओ दुश्मनों की भीड़ में, खोया न रहे तेरा वजूद ।
जिंदगी में ,इनसे बिछड़ने के लिए,खुद को तैयार कर।।
अपना,अपनों से क्या रिश्ता रहा है,इस जिंदगी में।
इस  पर न सोच,इसे सुलझाने में खुद को तबाह न कर।।
आज तू हमसफ़र के बग़ैर नया आगाज़ करने निकला है।
अकेलापन,तमाम दर्द भूल,आगे बढ़, नुक्ताचीनी ना कर।।
अब यदि किताब ए जिन्दगी के पन्ने भूत बन मंडरा रहे।
तब भी न रुक, ना डर, इन्हें पढ़ने से इंकार ना कर।।
कारवां जिन्दगी का चलता रहेगा,तेरे रोके ये ना रूकेगा।
जोगी तू  भीतर ये यकीं पैदा कर, रिश्ते मरते नहीं मर
कर।।
वो आदमी
नख से शिख तक
रंगीन है।

हर पल
मौज और मस्ती,
नाच और गाने,
हास परिहास,
रास रंग की
सोचता है !

वह
पल प्रति पल
परंपरावादी मानसिकता के
आदमी की संवेदना को
नोचता है!!

उस आदमी का
जुर्म संगीन है।
दोष उसका यही,
वो रंगीन है।

उसे सुधारो,
वरना
लोग देखा देखी
उसके रंग में रंगे जायेंगे!
रंगीन मिज़ाज होते जायेंगे!!
   १७/०७/२०२२
तुम लड़ो
व्यवस्था के ख़िलाफ़
पूरे आक्रोश के साथ।
लड़ने के लिए
कोई मनाही नहीं,
बशर्ते तुम उसे एक बार
तन मन से समझो सही।


यकीनन
फिर कभी
होगी अनावश्यक
तबाही नहीं।


तुम लड़ो
अपनी पूरी शक्ति
संचित कर।

तुम बढ़ो
विजेता बनने के निमित्त।
पर, रखो
तनाव को, अपने से दूर
ताकि हो न कभी
घुटने तकने को मजबूर।
करो खुद को
भीतर से मजबूत।


तुम
अपने भीतर व्याप्त
अज्ञान के अंधेरे से लड़ो।
तुम
शोषितों के पक्ष में खड़े रहो।
तुम
अपने अंतर्मन से
करो सहर्ष साक्षात्कार
ताकि प्राप्त कर सको
अपने मूलभूत अधिकार।

लड़ने, कर्तव्य की खातिर
मर मिटने का लक्ष्य लिए
तुम लड़ो,बुराई से सतत।
तुम बांटो नहीं, जोड़ो।

तुम जन सहयोग से
प्रशस्त करो जीवन पथ।
तुम्हारे हाथ में है
संघर्ष रूपी मशाल।
यह सदैव रोशन रहे।
तुम्हारी लड़ाई
परिवर्तन का आगाज़ करे।

तुम लड़ो, कामरेड!
करो खुद को दृढ़ प्रतिज्ञा से
स्थिर, संतुलित,संचक, सम्पूर्ण
कि...कोई टुच्चा तुम्हें न सके छेड़।
कोई आदर्शों को समझे न खेल भर।
तुम सिद्ध करो,
आन ,बान,शान की खातिर
कुर्बानी दे सकने का
तुम्हारे भीतर जज़्बा है,
संघर्ष का तजुर्बा है।
दिन भर की थकी हुई वह बेचारी ,
जी भर कर सो भी नहीं सकती।
पता नहीं,वह पत्नी है या बांदी?
शायद विवाहिता यह सब नहीं सोचती।
वो अब इतना अच्छा लिखेगा,
कभी सोचा न था।
अब लिख ही लिया है
उसने अच्छा
तो क्यों न उसकी बड़ाई करें!
क्यों क्षुद्रता दिखा कर
उससे शत्रुता मोल लें ?
वो अब इतना अच्छा है कि पूछो मत
हम सब उसके पुरुषार्थ से सौ फ़ीसदी सहमत।
सुनिए,उसका सुनियोजित तौर तरीका और सच ।

अब उसने अपने वजूद को
उनकी झोली में डाल दिया है ।
आतंक भरे दौर में
वे अपने भीतर के डर ,
उसकी जेब में भर
उसे खूब फूला रहें हैं,
उसके अहम के गुब्बारे को
फोड़ने की हद तक ।

पता नहीं!
वो कब फटने वाला है?
वैसे उसके भीतर गुस्सा भर दिया गया है।
वो अब इतना बढ़िया लिखता है,
लगता , सत्ताधीशों पर फब्तियां कसता है।
पता नहीं कब, उसे इंसान से चारा बना दिया जाएगा।
शब्द
हमारे मित्र हैं।
ये हैं सक्षम ,
संवेदना को बेहतर बनाने में।
ये रखते
हरदम हम पर पैनी नज़र,  
मन में उपजे भावों को,
  परिमार्जित करते हुए।
ये क़दम क़दम पर
बनते हमारे रक्षक ,
जोड़ हमें जीवन के धरातल से ।
ये मन में जो कुछ भी चलता है,
उसकी पल पल की ख़बर रखते हैं,
साथ ही हमें प्रखर बनाते हैं।


अब मैं
एक काम की बात
बताना चाहता हूँ।
शब्द यदि जिंदा हैं
तो हम अस्तित्व मान हैं,
ये हमारा स्वाभिमान हैं।
  
जब शब्द रूठ जाते हैं,
हम ठूंठ सरीखे बन जाते हैं।
शब्द ब्रह्म की
यदि हम उपासना करें,
कुछ समय निकाल कर ,
इनकी साधना करें ,
तो  ये अनुभूति के शिखरों का
दर्शन कराते हैं,
हमें सतत परिवर्तित करते जाते हैं।

शब्द
हमें मिली हुईं
प्रकृति प्रदत्त शक्तियां हैं,
जो अभिव्यक्ति की खातिर  
सदैव जीवन धारा को जीवन्त बनाए रखतीं हैं।
आओ,  
आज हम इनकी उपासना करें।
ये देव विग्रहों से कम नहीं,
इनकी साधना से बुद्धि होती प्रखर,
अनुभव,जैसे जैसे मिलते जाते,
वे अंतर्मन में विराजते जाते,
भीतर उजास फैलाते जाते।
अपने शब्दों को  
अपशब्दों में कतई न बदलो।
यदि बदलना ही है,
तो खुद को बदलो ,
हमारी सोच बदल जाएगी,
हमें जीवन लक्ष्य के निकट लेती जाएगी।
आओ, बंधुवर,आओ,
आज
शब्दों में निहित
अर्थों के जादू से
स्वयं को परिचित कराया जाए।
और ज्यादा स्व सम्मोहन में जाने से
खुद को बचाया जाए।
पल प्रति पल
शब्दों की उपासना में
अपना ध्यान लगाया जाए
और जीवन को
उज्ज्वल  बनाया जाए,
अवगुणों को
आदत बनने से रोका जाए
ताकि आसपास
सकारात्मक सोच का विकास हो जाए,
संवेदना जीवन का संबल बन जाए।
शब्द
कुछ कहते हैं सबसे,
हम अनंत काल से
समय सरिता के संग
बह रहे हैं।

कोई
हमें दिल से
पकड़े तो सही,
समझे तो सही।
हम खोल देंगे
उसके सम्मुख
काल चेतना की बही।

कैसे न कर देंगे हम
जीवन में,आमूल चूल कायाकल्प।
भर दें, जीवन घट के भीतर असीम सुख।
२६/१२/२००८.
शुक्र है ...
संवेदना अभी तक बची है,
मौका परस्ती और नूराकुश्ती ने,
अभी नष्ट नहीं होने दिया
देश और इंसान के
मान सम्मान को।
सो शुक्रिया सभी का,
विशेषकर नज़रिया बदलने वालों का।
देश,दुनिया में बदलाव लाने वालों का।।

शुक्रिया
कुदरत तुम्हारा,
जिसने याद तक को भी
प्यासे की प्यास,
प्यारे के प्यार की शिद्दत से भी बेहतर बनाया।
जिससे इंसान जीव जीव का मर्म ग्रहण कर पाया।

शुक्रिया
प्रकृति(स्वभाव)तुम्हारा
जिसने इंसानी फितरत के भीतर उतार,
उतार,चढ़ाव  भरी जीवन सरिता के पार पहुँचाया।
तुम्हारी देन से ही मैं निज अस्मिता को जान पाया।

शुक्रिया
प्रभु तुम्हारा
जिन्होंने प्रभुता की अलख
समस्त जीवों के भीतर, जगाकर
उनमें पवित्र भाव उत्पन्न कर,जीवन दिशा दिखाई ।
तुम्हारे सम्मोहक जादू ने अभावों की, की भरपाई ।
    

शुक्रिया
इंसान तुम्हारा
जिसने भटकन के बावजूद
अपनी उपस्थिति सकारात्मक सोच से जोड़ दर्शाई।
तुम्हारे ज्ञान, विज्ञान, जिज्ञासा, जिजीविषा ने नित नूतन राह दिखाई।

शुक्रिया! शुक्रिया!! शुक्रिया!!!
शुक्रिया कहने की आदत अपनाने वाले का भी शुक्रिया!
जिसने हर किसी को पल प्रति पल आनंदित किया,
सभी में उल्लास भरा ।
हर चाहत को राहत से हरा भरा किया।

७/६/२०१६.
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब
अलग अलग, रंग ढंग ओढ़े
विश्व रचयिता की पूजा अर्चना,
इबादत और वन्दना।

प्यार को हवस,
विश्वास को विश्वासघात
समझे जाने का खतरा
अपने कंधों पर उठाये
चल रहे हैं लोग
तुम्हारे घर की ओर!
तुम्हारे दिल की ओर!!

तू पगले! उन्हें क्यों रोकता है?
अच्छा है, तुम भी उनमें शामिल हो जा ।
अपने उसूलों , सिद्धांतों की
बोझिल गठरी घर में छोड़ कर आ ।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब मौज ।
तुम भी इसकी करो खोज।
न मढ़ो, अपनी नाकामी का किसी पर दोष।
प्यारे समझ  लें,तू बस!
जीवन का सच
कि अब सलीके से जीना ही
सच्ची इबादत है।
इससे उल्ट चलना ही खाना खराबी है,
अच्छी भली ज़िन्दगी की बर्बादी है।
   ९/६/२०१६.
समय कभी कभी
उवाचता है अपनी
गहरी पैठी अनुभव जनित
अनुभूति को
अभिव्यक्ति देता हुआ,
" अगर सभी चेतना प्राप्त
अपने  भीतर गहरे उतर
निज की खूबियों को जान पाएं,
अपनी सीमाएं पहचान जाएं
तो वे सभी एकजुट होकर
व्यवस्था में बदलाव ले आएं।"

"खुद को समझ पाना,
फिर जन जन की समझ बढ़ाना,
कर सकता है समाजोपयोगी परिवर्तन।
अन्यथा बने रहेंगे सब, लकीर के फ़कीर।
जस के तस,जो न होंगे कभी, टस से मस।
जड़ से यथास्थिति के बने शिकार,
नहीं होंगे जो सहजता से, परिवर्तित।"
समय मतवातर कह रहा,
" देखो,समझो, काल का पहिया
उन्हें किस दिशा की ओर बढ़ा रहा।
मनुष्य सतत संघर्षरत रहकर
जीवन में उतार चढ़ाव की लहरों में बहकर
पहुँचता है मंज़िल पर, लक्ष्य सिद्धि को साध कर।"

" युगांतरकारी उथल पुथल के दौर में
परिवर्तन की भोर होने तक,बने रहो शांत
वरना अशांति का दलदल, तुम्हें लीलने को है तैयार।
यदि तुम इस अव्यवस्था में धंसते जाओगे,
तो सदैव अपने भीतर
एक त्रिशंकु व्यथा को
पैर पसारते पाओगे।
फिर कभी नहीं
दुष्चक्रों के मकड़जाल से
निकल पाओगे।
तुम तो बस , खुद को
हताश, निराश,थका, हारा, पाओगे।"
  १४/०५/२०२०.
श्री मान,
सुनिए,
दिल से निकली बात ,
जिसने
मानस पटल पर
छोड़ा अमिट प्रभाव।
  
बहुत सी समस्याओं का समाधान,
लेकर आता जीवन में मान सम्मान।
और
बहुधा
समस्या का हल
सीधा और सरल
होता है।
समस्या को सुलझाने के
प्रयासों की वज़ह से
कभी कभी
हम उलझ जाते हैं,
उलझन में पड़ते जाते हैं।
समाधान
कुछ ऐसा है,
समस्या को
बिल्कुल समस्या न समझें,
बल्कि
समस्या के संग
जीवन जीने का तरीका सीखें।
देखना,समस्या छूमंतर हो जाएगी।
वह कुछ सकारात्मकता उत्पन्न कर
जीवन में बदलाव लाकर
जन जन में उमंग तरंग भर जाएगी।
  ११/०५/२०२०.
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