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समय को किसने देखा ?
समय दिखता नहीं ,
पर इसे किया जा सकता है महसूस।
रेत पर पड़ जाते हैं
पाँवों के निशान
और उन का अनुसरण करते हुए
पहुँचा जा सकता है
एक नतीजे पर ,
एक मंज़िल पर ,
किया जा सकता है एक सफ़र
सिफ़र होने तक।
यह सब समय रेखा तक
पहुँचने की
हो सकती है एक कोशिश ,
जिसमें छिप जाए
कभी कभी  
समय को जानने पहचानने की कशिश।

हर आदमी ,देश,दुनिया, समाज, घटना,दुर्घटना,
और बहुत कुछ
जुड़ी हुई है
समय रेखा से।
इसे देश धर्म के विकास और पतन के केन्द्र में
किया जा सकता है
विवेचित और व्याख्यायित।
समय चेतना , समायोचित क़दम बढ़ाना है।
और समयरेखा निर्मित करना समय को
समझने बुझने का एक सुंदर पैमाना है।
०७/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखियों को तोड़।
याद कर
उस ऐतिहासिक क्षण को,
जब धर्म बचाने को ,
निर्बल को सबल बनाने को,
दिया था
दशमेश पिता ने ,
इतिहास को
नया मोड़ ।

समय रहा है बदल
तू उसके साथ चल,
न्यूटन जीवन मूल्य अपनाकर,
आज आडंबर छोड़।

वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखियों को छोड़ ।


किसी सरकार से,
न रख कोई अपेक्षा,
अपने पैरों पर
खड़ा होना सीख ।

तू धरा पुत्र है,
अन्नदाता है।
तू क्यों मांगे भीख?


वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखी छोड़।


आज निराशा छोड़कर
जिसके भीतर
कर्मठता भरकर
जीवन को दे
नया मोड़।



वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखी छोड़, और
समय से कर ले होड़।

१०/०४/२००८.
तुम कभी
बहुत ताकतवर रहे होंगें कभी ,
समय आगे बढ़ा ,
तुम ने भी तरक्की की होगी कभी ,
जैसे जैसे उम्र बढ़ी ,
वैसे वैसे शक्ति का क्षय ,
सामर्थ्य का अपव्यय
महसूस हुआ हो कभी !
बरबस आंखों में से
झरने सा बन कर
अश्रु टप टप टपकने
लगने लगे हों कभी।
अपनी सहृदयता ही
कभी लगने  लगी हो
अपनी कमज़ोरी और कमी।
इसके विपरीत
धुर विरोधियों ने
कमीना कह कर
सतत् चिढ़ाया हो
और भावावेश में आकर
भीतर बाहर
यकायक
गुस्सा आन समाया हो।
इस बेबसी ने
समर्थवान को आन रुलाया हो।

समर्थ के आंसू
पत्थर को
पिघलाने का
सामर्थ्य रखते हैं ,
पर जनता के बीच होने के
बावजूद
ये आंसू
समर्थ को सतत्
असुरक्षित करते रहते हैं ,
सत्तासीन सर्वशक्तिमान होने पर भी
निष्ठुर बने रहते हैं।
वे स्वयं असुरक्षित होने का बहाना
बना लेते हैं ,
वे बस जाने अनजाने
अपना उपहास उड़वा लेते हैं ,
मगर उन पर
अक्सर
कोई हंसता नहीं ,
उन्हें
अपने किरदार की
अच्छे से
समझ है कि
यदि कोई  
स्वभावतया भी हंस पड़ता है
तो झट से धड़
अलग हुआ नहीं ,
सब वधिक को ,
उसके आका को
ठहरायेंगे सही।
समर्थ को सतत् सक्रिय रहकर
आगे बढ़ना पड़ता है ,
क़दम क़दम पर
जीवन के विरोधाभासों से
निरंतर लड़ना पड़ता है।
समर्थ के आंसू
कभी बेबसी का
समर्थन नहीं करते हैं।
ये तो सहजता से
बरबस निकल पड़ते हैं।
हां,ये जरूर
मन के भीतर पड़े
गर्दोगुब्बार को धोकर
एक हद तक शांत करते हैं।
वरना समर्थ जीवन पर्यन्त
समर्थ न बना रहे।
वह अपने अंतर्विरोधों का
स्वयं ही शिकार हो जाए।
आप ही बताइए कि
वह कहां जाए ?
वह कहां ठौर ठिकाना पाए ?
०१/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
श्री मान,
सुनिए,
दिल से निकली बात ,
जिसने
मानस पटल पर
छोड़ा अमिट प्रभाव।
  
बहुत सी समस्याओं का समाधान,
लेकर आता जीवन में मान सम्मान।
और
बहुधा
समस्या का हल
सीधा और सरल
होता है।
समस्या को सुलझाने के
प्रयासों की वज़ह से
कभी कभी
हम उलझ जाते हैं,
उलझन में पड़ते जाते हैं।
समाधान
कुछ ऐसा है,
समस्या को
बिल्कुल समस्या न समझें,
बल्कि
समस्या के संग
जीवन जीने का तरीका सीखें।
देखना,समस्या छूमंतर हो जाएगी।
वह कुछ सकारात्मकता उत्पन्न कर
जीवन में बदलाव लाकर
जन जन में उमंग तरंग भर जाएगी।
  ११/०५/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
आज  भी ,
कल  भी  ,  और  आगे भी
समाज  में  आग  लगी  रहेगी  न  !
हमारे  यहां  के  समय   में
समाजवाद  का  हो   चुका  है   आगमन  !
दमन  ,  वमन  ,  रमन  , चमन , गबन  और  गमन
आदि  सब  अपने  अपने  काम  धंधों  में  मग्न !
यदि   कोई  निठल्ला बैठा  है  तो  वह  है...
परिवेश  का  कोलाज ,
जो  समाज  और  समाजवादी  रंग  रूप
पर  रह  रह  कर
कहना  चाहता  है   अपवाद   स्वरूप  
कुछ मन के उद्गार!
आप के सम्मुख
रखना चाहता है मन की बात।
सुनिए   इस   बाबत  
आसपास   से   उठनेवाली  कुछ  ध्वनियां  !!

' निजता ' ,
' इज़्ज़त '  गईं   अब   तेल   लेने  !
ये  तो  बड़े  लोगों  की
बांदियां  हैं
और
छोटे-छोटे   लोगों   के   लिए
बर्बादियां  हैं   !!

अब   कहीं   भी   और   कभी   भी
निजता  बचनी   नहीं   चाहिए  ।
कहीं  कोई  इज़्ज़त   करनी  और   इज़्ज़त ‌  करवाने  की
परिपाटी   व  परम्परा   नहीं   होनी   चाहिए  ।


हर   घर   में   रोटी   पानी   चाहिए  ।
ज़िंदगी   में  अमन  चैन   बची  रहनी   चाहिए  ।
जीवन   अपनी   रफ्तार   और   शर्तों  से  
आगे   बढ़ना   चाहिए  ।
जी  भरकर  मनमर्ज़ियां  और  मनमानियां  की  
जानी   चाहिएं  ।
ज़िंदगी   खुलकर  जीनी   चाहिए  ।

अब   समाजवाद   आ   ही  जाएगा  ।
हर  कोई  समाजवादी  बन  ही  जाएगा  ।
जीवन   से  अज्ञानता  का  अंधेरा   छंट  ही  जाएगा  ।

कहीं  गहरे  से  एक  आगाह  करती
अंतर्ध्वनि  सुन  पड़ती  है ...,
'  वह  तो  आया  हुआ  है  जी  ! '
अब   उसे   मैं    क्या   कहूं    ?
रोऊं  या  हंसते हंसते रो पडूं ?

१६/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कोई चीख
रात के अंधेरे में से
उभरी है
और
अज्ञान का अंधेरा
इसे कर गया है जज़्ब।

कोई , एक ओर चीख
अंतर्मन के बियाबान में से
उभरी है
और व्यस्त सभ्यता
इसे कर गई है नजरअंदाज।

कोई , और ज़्यादा चीखें
धरा के साम्राज्य में से
रह रह कर उभर रहीं हैं
और अस्त व्यस्त
दार्शनिकता ने
इन चीखों को
दे दिया है
इनकी पहचान के निमित्त
एक नाम "समानांतर चीखें" ।

क्या ये आप तक
तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद
आप के पास गुहार लगा रहीं हैं ?
श्रीमंत !
अपनी सामंतवादी सोच को विराम दो ।
उनके लिए कुछ सार्थक काम करो
ताकि कहीं तो
आज की आपाधापी के बीच
अशांत मनों को
सुख चैन और सुकून के अहसास मिलें ।
ये चीखें
हमारे अपनों की
कातर पुकार हो सकती हैं ।
कोई तो इन्हें सुने ।
इनके भीतर आशा और आत्मविश्वास जगे ।
१७/०७/१९९६ .
Joginder Singh Dec 2024
तन समर्पण,
मन समर्पण,
धन समर्पण,
सर्वस्व समर्पण,
वह भी  
अहंकार को
पालित पोषित करने के निमित्त
फिर कैसे रहेगा शांत चित्त ?
आप करेंगे क्या कभी
अंधाधुंध अंध श्रद्धा को
समर्पित होने का समर्थन ?
समर्पण
होना ‌चाहिए , वह भी
जीवन में गुणवत्ता बढ़ाने के निमित्त।
जिससे सधे
सभी के पुरुषार्थी बनने से
जुड़े सर्वस्व
समर्पण के हित।

अहम् को समर्पण
अहंकार बढ़ाता है ,
क्यों नहीं मानस अपने को
पूर्ण रूपेण जीवन की गरिमा के लिए
समर्पित कर पाता है ?
वह अपने को बिखराव की राह पर
क्यों ले जाना चाहता है ?
वह अपने स्व पर नियंत्रण
क्यों नहीं रख पाता है ?
आजकल  ऐसे यक्ष प्रश्नों से
आज का आदमी
क्यों  जूझना नहीं चाहता है ?
वह स्वार्थ से ऊपर उठकर
क्यों नहीं आत्मविकास के
पथ को अपनाता है ?
१४/१२/२०२४.
सहसा
जब कोई अचानक
भीतर ही भीतर
कसमसाकर
पल पल टूटता जाए ,
जीवन से रूठता जाए ,
साहस कहीं पीछे छूटता जाए ,
तब आप ही बताइए
आदमी क्या करे ?
क्या वह जीवन में स्वयं को
आगे बढ़ने से रोक ले ?
क्यों न वह निज में बदलाव करे ?
और वह अपनी समस्त ऊर्जा को
लक्ष्य सिद्धि की खातिर
कर्मठ बनने में खपा दे ,
जब तक वह निज को न थका दे ।
जीवन में साहसी बनकर
सुख समृद्धि की ओर बढ़ा जा सकता है ,
जीवन पथ की दुश्वारियों से लड़ा जा सकता है ,
सहसा साहस भीतर भर कर डटा जा सकता है।
जीवन पथ पर संकट के बादल मंडराते रहते हैं।
साहस और सहजता से उनका सामना किया जाता है , संघर्ष के दौर में टिके रह कर विजेता बना जा सकता है।
३०/०१/२०२५.
यह सहानुभूति ही है
जिसने मानवीय संवेदना को
जीवंतता भरपूर रखा है,
रिश्तों को पाक साफ़ रखा है।
वरना आदमी
कभी कभी
वासना का कीड़ा बनकर
लोक लाज त्याग देता है ,
बेवफ़ाई के झूले में
झूलने और झूमने लगता है।

प्रेम विवाह के बावजूद
आजकल बहुधा
पति पत्नी के बीच
तीसरा आदमी निजता को
खंडित कर देता है ,
फलस्वरूप
तलाक़ हलाक़
करने का खेल
चुपके चुपके से
खेलता है,
कांच का नाज़ुक दिल
दरक जाता है।
दुनियादारी से भरोसा उठ जाता है।
इसका दर्द आँखें छलकने से
बाहर आता है।
इस समय आदमी
फीकी मुस्कराहट के साथ
अपने भीतर की कड़वाहट को
एक कराहट के साथ झेल लेता है।
अभी अभी
अख़बार में झकझोर देने वाली खबर पढ़ी है।
तलाकशुदा पत्नी को
जब पहले पति की लाइलाज बीमारी की
बाबत विदित हुआ
तो उसने गुज़ारा भत्ता लेने से
इंकार कर दिया।
यह सहानुभूति ही है
जिसने रिश्ते को
अनूठे रंग ढंग से याद किया ।
अपने रिश्ते की पाकीज़गी की खातिर त्याग किया।
सहानुभूति और संवेदना से
भरा यह रिश्ता
अंधेरे में एक जुगनू सा
टिमटिमाता रहना चाहिए।
वासना की खातिर
जीवनसाथी को छोड़ा नहीं जाना चाहिए।
परस्पर सहानुभूति रखने वालों को
यह सच समझ आना चाहिए।
छोटी मोटी भटकनों को
यदि हो सके तो नजरअंदाज करना चाहिए।
मन ही मन अपनी ग़लती को सुधारने का प्रयास किया जाना चाहिए।
वरना जीवन और घर ताश के पत्तों से निर्मित आशियाने की तरह
थोड़ी सी हवा चलने ,ठेस लगने से बिखर जाता है।
आदमी और उसकी हमसफ़र कभी संभल नहीं पाते हैं।
जीवन यात्रा से सुख और सुकून लापता हो जाता है।
अच्छा है कि हम अपने संबंधों और रिश्तों में सहानुभूति को स्थान दें ,
ताकि समय रहते टूटने से बच सकें
और जीवन में सच की खोज कर सकें।
०६/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
तुम
आनन फानन में
लोक के हितार्थ
फैसला सुनना
चाहते हो ।
भला यह
मुमकिन है क्या ?
याद रखो यह तथ्य
बेशक जीवन में व्याप्त है सत्य ,
परन्तु कथ्य की निर्मिति में
लग सकता है कुछ अधिक समय ।
फिर यह तो जग ज़ाहिर है
कि चिंतन मनन में समय लगना
बिल्कुल स्वाभाविक है।

तुम
संवेदनशील मुद्दों को
फ़िलहाल दबा ही रहने दो।
जनता जनार्दन को
कुछ और संघर्षशील बन जाने दो।

जब उपयुक्त समय आएगा ,
दबे- कुचले, वंचितों - शोषितों, पीड़ितों के हक़ में
फैसला भी आ ही जाएगा।
जो न्याय व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया में
जनता जनार्दन के विश्वास को ,
उत्तरोत्तर दृढ़ करता जाएगा।

बंधुवर !
सही समय आने पर ,
अनुकुलता का अहसास हो जाने पर ,
जन जन के सपनों को , पर लग जाने पर ,
सभी अपनी -अपनी उड़ान भरेंगे !
सभी अपने-अपने सपने साकार करेंगे !!
सभी अपने भीतर अदम्य साहस व ऊर्जा भरेंगे !!!

१२/१२/२०२४.
स्कूल, कॉलेज , यूनिवर्सिटी में
दाखिला लेने के लिए
कभी कभी अभ्यर्थी को देना पड़ता है
साक्षात्कार।
यही हाल  होता है
नौकरी ढूंढते ,
बिजनेस डील करते समय ,
आजकल
साक्षात्कार
बेहद ज़रूरी हो गया है।
आज अभी अभी
हम गुड़िया के अम्मी अब्बा
उसकी वैवाहिक जीवन का
आगाज़ करवाने के गर्ज से
देकर आए हैं साक्षात्कार
लड़के के अम्मी अब्बा के सम्मुख।
देखें क्या नतीजा निकलता है !
अभी अभी हमारा हुआ है इंटरव्यू !
फिर  लड़के वाले आयेंगे !
तत्पश्चात लड़का और लड़की
परस्पर साक्षात्कार की प्रक्रिया से गुज़र कर
एक निष्कर्ष तक पहुंचेंगे।
आज साक्षात्कार जीवन में
हरेक को क़दम क़दम पर देना पड़ता है ,
तभी जीवन चक्र आगे बढ़ पाता है।
देखिए जिन्दगी में समय क्या क्या गुल खिलाता है !
वह किस किस की झोली में क्या कुछ भरेगा  ,
यह कोई भी नहीं जानता ,
साक्षात्कार कर्ता तक नहीं !
इंटरव्यू में कभी कभी कुछ भी सही नहीं होता।
आदमी सोचता है कि काश ! थोड़ी तैयारी और कर लेता।
तब शायद चित्त भी मेरा और पट भी मेरा होता।
२७/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
बेशक
तुमने जीवन पर्यन्त की है
सदैव नेक कमाई
पर
आज आरोपों की
हो रही तुझ पर बारिश
है नहीं तेरे पास,

कोई सिफारिश
खुद को पाक साफ़
सिद्ध किए जाने की ।
फल
यह निकला
तुम्हें मिला अदालत में आने
अपना बयान दर्ज़ करने के लिए
स्वयं का पक्ष रखने निमित्त
फ़रमान।
अब श्री मान
कटघरे में
पहुँच चुकी है साख।
यहाँ निज के पूर्वाग्रह को
ताक पर रख कर कहो सच ।
निज के उन्माद को थाम,
रखो अपना पक्ष, रह कर निष्पक्ष।
यहाँ
झूठ बोलने के मायने हैं
अदालत की अवमानना
और इन्साफ के आईने से
मतवातर मुँह चुराना,
स्वयं को भटकाना।
मित्र! सच कह ही दो
ताकि/ घर परिवार की/अस्मिता पर
लगे ना कोई दाग़।
आज
कटघरे में
है साख।
न्याय मंदिर की
इस चौखट से
तो कतई न भाग!
भगोड़े को बेआरामी ही मिलती है।
भागते भागते गर्दनें
स्वत: कट जाया करती हैं ,
कटे हुए मुंड
दहशत फैलाने के निमित्त
इस स्वप्निल दुनिया में
अट्टहास किया करते हैं।
आतंक को
चुपचाप
नैनों और मनों में भर दिया करते हैं।
Joginder Singh Dec 2024
साथी
चाहता जब सुख
और
बिना हेर फेर
कर देता
अपनी चाहत का
इज़हार।

तब
एक  सकपकाहट
स्वत: भीतर आ जाती,
तोड़ देती
कभी-कभी
आत्मविश्वास तक !
आदमी सोचने लगता तब ,
अंदर भरे हैं ढ़ेरों दुःख ,
रह जाता वह तब चुप।

भीतर
एक डर
बना रहता है,
कहीं साथी
इसे कुछ और न मान लें !
काश ! वह मेरी मनोदशा जान ले !!
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में
कुछ भी बेकार नहीं होता ,
यहां तक कि
कवायद या कोई शिकवा शिक़ायत भी नहीं ,
आखिर हम इस सब के पीछे की
कहानी को समझें तो सही ।

कभी किसी की
शिकायत करें तो सही ,
कैसे नहीं अक्ल ठिकाने लगा दी जाती?
ज़िंदगी की पेचीदगियों की समझ,
समझ में समा जाती !
यह शिकायत,
शिकायत के निपटारे की
कवायद ही है ,
जो जीवन में
आदमी को
निरंतर समझदार
बना रही है,
सोये हुए को
जगा रही है।

जीवन में हर पल की
क्रिया प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
होने वाली कवायदें
जीवन में सार्थकता का
संस्पर्श करा रही हैं।
ये जीवन धारा में
बदलाव की वज़ह
बनती जा रही हैं।
१९/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
सांझ का आगमन
मन के आकाश में हो गया है।
कुछ देर बाद
रात भी आ जाएगी।
जिंदगी आराम करने के लिए सो जाएगी।
जब कभी भी
शाम होती देखता हूं
तो मुझे जिंदगी की शाम
नज़दीक खड़ी होने का होता है अहसास।

पल दो पल के लिए
मैं सिर्फ पछता और छटपटा जाता हूं।

रात होने से पहले
संध्या
दिन के अंत का संकेत देती सी
जब यह उतरती है
दिन की छाती पर ,
तब दिल में
कुछ पीछे छूटने का
होता है अहसास ।
एक हल्का सा दर्द
दिल में उठता है।

मुझे संध्या के झुटपुटे में
अपनी कब्र
दिख पड़ती है,
एक कसक भीतर से उठती है।
अपनी ही सिसकारी की
भीतर से प्रतिध्वनि
सुन पड़ती है।
जो न केवल मेरे भीतर डर भरती है ,
बल्कि यह
अंत की आहट देती सी लगती है ।
  १०/०३/२०११.
Joginder Singh Dec 2024
'शब्द जाल '
बहुत बार
साहित्य के समंदर में
तुमने फैंके हैं , मछुआरे !

कभी कविता के रूप में ,
तो कभी कथा के रंग में ,
निज की कुंठाओं को ढाल ।

अब तू न ही बुन
कोई मिथ्या शब्द जाल ,
इससे नहीं होगा कमाल
बल्कि तू जितना डर कर भागेगा ,
उतना ही अंतर्घट का वासी
तुम्हारा दोस्त तुम्हें डांटेगा ।

अब
अच्छा रहेगा
तुम स्वयं से
संवाद स्थापित करो ।
यह नहीं कि हर पल
उल्टा सीधा , आड़ी तिरछी
लकीरों वाला
कोई शब्द चित्र
जनता जनार्दन के
सम्मुख प्रस्तुत करो ।

तुम समझ लो कि
जन अब इतना बुद्धू भी नहीं रहा कि
तुम्हारे ख्याली पुलावों को
न समझता हो ,
और वह न ही  
शब्दजाल के झांसे में
आनेवाली
कोई मछ्ली है।'
ऐसा मुझसे चेतना ने कहा
और यह सुनकर
मैं चुप की नींद सो गया।
अपने को जागृत
रखने की दुविधा से ,
लड़ने की कोशिश में ,
मैं एक कछुआ सरीखा होकर
निज के खोल में सिमट कर रह गया था।
निज को सुरक्षित महसूस करना चाहता था।

मैं समय धारा के संग बह गया था।
बहुत कुछ अनकहा सह गया था।

  १४/१०/२००७.
Joginder Singh Nov 2024
आजकल
सियासत
दूसरे के कंधे पर
बंदूक रखकर
चलाना है।
इसे अब
तथाकथित
आज़ादी के
उपासकों ने
बना लिया
एक बहाना है।

ऐसी
सियासत का
बोझ सब को
उठाना पड़
रहा है,
आदमी
व्यर्थ ही
इससे डर
रहा है।
२१/०५/२०२०.
कल अख़बार में
एक सड़क दुर्घटना में
मारे गए तीन कार सवार युवकों की
दुखद मौत की बाबत पढ़ा।
लिखा था कि
दुर्घटना के समय
बैलून खुल नहीं पाए थे,
बैलून खुलते तो उन युवाओं के असमय
काल कवलित होने से बचने की संभावना थी।
इसके बाद
एक न्यूज बॉक्स में
ऑटो एक्सपर्ट की राय छपी थी कि
सीट बैल्ट बांधने पर ही
बैलून खुलते हैं , अन्यथा नहीं।
मेरे जेहन में
एक सवाल कौंधा था ,
आखिर सीट बैल्ट बांधने में
कितना समय लगता है ?
चाहिए यह कि
कार की अगली सीटों पर बैठे सवार
न केवल सीट बैल्ट लगाएं
बल्कि पिछली सीट पर
सुशोभित महानुभाव भी
सीट बैल्ट को सेफ़्टी बैल्ट मानकर
सीट बैल्ट को बांधने में
कोई कोताही न करें ।
सब सुरक्षित यात्रा का करें सम्मान ,
ताकि कोई गवाएं नहीं कभी जान माल।
सब समझें जीवन का सच
दुर्घटनाग्रस्त हुए नहीं कि
हो जाएंगे हौंसले पस्त !
साथ ही सपने भी ध्वस्त !!

अतः यह बात पल्ले बांध लो
कि किसी वाहन पर सवार  होते ही
सीट  बैल्ट और अन्य सुरक्षा उपकरणों को पहन लो।
आप भी सुरक्षित रहो ,
साथ ही जनधन भी बचा रहे।
ज़िन्दगी का सफ़र भी आगे बढ़ता रहे।
आकस्मिक दुर्घटना का दंश भी न सहना पड़े।
०२/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अक्सर गलती करने पर
नींद ढंग से आती नहीं,
तुम ही बताओ,
सोने की खातिर
किस विध दूँ ,
निज को थपकी ।
बेचैनी को भूलभाल कर
सो सकूँ निश्चिंत होकर
और रख सकूँ  क़ायम
जिजीविषा को।
दूँढ सकूँ
अपना खोया हुआ
सुकून।  

०४/०८/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी में
तना तनी,
छीन लेती
सुख की नागमणि!
२५/०४/२०२०
बिगड़ैल का सुधरना
किसी सुख के मिलने जैसा है ,
किसी का बिगड़ना
विपदा के आगमन जैसा है।
इस बाबत
आप की सोच क्या है ?
बिगड़े हुए को सुधारना
कभी होता नहीं आसान।
वे अपने व्यवहार में
समय आने पर
करते हैं बदलाव।
इसके साथ साथ
वे रखते हैं आस ,
उनकी सुनवाई होती रहे।
वे सुधर बेशक गए ,
इसे भी अहसान माना जाए।
उनका कहना माना जाए।
वरना वे बिगड़ैल उत्पात मचाने
फिर से आते रहेंगे।

कुछ मानस
बिगड़े बच्चों को
लठ्ठ से सुधारना चाहते हैं,
आजकल यह संभव नहीं।
आज भी उनकी सोच है कि डर
अब भी उन सब पर कायम रहना चाहिए।
ऐसी दृष्टि रखने वालों को आराम दे देना चाहिए।
बिगड़ैल को पहले प्यार मनुहार से
सुधरने का मौका देना चाहिए।
फिर भी न मानें वे,
तो उन्हें अपने माता पिता से
मिला प्रसाद दे ही देना चाहिए।
कठोर दंड या तो सुधार देता है
अथवा बदमाश बना देता है।
उन्हें कभी कभी ढीठ बना देता है।
कई बार सुधार के चक्कर में
आदमी खुद को बिगाड़ लेता है।
हरेक ऐसे सुधारवादी पर हंसता है,
चुपके चुपके चुटकियां भरता है,
और कभी कभी अचानक फब्तियां भी कसता है।
किसी किसी समय आदमी को
उसकी सुधारने की जिद्द महंगी पड़ जाती है,
सारी अकड़ धरी धराई रह जाती है,
छिछालेदारी अलग से हो जाती है।
आप बताइए,
ऐसे मानस की इज्ज़त
कहां तक बची रह पाती है ?
०२/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सुनो उपभोक्ता!
बाजार का सच ।
आज
बाजार की गिद्ध नज़र
तुम्हारी जेब पर है।


हे उपभोक्ता जी,
अपनी जेब संभालो ,
उसमें बची खुची रेज़गारी भी डालो ।
भले ही
रेज़गारी को
आप नजरअंदाज करें,
इसे महत्व  न दें, लेकिन ना भूलें,
बूंद बूंद से घट भर जाता है,
व्यापारी भान जोड़कर ही  
धन कमाने का हुनर जान पाता है,
जब कि बहुत बार उपभोक्ता
अठन्नी जैसी रेज़गारी छोड़ देता है।
दिन भर की बीस अठन्नियां जुड़े,
तो दस रुपए की कीमत रखतीं हैं।
मत भूलो,
कभी-कभी खोटा सिक्का भी खुद को
कारगर साबित कर जाता है।  
कंगाली में नैया पार लगा देता है,
इज़्ज़त भी बचा देता है।

सुनो उपभोक्ता!
तुम उपभोग्य सामग्री तो कतई न बनना।
तुम उपभोगवादी सभ्यता में
जन्मे, पले-बढ़े,चमके हो,
उपभोग संयम से करो।
बाजार को
अपनी ताकत का अहसास करा दो।
उसे अपने चौकन्नेपन से चौंका दो ।

व्यापारी भ्रष्टाचार के पंख
आपसी मिली-भगत से फैला न पाएं ,
तुम्हारी जागरूकता है ,इस समस्या का सटीक उपाय।
बाजार का गणित
यानि अर्थशास्त्र
मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलता है।
इन दोनों में रहे संतुलन तो बाजार फलता-फूलता है।
ध्यान रहे,मांग और पूर्ति का संतुलन
उपभोक्ता के चित्त पर निर्भर करता है।
तुम्हारा चित्त डोला नहीं
कि बाजार तुम पर हावी हुआ।
बाजार में चोरी  , मक्कारी,
मंहगाई ,लूट खसोट,
हेराफेरी का दुष्चक्र शुरू हुआ।
भाई मेरे,
किसी के मकड़जाल
और उसके चालाकी से
निर्मित घेरे में न फंसना।
तुम फंसे नहीं कि
बाजार बहुत बड़ा खेल, खेल देगा।
इसे आजकल खेला (वस्तुत: झमेला)
कह  दिया जाता है।
ऐसे में
सुख ,सुरक्षा का भरोसा
छिन्न भिन्न होता है।
उपभोक्ता ठगा सा महसूस करता है,
और थक हार कर,सिर पकड़ कर बैठ जाता है,
उसका माथा ठनकता है,
वह हतप्रभ हुआ,हताश, निराश हुआ
स्वयं को अकेला करता जाता है।

कुछ ऐसा ही
खेला शेयरों में, सट्टेबाजी में भी है ,
जिस में
अनाड़ी से लेकर खिलाड़ी तक
भरे पड़े हैं।
कल तक
जो हवा में उड़ रहे थे,
वे आज औंधे मुंह गिरे हुए पत्ते जैसा महसूस कर रहे हैं।
सुनो उपभोक्ता!
इस दुनिया के बाजार में
सब गोलमाल है।
यहां सतर्क रहना जरूरी है।
अन्यथा मन में
अंतर्कलह होने से
आदमी अन्यमनस्क हो जाता है।
वह खुद को रुका हुआ
और रूठा हुआ पाता है ।
उसे कहीं ठौर नहीं मिलता है,
वह भीतर तक
इस हद तक
हिल जाता है,
जैसे किसी ने उसे दिया हो
अचानक , अप्रत्याशित  घटनाक्रम बनकर
झकझोर और झिंझोड़,
ऐसे में
धरी की धरी रह जाती मरोड़।
सुनो उपभोक्ता, मेरी बात गौर से सुनो,
इस पर अमल भी करो
ताकि ठगे न जाओ।

बाजार से सामान लेने के बाद
सुरक्षित घर पहुंच पाओ।

डिजिटल खरीददारी भी
सोच समझकर करो ,
अपने भेद अपने भीतर रखो,
निडर,सतर्क रहना तुम्हारा दायित्व है,
कोई क्या करे, मामला वित्त और चित्त का है।१२/०८/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
अब और नहीं
यह दुनिया
मजहबों , धर्मों के बलबूते
बांटो ।

पागलपन को रोको !
भले ही
पागलपन को ,
पागलपन से काटो ।

अब और नहीं
खुद को
मुखौटों में
बांटो।

अब और नहीं
कोई साज़िश
रचो।
कम अज कम
अपनी खुशियों को
वरो।
अब और अधिक
अत्याचार ,
अनाचार
करने से
डरो।

ओ ' तानाशाह!
तुम्हारे पागलपन ने
आज
दुनिया कर दी
तबाह।
१७/०१/२०१७.
आजकल
असुरक्षा के दौर में ,
आगे बढ़ने की होड़ में ,
जीवन में
सुरक्षा से जुड़े
मानकों का
रखा जाना चाहिए  ध्यान ,
ताकि सब सुरक्षित रहें !
कोई भी
असमय मौत का
न बने
कभी शिकार !
सुरक्षित जीवन
सभी का है अधिकार।
पशु  ,पंछी , वनस्पति और मनुष्य ,
सभी के मध्य
समन्वय और तालमेल बने।
इसकी खातिर
मनुष्यों को चाहिए
कि आज से
सब प्रयास करें।
सभी के
इर्द गिर्द ,भीतर और बाहर  
सुरक्षा का बोध जगे ,
इस बाबत सब जागरूक बनें।
सभी सुरक्षित जीवनचर्या को
सतत् अपनाने की ओर बढ़ें ,
ताकि
सुरक्षा की छतरी
सभी पर
तानी जा सके ,
असमय काल कवलित होने से
जीवों को
बचाया जा सके।

आज
सुरक्षित जीवन के हितार्थ
सभी को
न केवल जागरूक होना होगा
बल्कि
साथ साथ
जीवनपथ को
निष्कंटक बनाना होगा ,
तभी यह जीवन और धरा
बची रह पाएगी।
वरना धरा पर
विनाश लीला होती रहेगी ,
प्रकृति भी व्यथित होती रहेगी।
१३/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सर्वस्व का वर्चस्व
स्थापित करने के निमित्त
हम करेंगे
अपनी तमाम धन संपदा, शक्ति को संचित कर
और यथाशक्ति अपना समय
और अपनी सामर्थ्य भर शक्ति को देकर
करते रहेंगे जन जन से सहयोग।
ताकि
शोषितों, वंचितों के
जीवन को
अपरिहार्य और अनिवार्य सुधारों से
जोड़ा जा सके,
उनके जीवन में बदलाव
लाया जा सके।
उनका जीवन स्तर
सुधारा जा सके।

यदि शोषितों, वंचितों के
जीवन में सुखद परिवर्तन आएगा,
तभी देश आगे बढ़ेगा।
किसी हद तक
शोषण और दमन चक्र रुकेगा।

ऐसा होने से
जन जन में सुरक्षा व सुख का
अहसास जगेगा।

देश और समाज भी
समानता, सहिष्णुता के क्षितिज छूएगा।
और यही नहीं,
देश व समाज में
सुख, समृद्धि, संपन्नता का आगमन होगा।

लग सकेगी रोक
वर्तमान में अपने पैर पसारे
तमाम विद्रूपताओं,  क्षुद्रताओं से
जन्मीं बुराइयों और अक्षमताओं पर।

और साथ ही
स्व और पर को
जीवन के उतार चढ़ावों के बीच
रखा जा सकेगा
अस्तित्वमान।
उनमें नित्य नूतन ऊर्जा पोषित कर
उत्साह, आह्लाद, जिजीविषा जैसे
भावों के दरिया का
कराया जा सकेगा
आगमन।
जीवन से
रचाया जा सकेगा
संवाद
तमाम वाद विवाद
मिटाकर।

देश भर में
व्यापी
परंपरावादी सामाजिक व्यवस्था को
समसामयिकता, आधुनिकता
और समग्रता से
जा सकेगा
जोड़ा।

आओ आज हम यह शपथ लें कि
सर्वस्व का वर्चस्व स्थापित करने हेतु
हम निर्मित करेंगे
जन जन को जोड़ने में सक्षम  
आस्था, विश्वास, सद्भावना, सांत्वना,
प्राच्यविद्या और आधुनिक शिक्षा से प्रेरित
अविस्मरणीय,
अद्भुत, अनोखा,
सेतु।
.......और इस सेतु पर से
दो विपरीत विचार धाराएं भी
बेरोक टोक आ जा सकें।

उन्हें सांझे मंच पर लाकर
पारस्परिक समन्वय व सामंजस्य
स्थापित करने में
महत्वपूर्ण योगदान
यह नवनिर्मित सेतु कर पाएगा।
ऐसे भरोसे के साथ
सभी को आगे बढ़ना होगा
तभी देश दुनिया को आदर्श बनाया जा सकेगा।
अपनी संततियों को
इस नव निर्मित सेतु से
विकास पथ की ओर
ले जाया जा सकेगा।
सर्वस्व के वर्चस्व हेतु
इस सेतु को निर्मित करना ज़रूरी है,
ताकि नई और पुरानी पीढ़ियों में
जागरूकता फैलाई जा सके।
२५/११/२०२५.
लोग सेवानिवृति के
मौके पर
खुशियां मनाते हैं ,
वे पार्टियां देते हैं ,
महफ़िल सजाते हैं।
यह सब बेकार है।
आदमी इस मौके पर
कुछ सार्थक करने की बाबत सोचे।
व्यर्थ ही सोच सोच कर खुद को न नोचे।
अभी कुछ समय पहले
मुझे मिला है
एक दुखद समाचार कि
मेरा एक कॉलेज के दौर का मित्र
सेवानिवृत्ति के कुछेक दिन बाद
गंवा बैठा सेवानिवृत्त
होने के आघात से अपने प्राण।
सोचता हूँ कि
यह सच है
रिटायरमेंट
आदमी को देती है
पहले पहल शोक और धक्का !
काम न होने से
एकाएक निठल्ला होने से
अंतर्मन में मचने लगता है हल्ला गुल्ला !
आदमी रह जाता अकेला
और हक्का बक्का !
इसलिए गुज़ारिश है कि
व्यक्ति सेवानिवृत्ति से पहले ही
अपनी रूचियों पर काम करना शुरू कर दे
ताकि जीवन में कुछ सार्थक करने का जुनून बना रहे ।
आदमी स्वयं को व्यस्त रख सके।
वह अस्त व्यस्त सा न किसी को लगे।
न ही वह थका और चुका बुझा हुआ दिखाई दे।
लगभग मुझे सेवानिवृत्त हुए आठ महीने हो गए हैं ,
मैं अपने को पढ़ने में व्यस्त रखता हूं ,
मन करे तो खुद को भी कला माध्यम से अभिव्यक्त करता हूँ।
मेरे पिता ने भी रिटायरमेंट के बाद
प्राकृतिक चिकित्सा का ज्ञानार्जन करने में खुद को व्यस्त किया था।
उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धांतों को खुद पर लागू किया था
और एक भरपूर जीवन को जीया है।
अतः आप सब से अनुरोध है ,
आप बेशक सक्रिय हैं,
परंतु आप समय रहते सेवानिवृत्ति की बाबत
किसी योजना पर काम कीजिए
ताकि सेवानिवृत्ति का मौका यादगार बने।
शरीर चिंता से न घुले बल्कि जीवन में संतुष्टि मिले।
सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन समाजोपयोगी और सार्थक बने।
२२/०४/२०२५.
आदमी की सोच
सच की खोज से
जुड़ी रहनी चाहिए।
इस दिशा में बढ़ने से
पहले उसे अपने भीतर
हिम्मत संचित करनी चाहिए।
आदमी अपनी सोच का दायरा
जितना हो सके , उतना बढ़ाए
ताकि कोई भी बाधा उसे
दुःख न पहुँचा पाए।
वह खुद को
एक दिन समझ पाए ,
जीवन पथ पर
निरन्तर बढ़ता जाए ,
हमेशा सच की
समझ भीतर विकसित कर पाए।
वह सोच समझ कर
जीवन के उतार चढ़ावों के संग
सामंजस्य स्थापित कर पाए।
उसकी सोच का दायरा
तंग दिली से
सतत बाहर उसे निकाल कर
उन्मुक्त गगन की सैर कराए।
१६/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सोच जरा।
यदि
नफरत नफे का सौदा होती,
तो
सारी दुनिया
इसे ढो रही होती ।
सोच जरा!
फुर्सत सुख नहीं दुःख देती है ,
फुर्सत
आफत की पुड़िया है,
जिससे पैदा होती गड़बड़ियां हैं ।
सोच जरा !रस का पान कर रहा भंवरा ,
रसिक बना नहीं कि जीवन संवरा ।
सच है रसहीनता जीवन की खुशियां नष्ट करती ।
रस का  ह्रास हुआ नहीं कि
नीरसता भीतर डर पैदा करने लगती।
सोच जरा !
तकदीर भरोसे बैठा रहकर,
आदमी दर-दर भटकता सर्वस्व गंवाकर ।
तकदीर बनाने की खातिर ,
अपना सब सुख चैन भूलाकर ।
दिन-रात परिश्रमी बनना पड़ता ,
सोच जरा !
बस !सोच जरा सा !!
कर्म कर ढेर सारा,
नहीं फिरेगा मारा मारा ।
भीतर रहती सोच
अक्सर यह कहती है ।
'बाहर पलती सोच 'से
यह लड़ना चाहती है ।
यह एक द्वंद्व कथा रचना चाहती है ।
यह अंतर्द्वंद्व व्यथा से बचाना ,जो चाहती है !!
२६/०७/२०२०.
आजकल
कुछ नेतागण
सनातनी अस्मिता को
धूमिल करने के निमित्त
दे देते हैं उलटे सीधे बयान।
जिनसे झलकता है
अक्सर उनका मिथ्याभिमान।
ऐसे बयानों पर
बिल्कुल ध्यान न दो ,
अगर ऐसा नहीं किया
तो वे बरसाती मेंढ़क बनकर
और ज़्यादा टर्राहट करेंगें ,
जन साधारण को भयभीत करेंगें ,
और जान बूझ कर
अट्टहास करेंगें ,
यही नहीं मौका मिलेगा
तो जन का उपहास करेंगे !
जन धन पर कुदृष्टि रखेंगे !
आप उनकी बाबत क्या कहेंगें ?
कब तक सब अन्याय सहेंगें ?

ऐसे बयान
अचानक जुबान फिसलने से
निर्मित नहीं हुआ करते।
इनके पीछे सोची समझी
रणनीति हुआ करती है।
सोचा समझा बयान
भले किसी को
बुरा न लगे ,
पर यह गहरे घाव किया करता है ,
धुर अंदर तक मार किया करता है।
यह कभी कभी क्या हमेशा
जन मानस को विरोध के लिए
चुपके चुपके तैयार किया करता है।
अचानक
छोटी सी बात
अराजकता फैलने की
वज़ह बन जाया करती है ,
अनाप शनाप बयान देने वालों की
चाँदी हो जाया करती है।
इसे जनता जर्नादन
गहरे आघात के बाद समझती है ,
पर तब तक
जनतंत्र की गरिमा
धूमिल हो चुकी होती है।
अतः ऐसे बयान के आघात को
कभी मत भूलो तुम ,
ये जन मानस में पैदा कर देते हैं मति भ्रम। काश !समय आने पर ,
काश!
जनता
लोकतंत्र का पर्व मनाने वाले दिन
वोट से चोट देना
जल्द ही सीख जाए ,
तो उन उपद्रवियों के
परखच्चे
बिना गोला बारूद के
उड़ जाएं ,
निरीह पंछी
उन्मुक्त होकर
जीवनाकाश में
उड़ पाएं ।
वे गंतव्य तक
पहुँच जाएं।
सोच समझ कर
नेतृत्वकर्ता को देना
चाहिए बयान
अन्यथा अनजाने ही
जनता की म्यान ,
जनता जर्नादन का का आंतरिक ज्ञान
चुपके चुपके
अपने भीतर छुपी
असंतोष की तलवार को
धार लगा दिया करती है।
वह समय के साथ बढ़ती हुई
सत्ता पक्ष को
हतप्रभ , स्तब्ध , वध के लिए बाध्य करती हुई ,
संघर्ष पथ पर बढ़कर
परिवर्तन लाया करती है ,
देश दुनिया और समाज में
जिजीविषा भर जाया करती है।
अतः सब सजग हो जाएं ,
कम से कम
अपनी जुबां पर
समय रहते लगाम लगाएं !
वे असमय काल कवलित होने से
स्वयं को बचाएं !
आजकल
नेतागण
सोच समझ कर
अपने बयान दें ,
व्यर्थ ही बाद विवाद को
हवा भूल कर भी न दें !
वे अपने आचरण को
शिष्टता का स्पर्श कराएं !
अशिष्ट बनकर कड़वाहट न फैलाएं !!
२४/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
नये साल की चार तारीख को
खुल गई ‌नींद ठीक ‌भोर के चार बजे।
निश्चय किया अब मैं पुनः सोऊंगा नहीं !
अधिक देर सोया रहकर, अपने भविष्य को धोऊंगा नहीं !!
  ०४/०१/२०१७.
आजकल देश दुनिया में
जितनी समस्याएं
संकट बनकर चुनौतियां दे रहीं हैं
उसके अनुपात में
विकल्प ढूंढ़ने के लिए
संकल्पना का होना अपरिहार्य है।
इससे कम न अधिक स्वीकार्य है।
हम सबके संकल्प
होने चाहिएं दृढ़ता का आधार लिए
ताकि संतुलित जीवन दृष्टि
हमें सतत् आगे बढ़ाने के लिए
पुरज़ोर प्रोत्साहित करती रहे।
समाज में वैषम्य किसी हद तक
कम किया जा सके।
समस्त बंधु बांधवों में
नई ऊर्जा और उत्साह से निर्मित
उमंग तरंग और चेतना जगाकर
देश दुनिया व समाज को
नित्य नूतन नवीन रास्ते पर
चलने , आगे बढ़ने के लिए
निरंतर प्रयास किए जा सकें।
सबके लिए
संभावना के द्वार खोले जा सकें।
सभी बंधुओं को
जड़ों से जोड़कर
उनका जीवन पथ प्रशस्त किया जा ‌सके।
उनके मन-मस्तिष्क के
भीतर उजास जगाया जा सके।
उन्हें उदास होने से बचाया जा सके।
आज सभी को खोजने होंगे
जीवन में आगे बढ़ने के निमित्त
नित्य नूतन विकल्प,
वह भी दृढ़ संकल्प शक्ति के साथ
ताकि सभी जीवन में जूझ सकें।
अपने भीतर मनुष्योचित
सूझबूझ और पुरुषार्थ उत्पन्न कर सकें।
जीवन में सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वर सकें।
०१/०१/२०२५.
लोग
कितना भी
जीवन में
खुलेपन पर
चर्चा परिचर्चा
कर लें ,
उनके हृदय में
कहीं न कहीं
गहरे तक
संकीर्णता रहती है ,
जिससे
जीवन में
व्याप्त खुशबू
फलने फूलने फैलने की
बजाय मतवातर
बदबू में
बदलती रहती है
जो धीरे-धीरे
तड़प में बदल कर
भटकाती है।
आओ ,
हम सब परस्पर
मिलजुल कर रहें।
हम सब जीवन पर्यन्त
संकीर्णता से बचें ,
दिल और दिमाग से
खुलापन अपनाते हुए
समानता से जुड़ें ,
देश दुनिया और समाज में
सुख समृद्धि और शांति के
बलबूते सकारात्मक सोच से
सतत सहर्ष आगे  बढ़ें।
संघर्षरत रहकर
जीवन के सच को
अनूभूत करें,
सब नव्यता का !
भव्यता का !!
आह्वान करें !!
सृजन पथ चुनें,
कभी भी विनाशक न बनें।
हमेशा सत्य के आराधक बनें।
२३/०४/२०२५.
किसी से जाति पूछते समय
मैं हो जाया करता था असहज,
जब काम के दौरान
किसी कॉलम को भरने के समय
जाति से संबंधित कोड भरने का जिम्मा रहता था ।
मुझे लगता रहा है आज तक
जाति व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है ,
इसे आम बोलचाल में न ही पूछा जाए।
जाने अनजाने किसी की संवेदना को क्यों कुरेदा जाए ?
आज जब विपक्ष द्वारा जातिगत जनगणना का मुद्दा
रह रह कर उठाने का प्रयास किया जा रहा है।
सत्ता पक्ष द्वारा इसे पूछने वाले की जाति को पूछा जा रहा है।
तर्क है कि पहले खुद की जाति बताई जाए ,
इसके बाद ही कोई जाति से संबंधित बात की जाए।

देश की एकता में जाति व्यवस्था बाधक है।
मगर इस से पिंड छुड़ाना फिलहाल असंभव है।
यह उम्मीद भी है कि आने वाले समय में
युवा पीढ़ी इस जाति के कोढ़ का इलाज़ ढूंढ ही लेगी ।
वह समानता और सद्भावना से मनुष्यता को चुनेगी।
हमारी पीढ़ियां सर्वप्रथम सुख समृद्धि और संपन्नता को वरेंगी।
इसके बाद ही बाकी कुछ को वरीयता मिलेगी।
उम्मीद है कि वर्तमान के संदर्भ में
जाति व्यवस्था स्वयं में
समयानुरूप सुधार करेगी ,
तभी देश दुनिया और समाज में
आदमजात की ज़िन्दगी सुरक्षित
और उसके आगे बढ़ने की
संभावना बनी रहेगी।
अन्यथा अराजकता हावी होकर
सर्वस्व को लील लेगी।
फिर कैसे नहीं
चहुं ओर विनाश लीला होगी ?
यह ज़िन्दगी रुकी सी  लगने लगेगी !
आगे बढ़ने की अंधी दौड़
कब कब नहीं पागलपन कराती रहेगी ?
अतः आम हालात में
जाति पूछने से किया
जाना चाहिए संकोच ,
वरना झेलना पड़ सकता है विरोध।
२६/०४/२०२५.
कितना अच्छा हो
सब कुछ सन्तुलन में रहे।
कोई भी अपने आप को
असंतुलित न करे।
इसके लिए
सब अपने मूल को जानें,
भूल कर भी
अज्ञान को चेतना पर
हावी न होने दें।
सब कुछ स्वाभाविक गति से
अपने मंतव्य और गंतव्य की ओर बढ़ें।
सब शांत रहें।
शांति को अपने भीतर समेट
परम की बाबत
चिंतन मनन करें।
सब संत बन कर
सद्भावना से
अपने आस पास को प्रेरित करें।
वे ज्ञान की ज्योति को
सभी के भीतर जागृत करें।
वे सभी को समझाएं कि
इस धरा पर उपस्थित आत्माएं
सब दीप हैं।
सब अपने प्रयासों से
अपने भीतर ज्ञान  का प्रकाश भरें
ताकि अज्ञान जनित भय कुछ तो कम हो सके।
लोग अधिक देर तक सोये न रहें।
वे जागृत होकर सुख समृद्धि और सम्पन्नता को वर सकें।
वे कण कण में परम की उपस्थिति को अनुभूत कर सकें।
वे अपना जीवन सार्थक कर सकें।
वे जीवन सत्य को जान सकें।
वे अपनी मूल पहचान से वंचित न रहें।
वे यथासमय अपनी शक्तियों और सामर्थ्य को संचित कर सकें।
वे संतुलित जीवन को जीना सीख सकें।
वे यह जीवन सत्य समझें कि
जीवन में
यदि संतुलन है
तो ही सुरक्षा है ,
अन्यथा फैल सकती
चहुं ओर अव्यवस्था है।
अराजकता कभी भी
जीवनचर्या को असंतुलित कर सकती है ,
सुख समृद्धि और सम्पन्नता को लील सकती है।
यह शांति के मार्ग को अवरूद्ध कर सकती है।
यह आदमी को आदमी के विरुद्ध खड़ा कर सकती है।
अतः जीवन में संतुलन जरूरी है।
मनुष्य के जीवन में संयम अपरिहार्य है।
जो सबको स्वीकार्य होना चाहिए।
इसके लिए
सभी को अपना अहंकार भुलाकर
संत समाज से जुड़ना होगा
क्यों कि
संत संयमित जीवन को जीते हैं,
वे शांतमय मनोदशा में की निर्मिति करते हैं।
वे मनुष्य को उसकी स्वाभाविक परिणति तक ले जाने में सक्षम हैं।
वे संतुलित
जीवन दृष्टि को
स्पष्ट रूप से
अपनी कथनी और करनी से
एक करते हुए दिखलाते हैं ,
उसे व्यावहारिक बनाते हुए जीवन यात्रा को आगे बढ़ाते हैं।
२०/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सब्र,संतोष
भीतर
व्याप जाएं,
इसके लिए
कर्मठता जरूरी है।
कर्म करने से पीछे हटा नहीं जाए ।
इसे ढंग से निष्पादित किया जाए।
इस हेतु निरन्तर डट कर संघर्ष किया जाए।
सतत
सब्र, संतोष, सहृदयता,
व्यक्ति को संत सरीखा
कर देती है,
लालसा और वासना तक
हर लेती है।
कभी कभी
देह में से नेह और संतुष्टि का
नहीं होना,
मन को अशांत
कर देता है।
अतः
जीवन में संतुष्टि का होना
निहायत जरूरी है,
इस बिन जीवन यात्रा
रह जाती अधूरी है,
जिससे
रिश्तों में
बढ़ जाती दूरी है,
इसी वज़ह से मन भटकता है,
आदमी क़दम क़दम पर अटकता है,
और जीव जीवन भर
संतुष्टि के द्वार पर
दस्तक देने की कोशिश करता है,
अपने भीतर कशिश भरना चाहता है,
परन्तु
कभो कभी ही
आदमी सफल हो पाता है,
हर कोई संतुष्टि को
अनुभव करना चाहता है।
Joginder Singh Nov 2024
रचनाकार के पास एक सत्य था ।
उसका अपना ही अनूठा कथ्य था ।
उसने इसे जीवन का हिस्सा बनाया।
और अपनी जिंदगी की कहानी को ,
एक किस्सा बनाकर लिख दिया।



जब यह किस्सा, संपादक के संपर्क में आया।
तब सत्य ही , संपादक ने इसे अपनी नजरिये से देखा।
और उसने अपनी दृष्टिकोण की कैंची से, किया दुरुस्त।
फिर उसने इस किस्से को, पाठकों को दिया सौंप।


पाठक ने इसे पढ़कर, गुना और सराहा।
परंतु रचनाकार में पनप रहा था असंतोष।
उसे लगा कि संपादक ने किया है अन्याय।
रचनाकार खुद को महसूस कर रहा था असहाय।,


संपादक की जिम्मेदारी उसे एक सीमा में बांधे थी।
पाठक वर्ग  और कुछ नीति निर्देशों से संपादक बंधा था।
वह रचनाओं की कांट, छांट, सोच समझ कर करता था ।
और रचनाकार को संपादक पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगता था।


समय चक्र बदला, अचानक रचनाकार बना एक संपादक।
अब अपने ढंग से रचना को असरकारी बनाने के निमित्त,
किया करता है, सोच और समझ की कैंची से काट छांट।
सच ही अब, उसे हो चुका है, संपादन शैली का अहसास।

अब एक रचनाकार के तौर पर, वह गया है समझ।
रचनाकार भावुक ,संवेदनशील हो ,जाता है भावों में बह।
उसके समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह चुके हैं धुल अब।
जान चुका है भली भांति , संपादक की कैंची की ताकत।


बेशक रचनाकार के पास अपना सत्य और कथ्य होता है।
पर संपादक के पास एक नजरिया ,अनूठी समझ होती है।
वह रचना पर कैंची चलाने से पूर्व अच्छे से जांचता है।
तत्पश्चात वह रचना को संप्रेषणीय बनाने की सोचता है।


जब जब  संपादक ने  कैंची से एक सीमा रेखा खींची।
तब तब रचना का कथ्य और सत्य असरकारक बना।
आज रचनाकार, संपादक और पाठक की ना टूटे कड़ी।
करो प्रयास, नेह स्नेह के बंधन से सृजन की डोर रहे बंधी।
न उठे  रचनाकार के मानस में, दुःख ,बेबसी की आंधी।

२९/०८/२००५.
संबंध बड़े कोमल होते हैं
ये बनते बनते,बनते हैं
थोड़ी सी गफलत
हुई नहीं कि
धरधराकर
रेत से झर
जाते हैं,
यह
कभी हो
नहीं सकता कि
ये फिर से दृढ़ता की
डोर में बंध जाएं,
हम पूर्ववत
बेतकुल्ल्फी से
एक दूसरे से
खुलकर
मिल पाएं !
अब
आप ही बता दो
हम परस्पर
विश्वास को
दृढ़ करें
कि लड़ें !
क्यों न हम
एक दूसरे से
सहयोग करें ,
परस्पर
पुष्पित पल्लवित
होने के मौके
मयस्सर
करते रहें ,
आगे बढ़ें ,
सुध बुध
लेते रहें,
ताकि
दृढ़ होती रहें
संबंधों की जड़ें !
संबंध नाजुक होते हैं ,
गफलत हुई नहीं कि
ये मुरझा जाते हैं !
ऐसे में
सब तने तने रहते हैं !
भीतर , भीतर कुढ़ते रहते हैं !
न चाहकर भी
अंदर सहम भर जाता है !
अनिष्ट का वहम भरता रहता है !
आदमी हरपल सड़ता रहता है !!
१७/०३/२०२५.
कितना अच्छा हो
इस उतार चढ़ाव भरे दौर में
हम सब आगे बढ़ते रहें,
हमारे मन प्रदूषण से दूर रहें,
हम परस्पर सहयोग और सहानुभूति से रहें।

जब कभी भी
आदमी के भीतर
थोड़ा सा लोभ, काम,लालच,ईर्ष्या
घर करता है ,
वह जीवन पथ पर
रूकावटें खड़ी कर लेता है।
आदमी और आदमी के बीच
एक दीवार खड़ी हो जाती है ,
वह सब कुछ को
संदेह और शक के
घेरे में लेकर देखने लगता है।
उसके भीतर कुढ़न बढ़ जाती है।
कल तक जो रिश्ते
प्यार और सुरक्षा देते लगते थे
वे घुटन बढ़ाते होते हैं प्रतीत।
सब कुछ समाप्त होता हुआ लगता है ,
जिससे भीतर ही भीतर
डर भरता चला जाता है।
संबंध दरकने लगते हैं।

आओ हम सब अपना जीवन
ईमानदारी और पारदर्शिता से व्यतीत करें ,
ताकि संबंध बचे रहें,
सब निर्द्वंद रहकर
जीवन को गरिमा  
और सुखपूर्वक जीएं।
दीर्घायु होकर सात्विकता के साथ
जीवन यात्रा
निर्विघ्न सम्पन्न करें।
हम सब
संबंधों में जीवन की
खुशबू की अनुभूति कर सकें।
११/०४/२०२५.
रिश्ते निभाना सीखते हुए ,
जीवन जाता है बीत।
यह सब को
बहुत
देर में समझ
आते आते आता है,
जीवन का सुनहरी दौर
अति तीव्रता से
जाता बीत।
आदमी
खाली हाथ
मलता रह जाता है ,
वह पछताता हुआ
मन मसोस
कर रह
जाता
है , 
आओ
हम रिश्ते
निभाने की
दिशा में सतर्क
रहते हुए
इस पथ पर आगे बढ़ें।
रिश्तों को न ढोएं ,
बल्कि इसमें
प्यार और दुलार भरें।
इसके लिए
भीतर लगाव के
साथ  जीवन को जीने का
आगाज़ करें,
कभी भी
न लड़ें
अपनी बात
खुलकर कहें
और अपने इर्द-गिर्द
व्याप्त स्वार्थ की
अंधी दौड़ से  
बचें।
हमेशा सच की
राह पर चलें
ताकि  
बुराई से
बच सकें।
अपने भीतर
सुरक्षा,
सुख चैन का अहसास
भरपूर मात्रा में
भर सकें।
निडर बन सकें,
धीरे-धीरे धीरज धरें,
शांत मना बन सकें।
०३/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
हो  सके
तो  विवाद  से  बच
ताकि
झुलसे  न  कभी
अंतर्सच ।

यदि
यह  घटित  हुआ
तो  निस्संदेह  समझ
जीवन  कलश  छलक  गया  !
जीवन  कलह से  ठगा गया  !

हो  सके
तो  जीवन  से   संवाद   रच  ,
ताकि   जीवन  में  बचा  रहे   सच  ।
प्राप्त होता रहे  सभी को  यश ....न  कि  अपयश  !

    २९/११/२००९.
Joginder Singh Dec 2024
यदि
कोई बूढ़ा
बच्चा बना सा
पढ़ता मिले कभी
तुम्हें
कोई चित्र कथा !
तब तुम
उसे बूढ़े बच्चे पर
फब्तियां
बिल्कुल न कसना ।
उसे
अपने विगत के  
अनुभवों की कसौटी पर
परखना।
संभव है कि वह
अपने अनुभव और अनुभूतियों को
बच्चों को सौंपने के निमित्त
रचना चाहता हो
नवयुग की संवेदना को
अपने भीतर  सहेजे हुए
कोई अनूठी
परी कथा।
बल्कि तुम
उसकी हलचलों के भीतर से
स्वयं को गुजारने की
कोशिश करना ।
संभव है कि तुम
उसे बूढ़े बच्चे से
अभिप्रेरित होकर
चलने लगो
अपनी मित्र मंडली के संग
सकारात्मकता से
ओतप्रोत
जीवन के पथ पर ।


यदि
कोई बालक
हाथ में पकड़े हुए हो
अपने समस्त बालपन के साथ
कोई वयस्कों वाली किताब !
तब तुम मत हो जाना
शोक मग्न!
मत रह जाना भौंचक्का !!
कि तुम्हें उस मुद्रा में देखकर लगे
उसे अबोध को धक्का !!
संभव है-
वह
बूढ़े दादा तक
घर के कोने में
पटकी हुई एक तिरस्कृत
संदूकची में
युवा  काल की स्मृति को
ताज़ा करने वाली
एक प्रतीक चिन्ह सरीखी निशानी को ,
धूल धूसरित
कोई अनोखी किताब
दिखाने ले जा रहा हो।

और...
हो सकता है
वे,दादा और पोता
अपनी अपनी अपनी उम्र को भूलकर
हो जाएं
हंसते हुए खड़े
और देकर
एक दूसरे के हाथ में
अपने हाथ
चल पड़े साथ-साथ
करने
समय का स्वागत ,
जो सदैव हमारे साथ-साथ
चल रहा है निरंतर ,
हमें नित्य ,नए अनुभव और अनुभूतियां
देता हुआ सा ,
हमारे भीतर चुपचाप स्मृतियां बन कर
समाता हुआ ,
हमें  प्रौढ़ बनाता हुआ ।
हमें निरंतर समझदार बनाता हुआ।

०५/११/१९९६.
अपनी ही मौज में आकर
यदि कोई
अपनी संभावना की खोज में
अग्रसर होना चाहता है
तो इससे अच्छी क्या बात होगी।
वह क्षण कितना महत्वपूर्ण होगा
जब आदमी की खुद से मुलाकात होगी।
आदमी अपनी संभावना का पता लगाएगा ,
वह अपने भीतर निहित
ऊर्जा का रूपांतरण कर पाएगा,
जीवन में
नव संचार कर जाएगा ,
वह अपने जीवन को सार्थक कर पाएगा।
हरेक स्थिति में आदमी जूझता रहे ,
जीवन के उतार चढ़ावों के बावजूद
वह सतत् आगे ही आगे बढ़ता रहे ,
देखना , वह अपनी संभावना को खोज पाएगा।
वह अपनी प्रसन्नता और संतोष के
मूल स्रोतों को ढूंढ ही लेगा।
वह अपनी अस्मिता को जान ही लेगा।
तदनंतर वह अपना कायाकल्प स्वत: कर लेगा।
जीवन संभावना की खोज से बंधा है।
यदि यह बंधन न रहे तो आदमजात भटक जाए !
वह जीवन की विषम परिस्थितियों में विचलित हो जाए !
उसकी घर वापसी की संभावना  संभवतः धूमिल हो जाए !
इसलिए यह जरूरी है कि आदमी शिद्दत से
जीवन में सफलता हासिल करने के प्रयास करे !
वह अपने जीवन की दिशा को निर्धारित करने की खातिर उद्यम करे !!
१८/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
कहीं सुदूर खिला है पलाश।
कहे है सब से अपनी संभावना तलाश।
रह रह कर दे रहा हो यह सन्देश!
अपनी जड़ों से जुड़ ,जीवन में आगे बढ़!
हो सकता है कि
छोटे शहरों, कस्बों, गांवों में
बड़े दिल वाले,
उदार मानसिकता वाले
मानुष बसेरा करते हों
जो संभावना के स्वागतार्थ
सदैव रहते हों तत्पर।
वे हमेशा मुस्कान बनाए रखते हों,
और सार्थक जीवनचर्या से जुड़े हों।

यह भी संभव है कि
बड़े शहरों,कस्बों और गांवों में तंगदिल,
संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त मानुष हों,
जो स्वयं से
संभावना के आगमन को परे
धकेलते हुए
भीतर तक
जड़ता के अंदर धंसे हों।

अच्छा रहेगा कि
हम सब का जीवन
सकारात्मक सोच से
संचालित होता रहे।
हमारा इर्द गिर्द और परिवेश
सर्वस्व को
सुख सुविधा, समृद्धि और संपन्नता से
जुड़े रहकर ही आह्लादित हो!
जबकि हम व्यर्थ की भाग दौड़ को
जीवन में सुख का मूल समझ कर
स्वयं को नष्ट करने पर तुले हों।
जीवन को जटिल बना रहे हों।
खुद को थका रहे हों
और किसी हद तक
संभावना के आगमन को
अपने जीवन से मतवातर दूर करते हुए
हाशिए से बाहर धकेले जा रहे हों।

आओ हम सब इस
अराजकता के दौर में
अपना ठौर ठिकाना संभालें।
अपनी अपनी संभावना को तलाशें!
कुछ हद तक निज के जीवन को तराशें!!
२८/१२/२०२४.
आज
जीवन के मार्ग पर
निपट अकेले होते जाने का
हम दर्द
झेल रहे हैं
तो इसकी वज़ह
क्या हो सकती है?
इस बाबत कभी
सोचा होगा
आपने
कभी न कभी
और विचारों ने
इंगित किया भी होगा कि
क्या रह गई कमी ?
क्यों रह गई कमी ?

आजकल
आदमी स्वयं की
बाबत संजीदगी से
सोचता है ,
वह पर सुख की
बाबत सोच नहीं
पाता है ,
इस सब स्वार्थ की
आग ने
उसे झुलसा दिया है,
वह अपना भला,
अपना लाभ ही
सोचता है।
कोई दूसरा
जीये या मरे,
रजा रहे या भूखा मरे ,
मुझे क्या?...
जैसी अमानुषिक सोच ने
आज जन-जीवन को
पंगु और अपाहिज कर
दिया है,
बिन बाती और तेल के
दिया कैसे
आसपास को
रोशन कर सकता है ?
क्या कभी यह सब
कभी मन में
ठहराव लाकर
सोच विचार किया है कभी ?
बस इसी कमी ने
आदमी का जीना दुश्वार किया है।
आज आदमी भटकता फिर रहा है।
स्वार्थ के सर्प ने सबको डस लिया है।

मन के भीतर
हद से ज्यादा होने
लगी है उथल-पुथल
फलत: आज
आदमी
बाहर भीतर से
हुआ है शिथिल
और डरा हुआ।
वह सोचने को हुआ है मजबूर !
कभी कभी जीवन क्यों
लगता है रुका हुआ !!
इस मनो व्यथा से
यदि आदमी से
बचना चाहता है
तो यह जरूरी है कि
वह संयमी बने,
धैर्य धन धारण करें।

१०/०१/२०२५.
बहुधा
जिनसे कभी
मिलने की संभावना तक
नहीं होती
वे अचानक
जीवन में आकर
आकर्षण का केंद्र
बनकर
जीवन को
हर्षोल्लास से
भर जाते हैं।
इसलिए
हमें जीवन धारा में
आ गए उतार चढ़ाव से
कभी भी व्यथित होने की
जरूरत नहीं है।
हमारे इर्द गिर्द
बहुत कुछ घटित हो रहा है।
यह संयोग ही है कि
हम इस घटनाक्रम की बाबत
चिंतन मनन कर पा रहे हैं।
संयोग वश
हम मिलते और बिछुड़ते हैं ,
चाहकर भी हम
अपनी मनमर्जी नहीं कर पा रहे हैं।
यह सब क्या है ?
क्या हम सब का
मनुष्य होना
और
कुछ का पशु होना
संयोग नहीं ?
या फिर
कर्मों का खेल है !
संयोग वश ही
हम परस्पर संवाद रचा पाते हैं ,
एक दूसरे को समझ
और समझा पाते हैं ,
फलत: समझौता कर जाते हैं।
आपदा प्रबंधन कर
अनमोल जीवन की रक्षा करने में
सफल हो जाते हैं।
सब जगह संयोग वश
जीवन में  
अदृश्य रूप से
घटनाक्रम घट रहा है,
जिससे सतत् कथाएं बन और मिट रही हैं ।
यही जीवन को दर्शनीय बनाता है।
१४/०४/२०२५.
जिन्दगी में
संवाद के अभाव में
अक्सर हो जाया करता है
मन मुटाव ,
अतः परस्पर
संवाद रचाया जाए ।
एक दूसरे तक
अपनी चाहतों को
शांत रहकर
पहुंचाया जाए ,
ताकि समय रहते
सब संभल जाएं ।
वे सब अपने मनोभाव
सहजता से
अभिव्यक्त कर पाएं ।
संवाद स्थापना को
विवादों से ऊपर रखा जाए ,
अनावश्यक असंतोष को
बेवजह तूल न दिया जाए ,
बल्कि जीवन में
अपने को बेहतर करने के लिए
प्रयास किए जाएं ,
हो सके तो मतभेद मिटा दिए जाएं।
संवाद स्थापना की ओर
अपनी समस्त संवेदना
और सहृदयता के साथ बढ़ा जाए।
इसके लिए अपरिहार्य है कि
जीवन को विषमताओं से बचाया जाए ,
जीवन पथ को कंटकविहीन बनाया जाए।
१०/०३/२०२५.
संवाद के
अभाव में
झेलना पड़ता है
संताप।
इस बाबत
क्या कहेंगे आप ?
आप मौन रहेंगे
या खुल कर
मन की बात कहेंगे
या फिर तटस्थ
बने रहेंगे।

संवादहीन रहकर
तनाव को झेलते रहेंगे।

आप मुखर होकर
सब के सामने रखें
मन की बात।
करना न पड़े
किसी को मतवातर
मनो मस्तिष्क को
खोखला करता हुआ
तनाव निर्मित दबाव ,
आत्मघात के लिए
होना न पड़े
किसी को बाध्य ,
बेशक संवाद रचना
अहंकार जनित आडंबर के दौर में
हो चुका है कष्ट साध्य।

मतभेद और मनभेद
भुलाकर
संवाद रचने का
करते रहिए
जीवनपर्यंत प्रयास
ताकि उड़ा न पाए
कोई कमअक्ल उपहास।
और...हां... छोड़िए अब
जीवन में करना
व्यर्थ का वाद विवाद
कायम किया जा सके
सार्थकतापूर्ण संवाद ही नहीं,
अंतर्संवाद भी बेहिचक , ख़ुशी ख़ुशी।
०१/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
शुक्र है
हम सबके सिर पर
संविधान की छतरी है।
हमें विरासत में मिली
गणतंत्र की गरिमा है।
अन्यथा देखिए और समझिए।
इस देश में
आदमी  की अस्मिता
टोपी धारी के इशारे पर
कब-कब  नहीं  बिखरी  है ?



शुक्र है
हम सबके अस्तित्व पर
तानी गई संविधान की छतरी है ,
वरना अधिकार के नाम पर
बहुत बार
नकटों ने
अपने  लटके-झटकों से
आदमी की नाक कतरी है ।



शुक्र है
इस बार भी नाक बची रह गई ,
संविधान की कृपा से
देश की अस्मिता
इस वर्ष भी बची रह गई ।


मैं संकल्प करता हूं कि
इस गणतंत्र दिवस से
अगले गणतंत्र दिवस तक,
यही नहीं स्वतंत्रता दिवस से
अगले साल स्वतंत्रता दिवस पर,
हर बार देश और जनता से किया गया वायदा
दोहराता रहूंगा, अपने आप को यह याद दिलाता रहूंगा कि
देश तभी बचा रहेगा, जब सभी नागरिक कर्मठ बनेंगे।

मैं अपने साथियों के साथ
देशभर के नागरिकों को
संविधान का अध्ययन करने
और उन और उसके अनुसार अपना जीवन यापन करने
के लिए पुरज़ोर अपील करता रहूंगा।
समय-समय पर उनमें साहस भरता रहूंगा।
स्वयं को और अपनी मित्र मंडली को
विचार संपन्न बनाता रहूंगा।


देश विदेश में घटित हलचलों को
संवैधानिक दृष्टि से पढ़ते हुए
अपने चिंतन का विषय बनाऊंगा।
हर एक संकट के दौर में
खुद को संविधान की छतरी के नीचे बैठा पाऊंगा।

मैं
संविधान को
गीता सदृश पढ़ता रहूंगा,
देशकाल ,हालात अनुसार
संविधान की समीक्षा मैं करता रहूंगा ,
मां-बाप और समाज की
नज़रों में
शर्मिंदा होने से बचता रहूंगा ।


मैं हमेशा संविधान की छतरी तले रहूंगा।
हर वर्ष 26 जनवरी को
संविधान निर्माताओं की देन को याद करूंगा ।
संवैधानिक मूल्यों का पालन कर आगे बढूंगा।

२३/०१/२०११.
Joginder Singh Nov 2024
आज देश में
संविधान बचाने के
मुद्दे पर
नेता प्रति पक्ष
और सत्ताधीन नेतृत्व के बीच
एक होड़ा  होड़ी लगी हुई है।
दोनों , संविधान खतरे में है, कहते हैं,
असंख्य लोग अन्याय, शोषण के दंश को सहते हैं।
नेता प्रति पक्ष का कहना है,
सत्ता पक्ष ने
संविधान पढ़ा नहीं, सो वो
संविधान को खोखला बता रहे।
' अगर संविधान पढ़ा होता,
तो उन्होंने अलग नीतियां अपनाईं होतीं।'
सत्ता पक्ष ने भी  
नेता प्रति पक्ष के ऊपर
आरोप लगाया कि
विपक्ष
देश के एक संवेदनशील राज्य में
एक अलग संविधान बनाने की योजना पर
अड़ा हुआ है।
आप ही बताइए
एक देश,एक संविधान,
होना चाहिए कि नहीं।
आप ही फ़ैसला कीजिए,
कौन है सही।
देश में संविधान को लेकर
बहस छेड़ने का मुद्दा गर्म है।
हर कोई बना देश में बेशर्म है।
सब के अपने अपने पाले हैं।
क्या नेतागण
नागरिकों को मूर्ख बना रहे हैं?
आज
देश में संविधान सर्वोपरि रहना चाहिए।
यह देश की अस्मिता का वाहक होना चाहिए।
संविधान को लेकर
पड़ोसी देश में भी विवाद चल रहा है।
यहां वहां,सब जगह
संविधान को विवादित किया जा रहा है।
संविधान से धर्मनिरपेक्ष, समाजवाद, जैसे
अप्रासंगिक हो चुके मुद्दों को
एक परिवर्तनकारी आंदोलन का
आधार बनाया जा रहा है।  
बहुत से देश उलझे हैं, उनके  सुलझाव के लिए
संविधान जरूरी है कि नहीं?
यह देश की तकदीर,दशा, दिशा निर्मित करता है।
इस सच को
देश दुनिया के
समस्त नेताओं को समझना चाहिए,
अपने दुराग्रह, पूर्वाग्रह छोड़ने चाहिएं।
विकास के मौके देश दुनिया में बढ़ने चाहिएं ।
१५/११/२०२४.
यदि किसी आदमी को
अचानक पता चले कि
उसकी लुप्त हो गई है संवेदना।
वह जीवन की जीवंतता को
महसूस नहीं कर पा रहा है ,
बस जीवन को ढोए चला जा रहा है ,
तो स्वाभाविक है , उसे झेलनी पड़े वेदना।
एक सच यह भी है कि
आदमी हो जाता है काठ के पुतले सरीखा।
जो चाहकर भी कुछ महसूस नहीं कर पाता ,
भीतर और बाहर सब कुछ विरोधाभास के तले दब जाता।
आदमी किसी हद तक
किंकर्तव्यविमूढ़ है बन जाता।
वह अच्छे बुरे की बाबत नहीं सोच पाता।
१३/०३/२०२५.
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