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Joginder Singh Nov 2024
'सिगरेट पीना
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।'
'धूम्रपान से कैंसर होता है।'
इसी तरह की
बहुत सारी जानकारी
हम पढ़ते भर हैं,
उस पर अमल नहीं करते
क्यों कि मृत्यु से पहले
हम डरना नहीं चाहते ।
हम बहादुर बने रहना चाहते हैं ।
हम जीना चाहते हैं !
हम आगे बढ़ना चाहते हैं !!

सिगरेट पीने से पहले ,
सिगरेट पीने के बाद
लोग कतई नहीं सोचते
कि उन्होंने अपनी देह को
एक ऐशट्रे में बदल डाला है।
बहुत से घरों में
बहुत पहले ऐशट्रे
ड्राइंग रूम की टेबल पर
सजा कर रखी जाती थी,
ताकि कोई सिगरेट पीने वाला आए,
तो वह  ऐशट्रे का इस्तेमाल आसानी से कर सके।

हमारे भीतर भी
एक ऐशट्रे पड़ी रहती है
जिसके भीतर
हमारी बहुत सारी मूर्खताओं की राख
पड़ती रहती है
ऐशट्रे के भरने और खाली होने तक।

ऐशट्रे का जीवन
सतत
करता रहता हमें स्तब्ध!
यही स्तब्धता कर देती हमें हतप्रभ!!
अचानक थर थर कंपाने लगती है।

अपने जीवन को ऐशट्रे सरीखा न बनाएं।
वायु मंडल में घर कर चुका प्रदूषण ही पर्याप्त है,
जिससे मानव जीवन ख़तरे में हे।
इसे कोई भी समझना नहीं चाहता।
११/०५/२०२०.
जीवन अच्छा लगता है
यदि यह निरन्तर गतिशीलता का
आभास करवाता रहे।
और जैसे ही
यह जड़ता की प्रतीति करवाने लगे
यह निरर्थक और व्यर्थ बने।
जीवन गुलाब सा खिला रहे,
इसके लिए
आदमी निरंतर
संघर्ष और श्रम साध्य जीवन जीए
ताकि स्थिरता बनी रहे।
आदमी कभी भी
थाली का बैंगन सा न दिखे ,
वह इधर उधर लुढ़कता
किसे अच्छा लगता है ?
ऐसे आदमी से तो भगोड़ा भी
बेहतर लगता है।
सब स्थिरता के साथ जीना चाहते हैं,
वे भला कब खानाबदोश जिन्दगी को
बसर करना चाहते हैं ?
सभी स्थिर रहकर सुख ढूंढना चाहते हैं।
१०/०१/२०२५.
हम विस्मृति के अवशेष से बंधे
कहां याद रख पाते हैं ?
उन बंधु बांधवों को
जो कभी हम से ,
इस हद तक थे जुड़े
कि हर संकट की घड़ी में
डट कर हो जाते थे खड़े ।
आज वे स्मृति पटल पर
जीवन की अविस्मरणीय उपस्थिति दर्शा कर
हमें यदा-कदा अपने भीतर व्याप्त
जीवन धारा की रह रह कर
अपने अस्तित्व का अहसास करवाते हैं।
उनकी बातों को याद करते हुए
अक्सर हम सोचते हैं कि
उनमें कुछ तो ख़ास रहा होगा
जो वे आज भी
हमारे भीतर जीवन का ओज बने हुए बसते हैं,
अपनी दैहिक अनुपस्थिति के बावजूद
वे हर पल हमारी प्रेरणा और प्रेरक ऊर्जा बनते हैं,
जिनकी अद्भुत छत्र छाया में
असंख्य लोग आगे ही आगे बढ़ते हैं।
ऐसी आकर्षण से भरपूर विभूतियों को
हम मन ही मन नमन करते हैं।
उनके प्रेरणा पुंज और ख़ास आभा मंडल के सम्मुख
हम सदैव उन जैसी कर्मठता को
जीवन में अपनाने
और उनकी सोच को आगे बढ़ाने की नीयत से
मंगल कामनाओं से सज्जित पुष्पांजलि
स्मृति शेष होने पर अर्पित करते हैं।
वे खास किस्म की मानसिक दृढ़ता से परिपूर्ण व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी सोच से
आदमी की दशा और दिशा बदल दी,
तभी हम उन्हें रह रह कर याद करते हैं।
हम उन जैसा होने व बनने का प्रयास किया करते हैं ।
०१/०१/२०२५.
कफ़न
शब्दों का सतत्
ओढ़ा कर
विचार और व्यवहार पर।
जीवन की गुत्थी
भले ही
समझ
आए न आए ,
खुद को कतई
हताश न कर ।

ज़िंदगी
बढ़ती चली गई है
आगे और आगे ,
फिर हम ही क्यों
जीवन की कटु सच्चाई से भागें ?
क्यों न हम सब
जीवन धारा के संग भ्रमण करें !
क़दम दर क़दम आगे बढ़
निज जीवन शैली में सुधार करें !!
अपने भीतर निखार लाकर
निरंतर आगे बढ़ने के प्रयास करें !!!
आओ , आज सब इस बाबत विचार विमर्श करें।
इसके साथ साथ सब स्वयं के भीतर नया विश्वास भरें।
०६/१२/१९९९.
Joginder Singh Dec 2024
अगड़ों पिछड़ों
वंचितों शोषितों के बीच
मतभेद और मनभेद बढ़ाकर
कुछ लोग और नेता
कर रहे हैं राजनीति
बेशक इसकी खातिर
उन्हें अराजकता फैलानी पड़े ,
देशभर में अशांति, हिंसा, मनमुटाव,
नफ़रत, दंगें फ़साद, नक्सलवादी सोच अपनानी पड़े।
इस ओर राजनीति नहीं जानी चाहिए।
कभी तो स्वार्थ की राजनीति पर रोक लगनी चाहिए।
राजनीति राज्यनीति से जुड़नी चाहिए।
इसमें सकारात्मकता दिखनी चाहिए।
सभ्यता और संस्कृति से तटस्थ रहकर
देश समाज और दुनिया में
राजनीतिक माहौल बनाया जाना चाहिए।
टूची राजनीतिक सोच को
राज्य के संचालन हेतु
राजनीतिक परिदृश्य से अलगाया जाना चाहिए।
आम जनजीवन और जनता को राजनीति प्रताड़ित न करे,
इस बाबत बदलाव की हवा राजनीति में आनी चाहिए।
समय आ गया है कि स्वार्थ से ऊपर उठकर
राजनीति राज्यनीति से जुड़ी रहकर आगे बढ़नी चाहिए।
२४/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कभी सोचा है आपने ?
यह कि शब्द
सहमत में
सहम भी छिपा है
जिसकी आड़ लेकर
लोगों ने
कभी न कभी  
परस्पर
एक दूसरे को छला है।
छल की छलनी और छलावे से
प्यार और विश्वास
बहुधा जीवन छल बल का हुआ शिकार।
कई बार
आज के खुदगर्ज इन्सान
सहम कर ही
हैं  सहमत होते।
वरना वे भरोसा तोड़ने में  
कभी देरी न करते।
Joginder Singh Dec 2024
एक कमज़ोर क्षण में बहकर
मैं जिंदगी से बेवफ़ाई कर बैठा!
सो अब पछता रहा हूं।
उस क्षण को वापस बुला रहा हूं,
जिस पल मैं सहजता से
अपनी ग़लती को कर लूं स्वीकार,
ताकि बना रहे जीवन में
अपनापन और अधिकार।

अब अपनी कमज़ोरी पर
विजय हासिल करना चाहता हूं,
रह रह कर भीतर से कराहता हूं
पर अंदर मेरे, मानवीय कमजोरियों की
एक सतत् श्रृंखला चलायमान रहकर
मुझे कर रही है लहूलुहान,
लगता है कि खुद से मतवातर बतियाना कर देगा ,
मेरी तमाम चिन्ताओं, परेशानियों का समाधान।
१३/०६/२०१८.
वह हठी है
इस हद तक
कि सदा
अपनी बात
मनवा कर छोड़ता है।
उसके पास
अपना पक्ष रखने के लिए
तर्क तो होते ही हैं ,
बल्कि जरूरत पड़ने पर
वह कुतर्क, वाद विवाद का भी
सहारा लेने से
कभी पीछे नहीं हटता।
वह हठी है
और इस जिद्द के कारण
मेरी कभी उससे नहीं बनी है,
छोटी छोटी बातों को लेकर
हमारी आपस में ठनती रही है।
हठी के मुंह लगना क्या ?...
सोच कर मैं अपनी हार मानता रहा हूं।
वह  अपने हठ की वज़ह से
अपने वजूद को
क़ायम रखने में सफल रहा है ,
इसके लिए वह कई बार
विरोधियों से
बिना किसी वज़ह से लड़ा है ,
तभी वह जीवन संघर्ष में टिक पाया है ,
अपनी मौजूदगी का अहसास करा पाया है।
उसकी हठ मुझे कभी अच्छी लगी नहीं ,
इसके बावजूद
मुझे उससे बहस कभी रुचि नहीं।
मेरा मानना है कि वह सदैव
जीवन में आगे बढ़ चढ़ कर
अपने को अभिव्यक्त करता रहे।
उसका बहस के लिए उतावला होना
उसके हठी स्वभाव को भले ही रुचता है ,
मुझे यह अखरता भी जरूर है ,
मगर उसके मुंह न लगना
मुझे उससे क़दम क़दम पर बचाता है।
हठी के मुंह लगने से सदैव बचो।
अपने सुख को
सब कुछ समझते हुए
तो न हरो।
बहस कर के
अपने सुख को तो न सुखाओ ।
इसे ध्यान में रखकर
मैं  उस जैसे हठी के आगे
अकड़ने से परहेज़ करता हूं।
आप भी इसका ध्यान रखें कि
...हठी के मुंह लगना क्या ?
बेवजह जीवन पथ में लड़ भिड़कर अटकना क्या ?
इन से इतर खुद को समझ लो,
खुद को समझा लो,
बस यही काफी है।
कभी कभी
हठी से बहस करने
और उलझने की निस्बत
खुद ही आत्म समर्पण कर देना ,
अपनी हार मान लेना बुद्धिमत्ता है।
०५/०४/२०२५.
मच गया हड़कंप
जब सत्तासीन हुआ ट्रम्प ,
डोंकी मोंकी रूट हुए डम्प।
यह सब अब तक ज़ारी है।
साधन सम्पन्न देश में अब
राष्ट्र प्रथम की अवधारणा को
क्रियान्वित करने की बारी है।
यह लहर चहुं ओर फैल रही है ,
दुनिया सार्थक परिवर्तन के निमित्त
अब
धीरे धीरे
अपनी सुप्त शक्ति को
करने लग पड़ी है
मौन रहकर संचित,
ताकि सकारात्मक ऊर्जा कर सके
देश दुनिया और समाज को
ढंग से संचालित ,
जिससे कि
निर्दोष न हों सकें
अब और अधिक
कभी भी
अन्याय के शिकार,
वे न हों सकें कभी
किसी जन विरोधी
व्यवस्था के हाथों
असमय प्रताड़ित।
वे श्रम,धन,बल,संगठन से
प्राप्त कर सकें
अपने सहज और स्वाभाविक
मानवीय जिजीविषा से
ओत प्रोत मानवाधिकार।
०१/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
आज
आदमी ने
अपने भीतर
गुस्सा
इस हद तक
भर लिया है कि
वह बात बेबात पर
असहिष्णु बनकर
मरने और मारने पर
हो जाता है उतारू ,
उसकी यह मनोदशा
आदमी को भटका रही है।
निरंतर उसे बीमार बना ‌रही है।
Joginder Singh Nov 2024
हम लिखेंगे जरूर
काल के फलक पर
नित्य नूतन अनोखी पटकथाएं
खुद को संकटों में आजमाने की !


हम पढ़ेंगे जरूर
महाकाल की संवेदना में जीवित
जन जन की व्यथित करतीं
जिंदगी में लड़कर हार जाने की कथाएं।


हम करेंगे पहल और कोशिशें जरूर
जीवन के विशाल पटल पर
हारे हुए योद्धाओं ,लाचारों के  
दर्द को पढ़ पाने की,
उनके मन से भार हटाने की ।
जीवन में आगे बढ़ पाने की ।


हम जानते हैं जीवन का यह सच
कि अपना वज़न सभी उठाते हैं !
पर जो गैरों का वज़न उठा पाएं,
वही जीवन की राह सुझाते हैं !
जीवन की गुत्थी समझ पाते हैं!
जीवन में अपनी पहचान बनाते हैं!
थके हारे में उत्साह भर, आगे बढ़ाते हैं।


फिर आप , वह और मैं इसी पल
जीवन में कुछ सार्थक करने की,
जीवन की मलिनता को साफ करने की,
क़दम दर क़दम आगे बढ़ने की,
लगातार कोशिशें क्यों नहीं करते ?
जीवन के चौराहे पर असमंजस में हैं क्यों खड़े?


हम जानते हैं भली भांति ,
नहीं है भीतर कोई भ्रांति ,
हम लिखेंगे काल के फलक पर
नित्य नूतन नवीन पटकथाएं ।


हम समझेंगे इसी जीवन में संघर्ष करते
निर्बलों, शोषितो, वंचितों की व्यथाएं।
हम बनना चाहते हैं सभी का सहारा,
हम ज्ञान दान देकर, उनके भीतर आलोक जगाएंगे।
उनको जीवन की सुंदरता का अहसास कराएंगे।

हम परस्पर सहयोग करते हुए,
सब में उत्साह ,उमंग ,जोश भरते हुए,
पूरे मनोयोग से जीवन पथ पर आगे बढ़ेंगे।
कभी काली अंधेरी घटाओं से नहीं डरेंगे।
साथी, हम मरते दम तक, करते रहेंगे संघर्ष,
ताकि ढूंढ सकें कर्मठ रहकर, जीवन में उत्कर्ष सहर्ष !

०४/०१/२००८.
आतंकी भी
इंसान होते हैं
बेशक वे भटके हुए हैं
उनसे हमदर्दी होनी चाहिए
क्यों उन्हें बेवजह कोसते हो ?
उनके आतंकी बनने के पीछे की वज़ह
जानना भी ज़रूरी है।
कोई मज़बूरी रही होगी।
उस विवशता को दूर करना
मुनासिब रहेगा
ताकि किसी को
अपने देश और कौम के खिलाफ़
हथियार उठाने न पड़ें।
बल्कि वे देश दुनिया और समाज की
खिदमत में हो सकें खड़े।
बेशक उन से सभी को हमदर्दी होनी चाहिए।
इसे ज़ाहिर करने से पहले अपनी अकल के घोड़े
तनिक दौड़ा लेने चाहिए।
इसने कितने ही लोगों के वजूद को
नेस्तनाबूद किया होगा।
उनके जाने से उनके परिवार पर
मुसीबतों का पहाड़ टूटा होगा।
कितनी बेवाएं, कितने यतीम बच्चे ,
कितनों के बूढ़े माँ बाप
जिगर के टुकड़ों के
यकायक मर जाने से रोए होंगे।
इस बाबत सोचा है कभी ?
वे चाहते तो खुद को रख सकते थे सही।
अब ये कैद में हैं।
आप चाहते हैं इन्हें फांसी न हो ।
कानून थोड़ी नरमी दिखाए।
मेरे भाई ! ऐसा क्यों ?
क्या आपका किरदार और जमीर गया सो ?
कृपया पहले इसे जगाएं ।
फिर हमदर्दी भरा कोई बहाना बनाएं।
इस जन्नत से भी हसीन कायनात को
इंसानी खुदगर्ज़ी , नफ़रत, मारधाड़,
चोरी सीनाजोरी की लत से दोजख न बनाएं।
बस आप खुद को सही बनाएं।
यह दुनिया ख़ुदबखुद जन्नत सी नजर आएगी।
खौफ के साए भी सिमटते दिख पड़ेंगे ।
बस आप ज़रा
बेवजह हमदर्द दिखने से
गुरेज़ करेंगे तो...
तभी जिन्दगी पटरी पर आती लगेगी।
डरे हुए  ,फीके पड़े चेहरों पर
फिर से
प्यार और विश्वास की चमक दिख पड़ेगी।
यह कायनात
ख़ुदा से गुफ्तगू करती हुई लगेगी।
हमदर्दी और दुआ भी
किसी दवा की तरह शिफा करेगी।
२६/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
हमें
जो संस्कार मिले हैं,
वे हमें सच से जोड़ते हैं,
झूठ से मुख मोड़ना बतलाते हैं।

हम
सच बोलने के आदी हैं
ना कि
ज़ुल्म ओ सितम के आगे
घुटने टेकने वाले
नैतिकता के अपराधी हैं।


हम तो बस फरियादी हैं।
जीवन के रस से पले बढ़े हैं!
जीवन संघर्षों में सीना तान खड़े हैं!!

हमें जो संस्कार मिले हैं,
उनसे हमें जीवनाधार मिला है।
इन संस्कारों ने हमें निर्मित किया है ,
और बतौर उपहार , हमारा व्यक्तित्व गढ़ा है।
  १४/०५/२०२०.
Joginder Singh Dec 2024
नाभि दर्शना साड़ी पहने
कोई स्त्री देखकर ,
पुरुष का सभ्य होने का पाखंड
कभी कभी खंडित हो जाता है ।
उसकी लोलुपता
उसकी चेतना पर पड़ जाती है भारी।
यह एक वहम भर है या हवस भरी सामाजिक बीमारी ?
इसका फैसला उसे खुद करना है।
उसे कभी तो भटकन के बाद शुचिता को वरना है।
१६/१२/२०२४.
हार मिलने पर
उदास होना स्वाभाविक है।
यह कभी कभी
जख्मों को
हरा कर देती है।
यह मन में
पीड़ा भी पैदा करती है ,
जिससे बेचैनी देर तक बनी रहती है।
मन के कैनवास पर
अपनी हार को
किस रंग में
अभिव्यक्त करूं ?
इस बाबत जब भी सोचता हूँ ,
ठिठक कर रह जाता हूँ।
क्या हार का रंग
बदरंग होता है ,
जो कभी मातमी माहौल का
अहसास कराता है ,
तो कभी मिट्टी रंगी तितलियों में
बदल जाता है ,
भीतर मंडराता रहता है।
कभी कभी
हार को उपहार देने का मन करता है,
अपनी हरेक हार के बाद
आत्म साक्षात्कार की खातिर
भीतर उतरता हूँ ,
अपने परों की मजबूती को
तोलता हूँ
ताकि फिर से
जीवन संघर्ष कर सकूं
हार के बदरंग के बाद
तितली के रंगों को
मन के कैनवास पर उतार सकूँ !
हार ,जीत , हास परिहास , आम और ख़ास का
कोलाज निर्मित कर सकूँ ,
उस पर एक कल्पना का संसार उतार सकूँ।
क्या सभी के पास
हार का रंग बदरंग होता है या फिर अलग अलग !
जो करता रहा है  आदमी की कल्पना को वास्तविकता से अलग थलग !!
१२/०४/२०२५.
हार के बाद हार फिर एक बार फिर हार
हार को हराना है हमें, फिर से विजेता
स्वयं को बनाना है हमें ।
बस! बहुत हुआ!
अब गिरते , गिरते भी
स्वयं को संतुलित रखना है हमें।
क़दम से क़दम मिलाकर चलना है हमें।
गिरने के दौर में , बुलन्द बनाना है एक दूसरे को हमें।

आज दुर्दिनों का दौर है भले
भीतर निराशा हताशा है भले ही
हमें मतवातर आत्मावलोकन करना है
तत्पश्चात स्वयं को संतुलित और समायोजित करना है,
हमें हर हाल में स्वयं को सिद्ध करना है
लड़े बग़ैर नहीं हार माननी है
हमें विजेता बन कर सब में उत्साह जगाना है,
हार जीत का अहसास बस एक सिलसिला पुराना है।
हमें हर हाल में स्वयं को आगे बढ़ाना है ,
जीत में हार, हार में जीत सरीखी खेलभावना को
अपने जीवन दर्शन में निरंतर आत्मसात करते हुए
खुद को जिताना ही नहीं,वरन सर्वस्व को
विजेता बनाकर दिखाना है।
हार पर प्रहार करते हुए, ‌
विजय पथ पर जीवन यात्रा को आगे बढ़ाना है।
हार के बाद हार,फिर एक हार ,और हार को बेंध जाना है। जीवन धारा को संघर्ष की ओर
मोड़ कर विजयी बनाना है हमें।
अपने भीतर एक विजेता की
जिजीविषा को उभारना है हमें।
हार गया ,पर , गया बीता नहीं हुआ मैं !
अंतर्मन की इस अंतर्ध्वनि को गौर से सब सुनें !!
ताकि सभी की गर्दनें रहें सदैव तनी हुईं।
०३/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यह कैसा अपनापन ?
...कि आदमी का अचानक
अपमान हो
और अपनापन
परायापन सरीखा लगने लगे।
कोई क्रोध, नाराजगी जताने की
बजाय अपनापन दिखलाने वाला
खामोशी ओढ़ ले।

यह ठीक नहीं है।
इससे अच्छा तो वह अजनबी है ,
जो आदमी की पीड़ा को
सहानुभूति दर्शाते हुए सुन ले।
उसे दिलासा और तसल्ली दे
आदमी के भीतर हौसला और हिम्मत भर दे ।

इसे बढ़ावा देने वाले से क्या कहूं?
अपनेपन का दिखावा न करे ,
कम अज कम
बेवजह बेवकूफ बनाना बंद कर दे ।
इस सब से अच्छा तो परायापन ,
जो कभी कभार
शिष्टाचार वश
इज़्ज़त ,मान सम्मान प्रदर्शित कर दे ,
और तन मन के भीतर जिजीविषा भर दे ,
आदमी में जीने की ललक भरने का चमत्कार कर दे ।
अतः दोस्त सभी से सद्व्यवहार करो।
भूले से भी किसी का तिरस्कार न करो।
दुखी आदमी इस हद तक चला जाए
कि वह गुस्से से ही सही ,
हिसाब किताब की गर्ज से
ज़िंदगी की बही में बदला दर्ज कर जाए ,
ताकि अपमान और परायेपन का दर्द कम हो पाए।

१८/१२/२०२४.
हरेक जीव
विशेष होता है
और उसके भीतर
स्वाभिमान कूट कूट कर
भरा होता है।
परंतु कभी कभी
आदमी को मयस्सर
होती जाती है
एक के बाद
एक एक करके
सफलता दर सफलता ,
ऐसे में
संभावना बढ़ जाती है कि
भीतर अहंकार
उत्पन्न हो जाए ,
आदमी की हेकड़ी
मकड़ी के जाल सरीखी होकर
उस मकड़जाल में
आदमी की बुद्धिमत्ता को
उलझाती चली जाए,
आदमी कोई ढंग का निर्णय
लेने में मतवातर पिछड़ता चला जाए।
उसका
एक अनमने भाव से लिया गया
फ़ैसला
कसैला निर्णय बनता चला जाए ,
आदमी जीवन की दौड़ में
औंधे मुंह गिर जाए
और कभी न संभल पाए ,
वह
बैठे बिठाए पराजित हो जाए।
वह
एकदम चाहकर भी
खुद में
बदलाव न कर पाए।
अंतिम क्षणों में
जीत
उसके हाथों से
यकायक
फिसल जाए।
उसकी हेकड़ी
धरी की धरी रह जाए।
उसे अपने बेबस होने का अहसास हो जाए।
हो सकता है
इस झटके से
वह फिर से
कभी संभल जाए
और जड़ से विनम्र होने की दिशा में बढ़कर
सार्थकता का वरण कर पाए।
०५/०४/२०२५.
कभी कभी
रंगों से गुरेज़ करने वाले को
अपने ऊपर
रंगों की बौछार
सहन करनी पड़ती है।
यही होली की
मस्ती है।
अपने को एक कैनवास में
बदलना पड़ता है
कि कोई चुपके से आए ,
रंग लगाए ,
अपनी जगह बनाए ,
और रंग लगा
चोरी चोरी
खिसक जाए ,
इस डर से
कि कोई सिसक न जाए।
विरह में सिसकारी ,
मिलन में पिचकारी ,
होली के रंग ही तो हैं।
ये अबीर और गुलाल बनकर
कब अंतर्मन को रंग देते हैं !
पता ही नहीं चलता !!
कभी कभी
होली आती है
और हो ली होकर
निकल जाती है।
पता ही नहीं चलता !
जब तक मन में
मौज है,
उमंग तरंग है ,
खेल ली जाए होली ।
जीवन में रंगों और बेरंगों के
बीच चलती रहे
आँख मिचौली !
ऐसी  कामना कीजिए !
अबीर की सौगात
ख़ुशी ख़ुशी
जिन्दगी की झोली में
डालिए
और हो सके तो
आप अपने भीतर
जीवन के रंगों सहित
अपने भीतर झांकिए
ताकि अंतर्मन से मैल धुल जाए !
चेहरा भी मुस्कुराता हुआ खिल पाए !!
अब की होली सब डर
पीछे छोड़कर
मस्ती कर ली जाए!
क्या पता अनिश्चितता के दौर में
कब आदमी की
हस्ती मिट जाए!
क्या पता पछतावा भी
हाथ न आए !
क्यों न जिन्दगी खुलकर
जी ली जाए !
होली भी हो ली हो जाए !!
१४/०३/२०२५.
दोस्त!
अगले सप्ताह
आज के दिन
यानिकि
शुक्रवार अर्थात् जुम्मे को
बहुप्रतीक्षित
रंगों का त्योहार
होली है।
इस बार
हम सब होली खेलेंगे ,
मगर सलीके से !
पर्यावरण को ध्यान में
रखते हुए !
मानसिक शांति को
अपने मानस में
संभल संभल कर
धरते हुए !
ताकि फिर से
देश में संभल को
दोहराया न जा सके।
देश दुनिया के
सौहार्द पूर्ण वातावरण को
प्रदूषित न किया जा सके।

होली सभी का त्योहार है ,
अच्छा रहेगा इसे सब मनाएं ,
पर यदि किसी को रंगे जाना
दिल ओ दिमाग से पसंद नहीं ,
उसे बिल्कुल न रंगा जाना होगा सही।
बाहर से भले ही हम रंगों से करें गुरेज़!
कोशिश करें हम भीतर से रंगे जाएं !
हरगिज़ हरगिज़ नहीं
हम जीवन में किसी को
रंगे सियार से नज़र आएं !
हम दिल से होली का त्योहार मनाएं ,
बेशक हम किसी को जबरन रंग न लगाएं।
रंग जीवन के चारों तरफ़ फैले हुए हैं ,
मन को हम पावन रखें ,
हम करतार के रंगों से रंगे हुए हैं।
स्व निर्मित अनुशासन से बंधे हुए हैं।
हमारे क़दम संस्कारों से सधे हुए हैं।
जीवन में हम सब जिद्दी न बने।
आज देश दुनिया अराजकता के मुहाने पर है।
बहुतों की अक्ल ठिकाने पर नहीं है ,
अतः सब होली की सद्भावना को चुनें ,
किसी के उकसावे में आकर कतई न लड़ें!
परस्पर तालमेल कायम करते हुए सब आगे बढ़ें।
०७/०३/२०२५.
छोटी और लाडली कार को
होली का कोई हुड़दंगी
चोट पहुँचा गया
जब अचानक,
दर्द से बेहाल
अंदर से
आवाज़
आई तब,
"होली मुबारक !"
मन में
उस समय
क्रोध उत्पन्न हुआ ,
मैं थोड़ा सा खिन्न हुआ !
मैंने खुद से  कहा ,
" कमबख्त पाँच हज़ार की
चपत लगा गया !
होली के दिन
मन के भीतर
सुख सुविधा से उत्पन्न
अहंकार की वाट लगा गया !"
मेरी तो होली हो ली जी!
अब सी सी कर के
क्या मिलेगा जी!
यह सोच मन को समझा लिया
और पल भर में
दुनियादारी में
मन लगा
लिया।
१४/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
ਅਜੋਕੇ ਸਮੇਂ ਚ ਰਹਿਣਾ ਬਹੁਤ ਔਖਾ ਹੈ,
ਜਿੱਥੇ ਕਦਮ ਕਦਮ ਤੇ ਮਿਲਦਾ ਧੋਖਾ ਹੈ ,
ਅੱਜ ਫਿਰਕਾ ਪ੍ਰਸਤੀ ਨੇ ਖੁੰਝ ਲਿਆ ਸਾਥੋਂ
ਅੱਗੇ ਵਧਣ, ਤਰਕੀ ਕਰਨ ਦਾ ਮੌਕਾ ਹੈ।
ਅਜੋਕੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਰਾਂਝੇ, ਅਕਲ ਤੋਂ ਵਾਂਝੇ,
ਕਰਦੇ ਮਾੜੀਆਂ ਹਰਕਤਾਂ, ਕਿੰਵੇ ਹੋਊ ਬਰਕਤਾਂ।

ਸਮਾਂ ਤਾਂ ਹਮੇਸ਼ਾ ਹੀ ਚੰਗਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ,
ਫਿਰ ਸਾਨੂੰ ਅਜੋਕਾ ਸਮੇਂ ਕਿਉਂ ਮਾੜਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ,
ਲੱਗਦਾ ਹੈ , ਸਾਡੀ ਬੇਅਕਲੀ ਨੇ, ਮਨਾਂ ਵਿੱਚ,
ਹਰ ਵੇਲੇ ਚੋਰੀ ਸੀਨਾ ਜ਼ੋਰੀ ਦਾ ਜ਼ਹਿਰ ਭਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।
ਤਾਂ ਹੀ ਤਾਂ ਅਜੋਕੇ ਸਮਿਆਂ ਵਿੱਚ ਰਹਿਣਾ ਔਖਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ।
Joginder Singh Nov 2024
ਇਸ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਕਿ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੀ ਹੋਂਦ
ਮੇਰੇ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਛੁਡਾਵੇ
ਕਿਉਂ ਨਾ ਮੈਂ
ਗਹਿਰੀ ਨੀਂਦ ਵਿੱਚ ਸੋ ਜਾਵਾਂ।
ਸੂਰਜ ਦੇ ਦਸਤਕ ਦੇਣ ਤੇ ਵੀ
ਕਦੀ ਨਾ ਉੱਠ ਪਾਵਾਂ।


ਇਸ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾ ਕਿ
ਕੁਝ ਅਣਸੁਖਾਵਾਂ ਘਟੇ।
ਮੈਂ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ,
ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ
ਗੁੜੀ ਨੀਂਦੋਂ ਜਗਾ ਪਾਵਾਂ।
ਤਾਂ ਜੋ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਬਚੀ ਰਹੇ,
ਹੋਰ ਜੀਵਾਂ ਵਾਂਗ
ਆਪਣੇ ਲਈ ਸੁਫਨੇ ਬੁਣਦੀ ਰਹੇ।


ਇਸ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਕਿ
ਅਸੀਂ ਆਪਸ ਚ ਲੜ ਮਰੀਏ।
ਦੋਸਤ ,ਅਸੀਂ ਖੁਸ਼ੀ ਖੁਸ਼ੀ ਵਿਦਾਈ ਲਈਏ।
ਆਪਣੇ ਸਫਰ ਵੱਲ ਤੁਰ ਪਈਐ।
26/12/2017.
Joginder Singh Nov 2024
ਜਿਹੜਾ ਵੀ
ਇਸ਼ਕ ਦੇ ਚੱਕਰ ਚ ਪੈ ਜਾਵੇ,
ਸਚ ਕਹਾਂ ਤਾਂ ਉਹ ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਰੁਲ ਜਾਵੇ।

ਉਹ ਹਮੇਸ਼ਾ ਕਹਿੰਦਾ ਰਹੇਗਾ ਕਿ
ਇਸ਼ਕ ਸੀ,
ਇਸ਼ਕ ਹੈ,
ਇਸ਼ਕ ਰਹਿੰਦੀ ਵਸਦੀ ਦੁਨੀਆਂ ਤੱਕ ਰਹੇਗਾ ।
ਪਰ ਉਹਦੀ ਕਿਸਮਤ ਚ ਲਿਖਿਆ ਹੈ ਕਿ
ਉਹ ਪੱਥਰ ਦਾ ਸਨਮ ਬਣਿਆ ਰਹੇਗਾ
ਅਤੇ ਉਹ ਘੁੱਟ ਘੁੱਟ ਕੇ ਜੀ ਲਵੇਗਾ,
ਮਗਰ ਆਸ਼ਿਕ ਬਣਨ ਤੋਂ ਕਦੇ ਨਾ ਹਟੇਗਾ ,ਨਾ ਹੀ ਪਿੱਛੇ ਰਹੇਗਾ।
ਜੇਕਰ ਉਹ ਪਿੱਛੇ ਹਟ ਗਿਆ ਤਾਂ ਭੈੜਾ ਜਮਾਨਾ ਕੀ ਕਹੇਗਾ ।

ਅੱਜ ਆਸ਼ਕ ਆਪਣੇ ਦੁੱਖ ਮੋਢਿਆਂ ਤੇ ਚੁੱਕੇ
ਪਿੰਡ ਪਿੰਡ, ਗਲੀ ਗਲੀ, ਸ਼ਹਿਰ ਸ਼ਹਿਰ,ਘੁੰਮਦਾ ਪਿਆ ਹੈ ।
ਉਸ ਦੀ ਦੁੱਖ ਭਰੀ ਹਾਲਤ ਨੂੰ ਕੋਈ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸਮਝ ਰਿਹਾ ਹੈ।
ਉਹ ਮਰ ਜਾਏਗਾ ਪਰ ਇਸ਼ਕ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਨਾ ਹਟੇਗਾ ।
ਜੇਕਰ ਉਹ ਪਿੱਛੇ ਹਟ ਗਿਆ ਤਾਂ ਭੈੜਾ ਜਮਾਨਾ ਕੀ ਕਹੇਗਾ।


ਅੱਜ ਵੀ ਉਸ ਦੇ ਸਾਹਮਣੇ
ਆਸ਼ਕਾਂ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸ
ਇੱਕ ਚਾਨਣ ਮੁਨਾਰਾ ਬਣ ਕੇ ਖੜਾ ਹੈ ,
ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਜਜਬਾ ਹੀ ਸਭ ਜਜਬਿਆਂ ਤੋਂ ਬੜਾ ਹੈ।

ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਦੇ
ਪਾਕ ਜਜ਼ਬਿਆਂ ਦੀ ਖਾਤਰ
ਅੱਜ ਆਸ਼ਿਕ ਬਣਿਆ ਹੈ ਪ੍ਰੇਮ ਲਈ ਪਾਤਰ ।
ਉਸ ਦੀ ਝੋਲੀ ਚ ਹਮਦਰਦੀ ਦੇ ਕੁਝ ਬੋਲ ਦਿਲੋਂ ਦੇ ਦਿਓ ।
ਉਹ ਉਲਫਤ ਦੇ ਰਿਸ਼ਤਿਆਂ ਦੀ ਪਵਿੱਤਰਤਾ ਦੇ ਲਈ ਉਹਨਾਂ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਸੱਦਾ ਦੇ ਰਿਹਾ ਹੈ।
ਵੇ ਰੱਬਾ, ਤੂੰ ਉਹਨਾਂ ਪਾਕ ਰੂਹਾਂ ਦੀਆਂ ਧੜਕਣਾਂ ਨੂੰ
ਆਸ਼ਕਾਂ ਦੇ ਦਿਲਾਂ ਅੰਦਰ ਸੰਭਾਲ ਕੇ ਰੱਖੀਂ।
ਆਸ਼ਕ ਹਮੇਸ਼ਾ ਗੂੰਗਾ ਤੇ ਜੜ ਬਣ ਕੇ ਰਹੇਗਾ ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਦੁੱਖ ਦਰਦ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਕਹੇਗਾ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਸਾਰੇ ਮੌਸਮਾਂ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ੀ ਖੁਸ਼ੀ ਸਹੇਗਾ।
ਇਸ਼ਕ ਲਈ ਜੀਏਗਾ ਤੇ ਇਸ਼ਕ ਲਈ ਮਰੇਗਾ।
ਉਹ ਪ੍ਰੇਮ ਨਗਰ ਵੱਲ ਆਪਣੇ ਕਦਮਾਂ ਨੂੰ ਚੁੱਕਦਾ ਰਹੇਗਾ।
ਓਹ ਕਦੇ ਵੀ ਉਫ਼ ਨਹੀਂ ਕਰੇਗਾ।
ਉਹ ਦੁਨੀਆਂ ਦੇ ਤਾਨੇ ਮਿਹਣੇ ਖੁਸ਼ੀ ਖੁਸ਼ੀ ਸਹੇਗਾ ।
Joginder Singh Dec 2024
ਇਸ਼ਕ ਦੀ ਕੂਕ
ਜਦੋਂ ਦਿਲੋਂ ਨਿਕਲਦੀ ਹੈ
ਤਾਂ ਲੰਬੀਆਂ ਪੈੜਾਂ ਵੀ
ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਘੱਟ ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ
ਪਿਆਰ ਭਰੀ ਖੁਸ਼ਬੂ
ਸੰਮੋਹਣ ਬਣ ਕੇ
ਫੈਲਦੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।
ਮਨ ਦੇ ਅੰਦਰ ਛੁਪੇ
ਅਹਿਸਾਸਾਂ ਵਿੱਚ
ਰਵਾਨਗੀ ਤੇ ਠੰਡਕ
ਆ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ
ਅਸਮਾਨ ਵਿੱਚ
ਰੰਗ ਬਿਰੰਗੀਆਂ
ਹਸਰਤਾਂ ਤੇ ਤਾਂਘਾਂ
ਇੰਦਰਧਨੁਸ਼ ਬਣ ਕੇ
ਛਾ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ।
ਮਨ ਦੇ ਅੰਦਰ ਦੀਆਂ
ਤਲਖੀਆਂ ਖ਼ਤਮ
ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ।
Joginder Singh Dec 2024
ਸ਼ਰਾਬ ਨਾ ਪੀਓ,
ਇਸ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ ਖੁੱਲ ਕੇ ਜੀਓ।

ਇਹ ਖੋਹ ਲੈਂਦੀ
ਬੰਦੇ ਤੋਂ ਖ਼ਵਾਬ ਤੇ ਸ਼ਬਾਬ
ਪਰੰਤੂ
ਬੰਦਾ ਇਸ ਸੱਚ ਨੂੰ
ਸਮਝਦਾ ਹੀ ਨਹੀਂ ।
ਉਹ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ
ਹਮੇਸ਼ਾ ਮੰਨਦਾ ਸਹੀ।
ਸ਼ਰਾਬ ਨਾ ਪੀਓ ,
ਇਸ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ ਖੁੱਲ ਕੇ ਜੀਓ।

ਬੰਦਾ ਸੋਚੇ ਮੈਂ ਇਸ ਨੂੰ ਪੀ ਰਿਹਾ ਹਾਂ।
ਖ਼ਬਰੇ ਸ਼ਰਾਬ ਸੋਚਦੀ ਹੋਵੇ ,
ਮੈਂ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਪੀ ਰਹੀ ਹਾਂ।
Joginder Singh Nov 2024
ਵੀਰੋ, ਕੀਰਤੀਆਂ ਦਾ ਝੰਡਾ ਬੁਲੰਦ ਰਹੇ।
ਹਰ ਵਰ੍ਹੇ ਇੱਕ ਮਈ ਦਾ ਦਿਹਾੜਾ ਇਹ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਕਹੇ।
ਅਫ਼ਸੋਸ ਇਸ ਸੱਚਾਈ ਨੂੰ ਕੋਈ ਵਿਰਲਾ ਸਾਥੀ ਹੀ ਸੁਣੇ।
ਇੱਕ ਹੋਰ ਵੱਡਾ ਅਫ਼ਸੋਸ ਕੋਈ ਕੋਈ ਇਸ ਤੇ ਅਮਲ ਕਰੇ।


ਵੀਰੋ, ਕੀਰਤੀਆਂ ਦੇ ਹੱਕ ਵਿਰੋਧੀਆਂ ਕੋਲ ਗਿਰਵੀ ਨਾ ਰੱਖੋ।
ਉਨੀਂਦੇ ਮਿਹਨਤ ਕਸ਼ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਜਗਾਈ ਤੁਸੀਂ ਰੱਖੋ।
ਅਜੇ ਸੱਚੇ ਸੁੱਚੇ ਇਨਕਲਾਬ ਨੇ, ਹੋਂਦ ਚ ਆਉਣਾ ਹੈ ਸਮੇਂ ਦੀ ਕੁੱਖੋਂ,
ਤੁਸੀਂ ਕਾਮੇ , ਕੀਰਤੀਆਂ ਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ‌ਦੇ ਨਾਲ ਨਾਲ ਖੁਦ ਨੂੰ ਜਗਾਈ ਰੱਖੋ।


ਝੰਡਾ ਬੁਲੰਦ ਰਹੇ, ਸਮੇਂ ਸਾਨੂੰ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਬਾਬਤ ਸੁਚੇਤ ਕਰੇ।
ਸਾਥੀਓ ,ਸਮੇਂ ਸਾਨੂੰ ਹਰ ਵੇਲੇ ‌ ਦੂਜੇ ਸੱਚ ਵੀ ਕਹਿੰਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ।
ਇਸ ਕਾਇਨਾਤ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਵੀ ਜੀਵ ਵੇਲਾ ਨਾ ਰਹੇ।
ਹਰ ਕੋਈ ਮਿਹਨਤ ਚ ਦਿਨ ਰਾਤ ਰੁਝਿਆ ਰਹੇ।
28/04/2017.
ਸੁਣਿਆ ਹੈ ,ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੇ ਧਰਨਾ ਲਗਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ।
ਇਹ ਨੌਬਤ ਕਿਉਂ ਆਈ ?
ਕਿਸਾਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਵੀ ਗ਼ਰੀਬ ਤੇ ਮਜ਼ਬੂਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ
ਉਹ ਸਾਰੇ ਕੰਮ ਧੰਦੇ ਛੱਡ ਕੇ
ਆਪਣਾ ਵਿਰੋਧ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਨ ਲਈ
ਧਰਨਿਆਂ ਮੁਜ਼ਾਰਿਆਂ ਦਾ ਆਸਰਾ ਲਵੇ
ਇਹ ਸਭ ਕੁੱਝ ਵਾਪਰਿਆ ਹੈ
ਤਾਂ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਆਪਣੀਆਂ ਗ਼ਲਤੀਆਂ ਦੇ ਕਾਰਨਾਂ ਕਰਕੇ
ਮੈਨੂੰ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ ਹੁਣ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ
ਨਿੱਕੇ ਨਿੱਕੇ ਬੱਚਿਆਂ ਵਾਂਗੂੰ
ਜੀਵਨ ਦੀ ਪ੍ਰੀਖਿਆ ਵਿੱਚ
ਸਫ਼ਲ ਹੋਣ ਦੇ ਲਈ
ਖ਼ੁਦ ਹੀ ਦੇਣਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਹੈ  ਪੇਪਰ,
ਉਹ ਅੱਜ ਤੇ ਕੱਲ੍ਹ ਵੀ
ਪ੍ਰੀਖਿਆਵਾਂ ਦਿੰਦੇ ਰਹਿਣਗੇ ,
ਧਰਨਿਆਂ ਮੁਜ਼ਾਰਿਆਂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿੱਚ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦਿੰਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਜਦ ਤੱਕ ਉਹ ਸਮਝਣਗੇ ਨਹੀਂ ਆਪਣਾ ਸੱਚ ,
ਉਹ ਆੜਤੀਆਂ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰਾਂ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿੱਚ
ਕਠਪੁਤਲੀਆਂ ਬਣੇ ਭਟਕਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਭ੍ਰਸ਼ਟ ਵਪਾਰੀਆਂ ਦੇ ਇਸ਼ਾਰਿਆਂ ਤੇ
ਕਠਪੁਤਲੀਆਂ ਬਣੇ ਨੱਚਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਦੁੱਖੜਾ ਕਿਸ ਨੂੰ ਕਹਿ ਸਕਣਗੇ ?
ਉਹ ਤਾਂ ਹਰ ਵੇਲੇ ਆਪਣਿਆਂ ਹੱਥੋਂ ਰੁੱਲਦੇ ਰਹਿਣਗੇ।
ਲਗਾਤਾਰ ਬਿਨਾਂ ਰੁਕੇ ਨੱਚਦੇ ਰਹਿਣਗੇ ।

ਅੱਜ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ,
ਉਹ ਸਮਝਣ ਆਪਣੇ ਹਾਲਾਤਾਂ ਨੂੰ ।
ਉਹ ਆਪਣਾ ਆਪ ਸੰਭਾਲੀ ਰਖੱਣ,
ਉਹ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਜੰਜਾਲ ਵਿੱਚੋਂ
ਨਿਕਲਣ ਦਾ
ਖ਼ੁਦ ਹੀ ਉਪਰਾਲਾ ਕਰਨ।
ਮੁਸੀਬਤ ਵਿੱਚ ਪਇਆ ਹੋਇਆ ਬੰਦਾ
ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਕੇ ਹੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਪਾਰ ਪਾਉਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਮੰਜ਼ਿਲ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।
05/01/2025.
Joginder Singh Nov 2024
ਤੁਸੀਂ ਦਿਲ ਨਾਲ ਕੰਮ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ
ਹਰ ਵੇਲੇ ਵਿਹਲੇ ਬੈਠੇ ਹੋਏ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹੋ
ਜਾਂ ਫਿਰ ਕਦੇ ਕਦੇ
ਇਧਰ ਉਧਰ ਬੰਦਰਾਂ ਵਾਂਗ ਟਪੂਸੀਆਂ ਭਰਦੇ ਹੋ ।

ਕਦੇ ਕਦੇ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹੋ,
ਉਹ ਵੀ ਵਾਰ ਵਾਰ ਟੋਕਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ,
ਇਹ ਠੀਕ ਨਹੀਂ ਹੈ , ਕਾਕਾ ਜੀ,
ਤੁਸੀਂ ਦਿਲ ਲਗਾ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੋ,
ਮਾਰੋ ਨਾ ਹੁਣ ਡਾਕਾ ਜੀ।

ਤੁਸੀਂ ਕੰਮ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਦਿਆਂ ਹੀ
ਬਦਨ ਢਿੱਲਾ ਛੱਡ ਕੇ
ਬਹੁਤ ਜ਼ਿਆਦਾ ਥੱਕ ਜਾਣ ਦੀ
ਕਰਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਹੋ ਸ਼ਿਕਾਇਤ,
ਇਹ ਵਤੀਰਾ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜਾਇਜ਼।

ਬੰਦਾ ਜੇਕਰ ਵਿਹਲਾ ਬੈਠਣਾ ਸਿੱਖ ਜਾਵੇ,
ਉਹ ਕਿਸੇ ਨੂੰ ਵੀ ਨਾ ਭਾਵੇ।
ਅਜਿਹੀਆ ਬੰਦਾ ਜੇਕਰ ਦਿਨ ਭਰ
ਦੁਨਿਆਵੀ ਕਿਰਿਆ ਕਲਾਪਾਂ ਨੂੰ ਵੇਖਦਾ ਰਹੇ ,
ਕੋਈ ਵੀ ਕੰਮ ਨਾ ਕਰੇ,
ਤਾਂ ਵੀ ਛੇਤੀ ਹੀ ਥੱਕ ਜਾਂਦਾ ਹੈ
ਅਤੇ ਕਦੇ ਕਦੇ ਤਾਂ ਉਸਦੀ
ਵਾਰ ਵਾਰ ਕੀਤੀ ਜਾਣ ਵਾਲੀ ਬਕਵਾਸ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਸੁਆਦਾਂ ਨੂੰ ਕਸੈਲਾ ਬਣਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ ।

ਵਧੀਆ ਰਹੇਗਾ ਅਸੀਂ ,
ਸਮੇਂ ਸਮੇਂ ਤੇ ਆਪਣੇ ਕੰਮਾਂ ਦੀ ਕਰੀਏ ਪੜਚੋਲ।

ਸੱਚ ਤਾਂ ਇਹ ਹੈ ਕਿ
ਕੰਮ ਕੋਈ ਸਜ਼ਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜੀ।
ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ
ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ
ਪ੍ਰਾਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ,
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਧਨ, ਦੌਲਤ, ਸ਼ੋਹਰਤ।
ਇਹ ਰੱਬ ਦੀ ਰਜ਼ਾ ਹੈ ਕਿ
ਬੰਦਾ ਦਿਨ ਰਾਤ ਰੱਜ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੇ,
ਉਹ ਕਦੇ ਕੰਮ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਨਾ ਹਟੇ।
Joginder Singh Nov 2024
ਨੀਮ ਪਹਾੜੀ
ਪਿੰਡ ਦੀ
ਉਦਾਸ ਜ਼ਿੰਦਗੀ  ਵਿੱਚ
ਚਿੰਤਾ ਗ੍ਰਸਤ ਪਿੰਡ ਦਾ ਆਦਮੀ
ਧੁਰ ਅੰਦਰ ਤੱਕ ਚੁੱਪ ਹੈ ।
ਚੰਨ
ਸਿਆਹ ਕਾਲੀਆਂ  ਬਦਲੀਆਂ ਨਾਲ
ਰਿਹਾ ਹੈ ਖੇਡ ।
ਤੇਜ਼ ਹਵਾਵਾਂ  ਚੱਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ,
ਵਿੱਚ  ਵਿੱਚ ਤੇਜ਼ ਗਰਜ਼ ਦੇ ਨਾਲ਼
ਬੱਦਲਾਂ ਦੇ ਝੁਰਮੁਟ ਵਿੱਚੋਂ
ਬਿਜਲੀ ਮਾਰਦੀ ਪਈ ਹੈ ਲਿਸ਼ਕਾਰੇ ।

ਇੰਜ਼ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ
ਬਿਜਲੀ
ਪਿੰਡ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ
ਆਪਣੀਆਂ ਯਾਦਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ
ਵਸਾ ਕੇ ਰੱਖਣ ਦੇ ਵਾਸਤੇ
ਖਿੱਚ ਰਹੀ ਹੋਵੇ
ਨੀਮ ਪਹਾੜੀ ਪਿੰਡ ਦੀ ਤਸਵੀਰ ।

ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਕਿਉਂ ਬਿਜਲੀ
ਖਿੱਚ ਰਹੀ ਹੈ
ਰਹਿ ਰਹਿ ਕੇ
ਪਿੰਡ ਦੀਆਂ ਬਹੁਤ ਸਾਰੀਆਂ ਤਸਵੀਰਾਂ।
ਅਚਾਨਕ ਬਾਰਿਸ਼ ਹੋਣ ਲੱਗੀ,
ਮਨ ਨੂੰ ਕੁਝ ਠੰਡਕ ਮਿਲਣ ਲੱਗੀ।
ਇਸੇ
ਨੀਮ ਪਹਾੜੀ ਪਿੰਡ ਦੀ
ਕੈਦ ਨੂੰ ਝਲਦਾ ਹੋਇਆ ਇਕ ਆਦਮੀ
ਸੋਚਦਾ ਹੈ ਕਿ
ਪਤਾ ਨਹੀਂ ਲਾਈਟ ਕਦੋਂ ਆਵੇਗੀ,
ਕਦੋਂ ਲਿਖ ਸਕਾਂਗਾ ਮੈਂ ,
ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਾਉਣ  ਵਾਸਤੇ
ਕੁਝ ਔਖੇ ਪ੍ਰਸ਼ਨਾਂ ਦੇ ਉੱਤਰ
ਆਪਣੀ ਨੋਟ ਬੁੱਕ ਵਿੱਚ।

ਸਾਲ ਬੀਤ ਚੱਲਿਆ ਹੈ,
ਪਰ ਸਿਲੇਬਸ ਹੁਣ ਤੱਕ ਪੂਰਾ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ ।

ਜਦੋਂ ਉਹ ਆਦਮੀ
ਸੋਚ ਰਿਹਾ ਸੀ
ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ
ਸਕੂਲ ਤੱਕ ਸੀਮਿਤ ਕਰਕੇ ,
ਓਹ
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਜੰਜਾਲ ਵਿੱਚ
ਰਿਹਾ ਸੀ ਜਕੜ।

ਠੀਕ ਉਸੀ ਸਮੇਂ
ਚੰਨ ਹਨੇਰੀ ਰਾਤ ਵਿੱਚ
ਉਸ ਆਦਮੀ ਦੇ ਘਰ ਉੱਪਰ
ਕਾਲੀਆਂ ਬਦਲੀਆਂ ਨਾਲ
ਰਿਹਾ ਸੀ ਖੇਡ।


ਉਹ ਆਦਮੀ
ਫਿਕਰਾਂ ਨਾਲ  ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਜਕੜ,
ਸਮਝ ਰਿਹਾ ਸੀ ਖੁਦ ਨੂੰ ਇੱਕ ਕੈਦ ਵਿੱਚ।

ਅਚਾਨਕ
ਚੰਨ ਨੂੰ
ਸਿਆਹ  ਕਾਲੀਆਂ ਬਦਲੀਆਂ ਨੇ
ਲਿਆ ਸੀ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਢੱਕ।

ਉਸੀ ਵੇਲੇ
ਉਹ ਆਦਮੀ ਸੋਚ ਰਿਹਾ ਸੀ,
ਮੈਨੂੰ ਕਦੋਂ ਮਿਲੇਗੀ ਮੁਕਤੀ,
ਤੇ ਆਪਣਾ ਫਲਕ ।

ਉਸੀ ਸਮੇਂ
ਬਿਜਲੀ
ਹਨੇਰੀ ਬਦਲੀਆਂ ਵਿੱਚੋਂ
ਘੁੱਪ ਹਨੇਰੀ ਰਾਤ ਵਿੱਚ
ਅੱਧ ਸੁੱਤੇ , ਹਨੇਰੇ ਚ ਡੁੱਬੇ ਪਿੰਡ ਉੱਪਰ ਚਮਕੀ।

ਨੀਮ ਪਹਾੜੀ ਪਿੰਡ ਦਾ ਆਦਮੀ
ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਬਾਰੇ ਸੋਚ ਰਿਹਾ ਸੀ,
ਉਹ ਚੰਨ, ਹਨੇਰੀ ਰਾਤ ਵਿੱਚ ਕਾਲੀਆਂ ਬਦਲੀਆਂ,
ਗਰਜ਼ਦੇ ਬੱਦਲਾਂ, ਅੱਧ ਸੁੱਤੇ ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਭੌਂਕਦੇ ਕੁੱਤਿਆਂ,
ਦਮ ਘੋਟੂ ਮਾਹੌਲ ਦੇ ਵਿਚਕਾਰ
ਆਪਣੇ ਮੰਜੇ ਤੇ ਪਿਆ ਸੌਣ  ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਕਰ ਰਿਹਾ ਸੀ,
ਪਰ ਨਿੰਦਰ ਉਸ ਤੋਂ ਕੋਹਾਂ ਦੂਰ ਸੀ।
ਹੌਲੀ ਹੌਲੀ
ਉਸਦੇ ਮਨ ਅੰਦਰ ਵੀ
ਹਨੇਰਾ ਪਸਰ ਗਿਆ।
ਉਹ ਸੁਖ ਦੀ ਸਾਹ
ਲੈਣ ਲਈ
ਸੀ ਤਰਸ ਗਿਆ।

23/11/2024.
Joginder Singh Nov 2024
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚੋਂ ਲੰਘ ਰਿਹਾ
ਇੱਕ ਪੜ੍ਹਾਅ ਭਰ ਹੈ ,
ਇੱਥੇ ਆਦਮੀ ਜਨਮਦਾ ਹੈ ,
ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਜਿਉਂਦਾ ਹੈ,
ਤੇ ਸਮੇਂ ਪੂਰਾ ਹੋਣ ਤੇ
ਸਮੇਂ ਦੇ ਧੁਰ ਅੰਦਰ ਗੁਆਚ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।


ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਸਮੇਂ ਦੇਵਤਾ ਨੂੰ ਕੀਤੀ ਗਈ ਬੰਦਗੀ ਹੈ ,
ਇਸ ਬੰਦਗੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਰਵਾਨਗੀ ਹੈ ,
ਇਸ ਬਾਬਤ ਨਹੀਂ ਹੋਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈਰਾਨਗੀ ਹੈ ।
Joginder Singh Nov 2024
ਪ੍ਰੇਮ ਨੂੰ ਸਮਝਣਾ,
ਉਸ ਵਿੱਚੋਂ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਖੋਜਣਾ,
ਤੇ ਸੰਵੇਦਨਾ ਨੂੰ ਜਗਾ ਪਾਉਨਾ,
ਫੇਰ ਇੱਕ ਜਾਦੂ ਭਰੇ ਸਪਰਸ਼ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋਣਾ
ਪੈਰਾਂ ਤੋਂ ਸਿਰ ਤੱਕ
ਤਨ ਮਨ ਦਾ ਰੰਗਿਆ ਜਾਣਾ
ਆਸਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿਆ।


ਪ੍ਰੇਮ ਦੇ ਅਹਿਸਾਸਾਂ ਦੀ
ਪੜਚੋਲ ਕਰਨਾ
ਉਸ ਵਿੱਚੋਂ ਮੌਤ ਦੀ ਗੰਧ ਨੂੰ ਲੱਭਣਾ
ਚਾਹੁੰਦੇ ਹੋਇਆ ਵੀ
ਤਨ ਮਨ ਦੀ ਹਲਚਲਾਂ ਦਾ
ਅਣਗੋਲਿਆਂ ਤੇ ਅਣਕਿਹਾ ਰਹਿ ਜਾਣਾ
ਕਿਸੇ ਖੁਰਦਰੇ ਅਹਿਸਾਸ ਵਰਗਾ
ਹੁੰਦਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿਆ।


ਤੁਸੀਂ ਪ੍ਰੇਮ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਿਆ ਕਰੋ।
ਹਰ ਵੇਲੇ ਨਾ ਆਪਣੇ ਆਪ ਤੋਂ ਡਰਿਆ ਕਰੋ।
ਇਹ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਆਪਣੀ ਜਗ੍ਹਾ ਬਣਾ ਲਵੇਗਾ।
ਸੁੱਤੇ ਹੋਏ ਅਹਿਸਾਸਾਂ ਨੂੰ ਜਗਾ ਦੇਵੇਗਾ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਭਟਕਦਿਆਂ ਹੋਈ
ਮਿਲੀ ਨਫਰਤ ਨੂੰ ਮਿਟਾ ਦੇਵੇਗਾ।
ਇਹ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ ਰਹਿਣ ਯੋਗ ਬਣਾ ਦੇਵੇਗਾ।

22/09/2008.
ਇਹ ਦਰਦ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੀ ਹੈ
ਜੋ ਸਾਨੂੰ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ਖ਼ਾਸ।
ਰਿਸ਼ਤਾ ਦਰਦ ਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਜੀਬੋ ਗ਼ਰੀਬ
ਜਿੰਨਾ ਦਰਦ ਵੱਧਦਾ ਹੈ ,
ਇਨਸਾਨ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਹਕੀਕਤ ਦੇ ਕਰੀਬ।
ਭਾਵੇਂ ਦਰਦ ਦਿਲ ਦਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਪਿੱਠ ਦਾ ਹੋਵੇ ,
ਇਹ ਆਪਣਾ ਇਲਾਜ ਲੱਭ ਲੈਂਦਾ ਹੈ,
ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਅੱਗੇ ਵਧਣ ਦੀ ਰਾਹ ਲੱਭ ਲੈਂਦਾ ਹੈ।
ਬੁੜਾਪੇ ਵਿੱਚ ਦਰਦ ਉਦਾਸੀ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਜਵਾਨੀ ਵਿੱਚ ਦਰਦ ਸਾਨੂੰ ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ,
ਬਚਪਨ ਦਾ ਦਰਦ ਸੁਪਨਿਆਂ ਵਿੱਚ ਆ ਆ ਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਜਿਉਣ ਦੀ ਵਿਉਂਤ ਦੱਸਦਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
ਦਰਦ ਇਨਸਾਨ ਦਾ ਦੁਸ਼ਮਣ ਨਹੀਂ ਦੋਸਤ ਹੈ ,
ਇਹ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੀ ਰਾਹਾਂ ਵਿੱਚ ਅਕਲਮੰਦ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ।
ਇਹ ਸੁੱਖ ਦੀ ਭਾਲ ਕਰਨ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਬਣ ਕੇ
ਜੀਵਨ ਯਾਤਰਾ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਵਧਾਉਂਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ।
ਇਹ ਦਰਦ ਹੀ ਹੈ
ਜਿਹੜਾ ਇਨਸਾਨ ਨੂੰ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ ,
ਇਹ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਮੰਜ਼ਿਲ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦਾ ਹੈ।

ਕਈ ਵਾਰੀ ਦਰਦ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ
ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ
ਇੱਕ ਦਵਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਇਹ ਅੰਦਰੋਂ ਟੁੱਟੇ ਹੋਏ ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ
ਜਿਉਣ ਦੀ ਤਾਂਘ ਪੈਦਾ ਕਰ
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸੰਚਾਰ ਕਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਦਰਦ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਜੀਵਨ ਜਾਂਚ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ।
ਦਰਦ ਸਿਰਜਣਾ ਦਾ ਮੂਲ ਹੈ ,
ਕਦੀ ਕਦੀ ਇਸ ਦੇ ਅੱਗੇ
ਸਾਰੇ ਸੁੱਖ ਤੇ ਆਰਾਮ
ਲੱਗਣ ਲੱਗਦੇ ਸਮੇਂ ਦੀ ਧੂੜ ਹਨ।
18/02/2025.
Joginder Singh Nov 2024
ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰੇ
ਕਦੀ ਕਦੀ ਚਲੇ ਜਾਂਦੇ ਸਨ ,
ਘਰ ਪਰਿਵਾਰ ਤੋਂ ਦੂਰ
ਮਨ ਦੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਨੂੰ ਖੋਜਣ ,
ਕਰਦੇ ਸਨ ਚੁੱਪ ਰਹਿ ਕੇ ਪ੍ਰਵਾਸ।

ਉਸ ਵੇਲੇ
ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਜੀਵਨ  
ਸੁੱਚਾ ਤੇ ਸਾਦਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ।
ਹਰੇਕ ਬੰਦਾ
ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਕੀਤਾ ਵਾਇਦਾ
ਨਿਭਾਉਂਦਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ ,
ਨਾ ਕਿ ਅੱਜ ਵਾਂਗ
ਬੇਵਜਹ ਮਨਾਂ ਚ ਦਹਿਸ਼ਤ ਭਰ ਕੇ
ਦਿਲ ਦੀਆਂ ਧੜਕਣਾਂ ਨੂੰ ਵਧਾਉਂਦਾ ਹੈ ।




ਉਸ ਵੇਲੇ ਦਾ ਫਲਸਫਾ ਸੀ ,
ਚਕਲਾ ਬੇਲਨ ,ਤਵਾ ਪਰਾਤ,
ਜਿੱਥੇ ਸੂਰਜ ਛੁਪਿਆ ਤੇ ਛਿਪਿਆ ,
ਉੱਥੇ ਕੱਟ ਲਵੋ ਰਾਤ ।



ਸਾਡੇ ਵੇਲੇ
ਆਲਾ ਦੁਆਲਾ ਬੜੀ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ
ਬਦਲ ਰਿਹਾ ਹੈ,
ਕੱਲ ਤੱਕ
ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰੇ
ਤੜਕੇ ਸਾਰ ਰੱਬ ਨੂੰ ਧਿਆਂਉਦੇ ਸਨ,
ਨਾ ਕਿ ਅੱਜ ਵਾਂਗ
ਮੋਬਾਇਲ ਉੱਤੇ ਆਪਣਾ ਧਿਆਨ ਲਗਾਉਂਦੇ  ਹਨ ।
ਕਈ ਵਾਰ
ਮੈਨੂੰ ਇੰਝ ਜਾਪਦਾ ਹੈ ਕਿ
ਅਜੋਕੇ ਆਦਮੀ ਨੇ
ਆਪਣੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿੱਚ
ਮੋਬਾਈਲ ਨਾ ਫੜ ਕੇ
ਇੱਕ ਟਾਈਮ ਬੰਬ ਫੜਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ,
ਜਿਹੜਾ ਇਨਸਾਨੀ ਸਮੇਂ ਨੂੰ ਬੜੀ ਛੇਤੀ ਨਾਲ ਲੀਲ ਰਿਹਾ ਹੈ ,
ਸਾਡੀ ਹਮਦਰਦੀ, ਵੇਦਨਾ , ਸੰਵੇਦਨਾ ਨੂੰ ਸਾਥੋਂ ਛੀਨ ਰਿਹਾ ਹੈ।


ਸਾਡੇ ਬਜ਼ੁਰਗਾਂ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰਿਆਂ ਦਾ ਪ੍ਰਵਾਸ
ਆਲੇ ਦੁਆਲੇ ਦੇ ਪਿੰਡਾਂ, ਸ਼ਹਿਰਾਂ ,ਕਸਬਿਆਂ ਤੱਕ
ਸੀਮਿਤ ਹੁੰਦਾ ਸੀ,
ਮਨਾ ਦੇ ਅੰਦਰ ਅਸੀਮ ਸੁੱਖ ਅਤੇ ਸ਼ਾਂਤੀ ਦਾ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੁੰਦਾ ਸੀ।
Joginder Singh Nov 2024
ਅੱਜ ਕੱਲ ਦੇ ਰਾਂਝੇ
ਅਕਲੋਂ ਸਖਣੇ
ਸਾਨੂੰ ਪਿਆਰ ਦਾ ਪਾਠ ਪੜ੍ਹਾਉਣ ਜੀ।

ਇਹ ਠੀਕ ਹੈ ਕਿ
ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਗੱਲਾਂ ਸੁਣ ਕੇ
ਸਾਡੇ ਵੀ ਜੀਅ ਮਚਲਾਉਣ ਜੀ।


ਅਸੀਂ ਸੋਚਣ ਲੱਗ ਜਾਂਦੇ
ਕਿ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਵੀ ਰਾਂਝੇ ਬਣ ਜਾਂਦੇ,
ਕਿਸੇ ਹੀਰ ਸਲੇਟੀ ਨੂੰ ਲੱਭ ਲਿਆਉਂਦੇ।

ਸਾਡੇ ਬੱਚੇ ਦੇਖ ਸਾਨੂੰ ਲੱਗਣ ਮੁਸਕਰਾਉਂਦੇ ,
ਉਹਨਾਂ ਵੱਲ ਅਸੀਂ ਵੀ ਤੱਕ ਕੇ ਥੋੜਾ ਜਿਹਾ ਸ਼ਰਮਾਉਂਦੇ,
ਫੇਰ ਇਕੱਠੇ ਮਿਲ ਬੈਠ ਕੇ ਠਹਾਕੇ ਕੇ ਅਸੀਂ ਲਗਾਉਂਦੇ।
Joginder Singh Nov 2024
ਪਿਆਰੇ ਦਾ
ਕਿਹੋ ਜਿਹਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿਰਦਾਰ ‌

ਮੈਨੂੰ ਇਹਦਾ
ਰਹਿੰਦਾ ਇੰਤਜ਼ਾਰ


ਮੈਂ ਪਿਆਰੇ ਨੂੰ ਉਡੀਕਦਾ ਹਾਂ,
ਰਹਿ ਰਹਿ ਕੇ ਸੋਚਦਾ ਹਾਂ,
ਪਿਆਰ ਵਿੱਚ ਕੱਲੀ ਵਾਸਨਾ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ,
ਇਸ ਵਿੱਚ ਤਿਆਗ ਦੀ ਕਥਾ ਵੀ ਹੈ ਰਹਿੰਦੀ
ਜਿਹੜੀ  ਸਾਰੇ ਜਬਰ ਜੁਲਮ ਨੂੰ ਚੁੱਪਚਾਪ ਸਹਿੰਦੀ


ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਪਿਆਰੇ ਦਾ ਹੈ ਇੰਤਜ਼ਾਰ
ਜਿਹੜਾ ਦੇਵੇਗਾ ਮੇਰੀ ਨੁਹਾਰ ਨਿਖਾਰ
ਉਸ ਉੱਤੇ ਮੈਂ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਪੂਰਾ ਐਤਬਾਰ
Joginder Singh Nov 2024
ਬੱਚੇ
ਵੱਡਿਆਂ ਤੋਂ
ਸਿੱਖਦੇ ਹਨ
ਚੰਗੀਆਂ ਮਾੜੀਆਂ ਗੱਲਾਂ।
ਉਹ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ
ਦਿਲੋਂ ਮਿਹਨਤ ਕਰਨਾ
ਹਰ ਸਮੇਂ ਅੱਗੇ ਹੀ ਅੱਗੇ ਵਧਣਾ।
ਸੱਚ
ਕਦੀ ਕਦਾਈਂ
ਬੱਚੇ ਸੋਚਦੇ ਹਨ
ਪਤਾ ਨਹੀਂ
ਕਦੋਂ ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ ਵਡੇਰੇ
ਛੱਡਣਗੇ ਅੰਦਰੋਂ ਬਾਹਰੋਂ ਸੜਨਾ,
ਹਰ ਵੇਲੇ
ਛੋਟੀਆਂ ਛੋਟੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਤੇ ਲੜਨਾ।
01/03/2013.
Joginder Singh Dec 2024
ਸੁਖ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ ਲਿਖੀ ਕਵਿਤਾ
ਬਹੁਤ ਕੋਮਲ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ,
ਪਰ ਜਦੋਂ ਕਵਿਤਾ ਰਚੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ,
ਭੁੱਖ ਤੇ ਸੰਘਰਸ਼ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿੱਚ
ਉਦੋਂ ਕਵਿਤਾ ਡੂੰਘੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ।
ਇਹ ਸਾਨੂੰ ਲਗਾਤਾਰ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ ਦੀ
ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਦਿੰਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ,
ਹਮੇਸ਼ਾ ਚੜ੍ਹਦੀ ਕਲਾ ਵਿੱਚ ਰੱਖਦੀ ਹੈ।

ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਸਮਾਂ ,
ਜਦੋਂ ਵੀ ਕਵਿਤਾ
ਭੁੱਖ ਤੇ ਦੁੱਖ ਦੀ ਕੁੱਖੋਂ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ,
ਉਦੋਂ ਉਦੋਂ ਕਵਿਤਾ
ਮਜ਼ਲੂਮ ਤੇ ਨਿਮਾਣਿਆਂ ਵਿੱਚ
ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ ਤੇ ਜੂਝਣ ਦੀ
ਸਮਰਥਾ ਪੈਦਾ ਕਰਦੀ ਹੈ।

ਵੇਖਿਓ ਇੱਕ ਦਿਨ ਇਹ ਕਵਿਤਾ
ਭੁਖ ਤੇ ਬਦਹਾਲੀ ਨੂੰ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚੋਂ ਕੱਢਣ ਲਈ
ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਬਣਦੀ ਰਹੇਗੀ ।
ਇਹ ਹਰੇਕ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੇ ਦੁਖ ਦਰਦਾਂ ਨੂੰ ਹਰੇਗੀ ।
ਇਸ ਸਮੇਂ ਸਮੇਂ ਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਅਗੁਵਾਈ ਵੀ ਕਰੇਗੀ।

ਇਹ ਸਭ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਸਮਾਂ,
ਨਾਲ ਹੀ ਉਹ ਮੰਗ ਲੈਂਦਾ ਹੈ ਸਭਨਾਂ ਤੋਂ ਖਿਮਾ ।

ਅੱਜ ਕੱਲ ਦੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ
ਸਮੇਂ ਵੀ ਸੋਚ ਸਮਝ ਕੇ ਬੋਲਦਾ ਹੈ,
ਉਹ ਆਪਣੇ ਮਨ ਦੀਆਂ ਘੁੰਡੀਆਂ
ਕਦੇ ਕਦੇ ਹੀ ਖੋਲ੍ਹਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ।
16/12/2024.
ਆਦਮੀ ਜਦੋਂ ਮਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਕੀ ਉਸ ਨੂੰ ਰੋਕਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ
ਮੇਰਾ ਮੰਨਨਾ ਹੈ
ਉਸ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਇੱਛਾ ਪੂਰੀ ਕਰਨ ਦਿਓ
ਜੇਕਰ ਉਹ ਰੱਬ ਦੇ ਚਰਨਾਂ ਚ ਹੀ ਜਾਣਾ ਚਾਹੇਗਾ
ਤਾਂ ਕੀ ਉਹ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮਿਲ ਜਾਵੇਗਾ ।
ਰੱਬ ਕਿਥੇ ਹੋਰ ਨਹੀਂ
ਸਾਡੇ ਮਨਾਂ ਵਿੱਚ ਵੱਸਦਾ ਹੈ ,
ਇਸ ਸੱਚ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਵਿੱਚ
ਕਿਉਂ ਹਰ ਕੋਈ ਡਰਦਾ ਹੈ।
ਬੇਵਕਤ ਮਰਨ ਨਾਲੋਂ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਕਸ਼ਟ ਝੱਲਣਾ ਚੰਗਾ ਹੈ।
ਇਸ ਨੂੰ ਸਮਝਦਾ ਨਹੀਂ ਬੰਦਾ ਹੈ ,
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਲੱਗਣ ਲੱਗਦੀ ਇੱਕ ਫੰਦਾ ਹੈ।
ਜਿੰਦਗੀ ਖੁੱਲ ਕੇ ਜੀਓ ,ਐਵੇਂ ਹੀ ਨਾ ਰੋਂਦੇ ਰਹੋ।
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਇੱਕ ਝਮੇਲਾ ਨਹੀਂ
ਇਹ ਇੱਕ ਬਹੂ ਰੰਗੀ ਮੇਲਾ ਹੈ
ਆਓ ਇਸ ਮੇਲੇ ਦਾ ਆਨੰਦ ਮਾਨੀਏ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਪਹਿਚਾਣੀਏ

ਜੇਕਰ ਕੋਈ ਮਰਨਾ ਹੀ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ
ਇੱਕ ਵਾਰ ਰੱਜ ਕੇ ਉਸ ਨਾਲ
ਖੁੱਲੇ ਦਿਲ ਨਾਲ ਵਿਚਾਰ ਵਟਾਂਦਰਾ ਕਰੀਏ।
ਉਸ ਨਾਲ ਜੀ ਭਰ ਕੇ ਗੱਲਾਂ ਕਰੀਏ ,
ਉਸਦੇ ਅੰਦਰ ਚੜਦੀ ਕਲਾ ਚ
ਰਹਿਣ ਦੇ ਵਿਚਰਨ ਦੀ
ਚਾਹਤ ਭਰੀਏ ।
ਮੌਤ ਇੱਕ ਸੱਚਾਈ ਹੈ
ਪਰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੇ ਇਸ ਦੀ
ਆਪਣੀ ਰੰਗਾਂ ਤੇ ਖੂਬਸੂਰਤੀ ਨਾਲ
ਮਰਨ ਦੀ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਭਰਪਾਈ ਹੈ ,
ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਰਨ ਦੀ ਇੱਛਾ ਕਰਨਾ
ਇੱਕ ਬਹੁਤ ਵੱਡੀ ਬੁਰਾਈ ਹੈ ।
ਸਮੈ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਮਰਨ ਦੇ ਬਾਬਤ
ਕਦੇ ਵੀ ਨਾ ਸੋਚੋ, ‌ ਬਲਕਿ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਬਾਰੇ
ਇਸ ਨੂੰ ਗੁਲਜ਼ਾਰ ਕਰਨ ਬਾਰੇ ਸੋਚੋ।
ਐਵੇਂ ਨਹੀਂ ਦੁੱਖਾਂ ਭਰੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਨੂੰ ਕੁਰੀਦਦੇ ਰਹੋ।
Joginder Singh Dec 2024
ਇਸ਼ਕ ਹੋਵੇ
ਤਾਂ ਅਣਖ ਨਾਲ ‌‌!
ਬੰਦਾ ਜੀਵੇ
ਮੜ੍ਹਕ ਨਾਲ !!

ਕਹਿੰਦੀ ਹੈ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ,
ਮੜ੍ਹਕ ਨਾਲ ਜੀਇਆ ਕਰੋ ।
ਕਿਵੇਂ ਨਾ ਮਿਲੂ ਸੁਕੂਨ ?
ਮੁੱਕਿਆ ਕੰਮ ,
ਹੁਣ ਕੁਝ ਮਿਲਿਆ ਆਰਾਮ।
ਪਰ ਰੁਕੀਂ ਨਾ ਮਿੱਤਰਾ !
ਹਾਸਿਲ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ
ਹੁਣ ਤੱਕ ਮੁਕਾਮ।
ਕੰਮ ਨੇ ਤਾਂ ਮੁੜ ਘਿਰ ਫਿਰ ਕੇ
ਫਿਰ ਆ ਜਾਣਾ ਹੈ ,
ਬੰਦਾ ਆਪਣੇ ਕੰਮਾਂ ਵਿੱਚ
ਹਮੇਸ਼ਾ ਰੁਝਿਆ ਰਹਿਗਾ,
ਆਖਿਰ ਕਦੋਂ ਉਹ
ਆਪਣੀਆਂ ਰੀਝਾਂ ਤੇ ਸੱਧਰਾਂ ਨੂੰ
ਪੁਰਾ ਕਰੇਗਾ ?
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਅੱਗੇ ਵਧੇਗਾ।
ਆਪਣੇ ਮੁਕਾਮ ਨੂੰ
ਹਾਸਿਲ ਕਰਨ ਲਈ
ਵੱਧ ਚੜ੍ਹ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੇਗਾ।
ਉਹ ਕਦੀ ਅਵੇਸਲਾ ਨਹੀਂ ਬਣੇਗਾ।
ਉਹ ਵਿਹਲੜ ਰਹਿ ਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਭਟਕਦਿਆਂ ਹੋਇਆ
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ੀਆਂ ਤੋਂ
ਵਾਂਝਾ ਨਹੀਂ ਕਰੇਗਾ।
07/01/2025.
Joginder Singh Nov 2024
ਬਹੁਤ ਵਾਰ
ਜਦੋਂ ਵੀ ਸੋਚਦਾ ਹਾਂ ,ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਤੇ ਮੌਤ ਬਾਰੇ ,
ਮੈਂ ਉਲਝ ਕੇ ਰਹਿ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ।
ਕਾਲ ਦੇ ਹਥੋੜੇ ਦੀ ਜਦ ਵਿੱਚ ਆ ਜਾਂਦਾ ਹਾਂ ,
ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਅੰਦਰ ਇੱਕ ਸਿਹਰਨ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਦਾ ਹਾਂ।


ਮੇਰੀ ਨਿਗਾਹ ਵਿੱਚ,
ਮੌਤ
ਦੇਹ ਦੇ ਮੋਹ ਪਾਸ਼ ਤੋਂ
ਆਜ਼ਾਦੀ ਹੈ।

ਮੌਤ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੀਆਂ ਹਲਚੱਲਾਂ ਵਿੱਚੋਂ
ਆਪਣੀਆਂ ਜੜਾਂ ਨੂੰ ਖੋਜਣਾ ਹੈ ।


ਮੌਤ ਭਰਮਾਂ ਵਹਿਮਾਂ ਤੋਂ ਵੀ ਮੁਕਤੀ ਹੈ,
ਇਹ ਰੱਬੀ ਹੋਂਦ ਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਨ ਦੀ ਜੁਗਤ ਹੈ।
ਇਹ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਵਿੱਚ ਵਿਚਰਨ ਦਾ ਇੱਕ ਅਦਭੁਤ ਮੌਕਾ ਹੈ।

ਮਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ
ਜੀਵ ਕਿੱਥੇ ਜਾਂਦਾ ਹੈ,
ਕੀ ਉਹ ਆਪਣੇ ਰਿਸ਼ਤੇਦਾਰਾਂ ਦਾ
ਹਾਲ ਚਾਲ ਪੁੱਛ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ,,
ਇਸ ਬਾਬਤ ਜਦੋਂ ਵੀ ਮੈਂ
ਆਪਣੇ ਮਨ ਤੋਂ ਜਾਣਨਾ ਚਾਹਿਆ,
ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ
ਇੱਕ ਘੁੰਮਣ ਘੇਰੀ ਵਿੱਚ ਪਾਇਆ।


ਹਾਂ ,ਇਹ ਵੀ ਸੱਚ ਹੈ ਕਿ
ਆਤਮਾ ਬ੍ਰਹਮੰਡ ਵਿੱਚ ਘੁੰਮਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ।
ਸਾਡੇ ਸਾਰਿਆਂ ਦਾ ਸੱਚ ਹੈ ਕਿ
ਮੌਤ ਸਾਨੂੰ ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ ਬਣਾਉਂਦੀ ਹੈ ।
ਅੱਜ ਲੋਹੜੀ ਹੈ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕਰਨ ਦਾ ਦਿਹਾੜਾ,
ਸਾਡੇ ਪੰਜਾਬੀਆਂ ਦਾ ਰੋਬਿਨ ਹੁੱਡ ।

ਅੱਜ ਲੋੜ ਹੈ
ਇੱਕ ਵਾਰ ਫਿਰ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਦੀ ,
ਪੰਜਾਬ ਦੀਆਂ ਧੀਆਂ
ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿੱਚ
ਖਾਂਦੀਆਂ ਪਈਆਂ ਨੇ ਧੱਕੇ ,
ਅੱਜ ਕੱਲ ਦੇ ਔਖੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ
ਉਹ ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ
ਕਦੇ ਕਦੇ
ਸ਼ੋਸ਼ਣ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ
ਉਹ ਭਾਲ ਦੀਆਂ ਨੇ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਵਰਗਾ ਪਿਓ
ਜਿਹੜਾ ਰੱਖ ਸਕੇ ਖ਼ਿਆਲ
ਧੀਆਂ ਦਾ
ਔਖੇ ਸਮੇਂ ਵਿੱਚ।
ਅੱਜ ਕੱਲ ਕੁੜੀਆਂ ਦੀਆਂ
ਲੋਹੜੀ ਮਨਾਉਣ ਦਾ
ਵੱਧ ਗਿਆ ਹੈ ਰਿਵਾਜ,
ਪਰ ਜਦੋਂ ਅਗਲੇ ਦਿਨ
ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਧੱਕਾ ਹੁੰਦਾ ਵੇਖਦਾ ਹਾਂ
ਤਾਂ ਮਨ ਵਿੱਚ ਉਠੱਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ ਹਨ
ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਸਵਾਲ ।
ਇਹ ਸਵਾਲ ਇਕੱਠੇ ਹੋ ਕੇ
ਦਿਲੋਂ ਦਿਮਾਗ ਵਿੱਚ
ਪੈਦਾ ਕਰ ਦਿੰਦੇ ਹਨ ਬਵਾਲ।
ਅੱਜ ਧੀਆਂ ਨੂੰ ਹੈ ਇੰਤਜ਼ਾਰ
ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਦਾ
ਜਿਹੜਾ ਦਿਲਾ ਸਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਸੁਰੱਖਿਆ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ।
ਅੱਜਕੱਲ੍ਹ ਦੁੱਲਾ ਭੱਟੀ ਵਰਗੇ ਦਿਲਾਵਰ ਅਤੇ ਬਹਾਦਰ
ਬਹੁਤ ਘੱਟ ਨਜ਼ਰ ਆਉਂਦੇ ਹਨ
ਜਿਹੜੇ ਆਪਣੇ ਰਸੂਖ਼ ਦੇ ਕਾਰਨ
ਧੀਆਂ ਦੇ ਵੈਰੀਆਂ ਨੂੰ
ਸੌਖੇ ਤੇ ਸਹਿਜੇ ਹੀ ਧੂੜ ਚੱਟਾ ਸੱਕਣ,
ਉਨ੍ਹਾਂ ਉੱਤੇ ਨਕੇਲ ਪਾਉਣ ਲਈ ਉਪਰਾਲੇ ਕਰ ਸੱਕਣ।

ਬੇਸ਼ੱਕ ਅੱਜ ਲੋਹੜੀ ਹੈ
ਤੇ ਕੱਲ ਲੋਕ ਮਾਘੀ ਵੀ ਮਨਾਉਣਗੇ,
ਪਰ ਕਦੋਂ ਉਹ ਆਪਣਾ ਸੱਚਾ ਸੁੱਚਾ ਕਿਰਦਾਰ ਨਿਭਾਉਣਗੇ ?

ਅਸੀਂ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ
ਸਭਨਾਂ ਦੀ ਲੋਹੜੀ ਖੁਸ਼ੀਆਂ ਭਰਪੂਰ ਹੋਵੇ ,
ਨਾਲ ਹੀ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਮਨਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ
ਕਦਰਾਂ ਤੇ ਕੀਮਤਾਂ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋਵੇ।
13/01/2025.
ਅੱਜ ਅਚਾਨਕ ਕਿਸੇ ਦਾ ਫੋਨ ਆਇਆ ,
ਫੋਨ ਤੇ ਸੁਣਾਈ ਦਿੱਤਾ,
ਵਿਸਾਖੀ ਦੀ ਬਹੁਤ ਬਹੁਤ ਵਧਾਈ ।
ਮਨ ਵਿੱਚ ਖਿਆਲ ਆਇਆ,
ਮੈਂ ਕਿਵੇਂ ਵਿਸਾਖੀ ਨੂੰ ਭੁੱਲ ਗਿਆ ?
ਆਪਣੇ ਕੰਮ ਕਾਰਾਂ ਵਿੱਚ ਰੁੱਝਿਆ ਰਿਹਾ।
ਪਿੰਡ ਵਿੱਚ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ,
ਤਾਂ ਵਿਸਾਖੀ ਦੇ ਮੇਲੇ ਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਸੀ ਇੰਤਜ਼ਾਰ।
ਹੁਣ ਸ਼ਹਿਰ ਦੀ ਨਠ ਭੱਜ ਵਿੱਚ
ਵਿਸਰ ਜਾਂਦਾ ,
ਤੀਜ  ਤਿਉਹਾਰ ।

ਅੱਜ ਪਿੰਡ ਦੇ ਨੇੜੇ
ਸਾਧ ਦੀ ਖੱਡ ਵਿੱਚ
ਮਨਾਇਆ ਗਿਆ ਹੋਵੇਗਾ  
ਵਿਸਾਖੀ ਦਾ ਤਿਉਹਾਰ।
ਉੱਥੇ ਮੇਲਾ ਵੀ ਲੱਗਿਆ ਹੋਵੇਗਾ।
ਮੈਂ ਝਮੇਲਿਆਂ ਵਿੱਚ ਫਸਿਆ ਰਿਹਾ ,
ਨਹਾਉਣ ਤੋਂ ਵੀ ਵਾਂਝਾ ਰਿਹਾ।
ਲੋਕ ਇਸ ਦਿਨ
ਕਰਦੇ ਹਨ  
ਨਦੀਆਂ , ਤਲਾਬਾਂ , ਸਰੋਵਰਾਂ ਵਿੱਚ ਇਸ਼ਨਾਨ।
    
ਅੱਜ ਅਚਾਨਕ ਕਿਸੇ ਦਾ ਫੋਨ ਆਇਆ,
ਫੋਨ ਤੇ ਸੁਣਾਈ ਦਿੱਤਾ ,
ਵਿਸਾਖੀ ਦੀ ਬਹੁਤ ਬਹੁਤ ਵਧਾਈ।
ਫਿਰ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਮਿੱਤਰ ਪਿਆਰੇ ਨਾਲ
ਇਧਰ ਉਧਰ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕੀਤੀਆਂ।
ਇਸ ਮੌਕੇ
ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਉੱਤੇ ਸ਼ਰਮ  ਵੀ ਆਈ।
ਕਿਉਂ ਮੈਂ ਵਿਸਰ ਬੈਠਿਆ
ਵਿਸਾਖੀ ਦਾ ਤਿਉਹਾਰ ?
.....
ਅਤੇ ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ
ਆਪਣੇ ਵਿਰਾਸਤੀ ਖੇਤ ਖਲਿਆਣ ,
ਜਿੱਥੇ ਖੇਤਾਂ ਵਿੱਚ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ ਕਿਸਾਨ।
ਕਿਵੇਂ ਹੋਵੇਗਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕਲਿਆਣ ?

13/04/2025.

— The End —