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आदमी
कभी कभी
अपनी किसी
आंतरिक कमी की
वज़ह से विदूषक जैसा
व्यवहार न चाहकर भी करता है ,
भले ही वह बाद में पछताता रहे अर्से तक।
भय और भयावह अंजाम की दस्तक मन में बनी रहे।

विदूषक भले ही
हमें पहले पहल मूर्ख लगे
पर असल में वह इतना समझदार
और चौकन्ना होता है कि उसे डराया न जा सके ,
वह हरदम रहता है सतर्क ,अपने समस्त तर्क बल के साथ।
विदूषक सदैव तर्क के साथ क़दम रखता है ,
बेशक उसके तर्क आप को हँसाने और गुदगुदाने वाले लगें।

आओ हम विदूषक की मनःस्थिति को समझें।
उसकी भाव भंगिमाओं का भरपूर आनंद लेते हुए बढ़ें।
कभी न कभी आदमी एक विदूषक सरीखा लगने लगता है।
पर वह सदैव सधे कदमों से
जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश करता है ,
यही सब उसके व्यक्तित्व के भीतर कशिश भरता है।
उसे निरर्थकता में भी सार्थकता खोजने का हुनर आता है!
तभी वह बड़ी तन्मयता से
तनाव और कुंठा ग्रस्त व्यक्ति के भीतर
हंसी और गुदगुदाहट भर पाता है।
ऐसा करके वह आदमी को तनावरहित कर जाता है !
यही नहीं वह खुद को भी उपचारित कर पाता है !!
०३/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
खरा
कभी नहीं सोचता
कि खोट मन में रही होगी
सो पहन लिया था
उसने अचानक मुखौटा ।
मगर
खोटा क्या कभी सोचता है
कि खोट करने से
वह दिखने लगेगा
छोटा ,
सभी के सम्मुख ही नहीं ,
स्वयं के समक्ष भी ।

वह हमेशा
हरि हरि कहता है,
एक दिन खरा बन पाता है ।
फिर वह हर बार
पूर्ववत विश्वास पर
अडिग रहते हुए
खरी खरी बातें
सभी से कहता है।

मगर
खोटा।
खोट को भी शुद्ध बताता है,
वह खोट में भी
शुद्धता की बात करता है ,
और अपनी साख गवां देता है।
मगर विदूषक पैनी नज़र रखता है,
वह अपने अंतर्मुखी स्वभाव से
मुखौटे का सच
जान जाता है।

वह कभी हां की मुद्रा में सिर हिलाकर,
और कभी न की मुद्रा में सिर हिलाकर,
मतवातर हां और न की मुद्राओं में सिर हिला,हिला कर
खोटे के अंतर्मन में भ्रम उत्पन्न कर देता है।
खोटा अपने मकड़जाल में फंसकर सच उगल देता है।

अपने इस हुनर के दम पर
विदूषक हरदिल अजीज बन पाता है।

वह सभी के सम्मुख
दिल से ठहाके लगाने लगता है,
यही नहीं वह सभी से ठहाके लगवाता है।
इस तरह
विदूषक
सभी को आनंदित कर जाता है।

   ०९/०५/२०२०
आदमी का दंभ
जब कभी कभी
अपनी सीमा लांघ जाता है,
तब वह विद्रूपता का
अहसास कराता है,
यह न केवल उसे जीवन में
भटकने को बाध्य करता है,
बल्कि उसे सामाजिक ताने-बाने से
किसी हद तक बेदखल कर देता है।
यह उसे जीवन में उत्तरोत्तर
अकेला करता चला जाता है,
आदमी दहशतज़दा होता रहता है।
वह अपना दर्द भी
कभी किसी के सम्मुख
ढंग से नहीं रख पाता है।

कोई नहीं होना चाहता
अपने जीवन में
विद्रूपता के दंश का शिकार,
पर अज्ञानता के कारण
जीवन के सच को जान न पाने से,
अपने विवेक को लेकर
संशय से घिरा होने की वज़ह से  
वह समय रहते जीवन में
ले नहीं पाता कोई निर्णय
जो उसे सार्थकता की अनुभूति कराए ,
उसे निरर्थकता से निजात दिलवा पाए ,
उसे विद्रूपता के मकड़जाल में फंसने से बचा जाए।

विद्रूपता का दंश
आदमी की संवेदना को
लील लेता है,
यह उसे क्रूरता के पाश में
जकड़ लेता है,
आदमी दंभी होकर
एक सीमित दायरे में
सिमट जाता है ,
फलत: वह अपने मूल से
कटता जाता है ,
अपनी संभावना के क्षितिज
खोज नहीं पाता है !
दिन रात भीतर ही भीतर
न केवल
हरपल कराहता रहता है,
बल्कि वह अंतर्मन को
आहत भी कर जाता है।
उसका जीवन तनावयुक्त
बनता जाता है ,
वह शांत नहीं रह पाता है !
असमय कुम्हला कर रह जाता है !!
२८/०१/२०२५.
एक अदद कफ़न का
इस्तेमाल
कुर्ते पाजामा
बनवाने में
कर लिया तो क्या बुरा किया।
अगर कोई गुनाह कर लिया तो कर लिया।
वे देखते हो जिंदा इंसानों के मुर्दा जिस्म ,
जो मतवातर काम करते हुए
एक मशीन बने हैं।
घुट घुट कर जी रहे हैं।

वह देखते हो
अपनी आंखों के सामने
गूंगा बना शख़्श
जो घुट घुट कर जिया,
तिल तिल कर मर रहा ,
अंदर अंदर सुलग रहा।

वह कैसा शान्त नज़र आता है,
वह कितना उग्र और व्यग्र है,
वह भीतर से भरा बैठा है।
उसके अंदर का लावा बाहर आने दो।
उसे अभिव्यक्ति का मार्ग खोजने दो।

आज वह पढ़ा लिखा
बेरोजगारी का ठप्पा लगवाए है,
आगे बढ़ने के सपने भीतर संजोए हुए है।

पिता पुरखों की चांडालगिरी के धंधे में
आने को है विवश ,
एक नए पाजामे की
मिल्कियत का उम्मीदवार
भीतर से कितना अशांत है !!
महसूसो इसे !
सीखो ,इस जीवन की
विद्रूपता और क्रूरता को
कहीं गहरे तक महसूसने से !!
हमारे इर्द-गिर्द कितना
अज्ञान का अंधेरा पसरा हुआ है।
अभी भी हमें आगे बढ़ने के मौके तलाशने हैं।
इसी दौड़ धूप में सब लगे हुए हैं।
०६/१२/१९९९.
Joginder Singh Nov 2024
दिन भर की थकी हुई वह बेचारी ,
जी भर कर सो भी नहीं सकती।
पता नहीं,वह पत्नी है या बांदी?
शायद विवाहिता यह सब नहीं सोचती।
व्यक्ति को
विशेष
बनाता है ,
मन के भीतर व्याप्त
जिम्मेदारी का
अहसास!
व्यक्ति
स्वयं को
समझता है खास।
अभी अभी
सुबह सुबह
पढ़ी है एक ख़बर
मेरे शहर का
एक बालक
जूडो की चैंपियनशिप में
जीत कर लाया है
एक सिल्वर मेडल।
वह बड़ा होकर
माँ को देना चाहता है
एक घर की सौगात !
छोटे भाई को
बनाना चाहता है
एक अच्छा इंसान !
उम्र उसकी अभी है
बारह साल ,
वह रखना चाहता है
माँ और छोटे भाई का ख्याल।
जिम्मेदारी की भावना
उसे बना देती है ख़ास।
उसे है जीवन की
मर्यादा का अहसास।
मैं चाहता हूँ कि
मेरा शहर उसके स्वप्न को
पूरा करने में मददगार बने
ताकि विशिष्टता का भाव
उसके भीतर सदैव बना रहे।
जीवन संघर्ष में वह विजयी बने।
सार्थकता के पुष्प
उसके इर्द गिर्द खिलते रहें !
उसे प्रफुल्लित करते रहें !!
विशेष विशिष्ट बने!
जीवन की सुगंध
उसका मार्ग प्रशस्त करती रहे।
२१/०१/२०२५.
यह सुनने में बड़ा अच्छा लगता है कि
जल है तो कल है,
सुखद भविष्य के लिए
जल का संचयन करें ,
कुदरत माँ को समृद्ध करें।
परंतु आदमी के क्रिया कलाप
विपरीत ही ,
पूर्णतः विरोधाभासी होते हैं,
समय पर वर्षा न होने पर
सब रोते कुरलाते हैं,
उन्हें अपने कर्म याद आते हैं।
आज विश्व जल दिवस के दिन
माली जी ने मुझे चेताया कि
साहब , मैं छुट्टियां लेकर क्या घर गया !
पौधों को पानी न मिलने के कारण
सारा बगीचा मुरझा गया।
आप जो लीची का जो पौधा लेकर आए हैं ,
यह भी सूख गया है !
आप का पैसा बर्बाद हुआ।

अब गर्मी आ गई है ,
पानी ज़्यादा  चाहिएगा ,
वरना पौधे कुमल्हा जायेंगे!
वे बिन आई मौत मारे जायेंगे!!
जैसे लीची का पौधा
पानी न मिलने से मर गया।

मुझे ख्याल आया कि
जल का संरक्षण कितना अपरिहार्य है।
यह जीने की शर्त अनिवार्य है।
फिर हम सब क्यों कोताही करें?
क्यों न सब अपनी संततियों के लिए
कुछ समझदार बनें ,
जल को यूं ही न बर्बाद करें।


माली जी ने मुझे चेताया था।
कुछ कुछ अक्लमंद बनाया था।
थोड़ी सी लापरवाही ने लीची के पौधे की
जान ले ली थी।
भविष्य की समृद्धि पर भी
कुछ रोक लग गई थी।
बेशक इसे आदमी चंद रुपयों का नुकसान समझे,
पर सच यह है ,
पेड़ एक बार पल जाने पर
सालों साल समृद्धि का उपहार देते हैं!
वे जीवन को खुशहाली का वरदान भी देते हैं!!
२२/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
विश्वास का टूटना
अप्रत्याशित ही
आदमी का
दुर्घटनाग्रस्त हो जाना है।

और आदमी
यदि जीवन में
विश्वसनीय बना रहे
तो सफलता के पथ पर
आगे बढ़ते जाना है।

हमारे कर्म होने चाहिएं ऐसे
कि विश्वास
कभी विष में न बदले
वरना
अराजकता का दंश
हम सब को
मृतक सदृश बनाएगा।
यह सब के भीतर बेचैनी बढ़ाएगा ।
हमें ही क्या !
प्रकृति के समस्त जीवों को रुलाएगा !

दुनिया - जहान में
सभी की विश्वसनीयता बनी रहे
और हम सब अपनी अंतर्रात्मा की
आवाज़ सुनते रहें ,
ऐसे सब कर्म करते रहें
ताकि चारों ओर
सुख समृद्धि और सम्पन्नता की
बयार बहती रहे।

दोस्त !
अपना और उसका विश्वास
बचा कर रख
ताकि सभी को
मयस्सर हो सके सुख ,
किसी विरले को ही
झेलना पड़े दुःख - दर्द ।

१७/०१/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
दुनिया को कर भी ले विजित
किसी चमकदार दिन
कोई सिकंदर
और कर ले हस्तगत सर्वस्व।
धरा की सम्पदा को लूट ले।
तब भी माया बटोरने में मशगूल,
लोभ,लालच, प्रलोभन के मकड़जाल में जकड़ा
वह,महसूस
करेगा
किसी क्षण
भले वह विजयी हुआ है,
पर ...यह सब है  व्यर्थ!
करता रहा जीवन को
अभिमान युक्त।
पता नहीं कब होऊंगा?
अपनी कुंठा से मुक्त।!

कभी कभी वजूद
अपना होना,न होना को  परे छोड़कर
खो देता है
अपनी मौजूदगी का अहसास।
यह सब घटना-क्रम
एक विस्फोट से कम नहीं होता।


सच है कि यह विस्फोट
कभी कभार ही होता है।
ऐसे समय में  
रीतने का अहसास होता है।
अचानक एक विस्फोट
अन्तश्चेतना में होता है,
विजेता को नींद से जगाने के लिए!
मन के भीतर व्यापे
अंधेरे को दूर भगाने के लिए!!
Joginder Singh Dec 2024
टैलीविजन पर
समसामयिक जीवन और समाज से
संबंधित चर्चा परिचर्चा देख व सुन कर
आज अचानक आ गया
एक विस्मृत देशभक्त वीर सावरकर जी का ध्यान।

जिन्हें ‌आज तक देश की
आज़ाद फिजा के बावजूद
विवादित बनाए रखा गया।
उन्हें क्यों नहीं
भारत रत्न से सम्मानित किया जा सका ?
मन ने उन को ‌नमन किया।
मन के भीतर एक विचार आया कि
आज जरूरत है
उनकी अस्मिता को
दूर सुदूर समन्दर से घिरे
आज़ादी की वीर गाथा कहते
अंडेमान निकोबार द्वीपसमूह में
स्थित सैल्यूलर जेल की क़ैद से
आज़ाद करवाने की।
वे किसी हद तक
आज़ाद भारत में अभी भी एक निर्वासित जीवन
जीने को हैं अभिशप्त।
अब उन्हें काले पानी के बंधनों से मुक्त
करवाया जाना चाहिए।
उनके मन-मस्तिष्क में चले अंतर्द्वंद्व
और संघर्षशील दिनचर्या को
सत्ता के प्रतिष्ठान से जुड़े
नेतृत्वकर्ताओं के मन मस्तिष्क तक
पहुंचाया जाना चाहिए
ताकि अराजकता के दौर में
वे राष्ट्र सर्वोपरि के आधार पर
अपने निर्णय ले सकें,
कभी तो देश हित को दलगत निष्ठाओं से
अलग रख सकें।
वीर सावरकर संसद के गलियारों में
एक स्वच्छंद और स्वच्छ चर्चा परिचर्चा के
रूप में जनप्रतिनिधियों के रूबरू हो सकें।
कभी सोये हुए लोगों को जागरूक कर सकें।

सच तो यह है कि
भारत भूमि के हितों की रक्षार्थ
जिन देशी विदेशी विभूतियों ने
अपना जीवन समर्पित कर दिया हो ,
उन सभी का हृदय से मान सम्मान किया जाना चाहिए।

हरेक जीवात्मा
जिसने देश दुनिया को जगाने के लिए
अपने जीवनोत्सर्ग किया,
स्वयं को समर्पित कर दिया,
उन्हें सदैव याद रखना चाहिए।
ऐसी दिव्यात्माओं की प्रेरणा से
समस्त देशवासियों को
अपना जीवन देश दुनिया के हितार्थ
समर्पित करना चाहिए।
समस्त देश की शासन व्यवस्था
' वसुधैव कुटुम्बकम् 'के बीज मंत्र से
सतत् प्रकाशित होती रहनी चाहिए।
१८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कभी-कभी
जीवन का वृक्ष
अज्ञानी से ज्ञानी
बना रहा लगता है
और
वृक्ष पर पल रहा जीवन
अंकुरित, पुष्पित, पल्लवित
होकर सब को
हर्षित कर रहा लगता है।

मेरे घर के सामने
एक पीपल का वृक्ष
पूरी शान ओ 'शौकत से
एक स्वाभिमानी बुजुर्ग सरीखा
शांत सा होकर
आत्माभिमान से
तना हुआ
जीवन के उद्गम को
कर रहा है
मतवातर  इंगित
और रोमांच से भरपूर !
ऐसा होता है प्रतीत
कि अब जीवन
अपने भीतर जोश भरने को
है उद्यत।
जीवन
समय के सूक्ष्म
अहसासों से
सुंदरतम बन पड़ा है।
ऐसे पलकों को झपकाने के क्षणों में
कोयल रही है कूक
पल-पल
कुहू कुहू कुहू कुहू
करती हुई।
मानो यह सब से
कह रही हो
जीवन का अनुभूत सत्य,
इसे जीवन कथ्य बनाने का
कर रहा हो आग्रह
कि अब रहो न और अधिक मूक ।
कहीं हो न जाए  
जीवन में कहीं कोई चूक।
कहीं जीवन रुका हुआ सा न  बन जाए ,
इसमें से सड़ांध मारती कोई व्यवस्था नज़र आ जाए ।

वृक्ष का जीवन
कहता है सब से
जो कुछ भी देखो
अपने इर्द-गिर्द ।
उसे भीतर भर लो
उसका सूक्ष्म अवलोकन करते हुए ,
अपनी झोली
प्रसाद समझ भर लो।

इधर
पीपल के पेड़ की
एक टहनी पर
बैठी कोकिला
कुहू कुहू कुहू कुहू कर
चहक उठी है  ,
उधर हवा भी
पीपल के पत्तों से
टकराकर
कभी कभार ध्वनि तरंगें
कर रही है उत्पन्न ।
यह हवा छन छन कर
मन को महका रही है।
जीवन को
सुगंधित और सुखमय होने का
अहसास करा रही है।

कोकिला का कुहूकना,
पत्तों के साथ हवा के झोंकों का टकराना ,
मौसम में बदलाव की दे रहा है  सूचना ।
यह सब आसपास, भीतर बाहर
जीवन के एक सम्मोहक स्वरूप का
अहसास करा रहे हैं ,
ऐसे ही कुछ पल जीवन को
जड़ता से दूर ले जाकर
गतिशीलता दे पा रहे हैं।
जीवन के भव्य और गरिमामय
होने की प्रतीति करा रहे हैं।

वृक्ष का जीवन
किसी तपस्वी के जीवन से
कम नहीं है ,
यह अपने परिवेश को
जीवंतता से देता है भर ,
यह आदमी को
अपनी जड़ों से
जुड़े रहने की
देता रहा है प्रेरणा ।
१२/१२/२०२४.
दुनिया
सेंट वेलेंटाइन के सद्कर्मों की स्मृति को
जन जन में याद कराने ,
विस्मृतियों से बाहर निकाल कर
स्मृति में बसाने की गर्ज़ से
उनकी याद में
वेलेंटाइन डे
मनाती है ,
पर
मेरे देश में
कई बार
इस दिन
अचानक
छुप छुप कर
मिलने वाले
प्रेमी युगलों की
शामत आ जाती है।
इस बार भी
कुछ ऐसा घटित हो सकता है,
प्रेम की आकांक्षाओं से भरे
युवा और वृद्ध दिल
टूट सकते हैं
वह भी संस्कृति को
बचाने के नाम पर।
शायद
वे अजंता एलोरा की
कंदराओं में
दर्ज़
काम और अध्यात्म के
जीवन्त दस्तावेज़ो को
भूल जाते हैं ,
जहां जीवन का मूल
कलात्मक अभिव्यक्ति पाता है।
हमारे मंदिरों में प्रेम का उदात्त स्वरूप
देखने को मिलता है ,
हमारे पुरखे काम के महत्व को
गहराई तक आत्मसात कर
जीवन का ताना बाना बुनने में
सिद्धहस्त रहे हैं।
फिर हम क्यों जीवन के इस वैभव से मुँह चुराएं ?
क्यों न हम
इस वेलेंटाइन डे पर
प्रेम भाव का प्रचार प्रसार करने में
पहल करें !
कम से कम
हम प्रेम के कोमल भावों को
नफ़रत की कठोरता में
बदलने से गुरेज़ करें ,
बेशक हम अपने मन की शांति के लिए
अपनी संततियों को
संस्कारों की ऊर्जा से
जीवन्त करने का प्रयास करें ,
बस प्रेम में आकंठ डूबे
प्रेमीजनों को अपमानित करने का
दुस्साहस न करें,
उनका उपहास न करें।
आज सुबह एक युवा स्त्री को
बस सफ़र के दौरान इंग्लिश बुक हेट पढ़ते देखा
तो मुझे मूवी हेट स्टोरी का ख्याल आया।
मैंने शहर और गांव में भटकते हुए
वेलेंटाइन डे मनाया।
आप भी कभी जी भर कर
उच्छृंखल होकर
जीवन जीने का प्रयास करें,
क्या पता कुछ अचरज़ भरा घटित हो जाए !
इस दिन कोई जीवन में नया मोड़ आ जाए !!
तन और मन में से तनाव कम हो जाए!
आदमी निडर होकर सलीके से जीना सीख पाए।
१४/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जो
भटक गए हैं
राह अपनी से
वे सब
अपने भीतर
असंख्य पीड़ाएं समेटे हुए हैं ,
वे मेरे अपने ही बंधु बांधव हैं ,
मैं उन्हें कभी
तिरस्कृत नहीं कर पाऊंगा !
मैं उन्हें कभी
उपेक्षित नहीं रहने देना चाहूंगा !
उनकी आंखों में
रहते आए
सभ्य समाज में विचरकर
और अनगिनत कष्ट सहकर
दिन दूनी रात चौगुनी
तरक्की करने के सपने हैं ।

जो
भटक गए हैं
राह अपनी से
वे सब लौटेंगे
अपने घरों को...एक दिन ज़रूर
अचानक से
यथार्थ के भीतर झांकने की गर्ज़ से ,
वे कब तक भागेंगे अपने फ़र्ज़ से ,
आखिर कब तक ?
उन्हें लड़ना होगा
ग़रीबी, बेरोज़गारी के मर्ज़ से ।
वे कब तक
यायावर बने रहेंगे ?
भुखमरी को झेलते झेलते
कब तक भटकते रहेंगे ?
यह ठीक है कि
वे अपनी अपनी पीड़ाएं
सहने के लिए मजबूर हैं ।
वे कतई नहीं
कहलाना चाहते गए गुज़रे
भला वे कभी ज़िन्दगी के
कटु यथार्थ से
रह सकते दूर हैं !
भले ही वे
सदैव बने  रहे मजदूर हैं।
भला वे कब तक
रह सकते अपने सपनों से दूर हैं ।
उन्हें कब तक
बंधनों में रखा जा सकता है ?
दीन हीन मजबूर बना कर !
आखिरकार थक-हारकर
एक दिन
उन्हें अपने घरों की ओर
लौटना ही होगा ।
सभ्य समाज को
उन्हें उनकी अस्मिता से
जोड़ना ही होगा।

१६/१२/२०१६.
Joginder Singh Nov 2024
वो अब इतना अच्छा लिखेगा,
कभी सोचा न था।
अब लिख ही लिया है
उसने अच्छा
तो क्यों न उसकी बड़ाई करें!
क्यों क्षुद्रता दिखा कर
उससे शत्रुता मोल लें ?
वो अब इतना अच्छा है कि पूछो मत
हम सब उसके पुरुषार्थ से सौ फ़ीसदी सहमत।
सुनिए,उसका सुनियोजित तौर तरीका और सच ।

अब उसने अपने वजूद को
उनकी झोली में डाल दिया है ।
आतंक भरे दौर में
वे अपने भीतर के डर ,
उसकी जेब में भर
उसे खूब फूला रहें हैं,
उसके अहम के गुब्बारे को
फोड़ने की हद तक ।

पता नहीं!
वो कब फटने वाला है?
वैसे उसके भीतर गुस्सा भर दिया गया है।
वो अब इतना बढ़िया लिखता है,
लगता , सत्ताधीशों पर फब्तियां कसता है।
पता नहीं कब, उसे इंसान से चारा बना दिया जाएगा।
बूढ़ा हो चुका हूँ ।
अभी भी
मन के भीतर
गंगा जमुनी तहज़ीब का
जुनून बरकरार है ।
भीतर की मानसिकता
घुटने टेकने
क्षमा मांगने वाली रही है ,
फलत:अब तक
मार खाता रहा हूँ ।

अभी अभी
पहलगाम का
दुखांत सामने आया है ,
जिसने मुझे
मेरे अंत का मंज़र
दिखाया है।
अगर अब भी इस
गंगा जमुनी तहज़ीब के
जाल में फंसा रहा
तो यकीनन बहेलिए के
जाल में ,
उस द्वारा फेंके गए
दानों के लोभ में
ख़ुद को फंसा हुआ पाऊंगा,
कभी छूट भी नहीं पाऊंगा।
बस उस के जाल में
फड़फड़ाता रह जाऊंगा।
शाम तक
रात के भोजन का
निवाला बनने के निमित्त
हांडी पर पकाया जाऊंगा।
यह ख्याल
अभी अभी
जेहन में आया है।
मुझे शत्रु बोध की
अनुभूति होनी चाहिए।
मुझे मिथ्या सहानुभूति
कतई नहीं चाहिए।
कब तक अबोध बना रहूंगा ?
बूढ़ा होने के बावजूद
बच्चों सा तिलिस्मी माया जाल में
फंसा हुआ तिलमिलाता रहूंगा।
कब मेरे भीतर शत्रु बोध पैदा होगा ?
.... और ‌मैं अस्तित्व रक्षा में सफल रहूंगा।
आप भी अपने भीतर शत्रु बोध  को जागृत कीजिए।
अपने प्रयासों से जिजीविषा को तीव्रता से अनुभूत कीजिए।
सुख समृद्धि और सम्पन्नता से नाता जोड़ लीजिए।
२९/०४/२०२५.
शब्द ब्रह्म का मूल है
पर यही शब्द
बिना विचारे प्रयुक्त हो
तो कभी कभी
लगने लगता है
अपशब्द !
जो कर देता है
अचानक हतप्रभ !
आदमी एकदम से
भौंचक्का रह जाता है।
उसे पहले पहल
कुछ भी समझ
नहीं आता है ,
जब भी समझ आता है,
वह खिन्न नजर आता है।
लगता है कि उसे अचानक
किसी ने चुभो दिए हों शूल।
शब्द अपने मंतव्य को
ठीक से व्यक्त कर दे ,
बस इसे ध्यान में रखकर
शब्द को प्रयुक्त कीजिए।
बिना विचारे इस शब्द ब्रह्म का
इस्तेमाल भ्रम फैलाने के लिए
हरगिज़ हरगिज़ न कीजिए।
इसे सोच समझकर प्रयुक्त करें ,
ताकि यह भूले से भी कभी
अपशब्द बनता हुआ न लगे !
आदमी को चाहिए कि
ये सदैव मरहम बनकर काम करें!
बल्कि ये अशांत मानस को
शीतलता का अहसास करा कर शांत करें।
२८/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
शब्द
हमारे मित्र हैं।
ये हैं सक्षम ,
संवेदना को बेहतर बनाने में।
ये रखते
हरदम हम पर पैनी नज़र,  
मन में उपजे भावों को,
  परिमार्जित करते हुए।
ये क़दम क़दम पर
बनते हमारे रक्षक ,
जोड़ हमें जीवन के धरातल से ।
ये मन में जो कुछ भी चलता है,
उसकी पल पल की ख़बर रखते हैं,
साथ ही हमें प्रखर बनाते हैं।


अब मैं
एक काम की बात
बताना चाहता हूँ।
शब्द यदि जिंदा हैं
तो हम अस्तित्व मान हैं,
ये हमारा स्वाभिमान हैं।
  
जब शब्द रूठ जाते हैं,
हम ठूंठ सरीखे बन जाते हैं।
शब्द ब्रह्म की
यदि हम उपासना करें,
कुछ समय निकाल कर ,
इनकी साधना करें ,
तो  ये अनुभूति के शिखरों का
दर्शन कराते हैं,
हमें सतत परिवर्तित करते जाते हैं।

शब्द
हमें मिली हुईं
प्रकृति प्रदत्त शक्तियां हैं,
जो अभिव्यक्ति की खातिर  
सदैव जीवन धारा को जीवन्त बनाए रखतीं हैं।
आओ,  
आज हम इनकी उपासना करें।
ये देव विग्रहों से कम नहीं,
इनकी साधना से बुद्धि होती प्रखर,
अनुभव,जैसे जैसे मिलते जाते,
वे अंतर्मन में विराजते जाते,
भीतर उजास फैलाते जाते।
अपने शब्दों को  
अपशब्दों में कतई न बदलो।
यदि बदलना ही है,
तो खुद को बदलो ,
हमारी सोच बदल जाएगी,
हमें जीवन लक्ष्य के निकट लेती जाएगी।
आओ, बंधुवर,आओ,
आज
शब्दों में निहित
अर्थों के जादू से
स्वयं को परिचित कराया जाए।
और ज्यादा स्व सम्मोहन में जाने से
खुद को बचाया जाए।
पल प्रति पल
शब्दों की उपासना में
अपना ध्यान लगाया जाए
और जीवन को
उज्ज्वल  बनाया जाए,
अवगुणों को
आदत बनने से रोका जाए
ताकि आसपास
सकारात्मक सोच का विकास हो जाए,
संवेदना जीवन का संबल बन जाए।
Joginder Singh Nov 2024
शब्द
कुछ कहते हैं सबसे,
हम अनंत काल से
समय सरिता के संग
बह रहे हैं।

कोई
हमें दिल से
पकड़े तो सही,
समझे तो सही।
हम खोल देंगे
उसके सम्मुख
काल चेतना की बही।

कैसे न कर देंगे हम
जीवन में,आमूल चूल कायाकल्प।
भर दें, जीवन घट के भीतर असीम सुख।
२६/१२/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
जैसे-जैसे
जीवन में
उत्तरोत्तर
बढ़ रही है समझ,
वैसे-वैसे
अपनी नासमझी पर
होता है
बेचारगी का
अहसास ।

सच कहूं ,
आदमी
कभी-कभी
रोना चाहता है ,
पर रो नहीं पाता है ।
वह अकेले में
नितांत अपने लिए
एक शरण स्थली
निर्मित करना चाहता है ।
जहां वह पछता सकें ,
जीवन की बाबत
चिंतन कर सके ,
अपने भीतर
साहस भर सकें ,
ताकि
जीवन में संघर्ष
कर सके।

शुक्र है कि
कभी-कभी
आदमी को
अपने ही घर में
एक उजड़ा कोना
नज़र आता है!
जहां आदमी
अपना ज़्यादा
समय बिताता है ।

शुक्र है कि
जीवन की
इस आपाधापी में
वह कोना अभी बचा है,
जहां
अपने होने का अहसास
जिंदगी की डोर से
टंगा है,
हर कोई
इस डोर से
बंधा है ।
शरण स्थली के
इस कोने में ही
सब सधा है।

आजकल यह कोना
मेरी शरण स्थली है,
और कर्म स्थली भी,
जहां बाहरी दुनिया से दूर
आदमी अपने लिए कुछ समय
निकाल सकता है,
जीवन की बाबत
सोच विचार कर सकता है,
स्वयं से संवाद रचा सकता है ।

२२/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
शुक्र है ...
संवेदना अभी तक बची है,
मौका परस्ती और नूराकुश्ती ने,
अभी नष्ट नहीं होने दिया
देश और इंसान के
मान सम्मान को।
सो शुक्रिया सभी का,
विशेषकर नज़रिया बदलने वालों का।
देश,दुनिया में बदलाव लाने वालों का।।

शुक्रिया
कुदरत तुम्हारा,
जिसने याद तक को भी
प्यासे की प्यास,
प्यारे के प्यार की शिद्दत से भी बेहतर बनाया।
जिससे इंसान जीव जीव का मर्म ग्रहण कर पाया।

शुक्रिया
प्रकृति(स्वभाव)तुम्हारा
जिसने इंसानी फितरत के भीतर उतार,
उतार,चढ़ाव  भरी जीवन सरिता के पार पहुँचाया।
तुम्हारी देन से ही मैं निज अस्मिता को जान पाया।

शुक्रिया
प्रभु तुम्हारा
जिन्होंने प्रभुता की अलख
समस्त जीवों के भीतर, जगाकर
उनमें पवित्र भाव उत्पन्न कर,जीवन दिशा दिखाई ।
तुम्हारे सम्मोहक जादू ने अभावों की, की भरपाई ।
    

शुक्रिया
इंसान तुम्हारा
जिसने भटकन के बावजूद
अपनी उपस्थिति सकारात्मक सोच से जोड़ दर्शाई।
तुम्हारे ज्ञान, विज्ञान, जिज्ञासा, जिजीविषा ने नित नूतन राह दिखाई।

शुक्रिया! शुक्रिया!! शुक्रिया!!!
शुक्रिया कहने की आदत अपनाने वाले का भी शुक्रिया!
जिसने हर किसी को पल प्रति पल आनंदित किया,
सभी में उल्लास भरा ।
हर चाहत को राहत से हरा भरा किया।

७/६/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
इस देश में
अब सब को शिखर
छूने का है
हक़।
शिखर पर पहुंचने के लिए
अथक मेहनत करनी
पड़ती है
बेशक।
देश में दंगा फ़साद
क्यों होता रहे ?
अब सब को
तालीम मिले
ताकि
सभी को निर्विवाद रूप से
शिखर पर पहुंचने की
संभावना दिखे !
सभी इसके
लिए
प्रयास करें
और एक दिन
शेख साहिब शिखर को छूएं !
मेरी आंखें
उन्हें सफलता का दामन थामते हुए देखें ।

यह छोटी सी अर्ज़ है
कि तालीम की ताली से
सफलता का ताला
सब को खोलने का अवसर मिले।
इसकी खातिर सम्मिलित
प्रयास करना
हम सब का फर्ज़ है।
यह कुदरत का सब पर कर्ज़ है।
क्यों न सब इस के लिए
प्रयास करें ?
ताकि
देश समाज में
शांतिपूर्वक संपन्नता और सौहार्दपूर्ण वातावरण बने
और
जीवन गुलाब सा गुलज़ार रहे !
कोई भी साज़िश का शिकार न बने।
सब आगे बढ़ें, कोई भी तिरस्कृत न रहे।
कोई भी दंगा फ़साद न करे।
बेशक कोई भी अपनी योग्यता के कारण
जीवन में सफलता के शिखर पर पहुंचकर
राष्ट्र और समाज का नेतृत्व करे ।
देश दुनिया को सुरक्षित करे ।
२२/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
जब से जंगल सिकुड़ रहे हैं ,
धड़ाधड़ पेड़ कट रहे हैं,
अब शेर भी बचे खुचे दिन गिन रहे हैं !
वे उदासी की गर्त में खोते जा रहे हैं!!

हाय! टूट फूट गए ,शेरों के दिल ।
जंगल में शिकारी आए खड़े हैं ।
वे समाप्त प्रायः शेरों का करना चाहते शिकार।
या फिर पिंजरे में कैद कर चिड़िया घर की शोभा बढ़ाना।

सच! जब भी जंगल में बढ़ती है हलचल,
आते हैं लकड़हारे ,शिकारी और बहुत सारे दलबल।
शेर उनकी हलचलों को ताकता है रह जाता ।
चाहता है वह ,उन पर हमला करना, पर चुप रह जाता है।

जंगल का राजा यह अच्छी तरह से जानता है,
यदि जंगल सही सलामत रहा, वह जिंदा रहेगा।
जैसे ही स्वार्थ का सर्प ,जंगल को कर लेगा हड़प।
वैसे ही जंगल की बर्बादी हो जाएगी शुरू,
एक-एक कर मरते जाएंगे तब ,जीव जगत और वनस्पति।
आदमी सबसे अंत में तिल तिल करके मरेगा।
ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण से आदमी घुट घुट कर मरेगा।
आदमी सर्प बन ,जंगल ,जंगल के राजा शेर को ले मरेगा।
क्या आदमी कभी अपने दुष्कृत्यों से  कभी डरेगा ?
अब कौन सूरमा शेर और जंगल को बचाने के लिए लड़ेगा?
आज जंगल में रहने वाले जीव और उनका राजा खतरे में है।
शेर का संकट  दिनों दिन विकट होता जा रहा है।
यह सोच , मन घबरा रहा है,दिमाग में अंधेरा भर गया है ।
शेर का अस्तित्व संकट में पड़ गया है, मेरा मन डर गया है।

जंगल का शेर ,आज सचमुच गया है डर।
वह तो बस आजकल, ऊपर ऊपर से दहाड़ता है।
पर भीतर उसका, अंदर ही  अंदर कांपता है ।
यह सच कि वह खतरे में है, शेर को भारी भांति है विदित।
यदि  जंगल  बचा रहेगा,  तभी  शेर  रह ‌पाएगा  प्रमुदित।
१३/०१/२०११.
असली आज़ादी को
कौन
मौन रहकर
भोग पाता है ?
एक योगी या फिर कोई भोगी ?? ‌
या फिर
जिसने जीवन में
शेरनी का दूध पिया है ?
अभी अभी
पढ़ा है कि
दुनिया में
कोई विरला ही होता है ,
जिसे असल में
यानी कि सचमुच
शेरनी का दूध पीने का
सौभाग्य मिला हो।
एक या दो चम्मच से ज्यादा
शेरनी का दूध
पीने से
यह आदमी को यमपुरी की राह ले जा सकता है
क्यों कि
इस दूध की तासीर गर्म है ,
इसे पचाना है जरा मुश्किल।
वैसे भी दूध पर पहला हक
पशु के शावक का है ,
जिससे उन्हें वंचित रखा जाता है।

बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर जी ने
शिक्षा को
शेरनी का दूध कहा है।
यदि इस दूध को
शोषित मानस पीये
और स्वयं को
इस योग्य बना ले
कि वह अपना संतुलित विकास कर ले
तो वह अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सचेत होकर
सिंहनाद करने में हो सकता है सक्षम।
वह समर्थ बनकर
देश दुनिया और समाज का
कह सकता है भला।
ऐसा शिक्षा रूपी
शेरनी का दूध पीकर
सब निर्भीक बनें ,
ताकि सभी आत्म सम्मान से जीवनयापन कर सकें,
जीवन रण को
संघर्ष के बलबूते
समस्त वंचित जन जीत सकें।
आओ आज हम सब इस बाबत मंगल कामना करें।
कोई भी शिक्षा से महरूम न रहे।
सब
स्वपोषित साधनों से
सजगता और जागरूकता को फैलाकर ,
शेर सरीखे बनकर
देश , दुनिया और समाज को
सुख , समृद्धि और सम्पन्नता की राह पर ले जाएं ,
जीवन पथ पर किसी को भी हारना न पड़े।
ऐसे लक्ष्य को
हासिल करने के निमित्त
सब एकजुट होकर आगे बढ़ें।
०२/०५/२०२५.
श्राद्ध पक्ष में
परंपरा है देश में
अपने पुरखों को याद करते हुए
भोजन जिमाने की !
अपने पुरखों से जुड़ जाने की !

किसी ने कहा था ,
" गुरु जी! हम ब्राह्मण हैं। ..."
मेरे मुखारविंद से
बरबस निकल पड़ा था ,
" यहां पढ़ने वाले
ब्रह्मचारी ही असली ब्राह्मण है
चाहे ये किसी भी समूह से संबद्ध हों।
अतः क्षमा करें।"
यह कह मैं अपने काम में
हो गया था तल्लीन।
फिर अचानक मन में
कुछ दया भाव उत्पन्न हुआ।
बाहर जाकर देखा तो वह भद्र पुरुष जा चुका था।
सेवा का एक मौका हाथ से निकल चुका था।
मैं देर तक पछताया था।
मैंने याचक को अज्ञानवश द्वार से लौटाया था।
एक घटना ने घट कर मुझे कुछ सिखाया था
कि आगे से अज्ञान की पोटली  
मन और चेतना में लिए न फिरो,
बल्कि अपने को मेरे तेरे के भावों से ऊपर उठाओ,
धरा को समरसता की दृष्टि संचित कर अनुपम बनाओ।
हो सके तो लोक जीवन के साथ
स्वार्थहीन होकर रिश्ता जोड़ जाओ।
२३/०२/२०२५.
स्वप्न में घटी घटना की स्मृति पर आधारित ।
बचपन में
परिश्रम करने की
सीख
अक्सर दी जाती है,
परिश्रम का फल
मीठा होता है,
बात बात पर
कहा जाता है।
बचपन
खेल कूद ,
शरारतों में बीत जाता है।
देखते देखते
आदमी बड़ा होते ही
श्रम बाज़ार में
पहुँच जाता है,
वहाँ वह दिन रात खपता है,
फिर भी उसे मीठा फल
अपेक्षित मात्रा में
नहीं मिलता है,
परिश्रम के बावजूद
मन में कुछ खटकता है।
श्रम का फल
ठेकेदार बड़ी सफाई से
हज़म कर जाता है।
यहाँ भी पूंजीवादी
बाज़ी मार ले जाता है।
मेहनत मशक्कत करनेवाला
प्रतिस्पर्धा में टिकता ज़रूर है।
शर्म छोड़कर बेशर्म बनने वाला
बाज़ार में सेंध लगा लेता है,
हाँ,वह मज़दूर से तनिक ज़्यादा कमा लेता है !
नैतिकता की दृष्टि से वह भरोसा गंवा लेता है!!
शर्म छोड़कर कुछ जोखिम उठाने वाला
श्रमिक की निस्बत
अपना जीवन स्तर थोड़ा बढ़िया बना लेता है !
वह अपनी हैसियत को ऊँचा उठा लेता है !!
आज समाज भी श्रम की कीमत को पहचाने।
वह श्रमिकों को आगे ले जाने,
खुशहाल बनाने की
कभी तो ठाने।
वे भी तो कभी पहुंचें
जीवन की प्रतिस्पर्धा में
किसी ठौर ठिकाने।
आज सभी समय रहते
श्रम की कीमत पहचान लें ,
ताकि जीवन धारा नया मोड़ ले सके।
श्रमिक वर्ग में असंतोष की ज्वाला कुछ शांत रहे ,
वे कभी विध्वंस की राह चलकर अराजकता न फैलाएं।
काश! सभी समय रहते श्रमिक को
श्रम की कीमत देने में न हिचकिचाएं।
वे जीवन को सुख समृद्धि और संपन्नता तक पहुँचाएं।
२७/०२/२०२५.
इस दुनिया में
बहुत से लोग
श्रम करने से कतराते हैं ,
वे जीवन में
बिना संघर्ष किए
पिछड़ जाते हैं ,
फलत: क़दम क़दम पर
पछताते हैं ,
सुख सुविधा, सम्पन्नता से
रह जाते हैं वंचित !
बिना आलस्य त्यागे
कैसे सुख के लिए ,
भौतिक जीवन में उपलब्ध
विलासिता से जुड़े पदार्थ !
जीवन के मूलभूत साधन !
किए जा सकते हैं संचित?
इसीलिए
कर्मठता ज़रूरी है !
कर्मठ होने के लिए श्रम अपरिहार्य है ।
क्या यह जीवन सत्य तुम्हे स्वीकार्य है ?

श्रम करने में
कैसी शर्म ?
यह है जीवन का
मूलभूत धर्म !

आदमी
जो इससे कतराता है ,
वह जीवन पथ पर
सदैव थका हारा ,
हताश व निराश
नजर आता है।

श्रम के मायने क्या हैं ?
यह साधारण काम करना नहीं ,
बल्कि खुद को सही रखते हुए
सतत  कठोर  मेहनत करते रहना है।
यह जिजीविषा , सहानुभूति के बलबूते
जीवंतता और भविष्य को
वर्तमान को
अपनी मुठ्ठी में
बंद करने की कोशिश करना है।
सुख दुःख से निर्लेप रह कर
आगे ही आगे बढ़ना भी है।

श्रम के प्रति अगाध निष्ठा से
जीवन धारा को गति मिलती है !
इस सब की अंतिम परिणति
सद्गति के रूप में
परिलक्षित होती है !!

सही मायने में
श्रम ही जीवन का मर्म है।
यह ही अब युगीन धर्म है।
अतः श्रम करने में
कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
इसे करने में नहीं होनी चाहिए
किसी भी किस्म की झिझक और शर्म।

सभी श्रम साधना को
अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाएं !
सहजता से खेल ही खेल में
अपने जीवन को
सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
अलंकृत कर जाएं  !!
सभी संभावना को टटोलते हुए
श्रम के आभूषण से
न केवल स्वयं को
बल्कि  अपने आसपास को भी सजाएं !!
सजना संवरना एकदम प्राकृतिक  वृत्ति है।
यदि श्रम करते हुए
जीवन को सजा लिया जाए ,
जीवन को सार्थक बना लिया ‌जाए ,
तो इस जैसा अनुपम आभूषण
कोई दूसरा नहीं ।
जीव इसे अवश्य धारण करें।
जीवन को कृतार्थ  
हर हाल में
श्रम साधना के बलबूते
इसको धारण करें ,
अपने आंतरिक सौंदर्य को द्विगुणित करें,
ताकि मानवता आगे बढ़ती लगे।
यह जीवों को उनके लक्ष्य तक पहुंचा सके।
२४/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
दुनिया भर में
मैं भटका ज़रूर,
मैंने बहुत जगह ढूंढा उसे
पर मिला नहीं
उसका कोई इशारा!

‌ जब निज के भीतर झांका ,
तो दिख गई उसकी सूरत,
बदल गई मेरी सीरत,
मिला मुझे एक सहारा !!

कुछ कुछ ऐसा महसूस किया कि
ईश्वरीय सत्ता
कहीं बाहर नहीं,
बल्कि मन के भीतर
अवस्थित है,
वह
वर्तमान में
अपनी उपस्थिति
दर्शाती है,
यह अहसास
रूप धारण कर
अपना संवाद रचाती है।


भूतकाल और भविष्यत काल
ब्रह्म यानिकि ईश्वरीय सत्ता की छायाएं भर हैं।
एक दृष्टि अतीत से मानव को जोड़
विगत में भटकाती है,
उसे बीते समय के अनुभव के
संदर्भ में चिंतन करना सिखाती है।

दूसरी दृष्टि
आने वाले कल
के बारे में  
चिंता मुक्त होने
के लिए,
चिंतन मनन करने की
प्रेरणा बन जाती है ।
इस के साथ ही
सुख, समृद्धि, स्वर्णिम जीवन के
स्वप्न दिखाती है।
दोनों ही भ्रम भर हैं ।


यदि
कहीं सच है
तो
वह वर्तमान ही है
बस!
उसे श्रम से
प्रभावित किया जा सकता है,
सतत् मेहनत से वर्तमान को
अपने अनुरूप
किया जाता है,
परन्तु
भूतकाल की बाबत
इतिहास के माध्यम से
अतीत में विचरण किया जा सकता है,
उसे छूना असंभव है।

भविष्य की आहट को
वर्तमान के संदर्भ में
सुना जा सकता है,
मगर इसके लिए भी
बुद्धि और कल्पना की
जरूरत रहती है।

आदमी के सम्मुख
वर्तमान ही एक विकल्प बचता है।
जिसे संभाल कर
जीवन संवारा जा सकता है।
वह भी केवल श्रम करने से।
आज आदमी का सच श्रम है,
जो सदैव बनता सुख का उद्गम है।
और यही सुख का मूल है।
वर्तमान को संभालने,
इसे संवारने, से सुख के उद्गम की
संभावना बनती है।

वर्तमान को
समय रहते संभालने से
सुख मिलने ,बढ़ने की आस बनी रहती है।
वर्तमान के रूप में
समय सरिता आगे बढ़ती रहती है।

२०/०२/२०१७.
किसी की आस्था से
खिलवाड़ करना
ठीक नहीं है ,
यह न केवल
पाप कर्म है ,
बल्कि
यह अधर्म है ।
यदि ऐसा करने पर
सुख मिलता ,
तो सभी इस में
संलिप्त होते ,
वे जीवन के अनुष्ठान में
भाग न लेकर
भोग विलास में
लिप्त होते।

किसी की आस्था पर
चोट करना सही नहीं ,
बेशक
तुम बुद्धि बल से
जीवन संचालित करने के
हो पक्षधर ,
तुम आस्थावादी के
मर्म पर अकारण
न करो चोट ,
न पहुंचाओ कोई ठेस,
न करो पैदा किसी के भीतर क्लेश।
यदि कोई अनजाने दुःखी होकर
कोई दे देता है बद्दुआ,
समझो कि
अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मार ली ,
अपने भीतर
देर सवेर बेचैनी को
हवा दी ,
अपने सुख समृद्धि और संपन्नता को
अग्नि के हवाले कर दिया ,
अपना जीवन श्राप ग्रस्त कर लिया।
किसी के विश्वास पर
जान बूझ कर किया गया आघात
है बरदाश्त से बाहर ।
यही मनोस्थिति श्राप की वजह बनती है।
भीतर की संवेदनशीलता
अंदर ही अंदर
पछतावा भरती है ,
जो किसी श्राप से कम नहीं है।
अतः आस्था पर चोट न करना बेहतर है ,
अच्छे और सच्चे कर्म करना ही
मानव का होना चाहिए ,
कर्म क्षेत्र है।
आस्था के विरुद्ध किया कर्म अधर्म है ,
न केवल यह पाप है ,
बल्कि तनावयुक्त करने वाला एक श्राप है,
मानवता के खिलाफ़ किया गया अपराध है।
12/02/2025.
Joginder Singh Dec 2024
तुमने बहुत दफा
बहुत से कुत्तों को
दफा करने की ग़र्ज से
उन पर परिस्थितियों वश
पत्थर फैंके होंगे।
और वे भी
परिस्थितियों वश
खूब चीखे चिल्लाए होंगे।

पर
आज
यह न समझना कि
तुम्हारी
दुत्कार फटकार
मुझे भागने को
बाध्य करेगी।
अलबेला श्वान हूं ,
भले ही...  इंसानी निर्दयता से परेशान हूं।
अपनी मर्ज़ी का मालिक हूं ।
अपने रंग ढंग से जीने का आदी हूं ।
मैं , न कि कोई
ज़ुल्म ओ सितम का सताया
कोई मजलूम या अपराधी हूं!
कुत्ता हूं ,
ज्यादा घुड़कियां दीं
तो काट खाऊंगा।
तुम्हें ख़ास से आम आदमी
बना जाऊंगा।
जानवर बेशक हूं ,
पर कोई भेदभाव नहीं करता।
कोई छेड़े तो सही ,
तुरन्त काट खाता हूं।
फिर तो कभी कभी
खूब मार खाता हूं!
पर अपनी फितरत
कहां छोड़ पाया हूं ।
कभी कभी ‌तो
अपने बदले की भावना की
वज़ह से मारा भी जाता हूं ,
अपना वजूद गंवाता हूं।
आदमी के हाथों मारा जाता हूं।

मैं सरेआम
अपने समस्त काम निधड़क करता हूं ,
खाना पीना, मूतना और बहुत कुछ !
पर मेरी वफादारी के आगे
तुम्हारे समस्त क्रिया कलाप तुच्छ !!


मैं / यह जो तुम्हें
पूंछ हिलाता दिखाई दे रहा हूं ,
यह सब मैंने मनुष्यों के साहचर्य में
रहते रहते ही सीखा है !
आप जैसे मनुष्य
स्वार्थ पूर्ति की खातिर
कुछ भी कर सकते हैं ,
यहां तक कि
अपने प्रियजनों को भी
अपने जीवन से बेदखल कर सकते हैं !

मैं श्वान हूं , इंसान नहीं
मुझे दुत्कारो मत ,
वरना आ सकती कभी भी शामत।
गुर्राहट करते हुए आत्म रक्षा करने का
प्रकृति प्रदत्त वरदान मिला है मुझे।
गुर्रा कर स्वयं को बचाना ,
साथ ही मतवातर पूंछ हिलाना ,
और अड़ना, लड़ना, भिड़ना,
सब कुछ भली भांति जानता हूं,
और इस पर अमल भी करता हूं ।

पर कभी कभी
जब कोई
अड़ियल , कडियल , मरियल , सड़ियल आदमी
मुसीबत बनने की चुनौती देने
ढीठपन
पर उतर आए
तो क्यों न उसे
अपने दांतों से
मज़ा चखाया जाए !
अपने भीतर की ढेर सारी कुढ़न
और गुस्से को भड़का कर
देर देर तक, रह रह कर
गुर्राहट करते  करते चुनौती दी जाए ।
आदमी को
भीतर  तक घबराहट भरने में सक्षम
कोई कर्कश स्वर-व्यंजन की ध्वनियों से तैयार
गीत संगीत रचा और सुनाया जाए।
ऐसा कभी कभी
श्वान सभी से कहना चाहता है।

क्यों नहीं ऐसी विषम परिस्थितियों को
उत्पन्न होने देने से बचा जाए ?
अपने जीवन के भीतर करुणा व दया भाव को भरा जाए।

२०/१२/२०२४.
अचानक
यदि कोई किसी को
रंगे हाथ
गड़बड़ी करते हुए
पकड़ ले ,
तो यह अहसास
आदमी के भीतर
उत्पन्न कर देता है
सकपकाहट।
आदमी को
झिझक होने लगती है ,
वह ठीक से
काम करता है ,
और जल्दी से
लापरवाही भी
नहीं करता।
वह समय रहते
है संभल जाता।
उसका जीवन
हैं बदल जाता।
सकपकाना भी
जीवन का हिस्सा है ,
यह सच में
आदमी को
सतर्क करता है ,
ताकि
वह
हड़बड़ी करने से
खुद को
रोक पाए ,
बिना किसी रुकावट
मंजिल तक
पहुंच पाए।
१७/०४/२०२५.
मेरे घर हरेक सोमवार
जो अख़बार
आता है ,
वह
सकारात्मकता का
सन्देश मन तक
पहुंचाता है।
मुझे अक्सर
इस अख़बार का
इंतज़ार
रहता है ,
बेशक दिन
कोई सा भी रहा हो ,
सकारात्मकता वाला सोनवार
या फिर नकारात्मकता वाली
ख़बरों से भरे अन्य दिन !
मुझे अब
नकारात्मकता में भी
सकारात्मकता  
खोज लेने की विधि
आ गई है ,
यह मन को
भा गई है ।
वज़ह  
सोमवार का
सकारात्मक सच
सप्ताह के
बाकी दिनों में भी
मुझे उर्जित रखता है !
रविवार आने तक
मुझे सोमवार के सकारात्मकता भरपूर
अख़बार पढ़ने का
रहता है इंतज़ार !
सच कहूँ ,
सकारात्मकता में
निहित है
जीवन की रचनात्मकता का राज़ !
अच्छा रहे
सातों दिन सकारात्मकता से
भरपूर खबरें छपें !
नकारात्मकता वाली खबरें
अति ज़रूरी होने पर ही छपें !!
नकारात्मकता
यदि हद से ज्यादा
हम पर हावी हो जाती है ,
तो ज़िंदगी जीना दुरूह हो जाता है ,
समाज में अराजकता फैल  ही जाती है।
अच्छा है कि सब सकारात्मकता को अपनाएं !
नकारात्मकता को जड़ से लगातार खारिज़ करते जाएं !
ताकि सभी के मन और मस्तिष्क जीवन बगिया में उज्ज्वल फूल खिलाएं !
२४/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
सच
करता नहीं
आघात
कभी भी
किसी की अस्मिता पर।
वह तो प्रदाता है अद्भुत साहस का
कि जिससे मिले मतवातर
जीवन में उड़ान भरने का हौंसला।
सच तो अंतर्मन में
झांक झांक कर
करता रहता
सदैव सचेत
और आगाह...!
बने न रहो जीवन में
देर तक बेपरवाह
काल नदी का प्रवाह
तुम्हारी ओर
सरपट भागा चला आ रहा है,
वह सर्वस्व तक को
बहा ले जाने में सक्षम है
अतः खुद को श्रम में तल्लीन कर
अपने अस्तित्व को संभाल जाओ।

यही नहीं आगे
जीवन पथ पर
दुश्वारियों का समंदर
अथाह
कर रहा है
तुम्हारा इंतजार।

सुनो,संभल जाओ आज ,
नव जीवन का करना है आगाज़।

अपने भीतर की
थाह
पाने के लिए
करो
तुम सतत
चिंतन मनन,
सोच विचार।

ताकि
हो सकें तुम्हें
अपने स्वरूप के
दर्शन।

...और
कर सको तुम
इस जीवन को
शुचिता से सम्पन्न।

...और
निर्मित किया जा सके
एक ठोस जीवनाधार
करने जीवन का परिष्कार
जिससे अर्जित कर सको
जीवन में यश अपार।

०७/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
अब
सच का सामना
करने से
लोग कतराते हैं।

सच के
सम्मुख पहुँच कर
उनके पर
जो कतरे जाते हैं।

अच्छे
खासे इज़्ज़तदर
बेपर्दा हो जाते हैं,
इसलिए
हम बहुधा
सच सुनकर
सकपका जाते हैं,
एक दूसरे की
बगलें झांकने लग जाते हैं।

बेशक
हम इतने भी
बेशर्म नहीं हैं,
कि जीवन भर
चिकने घड़े बने रहें।
हम भीतर ही भीतर
मतवातर कराहते रहें।

हमें
विदित है
भली भांति कि
कभी न कभी
सभी को
सच का सामना
करना ही पड़ेगा ,
तभी जीवन
स्वाभाविक गति से
गंतव्य पथ पर
आगे बढ़ पाएगा।
जीवन सुख से भरपूर हो जाएगा।
२८/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
क्या
दुनिया में
सच खोटे सिक्के
सरीखा हो गया है ?

क्या
दुनिया में
झूठ का वर्चस्व
कायम हो गया है ?
परन्तु
सच तो आदमी का
सुरक्षा कवच है ,
कोई विरला ही
इस पर
भरोसा करता है।

तुम सदैव
सच पर
भरोसा करोगे
तो यकीनन जीवन में
शांतिपूर्वक जीओगे।
अतः आज से ही तुम
झूठ बोलने से गुरेज करोगे,
जीवन में ‌शुचिता वरोगे।

बेशक!
आज ही तुम
अपने भीतर
दुनिया भर का  
दुःख दर्द समेट लो।

सच की उम्र
लंबी होती है।
झूठे की चोरी सीनाज़ोरी
थोड़े समय तक ही चलती है,
क्यों कि ज़िन्दगी
अपनी जड़ों से जुड़कर ही
आगे यात्रा पथ पर अग्रसर होती है।
यह कभी भी  
खोटे सिक्कों के सम्मुख
समर्पण नहीं करती है।
१८/०१/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
यहाँ
झूठ के सौदागर
क़दम क़दम पर
मिलते हैं !

सच कभी
आसानी से बिकता नहीं ,
सो सब इसे
अपने पास रखने से
डरते हैं !!

सच पास रहेगा
तो कभी काम आएगा
क्या कमी रह गई जीवन में है ?
इसका अहसास कराएगा !
यह किसी विरले को भाएगा !!

यह नितांत सच है
कि यहाँ सच के पैरवीकार भी
मिलते हैं !
जो अपनी जान देने से
कभी पीछे नहीं
हटते हैं !!

झूठ के सौदागर की भी
कभी हार हो ;
इसकी खातिर
क्या तुम तैयार हो ?

तुम सच
अपने पास रखे रहो ।
तुम झूठ बोलने से करो परहेज़
ताकि यह जिन्दगी
बने  न कभी
झूठ , लड़ाई झगड़े की मानिंद
सनसनी खेज़।

दुनिया के बाज़ार में
बेशक झूठ धड़ल्ले से बिकता है!
पर यह भी तो सच है कि
यहाँ सच भी  अनमोल बना रहता है।
वह भला बिक सकता है ?

सच कभी खुद को
बेचने को उद्यत नहीं होता ।
यह कभी छल नहीं करता !
यह आदमी को
कल ,आज और कल के लिए
संयम अपनाने ,
सदैव तैयार रहने ,की खातिर
उद्यम दिन रात करता है।
तभी सच झूठी दुनिया में अपनी मौजूदगी का
अहसास करा पाता है।
वरना सच और सच्चे को
हर कोई हड़पना चाहता है।
२१/१२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
सच
अनुभूति बनकर
सुख  फैलाता है।

श्रम
केवल परिश्रम ही
सच को प्रत्यक्ष करने का ,
बन पाता है
माध्यम।

सच और श्रम,
दोनों
अनुभूति का अंश बनकर
कर देते हैं
जीवन में कायाकल्प।

यदि तुम जीवन में
आमूल चूल परिवर्तन देखना चाहते
तो जीवन में शुचिता को वर्षों,
उतार-चढ़ावों के बीच
बहती

इस जीवन सरिता पर
तनिक
चिंतन मनन करो,

सच और श्रम के सहारे
जीवन मार्ग को करो
प्रशस्त।

तुम विनम्र बनो।
निज देह को
शुचिता  की
कराओ प्रतीति।
ताकि
सच  और श्रम
अंतर्मन में
उजास भर सकें,
जीवन में
सुख की छतरी सके तन,
तन और मन रहें प्रसन्न।
सब
दुःख , दर्द , निर्दयता की
बारिश से बच सकें।
जीवन रण में
विजय के हेतु
डट सकें
और आगे बढ़ सकें।
२०/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
श्री मान
रख रहा हूं आपके सम्मुख सत्ता का चरित्र कि
सत्ता सताती भर है ।
दीन,हीन,शोषित,वंचित,
सब होते रहे हैं इसके अत्याचार का शिकार ।

सत्ता का चरित्र
बेझिझक, बेहिचक मौत बांटना है ,
चूंकि उसने व्यवस्था को साधना है।

सत्ता की दृष्टि में
क्रूरता जरूरी है,
इस बिन व्यवस्था पर पकड़ अधूरी है।
जिस सत्ता पक्ष ने
व्यवस्था नियंत्रण के मामले में
नरमी दिखलाई है, उसने सदैव मुँह की खाई है।
अतः यह कहना मुनासिब है,जो क्रूर है,वही साहिब है,
हरेक नरमदिल वाला अपना भाई है,
जिससे उस के घर बाहर की व्यवस्था
लगातार चरमराई है,
वज़ह साफ़ है,
ऐसी अवस्था में चमचों, चाटुकारों की बन आई है।
यदि शासक को अच्छे से प्रशासन चलाना है  
तो लुच्चों,लफंगों,बदमाशों,अपराधियों पर
लगाम कसनी अनिवार्य हो जाती है।
यदि दबंगों के भीतर सत्ता का डर कायम रहेगा
तभी सभी से
ढंग से काम लिया जाएगा,
थोड़ी नरमी दिखाने पर तो कोई भी सिर पर चढ़ जाएगा।
क्रूर किस्म का आदमी,
जो देखने में कठोर लगे,बेशक वह नरमदिल और सहृदय हो,सुव्यवस्थित तरीके से राजकाज चला पाता है।

सत्ता डर पैदा करती है।
यह अनुशासन के नाम पर
सब को एक रखती है।
यह निरंकुशता से नहीं चल सकती,
अतः अंकुश अनिवार्य है।
बिना अंकुश
व्यक्ति
सत्ता में होने के बावजूद
अपना सिक्का चला नहीं पाता।
अपना रंग जमा नहीं पाता।
श्री मान,
सत्ता केवल साधनहीन को तंग करती है।
मायाधारी के सामने
तो सत्ता खुद ही नरमदिल बन जाती है,
वह कुछ भी कर सकती है।
सत्ता का चरित्र विचित्र है ,
वह सदा ,सर्वदा शोषकों का साथ देती आई है
और वंचितों को बलि का बकरा समझती आई है।
वह शोषकों की परम मित्र है।
इन से तालमेल बना कर सत्ता शासन निर्मित करती  है। वंचितों को यह उस हद तक प्रताड़ित करती है,
जब तक वह घुटने नहीं टेकते।
सत्ता अपनी जिद्दी प्रवृत्ति के कारण बनी रहती है,
बेशक सत्ता को
शराफत का कोट पहन कर
अपनी बात जबरिया मनवानी पड़े,
सत्ता अड़ जाए,तो जिद्दी को भी हार माननी पड़ती है।

यही विचित्र चरित्र सत्ता का है।
यह जैसे को तैसा की नीति पर चलती है,
यह अपना विजय रथ
नरमी , गरमी,बेशर्मी से आगे बढ़ाती है।
यह चोरी सीनाज़ोरी के बल पर
चुपके-चुपके सिंहासन पर आसीन हो जाती है।
मैं हूँ सनातनी
नहीं चाहता कभी भी
कोई तनातनी।

मेरा धर्म कर्मों के
हिसाब किताब पर आधारित है,
यह  भी माना जाता है
जीवन में सब कुछ पूर्व निर्धारित है।
हम सब
जिन में
अन्य धर्मों के
मतावलंबी भी शामिल हैं ,
इस जीवन में
आध्यात्मिक उन्नति के लिए
आए यात्री मात्र हैं ,
जो अपने कर्मों में
सुधार करने के निमित्त
स्वेच्छा से आए हैं,
ये कतई जबरन नहीं लाए गए हैं।
यह बेशक मृत्युलोक है,
पर कर्म भूमि भी है।
इस जन्म के कर्म  
अगले जन्म का आधार बनते हैं।
इसी सिलसिले को सब आगे बढ़ाते हैं।
कभी हम उन्नति करते हैं
और कभी पतन का शिकार बनते हैं।
यह जन्मों का सिलसिला
हमारी आध्यात्मिक उन्नति पर
जाकर रुकेगा ,
तभी ईश्वरीय चेतना का हिस्सा
आत्मा बनेगी ,
उसे मुक्ति मिलेगी
अर्थात् चेतना परम चेतना में
समाहित होकर मोक्ष को होगी प्राप्त ,
जन्म मरण से मुक्ति मिलेगी।
पर इस क्षण
बहुत सी नव्य आत्माएं
अपनी यात्रा को
शुरू कर रहीं होंगी।
यह एक अद्भुत स्थिति है,
जिससे गुजरना कण कण की नियति है।
ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ एनर्जी
अर्थात् ऊर्जा का रूपांतरण ही तो
सृष्टि का खेल है।
सब का पिता
ईश्वर या अल्लाह है।
एक ही है परम चेतना ,
जिसे इस्लाम ,ब्रह्मवादियों,अन्य मतावलंबियों ने माना है।
हम सनातनी द्वैत और अद्वैत की बात करते हैं
तो बस इसलिए कि
हम भी एक ईश्वरवादी हैं,
पार ब्रह्म की बात करते करते
हम समय की धारणा को भी
अपने भीतर पाते हैं,
यह दशावतार के रूप में
जीवन के विकास क्रम को समझाने
लगता है हमें।
अनेक अवतार बस जीवनोत्सव के
प्रतीक भर हैं।
कुछ अन्य मतावलंबी इसे
अनेक ईश्वर वाद से जोड़ कर
हमें अपना विरोधी समझते हैं।
हम भी एक सत्ता के उपासक हैं
पर थोड़ा हट कर।
जल से जीवन उत्पन्न हुआ,
ईश्वर मत्स्यावतार के रूप में दिख पड़ा।
जैसे जैसे चेतना विकसित हुई ,  
उसी क्रम में अन्य अवतार भी अनुभूत हुए।
राम और कृष्ण , महावीर और बुद्ध ,हमारी चेतना में एक ही हैं।
वे महज अलग अलग समय में
मानवता के प्रतिनिधि भर रहे हैं।
उनके भीतर ईश्वरीय चेतना के कारण उनकी आराधना होती है।
यही नहीं गुरु नानक से लेकर दशमेश गुरु गोविंदसिंह में भी
उस एकेश्वरवादी परम सत्ता के दर्शन होते हैं।
इसी आधार पर निर्गुण और सगुण की उपासना हो रही है ।
देखा जाए तो वैचारिक धरातल पर परमसत्ता एक ही है।
सभी इस सत्य को समझें तो सही।
हमारे यहां कोई भेद भाव नहीं।
हम सनातनी हैं ,
शाश्वत सच की बात करते हैं ।
हमारा आहार व्यवहार
कार्य कारण पर आधारित हैं ,
हमारे ऋषि मुनि हवा में तीर नहीं छोड़ते।
उनके पास हरेक परंपरा का एक आधार है।
यही नहीं यदि कोई बौद्धिक प्रखर चेतना हमें पराजित कर दे ,
तो हम उसके चिंतन को भी मान्य करते हैं।
यही कारण है कि हमारी चेतना सदैव सक्रिय रही है ,
इसमें हरेक मजहब ,धर्म को स्थान देने की परंपरा रही है।
यदि हम पर जबरन धर्म या मजहब थोपने की किसी ने कोशिश की है
तो प्रतिरोध क्षमता भी भीतर भरपूर रही है।
हम महा बलिदानी और स्वाभिमानी रहे हैं।
हम सनातनी चेतना के साथ सदैव आगे बढ़े हैं।
हमारे चेहरे मोहरे काल सरिता में बह रही महाचेतना ने गढ़ें हैं।
तर्क चेतना के बूते कोई भी हम पर विजय पा सकता है ,
कोई शक्ति और तलवार के दम पर हमें बांधना और साधना चाहे, यह स्वीकार्य नहीं।
हम सनातनी प्रतिरोध के लिए भी खड़े हैं, एकजुट होने को उद्यत।


बेशक हम विनम्र हैं,
हम अपने हालात को
अच्छे से समझते हैं,
अस्तित्व की खातिर
हम सब सनातनी
आगे बढ़ने को हैं तत्पर।
एकजुटता से क्या हो सकता है बेहतर ?
इस की खातिर त्याग करना गए हैं सीख।
हम नहीं बने रहना चाहते लकीर के फ़कीर अब।
समय के साथ साथ आगे बढ़ने के लिए मुस्तैद।
२६/०४/२०२५.
जीवन में
सब को लाभ उठाना आना चाहिए ,
सबका भला होना चाहिए।
यह सब स्वत:
कभी होगा नहीं।
इस के लिए
सभी को
सही दिशा में
खुद को आगे बढ़ाना चाहिए।
छोटी-छोटी उपलब्धियों से ही
संतुष्ट नहीं रह जाना चाहिए।
बल्कि सतत् मेहनत करने की आदत
अपने ज़िंदगी में  
अपनानी चाहिए।
लाभ सबका भला करता है ,
यह जीवन में सुख का अहसास भरता है ,
बस अनुचित लाभ कमाना
समाज और देश दुनिया को
निर्धन करता है,
यह जीवन में
असंतोष तक भर सकता है।
सब को  लाभ होना ही चाहिए
परन्तु इसका कुछ अंश भी
समय समय पर
लोक कल्याण के हेतु
निवेश किया जाना चाहिए
ताकि समरसता और समानता का आदर्श
व्यक्ति व समाज में
सहिष्णुता का संस्पर्श करा सके ,
और लाभ
लोक भलाई के आयाम निर्मित कर
उज्ज्वल, उजास , ऊर्जा भरपूर होकर
जीवन धारा को आगे ही आगे बढ़ाता रहे।
जीवन सुख समृद्धि और सम्पन्नता की प्रतीति करा सके।
१०/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब
अलग अलग, रंग ढंग ओढ़े
विश्व रचयिता की पूजा अर्चना,
इबादत और वन्दना।

प्यार को हवस,
विश्वास को विश्वासघात
समझे जाने का खतरा
अपने कंधों पर उठाये
चल रहे हैं लोग
तुम्हारे घर की ओर!
तुम्हारे दिल की ओर!!

तू पगले! उन्हें क्यों रोकता है?
अच्छा है, तुम भी उनमें शामिल हो जा ।
अपने उसूलों , सिद्धांतों की
बोझिल गठरी घर में छोड़ कर आ ।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब मौज ।
तुम भी इसकी करो खोज।
न मढ़ो, अपनी नाकामी का किसी पर दोष।
प्यारे समझ  लें,तू बस!
जीवन का सच
कि अब सलीके से जीना ही
सच्ची इबादत है।
इससे उल्ट चलना ही खाना खराबी है,
अच्छी भली ज़िन्दगी की बर्बादी है।
   ९/६/२०१६.
कभी कभी
सच्ची और खरी बातें
समझ से परे होती हैं।
खासकर जब
ये देश हितों पर
कुठाराघात करती हैं ,
ऐसे में ये
आम आदमी के
भीतर असंतोष
पैदा करती हैं।

बात करने वाला
बेशक अभिव्यक्ति की आज़ादी के
नाम पर मानवीयता भरपूर
बातें कह जाता है ,
ये बातें मन को अच्छी लगती हैं।
इन्हें क्रियान्वित करना व्यावहारिक नहीं ,
देश समाज में घुसपैठ करने वाला
देश विशेष के नागरिकों के विशेषाधिकार
हासिल करने का अधिकारी नहीं।
पता नहीं क्यों
देश का
बुद्धिजीवी वर्ग
इस सच को समझता ?
कभी कभी बुद्धि पर पर्दा पड़ जाता है।
आम और खास आदमी तक
भावुकता में पड़ कर
देश हित को नज़र अंदाज़ कर जाता है ,
जिसका दुष्परिणाम
भावी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है।
देश समाज के हितों का हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए
नाकि मानवाधिकार के नाम पर
अराजकता की ओर अग्रसर होना चाहिए।
कभी कभी
समझ से परे के फैसले
चेतना को झकझोर देते हैं !
ये निर्णय यकीनन
देश समाज की अस्मिता की
गर्दन मरोड़ देते हैं ,
इंसानों को अनिश्चितता के
भंवर में छोड़ देते हैं ,
असुरक्षित और डरने के लिए !
ऐसे लोगों की बुद्धिमत्ता का
क्या करें ?
क्यों न उन्हें
उनकी भाषा में उत्तर दें ,
उनको गहरी नींद से जगाएं !
देश दुनिया और समाज के हितों को बचाएं !!
१४/०२/२०२५.
शत्रु से लड़ने के दौर में
महाराणा प्रताप
चेतक पर सवार  
जंगल में भटकते हुए
संघर्ष रत रहे
घास की रोटियां खाकर
जीवन यात्रा को ज़ारी रखा।
भामाशाह जैसे दानवीर भी
भारत के इतिहास में हुए।


जीतते जीतते
भारत समझौते को
राजी क्यों हुआ ?
यह सब ठीक नहीं।
हम अपने किरदार को सही करें।
हम सब राणा प्रताप
और भामाशाह प्रभृति बनकर
समय की हल्दी घाटी में
संघर्ष करें , जीवन पथ पर आगे बढ़ें।
सहर्ष कुर्बानी दें।
सर्वस्व बलिदान करने से
कभी भी पीछे न हटें।
हम हारी हुई मानसिकता दिखाकर
आत्म समर्पण क्यों करें ?
हम दिवालिया होने तक
शत्रु से जी जान से लड़ें , आगे बढ़ें।

अभी भी समय हैं ,
हम अपनी शर्तों पर
जीवन पथ पर अग्रसर हों ,
ना कि घुटने टेक पराजित हों।
अब भी समय है
अपनी ग़लती सुधारने का।
शत्रु बोध कर
शत्रुओं को
ललकारने का !
युद्धवीर बनने का !!
अपनी डगर पर चलने का !!!
११/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कोई भी रही हो
वजह
रिश्ते बनने ,बिगड़ने की
उसकी
बेवजह ना करो पड़ताल ।


चुपचाप
अपने करते रहो काम,
बेवजह
दर्द अपनों के में
करते ना रहो इज़ाफ़ा ।


कोई भी रही हो
वजह
शत्रुता बढ़ाने की
या फिर
मित्रता निभाने की
बेवजह
उसे तूल ना देकर ,
तिल का ताड़ ना बनाकर ,
सच को करो स्वीकार ।
समझ लो,
बाकी है सब बेकार ।


कायम रखो मिज़ाज अपने को ,
ताकि बढ़ता रहे मतवातर
जिंदगी का जहाज,
समय के समन्दर में ,
उसे लंगर की
रहे ना जरूरत।

०२/०१/२००९.
कभी सुना था कि
आदमी की पहली शिक्षक
उसकी माँ है
जो उसे जीने का सलीका सिखाती है।
अभी अभी एक सुविचार
अख़बार के माध्यम से पढ़ा है कि
आपका सबसे अच्छा शिक्षक
वह व्यक्ति है , जो आपको सबसे
बड़ी चुनौती देता है।
सोचता हू
यह  विचार कितना विरोधाभास
मेरे भीतर भर गया।
माँ
अक्सर
बच्चे की बेहतरीन शिक्षिका होती है,
जो जन्म से जीवन में आगे बढ़ने तक
जीवन में निरन्तर
प्रेरणा बनी रहती है।
वह तो कभी चुनौती देती नहीं !
हाँ, किसी द्वारा चुनौती दिए जाने पर
संबल अवश्य बनती है।
माँ और समय,
दोनों को ही
इस विचार को
जीवन में कसौटी पर
खरा उतरते जरूर देखता हूँ।
जीवन यात्रा में
सबसे खरा शिक्षक समय है,
जो न केवल आदमी को चुनौती देता है,
बल्कि उसे उत्तरोत्तर समझदार और प्रखर बनाता है ,
और एक दिन जीवन वैतरणी के पार पहुँचा देता है।
समय सभी को सफलता की राह दिखा देता है।
२०/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
समय कभी कभी
उवाचता है अपनी
गहरी पैठी अनुभव जनित
अनुभूति को
अभिव्यक्ति देता हुआ,
" अगर सभी चेतना प्राप्त
अपने  भीतर गहरे उतर
निज की खूबियों को जान पाएं,
अपनी सीमाएं पहचान जाएं
तो वे सभी एकजुट होकर
व्यवस्था में बदलाव ले आएं।"

"खुद को समझ पाना,
फिर जन जन की समझ बढ़ाना,
कर सकता है समाजोपयोगी परिवर्तन।
अन्यथा बने रहेंगे सब, लकीर के फ़कीर।
जस के तस,जो न होंगे कभी, टस से मस।
जड़ से यथास्थिति के बने शिकार,
नहीं होंगे जो सहजता से, परिवर्तित।"
समय मतवातर कह रहा,
" देखो,समझो, काल का पहिया
उन्हें किस दिशा की ओर बढ़ा रहा।
मनुष्य सतत संघर्षरत रहकर
जीवन में उतार चढ़ाव की लहरों में बहकर
पहुँचता है मंज़िल पर, लक्ष्य सिद्धि को साध कर।"

" युगांतरकारी उथल पुथल के दौर में
परिवर्तन की भोर होने तक,बने रहो शांत
वरना अशांति का दलदल, तुम्हें लीलने को है तैयार।
यदि तुम इस अव्यवस्था में धंसते जाओगे,
तो सदैव अपने भीतर
एक त्रिशंकु व्यथा को
पैर पसारते पाओगे।
फिर कभी नहीं
दुष्चक्रों के मकड़जाल से
निकल पाओगे।
तुम तो बस , खुद को
हताश, निराश,थका, हारा, पाओगे।"
  १४/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
हमें
जीवन में
समय की पाबंदी चाहिए,
सच्चे और झूठे की जुगलबंदी चाहिए।

समय
कोहिनूर से कम नहीं,
इसे बिताते हुए अक्लमंदी चाहिए।
कुछ लोग
भटकते रहते हैं,
उन्हें जिंदगी में हदबंदी चाहिए।
आज
भटकाव
और अटकाव के इस दौर में
ठहराव  से बचने के लिए
हर किसी को अपने स्व की
घेराबंदी कर लेनी चाहिए,
ताकि मन की शांति बनी रहे,
मन के भीतर आत्म विश्वास बना रहे।
गर्दनें स्वाभिमान से हरदम तनी रहें।

२३/०२/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
समय की बोली बोलकर
यदि समझे कोई ,
कर्तव्यों से इतिश्री हुई
तो जान  ले वह
अच्छी तरह से
कर गया है वह  ग़लती ,
भले ही
अन्तस को झकझोरता सा
भीतर उत्पन्न हो जाए
कोई तल्ख़ अहसास
बहुत देर बाद
अचानक नींद में।
आदमी को यह बना दे
अनिद्रा का शिकार।

समय की बोली बोलकर ,
सच्चा -झूठा बोलकर ,
यदा-कदा
जीवन के तराजू पर
कम तोलकर ,
समय को धक्का लगाने की
खुशफहमी पाली जा सकती है ,
मन के भीतर
गलतफहमी को छुपाया जा सकता है
कुछ देर तक ही।
जिस सच को हम
अपने जीवन में छुपाने का
करते हैं प्रयास,
पर , वह सच अनायास
सब कुछ कर जाता है प्रकट ,
जिसे छुपाने की
कोशिशें हमने निरंतर जारी  रखीं।
ऐसे में
आदमी रह जाता हतप्रभ।
परन्तु समय रहते
स्वयं को संतुलित रखते हुए
शर्मिंदगी से
किया जा सकता है
इस सब से अपना बचाव ।


समय की बोली बोल रहे हैं
अवसरवादी बड़ी देर से
कथनी और करनी में अंतर करने वाले
लगने लगते हैं
एक समय
कूड़े कर्कट के ढेर से ।

जीवन की गतिविधियों पर
गिद्ध नज़र रखने वालों से
सविनय अनुरोध है कि
वे समय की बोली बोलें ज़रूर
मगर , कुछ कहने से पहले
अपना बयान दें बहुत सोच समझकर
कहीं हो न जाए गड़बड़ !
मन में पैदा हो जाए बड़बड़ !!
अचानक से ठोकर लग जाए!
आदमी घर और घाट का रास्ता भूल जाए !!
जीवन की भूल भुलैया में ,
जिंदगी के किसी अंधे मोड़ पर ,
जीवन में संचित आत्मीयता
कहीं अचानक ! एकदम अप्रत्याशित !!
आदमी को जीवन में अकेला छोड़ कर
कहीं दूर यात्रा पर निकल जाए !
आदमी अकेलेपन
और अजनबियत का हो जाए शिकार।
वह स्वयं की बाबत  करने लगे महसूस
कि वह जीवन में बनकर रह गया है एक 'जोकर' भर ।

२०/०३/२००६.
Joginder Singh Nov 2024
पहला रंग
शब्दशः/

शब्दशः व्यथा अपनी को
मैंने सहजता से व्यक्त किया ,
फिर भी कुछ कहने को बचा रहा।


      दूसरा रंग

रुलना /

ढोल की पोल
खुलनी थी , खुल गई!
अच्छी खासी ज़िंदगी रुल गई।
मैं अवाक मुंह बाए बैठा रहा।
यह क्या मेरे साथ हुआ !!


    तीसरा रंग


   अंततः/

अंततः अंत आ ही गया ‌!
खिला था जो फूल कल ,
वो आज मुरझा ही गया!!

१४/०५/२०२०.
जन्म से अब तक
समय को
खूब खूब
टटोला है
मगर
कभी अपना मुंह
सच के
सम्मानार्थ
नहीं खोला है
बेशक
आत्मा के धुर अंदर
जो समझता रहा
अज्ञानतावश
खुद को
धुरंधर।
अचानक
ठोकरें लगने से
जिसकी आंखें
अभी अभी खुली हैं।
सच से सामना
बेशक सचमुच
कड़वा होता है ,
यह कभी-कभी सुख की सुबह
लेकर आता है ,
जीवन को
सुख समृद्धि और सम्पन्नता भरपूर
कर जाता है।
अब
मेरे भीतर पछतावा है।
कभी कभी
दिखाई देता
अतीत का परछावा है।
मैं खुद को
सुधारना चाहता हूं ,
मैं बिखरना नहीं चाहता हूं।
इसके लिए
मुझे अपने भीतर पड़े
डरों पर
विजय पानी होगी ,
सच से जुड़ने की
उत्कट अभिलाषा
जगानी होगी।
तभी डर कहीं पीछे छूट पाएगा।
वह सच के आलोक को
अपना मार्गदर्शक
बनता अनुभूत कर पाएगा।

दोस्त !
यह सही समय है ,
जब डर से छुटकारा मिले ,
सच से जुड़ने का
संबल और नैतिक साहस
भीतर तक
जिजीविषा का अहसास कराए
ताकि जीवन सकारात्मक सोच से जुड़ सके ,
यह सार्थक दिशा में मुड़ सके,
यह भटकने से बच सके।
ऐसा कुछ कुछ
अचानक
समय ने चेताते हुए कहा ,
और मैं संभल गया ,
यह संभलना ही
अब संभावना का द्वार बना है।

१८/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अचानक एक दिन
जब मैं था अधिक परेशान
समय ने कहा था मुझे कुछ
तू बना ना रहे
और अधिक समय तक तुच्छ
इसीलिए तुम्हें बताना चाहता कुछ
जीवन से निस्सृत हुए सच ।
उस समय
समय ने कहा था मुझे,
" यूं ही ना खड़ा रह देर तक ,एक जगह ।
तुम चलोगे मेरे साथ तो यकीनन बनोगे अकलमंद ।
यूं ही एक जगह रुके रहे तो बनोगे तुम अकल बंद ।
फिर तुम कैसे आगे बढ़ोगे?
सपनों को कैसे पूरा करोगे ?

मेरे साथ-साथ चल , अपने को भीतर तक बदल।
मेरे साथ चलते हुए ,मतवातर आगे बढ़ते हुए,
बेशक तुम जाओ थक , चलते जाओगे लगातार,
तो कैसे नहीं , परिवर्तन की धारा से जा जुड़ोगे ?अफसोसजनक अहसासों से फिर न कभी डरोगे ।"

समय ने अचानक संवाद रचाकर
खोल दिया था अपना रहस्य ,मेरे सम्मुख।
आदमी के ख़्यालात को ,
अपने भीतर का हिस्सा बनाते हुए
अचानक मेरी आंखें दीं थीं खोल।
अनायास अस्तित्व को बना दिया अनमोल।
और दिया था
अपने भीतर व्याप्त समन्दर में से मोती निकाल तोल ।
यह सब हुआ था कि
अकस्मात
मुझे सच और झूठ की
अहमियत का हुआ अहसास,
खुद को मैंने हल्का महसूस किया।
अब मैं खुश था कि
चलो ,समय से बतियाने का मौका तो मिला।

०५/०२/२०१२.
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