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Joginder Singh Nov 2024
आधी दुनिया
भूखी सोती है।
सोचता हूं,
क्या कभी लोग
भूखी नंगी
गुरबत से
जूझ रही दुनिया की
बाबत फ़िक्र करते हैं?

मुझे
थाली में जूठन
छोड़ने वाले अच्छे नहीं लगते।
मुझे
वे लोग
नफरत के लायक़
लगते हैं।
दुनिया खाने का
सलीका
सीख ले,
यही काफ़ी है।
हे अन्न देवता!
कोई जूठन छोड़ कर
आप का अपमान न करें।
यही मेरी हसरत है।
कोई भी खाना बर्बाद  होने न दे,
तो देशभर में बरकत होगी।
यही मानवता के लिए
बेहतर है।
भूखे को अन्न मिल जाए।
उसके प्राण बच जाए,
इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता
क्यों कि
आदमी का जमीर
कभी मर नहीं सकता।
यदि
मूल्य अवमूल्यन के दौर में
आदमी अपने आदर्श ढंग से अपना पाए
तो क्यों न  
सब उसे
सराहना का पात्र मान लें।
एक अराजक समय में
जीवन बिताते हुए
पड़ोस अच्छा होने के बावजूद
हरदम मनमुटाव होने का खटका बना रहता है ,
जबकि मेरे पड़ोसी
सहयोग और सद्भाव बनाए रखें हैं।
मैं अपनी मानसिकता की बाबत क्या कहूं ?
यह भी सच है कि यदि कोई
विनम्रता पूर्वक आग्रह करे,
तो मैं सहर्ष अपार कष्ट सहने को तैयार हूं
और कोई बेवजह धौंस पट्टी जमाना चाहे
तो उसे मुंह तोड़ जवाब दूं ,
अन्याय हरगिज़ न सहन करूं।

एक अराजक समय में
जीवन गुजारने के लिए
मेरे देशवासी मजबूर हैं ,
बेशक उनके इरादे बेहद मजबूत हैं।
आंतक और आंतकवाद से
जूझते हुए उन्होंने संताप झेला है।
इस वजह से उनका जीवन बना झमेला है।
मेरे दो पड़ोसी देश
आज बने हुए
चोर चोर मौसेरे भाई हैं।
Joginder Singh Nov 2024
बंदर  के   घर   बंदर   आया ,

आते  ही  उसने  उत्पात  मचाया ।

बंदरिया और    बच्चे  थे  , डर  गए।

वे   चुपके   से   बिस्तर   में   घुस  गए  ।

मेहमान   के   जाने     के     बाद    ,

किया  सबने   मेहमान   को    याद   ।

सारे    खिलखिला  कर   हँस    पड़े   ।

सूरज  ने   भी   इसका  आनंद  उठाया  ।
बंदर कवि खुद है जी!
सब कुछ
मेरे वश में रहे।
यह सब सोच
जीवन में भागता रहा,
बस भागता रहा
और हांफता हुआ
खुद का नुक़सान किया,
भीतर ही भीतर
वेदना झेलता रहा।

मैं भी बस एक मूर्ख निकला।
खुद से ही बस लड़ता रहा ,
मतवातर खुद की
महत्वाकांक्षाओं के बोझ से
दबता रहा , सच कहने से
हरदम बचने की कशमकश में रहकर
भीतर ही भीतर डरता रहा।
जीवन पर्यन्त कायर बना रहा।
लेकिन अब मैं सच कह कर रहूंगा।
अपना तनाव कम करके रहूंगा।
कब तक मैं दबाव सहूंगा ?
ऐसे ही चलता रहा, तो मैं
अपने को खोखला करूंगा।
बस! बहुत हुआ , अब और नहीं ?
मैं खुद को सही इस क्षण करूंगा।
तभी जीवन में आगे बढ़ सकूंगा।
04/01/2025.
Joginder Singh Dec 2024
कहां गया ?
वह फिल्मों का
जाना माना खलनायक
जो दिलकश अंदाज में करता था पेश
अपने मनोभावों को  
यह कह,
बहुत हुआ , अब  ,चुप भी करो,
' मोना डार्लिंग ' चलें दार्जिलिंग!
काश! वह मेरे स्वप्न में आ जाए,
अपनी मोना डार्लिंग के संग
मोना को मोनाको की सैर कराता हुआ
नज़र आ जाए !
वह अचानक
अच्छाई की झलक दिखला
मुझे हतप्रभ कर जाए !

ऐसा एक अटपटा ख्याल
मन में आ गया था
अचानक,
ऐसे में
जीवन में
किसी का भी ,
न नायक और न खलनायक,
न नायिका और न खलनायिका, ...न होना
करा गया मुझे न होने की भयावहता का अहसास।
यह जीवन बीत गया।
अब जीवन की 'रील लाइफ'का भी
"द ऐंड" आया समझो!
ऐसा खुद को समझाया था,
तब ही मैं कुछ खिल पाया था।
जीवन का अर्थ
और आसपास का बोध हो गया था ,
मुझ को
अचानक ही
जब एक खलनायक को
ख्यालों में बुलाने की हिमाकत की थी मैंने।
यह जीवन
एक अद्भुत फिल्मी पटकथा ही तो है,
शेष सब
एक हसीन झरोखा ही तो है।
११/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
जीवन की
शतरंज में मोहरे
रणनैतिक योद्धे हैं;
केवल
ऊँट,घोड़े,हाथी,
सिपाही,
वज़ीर, बेग़म, बादशाह नहीं।
वे यथार्थ में
जीवन धारा को
दिशा देना चाहते हैं,
अपने मालिक की रक्षा करना चाहते हैं ।
इस के लिए
अपना बलिदान भी देते हैं।
यथा सामर्थ्य
अपनी जिंदगी जीते हैं,
एक एक करके जीवन रण से
विदा होते हैं।

कभी कभी मोहरे सोचते हैं,
सोचते भर हैं, कुछ कहते नहीं।
वे तो मोहरे हैं,
उन्हें तो जीवन की बिसात पर
चलाया भर जाता है,
आगे,पीछे,दाएं,बाएं,
इधर उधर ले जाया और
सरकाया जाता है।
वे नियमों में बंध कर
अपनी भूमिका निभाते हैं।
बादशाह को बचाना उनका फ़र्ज़ होता है,
प्यादे से लेकर वज़ीर,बेगम सभी बादशाह को
जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
मोहरे तो बस
अपने प्राण न्योछावर करते हैं।
उनके वश में कुछ नहीं,
मालिक की मर्ज़ी ही उनके लिए सही।
वे मालिक की इच्छा को
अपनी इच्छा मानते हैं
क्योंकि वे केवल मोहरे हैं,
मोह से वे बचते हैं,
मरकर  ही वे मोक्ष पा जाते हैं।
इनका जीवन काल कुछ क्षण का होता है,
जब तक खेल जारी रहता है, वे हैं,वरना डिब्बे में कैद!!

जीवन में खेल खेला,
कुछ पल के लिए उतार चढ़ाव,
झंझट,झमेला, मोहरों ने झेला!
और खेल खत्म के साथ ही रीत गए!
समय यात्रा पूरी कर रीत, बीत गए!
दो खिलाड़ी मनोरंजन के लिए खेले।
कभी जीते,कभी हारे,कभी हार न जीत ।

मोहरे तो बस अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं।
लोग बेवजह शतरंजी चालें चल,
एक दूसरे को निर्वसन करते हैं।

मोहरे इंसानों की तरह
स्वतंत्र सोच नहीं रखते ।
वे तो मोहरे हैं,
वे उसी के हैं,
जिसकी बिसात में वे बिछे हैं।
खिलाड़ी बदला नहीं कि
वे छिछोरे  हो जाते हैं,
वे उसका कहना मानते हैं,
जिसके वे अधीन होते हैं,
एकदम मोह विहीन! निर्मोही!!
  ०९/०५/२०२०.
आज
लोगों को
कामयाब होने का
मिले
यदि कोई
मौका
तो वे कतई
करें न गुरेज
कुछ भी करने से,
अपनों को
धोखा देने से !
चोरी सीनाज़ोरी करने से !
छीना झपटी करने से !

आज का सच है
जो जितना बड़ा धोखेबाज़ ,
उतना कामयाब !
बेशक यह सही नहीं !
कुछ नासमझ इसे मानते हैं सही !
आगे निकलने का मौका
मयस्सर हो तो सही !
पाप और पुण्य का निकष
मरने के उपरांत देखा जाएगा।
आगे बढ़ने का मौका
कब कब हाथ आएगा ?
असफलता मिली तो जीवन रौंदा जाएगा !
०६/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मौत को मात
अभी तक
कौन दे पाया?

कोई विरला
इससे पंजे लड़ाकर,
अविचल खड़ा रहकर
लौट आता है
जीवन धारा में
कुछ समय बहने के लिए।

बहुत से सिरफिरे
मौत को मात देना चाहकर भी
इसके सम्मुख घुटने टेक देते हैं।
मौत का आगमन
जीवन धारा के संग
बहने के लिए
अपरिहार्य है!
सब जीवों को
यह घटना स्वीकार्य है!!

कोई इसे चुनौती नहीं दे पाया।
सब इसे अपने भीतर बसाकर,
जीवन की डोर थाम कर ,
चल रहे हैं...अंत कथा के समानांतर ,
होने अपनी कर्मभूमि से यकायक छूमंतर।

महाकाल के विशालकाय समन्दर में
सम्पूर्ण समर्पण और स्व विसर्जन के
अनूठे क्षण सृजित कर रहे ,
जीवन से प्रस्थान करने की घटना का चित्र
प्रस्तुत करते हुए एक अनोखी अंतर्कथा।
मान्यता है यह पटकथा तो
जन्म के साथ ही लिखी जाती है।
इस बाबत आपकी समझ क्या कहती है?
Joginder Singh Nov 2024
मौत
एक दहशत ही तो है
इससे असमय
जिंदगी जाती है सो ,
सुख के अहसास
अनायास
मुरझा जाते हैं,
सारे सपने
कुचले जाते हैं ।

मौत की दहशत
चेतना में
इतनी थी कि
आंखों के सामने
एक चिड़िया मर गई।
वह मरते मरते भी
मौत का अहसास
चेतना के अंदर भर गई।
चुपचाप
मरने की वीडियो क्लिपिंग
मेरे भीतर रख गई।

१९/०६/२०१८.
Joginder Singh Dec 2024
ज़िंदगी
मौत को
देती है मात !
...

क्योंकि जीवन धारा में
मौत है
एक ठहराव भर !!
यहां
पल प्रतिपल
संशयात्मा
अपने भीतर
अंधेरा भर रही है !
जो खुद की
परछाइयों से
सतत् डर रही है !

अब आप ही बताइए
कि कौन मर रहा है ?
मौत का सौदागर
या ज़िंदगी का जादूगर ?

आखिरकार
ज़िंदगी
मौत को मात
दे ही देती है ,
क्योंकि जिंदगी के
क्षण क्षण में
जिजीविषा भरी है
सो यह जीवन धारा के
साथ बहकर आसपास
फैली गन्दगी को भी
बहाकर ले जाती है ।

ज़िंदगी
जब कभी भी
बिखेरती है
मेरे सम्मुख
अपने सम्मोहन के रंग !
रह जाता हूं ,
बाहर भीतर तक
हैरान और दंग !!

ज़िंदगी
परम प्रदत्त
एक सम्मोहक
चेतना है
जो आदमी को
खुदगर्ज़ी के दलदल से
परे धकेलती है,
और यह अविराम चिंतन से
अपने नित्य नूतन
आयामों से परिचित करवा कर
हमारी चेतना को प्रखर करती है।
१२/०६/२०१८.
ज़िंदगी भर
मैं बगैर सोच विचार किए
बोलता ही गया।
कभी नहीं बोलने से पीछे हटा,
फलत: अपनी ऊर्जा को
नष्ट करता रहा,
निज की राह
बाधित करता रहा।
निरंतर निरंकुश होकर
स्वयं को रह रह कर
कष्ट में डाले रहा।
आज मैं कल की
निस्बत कुछ समझदार हूं।
कल मैं एक क्षण भी
चुपचाप नहीं बैठ सका था ,
मैंने अपना पर्दाफाश
साक्षात्कार कर्त्ता के सम्मुख
कर दिया था।
मैं वह सब भी कह गया
जिसे लोग छिपाते हैं,
और कामयाब कहलाते हैं।
ज़्यादा बोलना
किसी कमअक्ली से
कम नहीं।
यह कतई सही नहीं।
आदमी को चुप रहना चाहिए,
उसे चुपचाप बने रहने का
सतत प्रयास करना चाहिए
ताकि आदमी जीवन की अर्थवत्ता को जान ले,
स्वयं की संभावना को समय रहते पहचान ले।
आज
अभी अभी
बस यात्रा के दौरान
मैंने मौन रहने का महत्व जाना है।
सोशल मीडिया के माध्यम से
मौन के फ़ायदे के बारे में
ज्ञानार्जन किया है,
अपने जीवन में
ज्ञान की बाबत
चिंतन मनन कर
अपने आप से संवाद रचाया है।
अभी अभी
मैंने मौन को
अपनाने का फैसला किया है कि
अब से मैं कम बोलूंगा,
अपनी ऊर्जा से
खिलवाड़ नहीं ‌करूंगा ,
जीवन में मौन रहकर
आगे बढ़ने का प्रयास करूंगा,
कभी तो जीवन में अर्थवत्ता को अनुभूत कर सकूंगा,
सच के पथ पर अग्रसर होने से पीछे नहीं हटूंगा।
जीवन रण में मैं सदैव डटा रहूंगा।
कभी भी भूलकर किसी की शिकायत नहीं करूंगा।
कल और आज के
जीवन में घटित हुए घटनाक्रम ने
मुझे तनिक अक्लमंद बनाया है,
जीवन में अक्लबंद बने रहने के लिए चेताया है।
यही जीवन की सीख है,
जो यात्रा पथ पर
क़दम क़दम पर
अग्रसर होने से मिलती है,
यह आदमी के अंतर्घट में
चेतना की अमृत तुल्य बूंदें भरती है ,
जीवन में आकर्षण का संचार करती है।
३२/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
मौनी बाबा को याद करते हुए ,
जीवन धारा के साथ बहते हुए ,
जब कभी किसी वृक्ष को कटते देखता हूं,
तब मुझे आता है यह विचार कि
ये मौनी बाबा सरीखे
तपस्वी होते हैं।
सारी उम्र
वे
धैर्य टूटने की हद तक
सदैव खड़े होकर
श्वास परश्वास की क्रिया को
दोहराते हुए
अपनी जीवन यात्रा को पूरा करते हैं !
मौन का संगीत रचते हैं !!


आओ हम उनकी देख रेख करें,
उनकी सेवा सुश्रुषा करते रहें ।

आओ,
हम उनकी आयु बढ़ाने के प्रयास करें ,
न कि उन्हें
अकारण धरा पर
बिछाने का दुस्साहस करें।

यदि वे
सतत चिंतनरत से
धरा पर रहते हैं खड़े
तो वे न केवल
आकाश रखेंगे साफ़,
हवा , बादल , वर्षा को भी
करते रहेंगे
आमंत्रित ।

बल्कि
वे हमारे प्राण रक्षक बनकर
हमारी श्रीवृद्धि में भी बनेंगे
सहायक।

ऐसे दानिश्वर से
कब तक हम छल कपट करते रहेंगे ?
यदि हम ऐसा करेंगे
तो यकीनन जीवन को
और ज्यादा नारकीय करेंगे।
व्यक्तिगत स्तर पर
'डा.फास्टस' की मौत को करेंगे।

पेड़
ऋषिकेश वाले
मौनी बाबा की याद
दिलाते हैं।
वे प्रति दानी होकर
साधारण जीवों से
कहीं आगे बढ़ जाते हैं,
यश की पताका फहरा पाते हैं।

मानव रूप में
मौनी बाबा
अख़बार पढ़ते देखें जाते हैं
पर शांत तपस्वी से पेड़
खड़े खड़े जीवन की ख़बर बन जाते हैं ,
पर कोई विरला ही
उनका मौन पाता है पढ़।
उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हुए
जीवन पथ पर आगे बढ़ने का
जुटा पाता है साहस !
कर पाता है सात्विक प्रयास !!
  ०८/१०/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
यदि तुम अंतर्मुखी हो
और अपने बारे में कुछ कहना नहीं चाहते
तो इससे अच्छी बात क्या होगी ?
'दुनिया  तुम्हें  जानने  के  लिए  उतावली  है । '
इस संदर्भ में ऊपर लिखित पंक्ति कोरा झूठ ही होगी।
इसे तुम अच्छी तरह से जानते हो;
बल्कि
इस सच को
भली भांति पहचानते हो , मेरे अंतर्मुखी दोस्त !


यदि तुम बहिर्मुखी हो
और अपने बारे में सब कुछ,
सच और झूठ सहित, कहने को उतावले हो
तो इससे बुरी बात क्या होगी?
'आदमी नंगेपन की सभी सीमाएं लांघ जाए ।'
दुनिया इसे भीतर से कभी स्वीकारेगी नहीं ;
भले ही ,वह
तुम्हारे सामने
खुलेपन का इज़हार करे,
इसे तुम अच्छी तरह से जानते हो ,
बल्कि इसे भली भांति
दृढ़ता से मानते हो , मेरे बहिर्मुखी दोस्त !
आज हम सब
एक अनिश्चित समय में
स्वयं की
धारणाओं के मिथ्यात्व से
रहे हैं जूझ,
और निज के विचारों को
समय की कसौटी पर कस कर
आगे बढ़ने के वास्ते
ढूंढते हैं नित्य नवीन रास्ते ।
हम करते रहते हैं
अपनी पथ पर आगे बढ़ते हुए ,
निरंतर संशोधन !
अच्छा रहेगा/  हम सभी / स्वयं को / संतुलित करें ;
अन्तर्मुखता और बहिर्मुखता के
गुणों और अवगुणों को तटस्थता से समझें और गुने ।
अपनी खूबियों पर
अटल रहते हुए,
अपनी कमियों को
धीरे-धीरे त्यागते हुए ,
पर्दे में अपने स्वाभिमान को रखकर ,
निज को हालातों के अनुरूप ढालकर ,
नूतन जीवन शैली और जीवनचर्या का वरण करें ,
न कि जीवन में क़दम क़दम पर
भीड़ का हिस्सा बनाकर उसकी नकल करें।
क्यों न हम सब अपनी मौलिकता से जुड़ें !
जीवन को  सुख ,संपन्नता , सौंदर्य से जोड़कर आगे बढ़ें ।८/१०/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
तू जिंदगी की राह में
राहत क्यों ढूंढता ‌है?
तुम्हें उतार चढ़ाव से भरी
डगर पर चलना है।
आखिरकार लक्ष्य हासिल कर
मंज़िल तक पहुंचना है।
सकारात्मक सोचना है।
शोषण को भी रोकना है।
सच से नाता जोड़ना है।
निज अस्मिता को खोजना है।
ताकि मिले खोई हुई पहचान,
बना रहे जीवन में आत्मसम्मान।
Joginder Singh Nov 2024
महंगाई ने
न केवल किया है,
जनसाधारण को
भीतर तक परेशान ,
बल्कि
इसने पहुंचाया है
आर्थिकता को भारी-भरकम
नुक्सान ।

दिन पर दिन
बढ़ती महंगाई ,
ऊपर से
घटती कमाई ,
मन के अंदर भर
रही आक्रोश ,
इस सब की बाबत
सोच विचार करने के बाद
आया याद ,
हमारी सरकार
जन कल्याण के कार्यक्रम
चलाती है,
इसकी खातिर बड़े बड़े ऋण भी
जुटाती है।
इस ऋण का ब्याज भी
चुकाती है।
ऊपर से
हर साल लोक लुभावन
योजनाएं जारी रखते हुए
घाटे का बजट भी पेश
करती है।


यही नहीं
शासन-प्रशासन के खर्चे भी बढ़ते
जा रहे हैं ।
भ्रष्टाचार का दैत्य भी अब
सब की जेबें
फटाफट ,सटासट
काट रहा है।

चुनाव का बढ़ता खर्च
आर्थिकता को
तीखी मिर्च पाउडर सा रहा है चुभ।

यही नहीं बढ़ता
व्यापार घाटा ,
आर्थिकता के मोर्चे पर
पैदा कर रहा है
व्यक्ति और देश समाज में
सन्नाटा।


ऊपर से तुर्रा यह
कर्ज़ा लेकर ऐश कर लो।
कल का कुछ पता नहीं।
व्यक्ति और सरकार
आमदनी से ज़्यादा खर्च करते हैं,
भला ऐसे क्या खज़ाने भरते हैं?

फिर कैसे मंहगाई घटेगी?
यह तो एक आर्थिक दुष्चक्र की
वज़ह बनेगी।
जनता जनार्दन कैसे
मंहगाई के दुष्चक्र से बचेगी ?
देखना , शीघ्र ही इसके चलते
देश दुनिया में अराजकता और अशांति बढ़ेगी।
व्यक्ति और व्यक्ति के भीतर असंतोष की आग जलेगी।

२९/११/२०२४.
जीवन
एक यात्रा है।
इसे ईमानदार रह कर
जारी रखा जाना चाहिए।
इस दौरान
लोभ लालच और बेईमानी से
हरपल बचा जाए
तो ही अच्छा।
जीवन यात्रा के दौरान
आदमी बनाए रखें
आत्म सम्मान।
वह करें जीवन की बाबत
चिंतन मनन
और जीवन के आदर्शों का अनुकरण करे
ताकि जीवन यात्रा का समापन
सुखद अहसास के साथ हो !
जीवन की परिणति
सार्थक और सकारात्मक सोच के साथ हो !!
आदमी
फिर से
एक नई यात्रा की तैयारी कर सके।
वह जन्म दर जन्म
आध्यात्मिक उन्नति करता रहे।
०२/०५/२५.
जीवन यात्रा में
कब लग जाए विराम ?
कोई कह नहीं सकता !
और आगे जाने का
बंद हो जाए रास्ता।
आदमी समय रहते
अपनी क्षमता को बढ़ाए,
ताकि जीवन यात्रा
निर्विघ्न सम्पन्न हो जाए।
मन में कोई पछतावा न रह जाए।
सभी जीवन धारा के अनुरूप
स्वयं को ढाल कर
इस यात्रा को सुखद बनाएं।
हरदम मुस्कान और सुकून के साथ
जीवन यात्रा को गंतव्य तक पहुँचाएं।
०३/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कभी-कभी
समय
यात्री से
सांझा करता है
अपने अनुभव
यात्री के ख़्वाब में आकर।

कहता है वह उससे,
" नपे तुले सधे कदमों से
किया जाना चाहिए तय
यात्रा पथ ,
बने रहकर अथक
बगैर किसी वैर भाव के
एक सैर की तरह ,
जीवन पथ पर
खुद को आगे बढ़ाकर
अपने क़दमों में गति लाकर
स्वयं के भीतर
उत्साह और जोश जगाकर ।


यात्री
सदैव आगे बढ़ें ,
अपनी पथ पर
सजग और सतर्क होकर ।
वे सतत् चलते रहें ,
भीतर अपने
मोक्ष और मुक्ति की
चाहत के भाव जगा कर ।
वे अपने लक्ष्य तक
पहुंचने की खातिर
मतवातर चलते रहें ।
जीवन पथ की राह
कभी नहीं होती आसान,
इस मार्ग में
आते हैं कई
उतार चढ़ाव।
कभी राह होती है
सीधी सपाट
और
कभी एकदम
उबड़ खाबड़ ,
इस पथ पर
मिलते हैं कभी
सर्पिल मोड़।
यात्रा यदि निर्विघ्न
करनी हो संपन्न ,
तो यात्री रखें ,
स्वयं को तटस्थ।
एकदम मोह माया से
हो जाएं निर्लिप्त।"

यात्री को हुआ
ऐसा कुछ प्रतीत,
मानो समय
कहना चाहता हो
उससे कि वह
चले अपने यात्रा पथ पर ,
सोच संभलकर।
नपे तुले सधे कदमों से
वह बिना रुके, चलता चले।
जब तक मंज़िल न मिले।

यात्री मन के भीतर
यह सोच रहा था कि
समय, जिसे ईश्वर भी कहते हैं।
सब पर बहा जा रहा है ,
काल का बहाव
सभी को
अपनी भीतर बहाकर
ले जा रहा है,
उन्हें उनकी नियति तक
चुपचाप लेकर जा रहा है।

सो वह आगे बढ़ता रहेगा,
सुबह ,दोपहर ,शाम
और यहां तक
रात्रि को
सोने से पहले
परमेश्वर को याद करता रहेगा।
यात्रा की स्मृतियों के दीपक को
अपनी चेतना में जाजवल्यमान रखकर।


यात्री को यह भी लगा कि
कभी-कभी खुद समय भी
उसके सम्मुख
एक बाधा बन कर
खड़ा हो जाता है।
कभी यह अनुकूल
तो कभी यह
प्रतिकूल हो जाता है।
ऐसे में आदमी
अपना मूल भूल जाता है।
कभी-कभी
पथिक
बगैर ध्यान दिए चलने से
घायल भी हो जाता है।

उसे  हर समय यात्रा पथ पर
स्वयं को आगे बढ़ाना है।
कभी-कभी
यह यात्रा पथ
अति मुश्किल लगने लग जाता है,
मन के भीतर
दुःख ,पीड़ा ,दर्द की
लहरें उठने लगती हैं ,
जो यात्रा पथ में
बाधाएं
पैदा करती हैं।


समय
पथिक की दुविधा को
झट से समझ गया
और
ऐसे में
तत्क्षण
उसने यात्री को
संबोधित कर कहा,
"अपनों या परायों के संग
या फिर उनके बगैर
रहकर निस्संग
जीवन धारा के साथ बह।
अन्याय, पीड़ा ,उत्पीड़न को
सतत् सहते सहते, सभी को
तय करना होता है , जीवन पथ।"

समय के मुखारविंद से
ये दिशा निर्देश सुनकर ,
समय के रूबरू होकर ,
पथिक ने किया यह विचार कि
' अब मैं चलूंगा निरंतर
अपने जीवन पथ पर ,संभल कर।'


पथिक समय के समानांतर
अपने क़दम बढ़ाकर
चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर।
उसे लगा यह जीवन है ,
एक अद्भुत संघर्ष कथा ,
जहां व्याप्त है मानवीय व्यथा।
नपे तुले सधे कदमों के बल पर,
लड़ा जाना चाहिए ,जीवन रण यहां पर ।

यात्री अपने पथ पर चलते-चलते
कर रहा था विचार कि अब उसे सजगता से
अपनी राह चलना होगा, हताशा निराशा को कुचलना होगा।
तभी वह अपनी मंज़िल तक निर्विघ्न पहुंच पाएगा।
अपनी यात्रा सुख पूर्वक सहजता से संपन्न कर पाएगा।


समय करना चाहता है,
जीवन पथ पर चल रहे यात्रियों को आगाह,
अपनी यात्रा करते समय ,वे हों न कभी ,बेपरवाह,
समय का दरिया , महाकाल के विशालकाय समंदर में
करता रहा है अपनी को लीन,
मानव समझे आज, उसके ,
स्वयं के कारण, कभी न बाधित हो,
समय चेतना का प्रवाह।

समय की नदी से ही गुज़र कर,
इंसान बनते प्रबुद्ध, शुद्ध, एकदम खालिस जी ।
फिर ही हो सकते हैं वे, काल संबंधी चिंतन में शामिल जी।

अब समय नपे तुले सधे क़दम आगे बढ़ाकर।
संघर्ष की ज्वालाओं को,
सोए हुओं में जगा कर ।
तोड़ेगा अंधविश्वासों के बंधन,
ताकि रुके क्रंदन जीवन पथ पर।
समय अपना राग पथिकों को सुनाकर,
कर सके मानवीय जिजीविषा का अभिनंदन।

०९/१२/२००८.
युद्ध
अभी विधिवत
शुरू हुआ नहीं कि
युद्ध विराम की ,
की जा रही है बात
कौन है वह देश ?
जो नहीं चाहता कि
युद्ध हो।

अभी
जन आक्रोश
उफान पर है ,
यदि किसी दबाव वश
हमला नहीं हुआ ,
तब अवश्य
जन विश्वास ख़तरे में है।
इसे कैसे खंडित होने से
बचाया जाए ?
इस बाबत भी
सोचा जाए।
मन के भीतर
उमड़ते-घुमड़ते
तूफ़ान को न रोका जाए ।
आओ मंज़िल की ओर बढ़ा जाए।
युद्ध भूमि में डटा जाए
बेशक मौत दे दे मात !
यह भी होगी
वक्त के हाथों से
सब के लिए
अद्भुत सौगात!

अब युद्ध अपरिहार्य है !
युद्धवीर !
क्या तुम्हें यह स्वीकार्य है ?
कुछ कर गुजरने से पहले
युद्ध विराम
हरगिज़ नहीं चाहिए।
इस बाबत
नेतृत्व को भी
समझना चाहिए।
शांति स्थापना के लिए
युद्ध की नियति कोई नई नहीं।
इस सत्य को सब समझें तो सही।
०२/०५/२०२५.
अचानक
युद्ध विराम की घोषणा ने
सच कहूँ ...
कर दिया है स्तब्ध
अभी राष्ट्र के प्रारब्ध का शुभारंभ हुआ है
और शत्रु पक्ष ने
कर दिया शीघ्र आत्म समर्पण।
सोमवार को
बुध पूर्णिमा के दिन
दोनों पक्षों में होगी संवाद की शुरुआत
होगी सहज और मित्रता पूर्ण वातावरण में वार्तालाप!
उम्मीद है दोनों देश बुद्ध के मार्ग का अनुसरण करेंगे!
यदि शत्रु पक्ष ने कुटिल चाल खेली
और आतंकवाद को दिया बढ़ावा
तो देश मां रण चंडी का आह्वान कर
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का धैर्य धारण कर
संपूर्ण अवतार श्री कृष्ण की कूटनीति को आत्मसात कर
महादेव की तरह विषपान कर
शत्रु के संहार को होगा तत्पर
और समस्त देशवासी करेंगे
भविष्य के संघर्षों की खातिर स्वयं को तैयार।
अब फिलहाल युद्ध विराम
शुभ आकांक्षा का सबब बने।
इस बाबत सभी पक्ष सकारात्मक सोच अपनाएं ,
ताकि सब अपनी आकांक्षाओं पर लगाम लगाकर
अपने अपने राष्ट्र के कल्याणार्थ
सुख समृद्धि और सम्पन्नता भरपूर
संभावना के द्वार समय रहते खोल पाएं।
१०/०५/२०२५.
शाम के पांच बजे
युद्ध विराम हुआ
परन्तु शत्रु पक्ष ने
चार घंटे के भीतर
कर दिया है
युद्ध विराम का उल्लंघन।
राष्ट्र है सन्न।
हम लड़ेंगे युद्ध
तब तक ,
जब तक
शत्रु पक्ष नहीं होता
विपन्न।
अब समय आ गया है
हम करें संघर्ष
जब तक
शत्रु राष्ट्र
नहीं हो जाता
छिन्न भिन्न।
अब शत्रु पक्ष में
विभाजन अनिवार्य है !
इससे कम
कुछ भी नहीं स्वीकार्य है।
१०/०५/२०२५.
देश
अब युद्ध के लिए
तैयार है ,
अब शत्रु पर
प्रहार के लिए
इंतज़ार है।

इस के लिए
हमें क्या रसद का
संग्रह करना चाहिए ?
इस बाबत
अपने बुजुर्ग से
पूछता हूँ...
उत्तर मिलता है
बिल्कुल नहीं !
देश पहले भी
आधी रोटी खाकर
युद्ध को लड़ चुका है।
इससे कुछ अधिक ही
देश भक्ति
और जिजीविषा का जज़्बा
देशवासियों में भर चुका है।
अब रणभेरी का इंतज़ार है।
युद्ध में जीतने का जुनून
सब पर सवार है।
देखना है अब आर पार की लड़ाई
किस करवट बैठेगी ?
विजयश्री किस प्रकार से
देशवासियों के अंतर्मन में झांकेगी ?
शहादत कितने युद्धवीरों की बलि मांगेगी ?
अब युद्ध
विशुद्ध युद्ध होगा।
इस युद्ध से जनमानस
प्रबुद्ध होगा।
हर जीत के बाद
देशवासियों का अंतर्मन
नैतिकता की दृष्टि से
शुद्ध होगा !
यह बिछड़े देशवासियों से
पुनर्मिलन का
एक ऐतिहासिक अवसर होगा।
सभी परिवर्तन के स्वागतार्थ आगे बढ़ेंगे।
वे अवश्य ही
विजयोत्सव की खातिर चिंतन मनन करेंगे ,
जीवन के आदर्शों की कसौटी पर
खरा उतरने की कोशिश करेंगे।
०६/०५/२०२५.
धीर गंभीर ही
बन सकते हैं युद्धवीर।
युद्ध की उत्तेजना को
जो अपने भीतर जज़्ब कर लेते हैं ,
मन ही मन में
शत्रु से लड़ने की
योजना को गढ़ लेते हैं ,
ऐसे योद्धा युद्धवीर कहलाते हैं।
ऐसे युद्धवीरों को सलाम।
ऐसे रण बांकुरों को
कोटि कोटि प्रणाम।
युद्धवीर धैर्य धारण कर
जीवन रण को लड़ते हैं।
वे अनेक उतार चढ़ावों के बावजूद
अपना डंका बजाते हैं ,
शत्रु की लंका को
अंगद बन कर जलाते हैं।
तुम भी जीवन रण में
युद्धवीर बनो।
भीतर और बाहर के शत्रुओं से
दो दो हाथ करो।
धैर्य और शौर्य के बल पर
शत्रु के मनसूबों को
धराशाई करो ,
चुपके चुपके
शत्रु खेमे में सेंध लगाकर
डर भर दो।
उन्हें गोरिल्ला युद्धनीति से
हक्का बक्का कर दो।
उन्हें अपनी रणनीति से
धूल चटा दो।
30/04/2025.
कोई भी
युद्ध को अपने कन्धों पर
ढोना नहीं चाहता।
फिर भी यह
कालचक्र का हिस्सा बनकर,
विध्वंस का किस्सा बनकर,
तबाही के मंज़र दिखलाने
लौट लौट कर है आता।
यह शांति व्यवस्था पर
करारा प्रहार है।
विडंबना है कि इसके बग़ैर
शान्ति कायम नहीं रह सकती।
युद्ध की मार से
सहन शक्ति स्वयंमेव विकसित हो जाती।

युद्ध शांति के लिए
अपरिहार्य है।
क्या तुम्हें यह स्वीकार्य है ?
हथियार भी पड़े पड़े
कभी कभी हो जाते हैं बेकार ।
युद्ध के भय से ही
विध्वंसक हथियार विकसित हुए हैं।
इनके साए में ही सब सुरक्षित रहते हैं।
युद्ध विहीन और हथियार विहीन
दुनिया के स्वप्न देखने वाले
भले नामचीन बन जाएं ,
वे प्रबुद्ध कहलाएं।
वे एक काल्पनिक दुनिया में रहते हैं।
उनकी वज़ह से
लोग असुरक्षित हो जाते हैं।
वे नृशंसता व विनाश का कारण बन जाते हैं।
यदि देश दुनिया को शान्ति चाहिए
तो युद्ध के लिए
सभी को रहना चाहिए तैयार।
शान्ति के नाम पर
कायरता को
गले लगाना सचमुच है बेकार।
यह आत्म संहार
जैसा कृत्य है।
संघर्ष करने से पीछे हटना
दासता स्वीकारने जैसा है।
यह बिना लड़े हारने
जैसा दुष्कृत्य है।
यह बिना तनख्वाह का
भृत्य होने जैसा है।
ऐसे दास का सब उपहास उड़ाते हैं।
गुलाम
कभी सुखी नहीं रह पाते।
यही नहीं
वे ढंग से जीना भी नहीं सीख पाते।
वे सदैव भिखारी तुल्य ही है बने रहते।
वे हमेशा दुःख, तकलीफ़ ,
बेआरामी से जूझने को बाध्य रहते।
इससे अच्छा है कि वे युद्धाभ्यास में लिप्त हो जाते।
यह सच है कि युद्ध के बाद
सदैव शांति काल का होता है आगमन।
युद्ध परिवर्तन का आगाज भी करते हैं।
साथ ही ये देश दुनिया का परिदृश्य बदल देते हैं।
०७/०५/२०२५.
हम जंग के बाद भी
देश दुनिया और समाज में
टिके रहें ।
इसलिए अपरिहार्य है
हम युद्धाभ्यास के लिए
स्वयं को तैयार करें।

यह ठीक है कि
युद्ध देश विशेष की
सेनाएं लड़ती हैं।
उन्हें युद्धाभ्यास करने की
जरूरत होती है ,
परन्तु युद्ध में
सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए
आम जन बल का उत्साहवर्धन
बेहद ज़रूरी है।

युद्ध सीधे तौर पर
आपातकाल को न्योता देना है।
यह मंहगाई को
आमंत्रण देना भी है।
आज यह अस्तित्व रक्षा के लिए
अपरिहार्य लग रहा है।
आओ हम शपथ लें कि
हम संयमित रहकर
जीवन यापन करेंगे ,
अपने खर्चे कम करेंगे।
इससे जो धनराशि बचेगी ,
उसे राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन के हेतु
दान करेंगे।
यही नहीं ,
यदि जरूरत पड़ी तो
देश की अस्मिता की खातिर
स्वयं को कुर्बान करेंगे।
हम संकटकाल में
कार सेवा करते हुए
अपने जीवन को सार्थक करेंगे।
हम सर्वस्व के हितार्थ
युद्ध स्तर पर
सकारात्मक और सार्थक पहल करेंगे।
हम युद्धोपरांत
स्व राष्ट्र और पर राष्ट्र के कल्याणार्थ
नव निर्माण का कार्य  करेंगे
और युद्ध की भरपाई भी
तन ,धन ,मन से करेंगे
ताकि जीवन धारा पूर्ववत बह सके।
शांति की बयार देश दुनिया में बहे।
कोई भी अन्याय सहने को अभिशप्त न रहे।
३०/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
उन्हें शिकवा शिक़ायत है कि आजकल
राजनीति गन्दगी भरपूर होती जा रही है।
मुझे उनका यह मलाल सही लगता है मगर
जेहन में कौंधता है एक ख्याल
जो उठाता रहा है भीतर मेरे बवाल और सवाल।

राजनीति किस कालखंड में शुचिता से जुड़ी रही?
क्या यह आजतक छल बल कपट प्रपंच की बांदी नहीं रही?
राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी  
भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िए रहे हैं,
जो जीवन के सच को आम आदमी की निस्बत
अच्छे से समझते हैं
और वे सलीके से
देश दुनिया को शतरंज की बिसात बनाकर
अपना अद्भुत खेल खेलते हैं,
शह और मात से
निर्लिप्त रहकर अपनी मौजूदगी का अहसास
निरंतर करवाते हैं ,
देश दुनिया को अपना रसूख और असर
दिखाते रहते हैं।
आज आदमी की अस्मिता
राजनीति की दिशा और दशा से
बहुत करीब से जुड़ी हुई है।
हमारे भविष्य की उज्ज्वल संभावना
राजनीतिक परिदृश्य से बंधी हुई है।
यही नहीं
तृतीय विश्व युद्ध तक का आगमन
और विकास के समानांतर विनाश का होना
जैसे वांछित अवांछित घटनाक्रम
राजनीतिक हलचलों से जुड़े हुए हैं ,
जिससे राजा और रंक सब बंधे हुए हैं ,
भले ही वे भला करने के लिए कसमसाते रहते हैं।
राजनीति और राज्यनीति को जोड़े बग़ैर
देश दुनिया में सकारात्मक सोच का लाना असंभव है।
यह जीवन में राजनीतिक हस्तक्षेप करने का दौर है,
भले ही यह सब किसी को अच्छा न लगे।
यहां राजनीति के मैदान में कोई नहीं होते अपने और सगे।
२९/१२/२०२४.
आज के दिन  
तीस जनवरी की तारीख को
अचानक
देशवासियों को
झेलना पड़ा था आघात ,
जब किसी ने
राजनीति के चाणक्य को
दिया था
चिर निद्रा में सुला ,
सत्य अहिंसा और सत्ता के
केन्द्रबिन्दु रहे
महात्मा पर
गोलियां चला ।
वज़ह
स्पष्ट थी ,
आदमी के भीतर बसी ,
अकड़ और हठधर्मिता ,
छीन लेती है
आदमी का विवेक।

दोनों पक्ष
स्वयं को
मानते हैं सही।  
वे नहीं चाहते करना
अपने दृष्टिकोण में
समयोचित सुधार करना,
फलत: झेलते हुए पीड़ा,
दोनों ही समाप्त हो जाते हैं,
अपने आगे बढ़ने की संभावना के सम्मुख
प्रश्नचिह्न अंकित कर जाते हैं।

राजनीति के चाणक्य की
सलाह
कभी भी राजनीतिज्ञों ने
दिल से मानी नहीं,
फलत:
महात्मा को कुर्बानी देनी पड़ी।

आज देश
अराजकता के मुहाने पर खड़ा है।
देश अपनी टीस को भूलकर
तीस जनवरी को
सायरन की आवाज़ के साथ  
मौन श्रद्धांजलि देने को होता है उद्यत।
सब शीघ्रातिशीघ्र आदर्शों को भूलकर
अपनी जीवनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं ।
वे ‌फिर से नव वर्ष के आगमन
और तीस जनवरी के इंतजार में रहते हैं
ताकि फिर से महात्मा को याद किया जा सके,
उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी जा सके।
मुझे क्या सभी को
तीस जनवरी का व्यग्रता से
रहता है इंतज़ार
ताकि महात्मा को याद कर सकें ,
बेशक उनके आदर्शों से सब मुंह मोड़े रहें।
३०/०२/२०२५.
,
Joginder Singh Nov 2024
यह ठीक है कि
राजनीति
होनी चाहिए     लोक नीति ।

पर    लोक    तो   बहिष्कृत  हैं ,
राजनीति के      जंगल    में।

कैसे   जुटे...
आज       राजनीति   लोक मंगल   में  ?

क्या   वह    समाजवाद  के  लक्ष्य  को
अपने   केन्द्र   में  रख    आगे    बढे   ?
.....  या   फिर   वह   पूंजीवाद  से  जुड़े  ?
..... या   फिर  लौटे वह सामंती ढर्रे   पर  ?

आजकल  की   राजनीति
राजघरानों  की  बांदी   नहीं  हो   सकती   ।
न  ही  वह  धर्म-कर्म  की  दासी बन  सकती  ।
हां,  वह जन गण    के   सहयोग  से...
अपनी    स्वाभाविक   परिणति     चुने   ।

क्यों  न   वह ‌ ...
परंपरागत  परिपाटी  पर  न   चलकर
परंपरा    और    आधुनिकता  का  सुमेल  बने ‌?
वह  लोकतंत्र   का   सच्चा   प्रतिनिधित्व  करे  ?

काश  !  राजनीति  राज्यनीति  का  पर्याय  बन उभरे  ।
देश भर  में   लगें  न  कभी  लोक  लुभावन   नारे   ।
नेतृत्व   को  न   करने पड़ें जनता  जनार्दन से  बहाने ।
न  ही  लगें   धरने  ,  न  ही  जलें   घर ,  बाजार  ,  थाने ।

   १०/६/२०१६.
कल
अचानक राष्ट्र
जीतते जीतते हार गया।
गाय भक्त देश
कसाई से कट गया।
तृतीय पक्ष
बन्दर कलन्दर
बिल्लियों के
हिस्से की रोटी को
छीनने का
जुगाड़ कर गया।
साधन सम्पन्न देश
खुद को विपन्न
सिद्ध कर गया।
कल कोई
बुद्धू के सुख को
हड़प कर गया।
उसे लाचार कर गया।
११/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
रिश्ते पाकीज़गी के जज़्बात हैं,इनका इस्तेमाल न कर।
पहले दिल से रिश्ता तोड़,फिर ही कोई गुनाह कर ।।
रिश्ते समझो, तो ही,ये जिंदगी में रंग भरते हैं।
ये लफ़्फ़ाज़ी से नहीं बनते,नादान,तू खुद कोआगाह कर।।
दोस्तों ओ दुश्मनों की भीड़ में, खोया न रहे तेरा वजूद ।
जिंदगी में ,इनसे बिछड़ने के लिए,खुद को तैयार कर।।
अपना,अपनों से क्या रिश्ता रहा है,इस जिंदगी में।
इस  पर न सोच,इसे सुलझाने में खुद को तबाह न कर।।
आज तू हमसफ़र के बग़ैर नया आगाज़ करने निकला है।
अकेलापन,तमाम दर्द भूल,आगे बढ़, नुक्ताचीनी ना कर।।
अब यदि किताब ए जिन्दगी के पन्ने भूत बन मंडरा रहे।
तब भी न रुक, ना डर, इन्हें पढ़ने से इंकार ना कर।।
कारवां जिन्दगी का चलता रहेगा,तेरे रोके ये ना रूकेगा।
जोगी तू  भीतर ये यकीं पैदा कर, रिश्ते मरते नहीं मर
कर।।
समय समर्थ है
यह सदैव गतिशील रहता है
जीवन में यात्रा करने के दौरान
रुके रहने का अहसास
हद से ज्यादा अखरता है
यह न केवल प्रगति के  न होने का दंश दे जाता है
बल्कि नारकीय जीवन जीने की
प्रतीति भी कराता है।
जीवन में रुके रहने का अहसास
असाधारण उपलब्धियों की प्राप्ति तक को
आम बना देता है।
यह आदमी को
भीतर तक हिला देता है ,
उसे कहीं गहरे तक
थका देता है।

रुके रहने से बेहतर है कि
आदमी स्वयं को गतिशील रखें
ताकि वह असमय न थके,
जीवन में आगे बढ़ कर
अपनी मंजिल को वरता रहे।
२६/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
तमाम खाद्यान्न पदार्थों में
खिचड़ी का मिलना
किसी वरदान से कम नहीं।
इसे खाकर तो देख सही।



गले में खिचखिच     खा खिचड़ी
जीवन में खिचखिच  गा   और
खिचड़ी भाषा में पढ़   कबीर जी का सच
कैसे नहीं होगा प्राप्त ?
जीवन में आस्था का सुरक्षा कवच !अगर म
अनायास सीख पाओगे स्वयं को रखना शांत।

खिचड़ी खा, खिचड़ी भाषा के कवि को गुन
और... हां...तूं  मन मेरे
अपने भीतर का राग सुनाकर, उसे ही गुनाकर !

जीवन भरने करना दूर अपने को खिचड़ी से
बनना मस्त मलंग खाकर, जीकर खिचड़ी के संग
मिलेंगे जीवन के खोये रंग,
जीवन न होगा और अधिक बदरंग, मटमैला,
यह जीवन नहीं होगा प्रतीत एक मेला -झमेला ।
०९/१०/२००८.
बचपन की कहानी का
रंगा सियार
आज
मैंने अनुभूत किया ।
आजकल
वह सत्ता के सिंहासन पर  
आसीन  है
और हरेक विरोधी को
गिदड़ भभकी दे रहा है ,
और इसके साथ ही
अपने आका के आगे
नाच रहा है।
वह शीघ्रता से
मौत का तांडव करने
शहर शहर
यार मार करने आ रहा है ,
मेरा दिल बैठा जा रहा है।
रंगा सियार
अराजकता के दौर में
रंगारंग कार्यक्रम
प्रस्तुत करना चाहता है।
पर कोई विरला ही
उसकी पकड़ में आता है।
वह हर किसी से मिलना चाहता है,
वह अपने रंगे जाने का दोष
हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे के सिर
मढ़ना चाहता है।
११/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
वो आदमी
नख से शिख तक
रंगीन है।

हर पल
मौज और मस्ती,
नाच और गाने,
हास परिहास,
रास रंग की
सोचता है !

वह
पल प्रति पल
परंपरावादी मानसिकता के
आदमी की संवेदना को
नोचता है!!

उस आदमी का
जुर्म संगीन है।
दोष उसका यही,
वो रंगीन है।

उसे सुधारो,
वरना
लोग देखा देखी
उसके रंग में रंगे जायेंगे!
रंगीन मिज़ाज होते जायेंगे!!
   १७/०७/२०२२
आज
आसपास
बहुत से लोग
बोल रहे हैं
नफ़रत की बोली ,
जो लगती है
सीने में गोली सी।
वे लोग
डाल डाल और पात पात पर
हर पल डोलने वाले ,
अच्छे भले जीवन में
विष घोलने वाले ,
देश , समाज और परिवार को
जड़ से तोड़ने में हैं लगे हुए।

उनसे मेरी कभी बनेगी नहीं ,
क्योंकि वे कभी सही होना चाहते नहीं।

वे समझ लें समय की गति को ,
आदमी की मूलभूत प्रगति की लालसा को ।
यदि वे इस सच को समझेंगे नहीं ,
तो उनकी दुर्गति होती रहेगी।
उन्हें हरपल शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी।
जिस दिन वे स्वयं की सोच को
बदलना चाहेंगे।
समय के साथ चलना चाहेंगे।
ठीक उस दिन वे जनता जर्नादन से हिल मिल कर
निश्चल और निर्भीक बन पाएंगे।
वे होली की बोली ख़ुशी ख़ुशी बोलेंगे।
उनकी झोली होली के रंगों से भर जाएगी ।
उन्हें गंगा जमुनी तहज़ीब की समझ आ जाएगी।
वे सहयोग, सद्भावना और सामंजस्य से
जीवन पथ पर अग्रसर हो जाएंगे।
देश , धरा और समाज पर से
संकट के काले बदल छंट जाएंगे।
सब लोग परस्पर सहयोग करते दिख जाएंगे।
११/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सत्ताधारी  की
कठपुतलियां  बने  हैं  हम !

विद्रोह  करने  से
हिचकते , झिझकते  हैं हम !

फिर  कैसे  दिखाएं?
किसे  दिखाएं ?
नहीं  रहा  भीतर  कोई  दमखम ,
अपने  हिस्से  तो  आए  लड़खड़ाते  क़दम  !

२६/०६/२०२८.
भाई भाई
आज आपस में क्यों लड़े ?
इस बाबत
क्या कभी किया है
किसी ने विचार विमर्श ?
भाई भाई
बचपन में  परस्पर लड़ने से
करते थे गुरेज
बल्कि यदि कोई
उन से लड़ने का प्रयास करता
तो वे सहयोग करते ,
विरोधी पर टूट पड़ते।
अब ऐसा क्या हो गया है ,
भाई भाई का वैरी हो गया है।

दो बिल्लियों के बीच
मनभेद होने पर
बन्दर की मौज हो जाती है ,
इसे आज तक भी
वे समझ नहीं पाई हैं।
समसामयिक संदर्भों में
अब इसे समझा जाए ,
दो पड़ोसी देश
जिनका सांझा विरसा है ,
द्विराष्ट्र सिद्धान्त से
जिन्हें पूंजीवादी देश ने
गुलामी के दौर से लेकर
आजतक चाल चलकर
हर रंग ढंग से छला है।
उन्हें कमज़ोर रखने के निमित्त
उनको न केवल विभाजित किया गया
बल्कि उनमें
आपसी समन्वय न होने देने की ग़र्ज से ,
उन्हें प्रगति पथ पर बढ़ने से रोकने के लिए
बरगलाया गया है।
उनके अहम् के गुब्बारे को फुलाकर
उन्हें अक्लबंद बनाया गया है।
यदि वे अक्लमंद बन जाते ,
तो कैसे सरमायेदार देश
उन्हें भरमाते , फुसलाकर,
निर्धनता के जाल में फंसा पाते ?

आज के बदलते दौर में
बन्दर अब
एक न होकर
अनेक हैं ,
यह सच है कि
उनके इरादे
कभी भी नेक नहीं रहे हैं।
वे भाइयों को लड़वा सकते हैं।
जरूरत पड़ने पर
सुलह और समझौता भी
करवा सकते हैं ,
अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए
उनको फिर से विभाजन की राह
पर ले जाकर मूर्ख भी बना सकते हैं।

बन्दर कलन्दर बन कर राज कर रहा है।
वह बन्दर पूंजीवादी भी हो सकता है
और कोई तानाशाह समाजवादी भी।
यह बिल्लियों को देखना है कि
वे किस पाले में जाना पसंद करेंगी ?
या फिर अक्लमंद बन कर सहयोग करेंगी ??
आज ये लड़ने पर आमादा हैं।
पता नहीं ये कब तक लड़ती रहेंगी ?
शत्रु की शतरंजी चालों में फंसकर
अपने सुख ,समृद्धि और सम्पन्नता को
बन्दर बांट करने वालों तक पहुंचाती रहेंगी।
आज भाई परस्पर न लड़ें।
वे समझ लें जीवन का सच कि
लड़ाई तो बस जग हंसाई कराती है।
यह दुनिया भर में निर्धनता को बढ़ाती है।
०९/०५/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
मेरे यहां
हक की खातिर
लड़ने वाला
' गांधी ' होता है,
फौलादी हौंसले वाला
एक अदृश्य तूफ़ान होता है,
सच ! जिसके भीतर
आक्रोश भरा रहता  है,
भले वह अहिंसक रास्ते पर चले ,
उसके अंदर बारूद भरा रहता है।
ऐसा आदमी सीधा सादा होता है।
आज के तिकड़म बाज़ नेता उसे खतरनाक बना देते हैं।है।
उसे आग पानी देकर महत्वाकांक्षी बना देते हैं,
किसी हद तक  
उसके आक्रोश को ज्वालामुखी बना
उसे अराजक ही नहीं, विध्वंसक भी बना देते हैं।

उसे धरने, विरोध प्रदर्शन करने,
लड़ने भेजने में लगा देते हैं ,
उसके अंदर के असंतोष को हवा दे
उसे पूर्ण रूपेण अराजक और आतंकी बना देते हैं।
जब वह संघर्ष करते हुए शहादत पा जाता है।
तब उसे बरगलाया हुआ, राह से भटका बताया जाता है।
सच! उसके मर जाने के बाद कोई एक आध ही रोता है। कुछ इस तरह एक संभावना का अंत मेरे यहां होता है।

पर सच ! कभी खोता है।
वह देर सवेर
सबके यहां
हर किसी जगह
दस्तक देता हुआ
कि
किसी नन्हे पौधे सा होकर
अंकुरित होता है ,
और
एक सच का वृक्ष बनकर
पुष्पित और पल्लवित होता है।
इस भांति सभी जगह परिवर्तन होता है।


12/03/2013.
Joginder Singh Nov 2024
तुम लड़ो
व्यवस्था के ख़िलाफ़
पूरे आक्रोश के साथ।
लड़ने के लिए
कोई मनाही नहीं,
बशर्ते तुम उसे एक बार
तन मन से समझो सही।


यकीनन
फिर कभी
होगी अनावश्यक
तबाही नहीं।


तुम लड़ो
अपनी पूरी शक्ति
संचित कर।

तुम बढ़ो
विजेता बनने के निमित्त।
पर, रखो
तनाव को, अपने से दूर
ताकि हो न कभी
घुटने तकने को मजबूर।
करो खुद को
भीतर से मजबूत।


तुम
अपने भीतर व्याप्त
अज्ञान के अंधेरे से लड़ो।
तुम
शोषितों के पक्ष में खड़े रहो।
तुम
अपने अंतर्मन से
करो सहर्ष साक्षात्कार
ताकि प्राप्त कर सको
अपने मूलभूत अधिकार।

लड़ने, कर्तव्य की खातिर
मर मिटने का लक्ष्य लिए
तुम लड़ो,बुराई से सतत।
तुम बांटो नहीं, जोड़ो।

तुम जन सहयोग से
प्रशस्त करो जीवन पथ।
तुम्हारे हाथ में है
संघर्ष रूपी मशाल।
यह सदैव रोशन रहे।
तुम्हारी लड़ाई
परिवर्तन का आगाज़ करे।

तुम लड़ो, कामरेड!
करो खुद को दृढ़ प्रतिज्ञा से
स्थिर, संतुलित,संचक, सम्पूर्ण
कि...कोई टुच्चा तुम्हें न सके छेड़।
कोई आदर्शों को समझे न खेल भर।
तुम सिद्ध करो,
आन ,बान,शान की खातिर
कुर्बानी दे सकने का
तुम्हारे भीतर जज़्बा है,
संघर्ष का तजुर्बा है।
इतिहास से खिलवाड़
करते हुए
आजकल
हमें कुछ चतुर सुजान लोगों
और बिकाऊ इतिहासकारों के लिखे
इतिहास को
पढ़ने को किया गया है
बाध्य।
ख़ूब ख़ूब उल्लू
बनाया गया हमें ,
इसे हम जड़ से समझें ,
ताकि हम अपनी अस्मिता को
पहचान सकें ,
भुला दी गई
गौरव गाथा का
स्मरण कर सकें ,
इसे अपनी स्मृतियों में
जीवंत बनाए रख सकें
और हम सब
अपने आप को
गंतव्य तक पहुंचा सकें।
ऐसा षडयंत्र
जिन्होंने किया ,
उनको लताड़ लगा सकें।
नव्य इतिहास लेखन
और खोजों के आधार पर
उपनिवेशवादी मानसिकता के
राजनीतिज्ञों और इतिहासकारों को
सकें  समय रहते लताड़
ताकि वे
और ज़्यादा न कर सकें
जनभावनाओं और आकांक्षाओं के
साथ खिलवाड़।
हम सब सच का दें साथ ।
हम इतिहास से छेड़छाड़ होने देकर ,
न करें ,भूले से , सभी
कभी भी
राष्ट्र हितों पर कुठाराघात।
हम ऐसे दोगली मानसिकता पर
करें सतत् प्रहार।
२३/०३/२०२५.
हेट करते करते
डेटिंग
शुरू हो जाए,
इसकी मांगिए
दुआएं !

आज ज़माना
अपना दस्तूर भूला है ,
यहाँ अब सारे रीति रिवाज
उल्टा दिए गए हैं ,
शादी से पहले जो होते थे शेर कभी ,
आज मेमने बना दिए गए हैं !

अभी अभी
रद्दी में फेंक दिए
गए अख़बार में से
पढ़ी है एक ख़बर,
" नौ साल पहले हुई थी लव मैरिज ;
पति लन्दन गया तो....ने नया प्रेमी बनाया ,
लौटने पर हत्या कर पन्द्रह टुकड़े किए "
सोच रहा हूँ
आजकल ऐसा क्या हो गया है ?
लव मैरिज शादी के बाद
बन जाती है
जंग का मैदान !
यह संबंधों को ढोती हुई
जाती है हाँफ !
ज़िन्दगी होती जाती फ्लॉप !
यह एक मिस कैरेज ही तो है ,
जिसमें खुशियों का शिशु
असमय मार दिया जाता है !
वासना के कारण
पति परमेश्वर को
परमेश्वर से मुलाकात के लिए
षडयंत्र कर
भेज दिया जाता है !
ज़मीर और किरदार तक
सस्ते में बेच दिया जाता है !
आप ही बताइए
क्या आप को ऐसा समाज चाहिए ?
जहां वासना जी का जंजाल बन गई है ,
पति-पत्नी ,
दोनों के अहम् के टकराव की
वज़ह से ज़िंदगी नरक बन गई है।
आदमी के चेहरे से
मुस्कान छीनती चली गई है।
जीवन चक्र से
सौरभ और सौंदर्य हो गया है लुप्त !
संवेदना और सहानुभूति भी हैं अब लुप्त !!
किसी हद तक सभी जबरन सुला दिए गए !
संबंध , रिश्ते नाते तक भुला दिए गए !!
०९/०४/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
लोग सोचते हैं कि
आपको सब कुछ पता है ,
आसपास का सब कुछ --
नहीं है आपकी आंखों से
ओझल कुछ भी कहीं।

पर आप जानते हैं --
स्वयं को अच्छी तरह से ,
फलत: आप चुप रहते हैं ,
अपना सिर झुका कर
हर क्षण,हर पल, चुपचाप
चिंतन मनन करते रहते हैं।
अपना सिर झुकाए हुए
सोचते हैं ,निज से कहते हैं कि...,
" कैसे कहूं अपना सच !
किस विधि रखूं अपने
जीवन में प्राप्त निष्कर्ष
जनता जनार्दन के सम्मुख।
सतत् परिश्रम बना हुआ है
उत्कृष्टता का केन्द्र
और जीवन का आधार!"
" इस के अतिरिक्त
और नहीं कुछ मुझे विदित ,
दुनिया न खुद के बारे में ।
बहुत सा सच है अंधियारे में।"

आप कहते कुछ नहीं,
आजकल सुनते भर हैं।
आप कहें भी किस से ?
सब समय की चक्की तले
मतवातर पिस रहें।

कभी कभी आप
सुनते भर नहीं ,
अविराम सोचते समझते हैं ,
भीतरी अंधेरे को
उलीचते भर हैं ।
ताकि जीवन के सच का
उजास जीवन में मिलता रहे।
इससे जीवन - पथ प्रकाशित होता रहे।
लोग सोचते हैं कि आपको सब पता है ,
आप सोचते हैं कि लोगों को सब पता है ,
सच्चाई यह है -- आप और भीड़ , दोनों लापता हैं,
और आप सब कुछ कहे बिना
अपने अपने ‌ढंग से ढूंढते अपने घर का पता हैं ।

०४/०८/२००८.
लाभ की उत्कंठा
अपनी सीमा को लांघ कर
लोभ को उत्पन्न कर
व्यक्ति के व्यक्तित्व पर
चुपचाप करती रहती है
आघात प्रतिघात।
जैसे जैसे व्यक्ति लाभान्वित होता है ,
वैसे वैसे लालच भी बढ़ता है
और यह विवेक को भी हर लेता है।
समझिए कि व्यक्ति अक्ल से अंधा हो जाता है।
उसके भीतर अज्ञान का अंधेरा पसरता जाता है।
वह एक दिन सभ्यता का लुटेरा बन जाता है।
वह हर रंग ढंग से लाभ कमाना चाहता है।
बेशक उसे धनार्जन के लिए कुछ भी करना पड़े।
नख से शिखर तक कुत्सित , दुराचारी , अंहकारी  बनना पड़े ।
लाभ और लोभ की खातिर किसी भी हद तक शातिर बनना पड़े।
यहां तक कि अपने आप से भी लड़ना और झगड़ना पड़े।
०२/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
वह इस भरेपूरे संसार में
अपनेपन के अहसास के बावजूद
निपट अकेला है ।
वह ढूंढ रहा है सुख
पर...
उससे लिपटते जा रहें हैं दुःख ,
जिन्हें वह अपना समझता है
वे भी मोड़ लेते हैं
उससे मुख ।

काश ! उसे मिल सके
प्यार की खुशबू
ताकि मिट सके
उसके भीतर व्यापी बदबू ।

वह इस भरेपूरे संसार में
निपट अकेला है ,
क्यों कि दुनिया के इस मेले को
समझता आया एक झमेला है
फलत:
अपने अनुभव को
अब तक
बांट नहीं पाया है
अपने गीत
अकेले गाता आया है।
कोई उसे समझ नहीं पाया है।
शायद वह
अभी तक
स्वयं को भी नहीं समझ पाया है!
बस अकेला रह कर ही
वह जीवन जी पाया है।
वह भटकता रहा है अब तक
कोई उसके भीतर झांक नहीं पाया है!
उसके हृदय द्वार पर दस्तक
नहीं दे पाया है !
उसने खुद को खूब भटकाया है।
अब तो उसे भटकाव भाने लगा है!
इस सब की बाबत सोचता हुआ
वह पल पल रीत रहा है।
हाय! यह जीवन बीत चला है।
  १६/१२/२०१६.
वक़्फ के मायने क्या हैं ?
वक़्फ हुआ कि बवाल हुआ ?
यह सवाल क्यों अब जेहन में
एक पन्ने सा है फड़फड़ा रहा ?
क्या वाक़िफ है जो वक़्फ का ,
उसे अवाम का अहसास उकसा रहा?
वाक़िफ हो अगर तुम ख़ुदा के
तो उसकी दुनिया में क्यों आग लगा रहे ?
सड़कों पर उतर कर क्यों अराजकता फैला रहे ?
यकीन तुम निज़ाम के फैसलों पर
पहले करो जरा।
निज़ाम अवाम के खिलाफ़ नहीं है ,
वह ज़हालत के खिलाफ़ जरूर है ,
इसने तरक्की की राह में रुकावट खड़ी की हुई है।
वह मुफलिसों को उनके हक़ की बाबत
अहसास कराना चाहता है।
उनके हकों पर
जिन उमरा अमीरों ने
आज तक कब्ज़ा कर रखा है ,
निज़ाम उन्हें आज़ादी का अहसास करवाना चाहता है।
भले उसे कोई बड़ी भारी कुर्बानी देनी पड़े।
बाकी ज़िंदगी ग़ुरबत में बितानी पड़े।
कौम कुर्बानियों से मुस्लसल आगे बढ़ी है।
आज तारीख़ में एक ख्याल जुगनू सा जगमगा कर
चिराग़ तले अंधेरे के सच को ढूंढने निकला है,
आप उसका दिल से एहतराम कीजिए।
वाक़िफ हो  अगर तुम ख़ुदा के
तो उसके बन्दों पर यकीन कीजिए।
खुद को मौकापरस्ती और फिरकपरस्ती के
कैदखानों में हरगिज़ हरगिज़ न बंद कीजिए।
वक़्त की नाजुकता को महसूस कर के कोई फ़ैसला कीजिए।
१९/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
जिसे लावारिस समझा उम्र भर
वही मिला मुझे
सच्चा वारिस बनकर
आजकल
वह
मेरे भीतर जीवन के लिए
उत्साह जगाता है,
वह
क़दम क़दम पर
मेरे साथ निरंतर चलकर
मुझे आगे बढ़ा रहा है।
अब वह मेरी नज़र में
एक विजेता बनकर उभरा है,
जिसने संकट में
मेरे भीतर सुरक्षा का अहसास
जगाया है।
मैं पूर्वाग्रह के वशीभूत होकर
उसे व्यर्थ ही
दुत्कारता रहा।
नाहक
उसे शर्मिंदा करने को आतुर रहा।
जीवन में
शातिर बना रहा।
  ०४/०८/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
वह
यह सोचते हुए सोया
कि पता नहीं
कब इस जीवन में
वासना दहन होगा ?
होगा भी कि नहीं?

फिर वह कभी उठा ही नहीं।
जीवन में आगे बढ़ा भी नहीं।
दोस्त,
वासना जरूरी है,
इस बिन जीवन यात्रा अधूरी है।
अचानक
किसी भावावेग में
आकर
आदमी
क्रूरता की
सभी हदें
पार कर जाए
और होश में आने के बाद
भागता फिरे
निरन्तर
वह बेशक पछताए,
परंतु
गुजरा समय लौट कर न आए।
इससे बचने का
ढूंढना चाहे कोई उपाय।
उसका बचना मुश्किल है।
वह कैसे अपना बचाव करे ?
अच्छा है कि वह किसी दुर्ग में
छुपने की बजाय
परिस्थितियों का सामना करे।
कानून और न्याय व्यवस्था के सम्मुख
आत्म समर्पण करे।

अगर छिपने के लिए
मिल भी जाए कोई दुर्ग जैसी सुरक्षित जगह का अहसास
तब भी एक पछतावा सदा करता रहता है पीछा।
एक सवाल मन में रह रह कर करता रहेगा बवाल ,
अब बचाव करूं या भागने की फिराक में रहूं ?
अच्छा रहेगा कि
आदमी खुद को निडर करे
और सजा के लिए खुद को तैयार करे ।
आत्म समर्पण एक बेहतर विकल्प है ,
अपनी गलती को सुधारने का प्रयास ही बेहतर है
जिससे एक बेहतर कल मिल सके ,
ताकि आदमी भविष्य में खुल कर जी सके।
१९/०१/२०२५.
यह संभव नहीं
कि कभी मनुष्य
पूर्णतः विकार रहित हो सके।
फिर भी एक संभावना
उसके भीतर रहती है निहित,
कि वह अपने जीवनशैली
धीरे धीरे विकार रहित बना सके,
ताकि वह अपनी स्वाभाविक कमजोरियों पर
नियंत्रण करने में सफल रहे।

कोई भी विकार
सब किए धरे को
कर देता है बेकार ,
अतः व्यक्ति जीवन में संयमी बने
ताकि वह किसी हद तक
विकार रहित होकर
मन को शुद्ध रख सके,
जीवन धारा में शुचिता का
संस्पर्श कर सके।
वह सहज रहते हुए आगे बढ़ सके,
ताकि उस पर  लंपट होने का
कभी भी दोषारोपण न लग सके।
वह जीवन में
स्वयं के अस्तित्व को
सार्थक कर सके।
विकार रहित जीवन को
अनुभूति और संवेदना से
जोड़ कर
अपने व्यक्तित्व में
निखार ला सके।
वह प्यार और सहानुभूति को
चहुं ओर फैला सके,
चेतना से संवाद रचा सके,
अज्ञान की निद्रा से जाग सके।
२१/०१/२०२५.
पिछले साल
यही कोई पांच महीने हुए
मुझे सेवानिवृत्ति दे दी गई ।
इस मौके पर
मुझे भव्य विदाई पार्टी दी गई ,
मेरी सच्ची झूठी प्रशंसा भी की गई ।
मैं खुश था कि
अब मैं अपने जीवन को
मन मुताबिक जी सकूंगा ,
खुलकर अपनी बात रख सकूंगा ।

मैंने भी अपने चिरपरिचितों को
खुशी खुशी पार्टियां दीं ।
फिर यकायक
मुझे इससे विरक्ति हो गई ,
मेरे भीतर असंतुष्टि भरती गई ।

घर वापसी का अहसास
कुछ समय अच्छा लगा।
अब मैं वापिस
अपनी अनुशासित दिनचर्या पाना चाहता हूँ।

समय भी
नए साल की
पूर्व संध्या पर
सेवानिवृत्त कर
दिया जाता है।
उसकी विदायगी का
दुनिया भर में
आडंबर रचा जाता है,
फिर आधी रात को
नए साल को
खुश आमद कहने के लिए
जोशोखरोश से
जश्न मनाया जाता है ,
फिर अगला नया साल आने तक
नवागन्तुक साल को भी
भुला दिया जाता है।

विगत वर्ष से
मैंने पूर्ववत जीवन से सीख लेकर
कविताएं पढ़ना और लिखना
शुरू कर दिया है , उम्मीद है
मैं इस माध्यम से
समय से संवाद रचा लूंगा।
विगत वर्षों को याद करते हुए
उनसे भी वर्तमान और भविष्य के
सम्बन्ध में कुछ राय मशवरा करूंगा
ताकि मैं भी जीवन से विदायगी लेते हुए
शब्दों के रूप में समय की वसीयत और विरासत को
अपनी समझ के अनुसार
कुछ अनूठे रूप में
अपनी भावी पीढ़ी को सौंप समय धारा में
विलीन हो सकूं...अनंत में , अनंत को खोज सकूं।
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