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67 · Dec 2024
थूक गटकना
Joginder Singh Dec 2024
अच्छा खासा आदमी था,
रास्ता भटक गया।
बहुत देर बाद
मुंह में निवाला पाया था ,
गले में अटक गया ।

थोड़ी तकलीफ़ हुई ,
कुछ देर खांसी हुई ,
फिर सब कुछ शांत हुआ,
अच्छा खासा आदमी परेशान हुआ।
समय बीतते बीतते
थोड़ा पानी पीने के बाद
अटका निवाला
पेट के भीतर ले जाने में सक्षम हुआ ,
तब कहीं जाकर कुछ आराम मिला।
अपनी भटकन
और छाती में जकड़न से  
थोड़ी राहत मिली,
दर्द कुछ कम हुआ,
धीरे-धीरे
मन शांत हुआ, तन को भी सुख मिला।
अपनी खाने पीने की जल्दबाजी से
पहले पहल लगा कि
अब जीवन में पूर्ण विराम लगा,
जैसे मदारी का खेल  
खनखनाते सिक्कों को पाने के साथ बंद हुआ।


अच्छा खासा आदमी था
ज़िंदगी को जुआ समझ कर  खेल गया।
मुझ कुछ पल के लिए
जीवन रुक गया सा लगा,
अपनी हार को स्वीकार करना पड़ा,
इस बेबसी के अहसास के साथ
बहुत देर बाद
निवाला निगला गया था।

अपनी बर्बादी के इस मंजर को देख और महसूस कर
निवाला गले में अटका रह गया था।
सच! उस पल थूक गटक गया था ,
पर ठीक अगले ही पल
भीतर मेरे
शर्मिंदगी का अहसास
भरा गया था।
बाल बाल बचने का अहसास
भीतर एक कीड़े सा कुलबुला रहा था।
मैं बड़ी देर तक अशांत रहा था।
१६/०६/२००७.
67 · Nov 2024
Pearl of love
Joginder Singh Nov 2024
Oh dear!

Find the pearl of love
  
in the ocean of emotions

for me and self .

It  will strengthen the bonds of affection
for me and you.

Nowadays attractions of life,sun and smiles is turned into affection.

So avoid distractions in present life.
Time is passing through us rapidly.
You must understand it clearly.

Yours
Hours of Life.
Joginder Singh Nov 2024
जिन्दगी में
तना तनी,
छीन लेती
सुख की नागमणि!
२५/०४/२०२०
66 · Dec 2024
गूंगा
Joginder Singh Dec 2024
इन दिनों
चुप हूं।
जुबान अपना कर्म
भूल गई है।
उसको
नानाविध व्यंजन खाने ,
और खाकर चटखारे लगाने की
लग गई है लत!
फलत:
बद  से बद्तर
होती चली गई है हालत !!

इन दिनों
जुबान दिन रात
भूखी रहती है।
वह सोती है तो
भोजन के सपने देखती है ,
भजन को गई है भूल।

पता नहीं ,
कब चुभेगा उसे कोई शूल ?
कि वह लौटे, ढूंढ़ने अपना मूल।

इन दिनों
चुप हूं ।
चूंकि जुबान के हाथों
बिक चुका हूं ,
इसलिए
भीतर तक गूंगा हूं ।

०६/०३/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
क़दम क़दम पर
झूठ बोलना
कोई अच्छी बात नहीं !
यह ग़लत को
सही ठहरा सकता नहीं !!
झूठ बोलने के बाद
सच को छिपाने के लिए
एक और झूठ बोल देना ,
नहीं हो सकता कतई सही ।

झूठ
जब पुरज़ोर
असर दिखाता है
तो जीता जागता आदमी तक ,
श्वास परश्वास ले रहा वृक्ष भी
हो जाता एक ठूंठ भर,
संवेदना जाती ठिठक ,
यह लगती  धीरे-धीरे मरने।

आदमी की आदमियत
इसे कभी नहीं पाती भूल
उसे क़दम दर क़दम बढ़ने के
बावजूद चुभने लगते शूल।
शीघ्रातिशीघ्र
घटित हो रहे ,
क्षण क्षण हो रहे , परिवर्तन
भीतर तक को , 
करते रहते ,कमज़ोर।
भीतर का बढ़ता शोर भी
रणभूमि में संघर्षरत
मानव को ,
चटा देते धूल।

दोस्त,
भूल कर भी न बोलो ,
स्व नियंत्रण खोकर
कभी भी  झूठ ,
ताकि कभी
अच्छी खासी ज़िंदगी का
यह हरा भरा वृक्ष
बन न जाए कहीं
असमय अकालग्रस्त होकर ठूंठ!
जीवन का अमृत
कहीं लगने लगे
ज़हर की घूट!!
झूठा दिखने से बच ,
ताकि  जीवन में जिंदादिली बची रहे,
और बचें रहें सब के अपने अपने सच !
२८/०१/२०१५.
Joginder Singh Nov 2024
वक़्त से पहले
गुनाहगार
कब जागते हैं?
वे तो निरंतर
जुर्म करने,
मुजरिम बनने की खातिर
दिन रात शातिर बने से भागते हैं।

वक़्त आने पर
वे सुधरते हैं,
नेक राह पर
चलने की खातिर
पल पल तड़पते हैं!

कभी कभी
अपने गुनाहों के साए से
लड़ते हैं,
अकेले में सिसकते हैं।

पर वक़्त
उनकी ज़बान पर
ताला जड़
उन्हें गूंगे बनाए रखता है।
सच सुनने की ताकत से
मरहूम रखकर
उन्हें बहरा करता है।

वक़्त आने पर,
सच है...
वे भीतर तक
खुद को
बदल पाते हैं

अक्सर
वे स्वयं को
अविश्वास से
घिरा पाते हैं।
वे पल पल पछताते हैं,
वे दिन रात एक कर के
पाक दामन शख़्स ढूंढते हैं,
जो उन्हें  मुआफ़ करवा सके,
दिल के चिरागों को
रोशन कर सकें,
जीवन के सफ़र में
साथ साथ चल सकें।
आखिरकार
खुद और खुदा पर यक़ीन करना
उनके भीतर आत्मविश्ववास भरता है
जो क़यामत तक  
उनके भीतर जीवन ऊर्जा
बनाए रखता है,
उन्हें जिंदा रखता है,
ताकि वे जी भर कर पछता सकें!
वे खुद को कुंदन बना सकें !!

२१/०४/२००९
आदमी
जब तक
नासमझ बना
रहता है ,
छोटी छोटी बातों पर
अड़ा रहता है ।
जैसे ही
वह समझता है
जीवन का सच ,
वह एक सुरक्षा कवच में
सिमट जाता है ,
जिंदगी में
समय रहते
समझौता करना
सीख जाता है ,
सुखी और सुरक्षित
रहता है।
भूल कर भी
बात बात पर
अकड़ दिखाने से
करता है गुरेज।
वह जीवन की
समझ निरंतर
बढ़ाता रहता है।
एक समय आता है ,
वह समझौता
बेहद आसानी से
कर पाता है ,
वह बिना कोई हेर फेर किए
स्वयं को संतुलित और
समायोजित कर लेता है ,
शांत रहना सीख जाता है ,
दिल और दिमाग से
समझौताबाज़ बन जाता है।
वह किसी भी हद तक
सहनशील बना रहता है ,
फल स्वरूप जीवन भर
फलता फूलता जाता है ,
समझौता करने में
गनीमत समझता है।
अतः सुख का आकांक्षी
जीवन में समझौता कर ले ,  
समय रहते समझदारी वर ले।
यह सच है कि
यदि वह समय पर समझौता कर ले ,
तो स्वत: स्वयं को सुखी कर ले।
१४/०३/२०२५.
युद्ध
अभी विधिवत
शुरू हुआ नहीं कि
युद्ध विराम की ,
की जा रही है बात
कौन है वह देश ?
जो नहीं चाहता कि
युद्ध हो।

अभी
जन आक्रोश
उफान पर है ,
यदि किसी दबाव वश
हमला नहीं हुआ ,
तब अवश्य
जन विश्वास ख़तरे में है।
इसे कैसे खंडित होने से
बचाया जाए ?
इस बाबत भी
सोचा जाए।
मन के भीतर
उमड़ते-घुमड़ते
तूफ़ान को न रोका जाए ।
आओ मंज़िल की ओर बढ़ा जाए।
युद्ध भूमि में डटा जाए
बेशक मौत दे दे मात !
यह भी होगी
वक्त के हाथों से
सब के लिए
अद्भुत सौगात!

अब युद्ध अपरिहार्य है !
युद्धवीर !
क्या तुम्हें यह स्वीकार्य है ?
कुछ कर गुजरने से पहले
युद्ध विराम
हरगिज़ नहीं चाहिए।
इस बाबत
नेतृत्व को भी
समझना चाहिए।
शांति स्थापना के लिए
युद्ध की नियति कोई नई नहीं।
इस सत्य को सब समझें तो सही।
०२/०५/२०२५.
चारों ओर बुराइयों को देख
व्यर्थ की बहसबाजी में उलझने से
अच्छा है कि कोई पहल की जाए ,
सोच समझ कर बुराई के हर पहलू को जाना जाए ,
और तत्पश्चात उसे दूर करने के प्रयास किए जाएं।
बुरे को बुरा , अच्छे को अच्छा कहने में
कोई हर्ज़ नहीं , बस सब अपने फ़र्ज़ समझें तो सही।
फ़र्ज़ पर टिके रहना वाला ,
कथनी और करनी का अंतर मिटाने वाला
अक्सर जीवन के कठिन हालातों से जूझ पाता है।
वह जीवन के उतार चढ़ावों के बावजूद
सकारात्मक सोच के साथ पहल कर पाता है।
वह जीवन की भाग दौड़ में विजेता बनकर
नए बदलाव लेकर आता है।
अपनी अनूठी पहल के बूते
पहले स्थान को हासिल कर जाता है।
वह जीवन के संघर्षों में अग्रणी होकर
अपनी पहचान बना जाता है।
पहले पहले पहल करने वाला
जीवन के सत्य को जान लेने से
बौद्धिक रूप से प्रखर बन जाता है।
वह स्वतः मान सम्मान का
अधिकारी बन जाता है।
वह जन जीवन से खुद को जोड़ जाता है।
वह हरदम अपने पर भरोसा करके
अपनी उपस्थिति का अहसास करवाता रहता है।
पहल करने वाला प्रखर होता है ,
वह अपनी संभावना खोजने के लिए
सदैव तत्पर रहता है।
०५/०३/२०२५.
जब आप किसी के
ख़िलाफ़  कुछ कहने का
साहस जुटाने की
ज़ुर्रत करते हैं ,
आप जाने अनजाने
कितने ही
जाने पहचाने और अनजाने चेहरों को
अपना विरोधी बना लेते हैं !
जिन्हें आजकल लोग
दुश्मन समझने की भूल करते हैं !
आज दोस्त बनाने और दुश्मन कहलाने का
किस के पास है समय ?
यदि कभी समय मिल ही जाए
तो क्यों न आदमी इसे अपने
निज के विकास में लगाए ?
वह क्यों किसी से उलझने में
अपनी ऊर्जा को लगाए ?
वह निज से संवाद रचा कर
मन में शान्ति ढूंढने का
करना चाहे उपाय।
आज देखा जाए तो अश्लील कुछ भी नहीं !
क्योंकि आज एक छोटे से बच्चे के हाथ में
मोबाइल फोन दे दिया जाता है ,
ताकि बच्चा रोए न !
मां बाप की आज़ादी में
भूल कर दखल दे न !
जाने अनजाने अश्लीलता बच्चे के अवचेतन में
छाप छोड़ जाती है।
जबकि बच्चे को ढंग से
अच्छे बुरे का विवेक सम्मत फ़र्क करना नहीं आता।

आजकल
इंटरनेट का उपयोग बढ़ गया है,
इसका इस्तेमाल करते हुए
यदि भूल से भी
कुछ गलत टाइप हो जाए
तो कभी कभी अवांछित
आंखों के सामने
चित्र कथा सरीखा मनोरंजक लगकर
अश्लीलता का चस्का लगा देता है ,
जीवन के सम्मुख एक प्रश्नचिह्न लगा देता है।
आज सच को कहना भी अश्लील हो गया है !
झूठ तो खैर अश्लीलता से भी बढ़कर है।
हम अश्लीलता को तिल का ताड़ न बनाएं,
बल्कि अपने मन पर नियंत्रण करना खुद को सिखाएं।
यदि आदमी के पास मन को पढ़ने का हुनर आ जाए ,
तो यकीनन अश्लीलता भी शर्मा जाए ।
भाई भाई के बीच नफ़रत और वैमनस्य भर जाए ।
रामकथा के उपासक भी
महाभारत का हिस्सा बनते नज़र आएं।
क्यों न हम सब सनातन की शरण में जाएं।
वात्स्यायन ऋषि के आदर्शों के अनुरूप
समाज को आगे बढ़ाएं।
हमारा प्राचीन समाज कुंठा मुक्त था।
यह तो स्वार्थी आक्रमणकारियों का दुष्चक्र था,
जिसने असंख्य असमानता की
पौषक कुरीतियों को जन्म दिया,
जिसने हमारा विवेक हर लिया ,
हमें मानवता की राह से भटकने पर विवश कर दिया।
सांस्कृतिक एकता पर
जाति भेद को उभार कर
दीन हीन अपाहिज कर दिया।
अच्छे भले आदमियों और नारियों को
चिंतनहीन कर दिया ,
चिंतामय कर दिया।
सब तनाव में हैं।
आपसी मन मुटाव से
कमज़ोर और शक्तिहीन हो गए हैं।
आंतरिक शक्ति के स्रोत
अश्लीलता ने सुखा दिए हैं,
सब अश्लीलता के खिलाफ़
फ़तवा देने को तैयार बैठे हैं,
बेशक खुद इस समस्या से ग्रस्त हों।
सब भीतर बाहर से डर हुए हैं।
कोई उनका सच न जान ले !
उनकी पहचान को अचानक लील ले !!

अश्लीलता के खिलाफ़
सब को होना चाहिए।
इस बाबत सभी को
जागरूक किया जाना चाहिए।
ताकि
यह जीवन को न डसे !
बल्कि
यह अनुशासित होकर सृजन का पथ बने !!
२८/०२/२०२५.
66 · Dec 2024
Voices
Joginder Singh Dec 2024
Some voices always
remain unheard .
These neglected and rejected voices
make us slow and backward in life.
Let us try ourselves to listen these voices from time to time.
So that we can become self-sufficient during our journey of life.
ਇਹ ਦਰਦ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੀ ਹੈ
ਜੋ ਸਾਨੂੰ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ਖ਼ਾਸ।
ਰਿਸ਼ਤਾ ਦਰਦ ਦਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਅਜੀਬੋ ਗ਼ਰੀਬ
ਜਿੰਨਾ ਦਰਦ ਵੱਧਦਾ ਹੈ ,
ਇਨਸਾਨ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਹਕੀਕਤ ਦੇ ਕਰੀਬ।
ਭਾਵੇਂ ਦਰਦ ਦਿਲ ਦਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਪਿੱਠ ਦਾ ਹੋਵੇ ,
ਇਹ ਆਪਣਾ ਇਲਾਜ ਲੱਭ ਲੈਂਦਾ ਹੈ,
ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਅੱਗੇ ਵਧਣ ਦੀ ਰਾਹ ਲੱਭ ਲੈਂਦਾ ਹੈ।
ਬੁੜਾਪੇ ਵਿੱਚ ਦਰਦ ਉਦਾਸੀ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਜਵਾਨੀ ਵਿੱਚ ਦਰਦ ਸਾਨੂੰ ਦਾਰਸ਼ਨਿਕ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ,
ਬਚਪਨ ਦਾ ਦਰਦ ਸੁਪਨਿਆਂ ਵਿੱਚ ਆ ਆ ਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਜਿਉਣ ਦੀ ਵਿਉਂਤ ਦੱਸਦਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
ਦਰਦ ਇਨਸਾਨ ਦਾ ਦੁਸ਼ਮਣ ਨਹੀਂ ਦੋਸਤ ਹੈ ,
ਇਹ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦੀ ਰਾਹਾਂ ਵਿੱਚ ਅਕਲਮੰਦ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ।
ਇਹ ਸੁੱਖ ਦੀ ਭਾਲ ਕਰਨ ਦੀ ਪ੍ਰੇਰਨਾ ਬਣ ਕੇ
ਜੀਵਨ ਯਾਤਰਾ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਵਧਾਉਂਦਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ।
ਇਹ ਦਰਦ ਹੀ ਹੈ
ਜਿਹੜਾ ਇਨਸਾਨ ਨੂੰ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ ,
ਇਹ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਮੰਜ਼ਿਲ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚਾਉਂਦਾ ਹੈ।

ਕਈ ਵਾਰੀ ਦਰਦ ਦਾ ਰਿਸ਼ਤਾ
ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ
ਇੱਕ ਦਵਾ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਇਹ ਅੰਦਰੋਂ ਟੁੱਟੇ ਹੋਏ ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ
ਜਿਉਣ ਦੀ ਤਾਂਘ ਪੈਦਾ ਕਰ
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਸੰਚਾਰ ਕਰ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ,
ਦਰਦ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਜੀਵਨ ਜਾਂਚ ਸਿਖਾਉਂਦਾ ਹੈ।
ਦਰਦ ਸਿਰਜਣਾ ਦਾ ਮੂਲ ਹੈ ,
ਕਦੀ ਕਦੀ ਇਸ ਦੇ ਅੱਗੇ
ਸਾਰੇ ਸੁੱਖ ਤੇ ਆਰਾਮ
ਲੱਗਣ ਲੱਗਦੇ ਸਮੇਂ ਦੀ ਧੂੜ ਹਨ।
18/02/2025.
66 · Dec 2024
What Matters in Life ?
Joginder Singh Dec 2024
A question arises
suddenly
in my mind that
what matters in life 🤔 is
utmost significant
to survive for humans ?

Is it a win or a defeat ?
...Or the repetition of the winning moments as well as loosing moments in a person 's struggle full life ?

The answer I received in the form of the thought was ,...
' It hardily matters in life that
a person is winner or a looser.
It matters more that how he treats himself in the battlefield of the life to exist.

It is simply a state of the mind ,
to review his wins and defeats
from time to time
for the smooth journey of Life.
Contentment and satisfaction always
matters in the struggle of the Life.'
दोस्त ,
इस जहान में
नीति निवेशक बहुत हैं ,
जो नीति की बात करते हैं !
अनीति की राह चलते हैं !
कुरीति के ग्राफ को
बढ़ावा देकर
अपनी जेब भरते हैं।
ये दिनोदिन वजनदार
होते जाते हैं,
भारी भरकम
व्यक्तित्व के मालिक
पहली नज़र में दिखाई पड़ते हैं ।
नख से शिख तक
रौबीले दिखाई देते हैं।

ये नीति निवेशक
हज़ार खामियों के बावजूद
हमारे आदर्श बनते जाते हैं।
ये कभी कभी
संचार माध्यम की कृपा से
हमेशा हमारे घरों तक पहुँच कर
हमें सपने दिखलाकर
अपनी रोजी रोटी चलाते हैं।
हमें मूर्ख तक बनाते हैं।
यदा कदा अपनी धूर्तता और विद्रूपता से
जीवन को नर्क बना देते हैं।
हमारे विरोध करने पर अपने तर्क से
कभी कभी हमें चुप भी करा देते हैं।

जब कभी हम
उनकी असलियत को
समझते हैं ,
तब तक हो चुकी होती है देर
हम ढेर
होने की कगार पर
पहुंचने वाले होते हैं।

कभी कभी हम
उन पर
फब्तियां भी कस देते हैं
वे चुप रह कर
अपनी मुस्कुराहट नहीं छोड़ते।
हमारी व्यंग्योक्तियों को
वे नज़र अंदाज़ कर देते हैं।
हमें चुप कराने के निमित्त
वे कुछ निवाले
हमारी तरफ़ फ़ेंक दिया करते हैं
और हम उन्हें बटोर
विरोध भूल जाते हैं।
वे जब कभी हमारी ओर देख मुस्कुराते हैं,
हम उनकी इस मुस्कुराहट से तिलमिला उठते हैं।
वे हमें शर्मिंदगी का अहसास
बराबर करवा कर
हमें बौना ‌महसूस करने को आतुर रहते हैं
और कर देते हैं  हमें विवश एवं लाचार।
वे अपने लक्ष्य को सामने रखकर
जीवन में आगे बढ़ने का करते हैं प्रयास।
वे हमें अकेलेपन की सरहद पर छोड़
यकायक किनाराकशी करते हुए
नवीनतम नीति निवेश हेतु
चल देते हैं ‌अपनी डगर।
वे अपने व्यक्तित्व के अनुरूप
कभी कभी यकायक
हमारी जिंदगी को
मतवातर बनाते रहते हैं विद्रूप
हम उनके इरादों को समझ नहीं पाते।
ज़िंदगी भर नीति निवेशकों के मकड़जाल में फंसकर ,
दिन-रात कसमसाते हुए , रहते हैं पछताते,
पर उन पर
होता नहीं कोई असर।
04/01/2025.
66 · May 4
बदस्तूर
तोड़ने शत्रुओं का गुरूर
अंदर ही अंदर
देश दुनिया की फिजाओं में
बदस्तूर
ज़ारी है युद्ध का फितूर।
देश कब हमला करेगा ?
करेगा भी कि नहीं ?
इस बाबत कोई भी
निश्चय पूर्वक  
कह नहीं सकता।
सब कुछ भविष्य के
गर्भ में है।
हां ,यह जरूर है कि
देश निश्चिंत हैं ...
शत्रु नाश होकर रहेगा।
उन्होंने सर्वप्रथम
कायराना हमला किया था।
देश भी निश्चय ही
पलटवार
अपना समय लेकर
अपने ढंग से करेगा,
शत्रु पक्ष
आगे से कुछ
करने से पहले
गहन सोच-विचार करेगा।
वह निश्चय ही कभी न कभी
बिन आई मौत मरेगा।
भीतर ही भीतर
देर तक डरता रहेगा।
खुद-ब-खुद
शत्रु को
उसका अपना ही आंतरिक डर
सर्पदंश सरीखा जख्म दे देगा।
फिर वह कैसे जीवित  रहेगा ?
असंतोष और असंयम ही
अब  उसकी पराजय की वज़ह बनेगा।
फिर कैसे वह लड़ने की हिमाकत करेगा ?
०४/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
टैलीविजन पर
समसामयिक जीवन और समाज से
संबंधित चर्चा परिचर्चा देख व सुन कर
आज अचानक आ गया
एक विस्मृत देशभक्त वीर सावरकर जी का ध्यान।

जिन्हें ‌आज तक देश की
आज़ाद फिजा के बावजूद
विवादित बनाए रखा गया।
उन्हें क्यों नहीं
भारत रत्न से सम्मानित किया जा सका ?
मन ने उन को ‌नमन किया।
मन के भीतर एक विचार आया कि
आज जरूरत है
उनकी अस्मिता को
दूर सुदूर समन्दर से घिरे
आज़ादी की वीर गाथा कहते
अंडेमान निकोबार द्वीपसमूह में
स्थित सैल्यूलर जेल की क़ैद से
आज़ाद करवाने की।
वे किसी हद तक
आज़ाद भारत में अभी भी एक निर्वासित जीवन
जीने को हैं अभिशप्त।
अब उन्हें काले पानी के बंधनों से मुक्त
करवाया जाना चाहिए।
उनके मन-मस्तिष्क में चले अंतर्द्वंद्व
और संघर्षशील दिनचर्या को
सत्ता के प्रतिष्ठान से जुड़े
नेतृत्वकर्ताओं के मन मस्तिष्क तक
पहुंचाया जाना चाहिए
ताकि अराजकता के दौर में
वे राष्ट्र सर्वोपरि के आधार पर
अपने निर्णय ले सकें,
कभी तो देश हित को दलगत निष्ठाओं से
अलग रख सकें।
वीर सावरकर संसद के गलियारों में
एक स्वच्छंद और स्वच्छ चर्चा परिचर्चा के
रूप में जनप्रतिनिधियों के रूबरू हो सकें।
कभी सोये हुए लोगों को जागरूक कर सकें।

सच तो यह है कि
भारत भूमि के हितों की रक्षार्थ
जिन देशी विदेशी विभूतियों ने
अपना जीवन समर्पित कर दिया हो ,
उन सभी का हृदय से मान सम्मान किया जाना चाहिए।

हरेक जीवात्मा
जिसने देश दुनिया को जगाने के लिए
अपने जीवनोत्सर्ग किया,
स्वयं को समर्पित कर दिया,
उन्हें सदैव याद रखना चाहिए।
ऐसी दिव्यात्माओं की प्रेरणा से
समस्त देशवासियों को
अपना जीवन देश दुनिया के हितार्थ
समर्पित करना चाहिए।
समस्त देश की शासन व्यवस्था
' वसुधैव कुटुम्बकम् 'के बीज मंत्र से
सतत् प्रकाशित होती रहनी चाहिए।
१८/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
अकेलेपन में
ढूंढता है
अरे बुद्धू  !
अलबेलापन।
जो
तू खो चुका है ,
सुख की नींद सो चुका है ।

अब
जीवन की भोर
बीत चुकी है।

समय के
बीतते बीतते ,‌
ज़िंदगी के
रीतते रीतते ,
अलबेलापन
अकेलेपन में
गया है बदल ।

चाहता हूं
अब
जाऊं संभल!
पर
अकेलापन ,
बन चुका है
जीने का संबल।
रह रह कर
सोचता हूँ ,
अकेलापन
अब बन गया है
काल का काला कंबल।
जो जीवन को
बुराइयों और काली शक्तियों से
न केवल बचाता है ,
बल्कि
दुःख सुख की अनुभूतियों ,
जीवन धारा में
मिले अनुभवों को
अपने भीतर लेता है  समो ,
और
आदमी
अकेलेपन के आंसुओं से
खुद को लेता है भिगो ।


सोचता हूँ
कभी कभार
अकेलापन करता है
आदमी को बीमार।

आदमी है एक घुड़सवार  
जो अर्से है ,
अकेलेपन के घोड़े पर सवार !

कहां रीत गया
यह अलबेलापन ?
कैसे बीत जाएगा
रीतते रीतते ,
आंसू सींचते सींचते,
यह अकेलापन ?

अब तो प्रस्थान वेला है ,
जिंदगी लगने लगी एक झमेला है!
हिम्मत संजोकर,
आगे बढ़ाने की ठानूंगा !


जैसा करता आया हूं  
अब तक ,‌
अपने अकेलेपन से
लड़ता आया हूं अब तक ।

देकर
सतत्
अनुभूति के द्वार पर दस्तक।

अपने मस्त-मस्त ,
मस्तमौला से
अलबेलेपन को
कहां छोड़ पाया हूं ?


अपने अलबेलेपन के
बलबूते पर
अकेलेपन की सलीब को
ढोता आया हूं !
अकेलेपन की नियति से
जूझता आया हूं !!


२१/०२/२०१७.
66 · May 2
यात्रा
जीवन
एक यात्रा है।
इसे ईमानदार रह कर
जारी रखा जाना चाहिए।
इस दौरान
लोभ लालच और बेईमानी से
हरपल बचा जाए
तो ही अच्छा।
जीवन यात्रा के दौरान
आदमी बनाए रखें
आत्म सम्मान।
वह करें जीवन की बाबत
चिंतन मनन
और जीवन के आदर्शों का अनुकरण करे
ताकि जीवन यात्रा का समापन
सुखद अहसास के साथ हो !
जीवन की परिणति
सार्थक और सकारात्मक सोच के साथ हो !!
आदमी
फिर से
एक नई यात्रा की तैयारी कर सके।
वह जन्म दर जन्म
आध्यात्मिक उन्नति करता रहे।
०२/०५/२५.
65 · Nov 2024
ठग को ठेस
Joginder Singh Nov 2024
कभी कभी
ठग तक को
ठेस पहुँचती है।
यही बात
ठग बाबू को
कचोटती है।
फिर भी
वह ठगने,
मनमानी करने से
आता नहीं बाज़।
वह नित्य नूतन ढंग से
ढूंढता है,वे तरीके कि
शिकार अपनी अनभिज्ञता से
हो जाएं हताश और  निराश,
आखिरकार हार मान कर,
जड़ से भूलें करना प्रतिकार!


ऐसी अवस्था में
यदि कोई साहस कर
ठग का करता है प्रतिकार।
शिकार ,होने लगता है जब,
जागरूक और सतर्क।
ऐसे में
शिकार के गिर कर
खड़े होने से ही
पहुंचती है ठग को ठेस।
और ऐसा होने पर
उसकी ठसक का गुब्बारा फूटता है,
ठग अकेले में फूट फूट कर रोता है,
वह अंदर ही अंदर खुद को कोसता है।
विडंबना है कि
वह कभी ठगी करना नहीं छोड़ता ।
कभी भी
ठगी करने का मौका
नहीं छोड़ता ।
ठग का पुरजोर विरोध ही
ठगी पर रोक लगा सकता है।
ठग को
सकते में ला सकता है।
यदि ऐसा हो जाए
तो क्या ठग
कभी
कोमा में जा सकता है?
शायद नहीं,पर
वह किसी हद तक खुद को
सुधारने की
कोशिश कर सकता है।
अब कभी किसी से
मिलने का मन करता है ,
तो उससे मुलाकात करने का
सबसे बढ़िया ढंग
दूरभाष
या फिर
मोबाइल फोन से
वार्तालाप करना है।

मुलाकात आजकल
संक्षिप्त ही होती है ,
मतलब की बात की ,
अपना पक्ष रखा
और अपनी राह ली।

पहले आदमी में
आत्मीयता भरी रहती थी ,
अब जीवन की दौड़ धूप ने
आदमी को अति व्यस्त
कर दिया है ,
उसे किसी हद तक
स्वार्थी बना दिया है ,
मतलबपरस्ती ने
आदमी के भीतर को
नीरसता से भर दिया है ,
और जीवन में
मुलाकात के आकर्षण को
लिया है छीन।
मिलने और मिलाने के
जादू को कर दिया है क्षीण।
आदमी अब मुलायम करने से
बहुधा बचना चाहता है।
ले देकर पास उसके बचा है यह विकल्प
मन किया तो मोबाइल फोन पर
बतिया लिया जाए।
दर्शन की अति उत्कंठा होने पर
वीडियो कान्फ्रेंसिंग से
संवाद रचा लिया जाए।
हींग लगे न फिटकरी
रंग भी चोखा होय , की तर्ज़ पर
घर बैठे बैठे बिना कोई कष्ट उठाए
बगैर अतिथि बने
मुलाकात कर ली जाए
और हाल चाल पूछ कर
अपने जीवन में
दौड़ धूप कर
अपनी उपस्थिति दर्ज की जाए।
मुलाकात आजकल
सिमट कर रह गई है ,
जीवन की अत्याधिक
दौड़ धूप
मनुष्य की
समस्त आत्मीयता को
खा गई है।
इस बाबत अब
क्या बात करूं ?
मन के आकाश में
उदासीनता की बदली
छाई हुई है।
मुलाकात की चाहत
छुई-मुई सी हुई ,हुई
मुरझाई और उदास है।
जाने कहां गया
जीवन में से मधुमास है ?
फलत: जीवन धारा
लगने लगी कुछ उदास है !
अब लुप्त हुआ हास परिहास है !!
०२/०५/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन धारा भवन,
संसार नगर।
अभी अभी...!

दोस्त ,
इतना भी
सच न कहो ,
आज
तुम से मिलना
तुम से बिछुड़ना हो जाए।
मन के भीतर
कहीं गहरे में कटुता भर जाए।
हम पहले की तरह
खुल कर , निर्द्वंद्व रहकर
कभी न मिल पाएं।

तुम्हारा मित्र ,
विचित्र कुमार ।

१०/०३/२०१७.
65 · Dec 2024
अचानक
Joginder Singh Dec 2024
कभी कभी
अचानक
हो जाया करता है
धन का लाभ।
इससे हमें
खुश होने की नहीं
है जरूरत ,
हो सकता है कि
इस से होने वाला हो
कोई अनिष्ट।
कोई हमारी उज्ज्वल छवि पर
लगाना चाहे कोई दाग़।
हमें रखना होगा याद
कि कभी अचानक
गंदगी के ढेर से हो
जाता है प्राप्त
कोई चिराग़
जिसे रगड़ने और घिसने से
कोई जिन्न निकले बाहर
और आज्ञाकारी सेवक बनकर
कर दे हमारी तमाम इच्छाएं पूर्ण!
यह भी हमें आधा अधूरा रखने की साज़िश हो सकती है।
अतः हम स्वयं को संतुलित रखने का करें प्रयास,
ताकि निज के ह्रास से बचा जा सके,
जीवन पथ पर ढंग से अग्रसर हुआ जा सके।

यदि कभी अचानक हो ही जाए ,
कोई अप्रत्याशित धन लाभ
तो उसे दीजिए समाज भलाई के लिए
योजनाबद्ध ढंग से बांट।
बांटना और ढंग से धन संपदा को ठिकाने लगाना
बेहद आवश्यक है,
ताकि हमारी कर्मठता पर
न आए कभी आंच।
न हो कभी मंशा को लेकर कोई जांच।
सिद्ध किया जा सके,सांच को आंच नहीं,
यदि सब चलें अपनी राह पर सही , सही, मर्यादा में रहकर।
अप्रत्याशित धन लाभ से रहें सदैव सतर्क।
यदि फंसें किसी मकड़जाल में,
धरे रह जाएंगे सब तर्क वितर्क।

१२/१२/२०२४.
65 · Dec 2024
Deep State
Joginder Singh Dec 2024
Sir ,
Is deep state is simply a puppet show ?
If you have a visionary idea regarding this.
Then write a thanks letter to supreme authority who is organising this super hit 🎯 show on a massive scale..!
Thanking you.
Sincerely Yours ,
A puppet.
Joginder Singh Nov 2024
दीप ऐसा मैं !
मन के भीतर
जला पाऊं
कि खुद को समय रहते
जगा पाऊं मैं !
मुखौटा पहने लोगों की
दुनिया में रहते हुए ,
मन के अंधेरे,
और आसपास के
छल प्रपंच से
बच पाऊं ‌मैं !
नकारात्मकता को
सहजता से
त्याग पाऊं मैं !


दीप ऐसा
यशस्वी
बन पाऊं मैं
कि छेद कर  
छद्म आवरण
दुनिया भर के , मैं !
पार कुहासे और धुंध के
देख पाऊं मैं !
जीवन के छद्म रूपों और मुद्राओं को
सहजता से छोड़ कर
अपने भीतर दीप
जला पाऊं मैं !
कृत्रिमता का आदी यह तन और मन
अपनी इस मिथ्या की खामोशी को  त्याग कर
लगाने लगे अट्टहास,
कराने लगे
अपनी उपस्थिति का अहसास!
काश! तन और मन से
कुंठा ‌की मैल
धो पाऊं मैं !


दीप ऐसे जलें
मेरे भीतर और आसपास ,
अस्पष्ट होती दुनिया का
सही स्वरूप
स्पष्ट ‌स्पष्ट
समझ पाऊं मैं !
जिसकी रोशनी में
स्व -सत्य के
रूबरू होकर
बनूं मैं सक्षम
इस हद तक
कि स्व पीड़ा और ‌पर पीड़ा की
मरहम ढूंढ पाऊं  मैं!
अपना खोया आकाश छू पाऊं ,मैं !!

८/११/२००४.
65 · Apr 1
हड़कंप
मच गया हड़कंप
जब सत्तासीन हुआ ट्रम्प ,
डोंकी मोंकी रूट हुए डम्प।
यह सब अब तक ज़ारी है।
साधन सम्पन्न देश में अब
राष्ट्र प्रथम की अवधारणा को
क्रियान्वित करने की बारी है।
यह लहर चहुं ओर फैल रही है ,
दुनिया सार्थक परिवर्तन के निमित्त
अब
धीरे धीरे
अपनी सुप्त शक्ति को
करने लग पड़ी है
मौन रहकर संचित,
ताकि सकारात्मक ऊर्जा कर सके
देश दुनिया और समाज को
ढंग से संचालित ,
जिससे कि
निर्दोष न हों सकें
अब और अधिक
कभी भी
अन्याय के शिकार,
वे न हों सकें कभी
किसी जन विरोधी
व्यवस्था के हाथों
असमय प्रताड़ित।
वे श्रम,धन,बल,संगठन से
प्राप्त कर सकें
अपने सहज और स्वाभाविक
मानवीय जिजीविषा से
ओत प्रोत मानवाधिकार।
०१/०४/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
सच
अनुभूति बनकर
सुख  फैलाता है।

श्रम
केवल परिश्रम ही
सच को प्रत्यक्ष करने का ,
बन पाता है
माध्यम।

सच और श्रम,
दोनों
अनुभूति का अंश बनकर
कर देते हैं
जीवन में कायाकल्प।

यदि तुम जीवन में
आमूल चूल परिवर्तन देखना चाहते
तो जीवन में शुचिता को वर्षों,
उतार-चढ़ावों के बीच
बहती

इस जीवन सरिता पर
तनिक
चिंतन मनन करो,

सच और श्रम के सहारे
जीवन मार्ग को करो
प्रशस्त।

तुम विनम्र बनो।
निज देह को
शुचिता  की
कराओ प्रतीति।
ताकि
सच  और श्रम
अंतर्मन में
उजास भर सकें,
जीवन में
सुख की छतरी सके तन,
तन और मन रहें प्रसन्न।
सब
दुःख , दर्द , निर्दयता की
बारिश से बच सकें।
जीवन रण में
विजय के हेतु
डट सकें
और आगे बढ़ सकें।
२०/०२/२०१७.
65 · Dec 2024
आजकल
Joginder Singh Dec 2024
अब
सबसे ख़तरनाक आदमी
सच बोलने वाला
हो गया है
और
झूठ का दामन
पकड़कर
आगे बढ़ने वाला
आदर्श
हो गया है।

क्या करें लो
आजकल
ज़मीर
कहीं भागकर
गहरी नींद में
सो गया है
और
सच्चा
झूठों की भीड़ में
खो गया है।

आजकल
सच्चा मानुष
अपने भीतर
मतवातर
डर भरता
रहता है ,
जबकि
झुके मानुष की
सोहबत से
सुख मिलता है।

आजकल
भले ही
आदमी को
अपने साथी की
हकीकत
अच्छे से
पता हो ,
उसके जीवन में
पास रहने से
सुरक्षित होने का
आश्वासन भरा
अहसास
बना रहता है।

बेशक
जीवन मतवातर
समय की चक्की में
पिसता सा लगे
और
आदमी सबकी
निगाहों से
खुद को छुपाते हुए
अंदर ही अंदर
सिसकियां भरता रहे ,
वह चाहकर भी
झूठे का दामन
कभी छोड़ेगा नहीं!
जीवन का पल्लू
कभी झाड़ेगा नहीं!
वह उसे बीच
मझधार
छोड़कर
कभी भागेगा नहीं!

आजकल
यही अहसास बहुत है
जीवन को अच्छे से
जीने के लिए।
कभी-कभी पीने,
खुलकर हंसने के लिए।
बेशक हरेक हंसी के बाद
खुद को ठगने का अहसास
चेतना पर हावी हो जाए।
फलत:
आजकल
आदमी सतत्
झूठे के संग
घिसटता रहता है!
उसके जीवन से
चुपके चुपके से
सच का आधार
खिसकता रहता है!!
वह जीवन में
उत्तरोत्तर अकेला
पड़ता जाता है।
आजकल हर कोई
सच्चे को तिरस्कृत कर
झूठे से प्रीत रचाना
चाहता है क्योंकि जीवन
भावनाओं में बहकर
कब ढंग से चलता है ?
स्वार्थ का वृक्ष ही
अब ज़्यादा फलता-फूलता है।
आदमी आजकल
अल्पकालिक लाभ
अधिक देखता है,
भले ही बहुत जल्दी
जीवन में पछताना पड़े।
सबसे अपना मुंह छिपाना पड़े।
२८/१२/२०२४.
बस अचानक ही
अख़बार तक को भी
शत्रु पक्ष के साथ ही
झेलनी पड़ जाती
सर्जिकल स्ट्राइक।
आधी रात को
शत्रु के शिविरों पर
सेना ने की
मिसाइल अटैक से
सर्जिकल स्ट्राइक।
अख़बार
इस से पूर्व ही गया था छप।
अब जब
इस बाबत पाठक को
अख़बार की मार्फ़त मिलेगा समाचार ,
तब तक देर हो चुकी होगी।
ताज़ा ख़बर
बासी पड़ चुकी होगी।
है न यह अख़बार पर सर्जिकल स्ट्राइक !
जैसे अख़बार की भी एक सीमा होती है !
ठीक वैसे ही सभी की ,होती है एक हद !
सब इसे समझें!
खुद को गफलत में रहने से बख्शें !!
०७/०५/२०२५.
65 · Nov 2024
Perfectionist
Joginder Singh Nov 2024
If you are a perfectionist in life.
You are always facing a terror of the marginal errors.
I can understand your agony and dissatisfaction.
To make life perfect,
Always keep yourself enough busy to talk with selfless Self.
Also try yourself to retain self respect in a fast running Life.
Joginder Singh Dec 2024
कभी-कभी
चेतना कहती है
वे
हत्यारे
रहे होंगे कभी
फ़िलहाल
रोटियां बांटते हैं,
नौकरियां देते हैं,
क्या
यह सच नहीं ?
फिर
किस मुंह से
उन्हें हत्यारा कहोगे ?
उनके बगैर गुज़ारा
कैसे करोगे ?
कभी कभी
चेतना कहती है ,
'अच्छा रहेगा
अपनी भूख दबा दो
कहीं गहरे रसातल में...!
फिर भले ही
उन्हें भूला दो ,
जिन्हें तुम 'आया मालिक '
कहते हो!
जिनके आगे पीछे
घूम घूमकर
अपनी दुम
हर समय  
हिलाते रहे हो !!
उनके ‌सामने
हर समय नाचते हो !!
वे
हत्यारे
रहे होंगे कभी
फ़िलहाल मालिक हैं
पोतते रहते कालिख हैं
मासूम चेहरों पर ।
उन्हें
हर समय डांट ‌लगा कर ,
उन्हें
जबरन गुलाम बनाकर ,
उनके मन-मस्तिष्क में
असंतोष जगाने का काम करते हैं ।
उन्हें
विद्रोही बनाने पर तुले हैं।

भले ही वे
उन्हें ‌हर पल
डांटते रहते हों
अपनी बेहूदा
आदतों की वज़ह से!
वे भी तुम्हारी तरह
भीतर तक शांत रहते हैं
पर हर बार डांट डपट
सहने के बावजूद
हर पल
हंसते मुस्कुराते रहते हैं !
अपनी आदतों की वज़ह से !!
क्या तुम इसे समझते हो ?
कहीं तुम भी तो
उन मालिकों और नौकरों की तरह
किसी तरह से भी कम नहीं ,
सताने और अत्याचार सहने को
अपनी आदतों में
शुमार करने के मामले में  !
क्या तुम भी शामिल हो
चालबाजी ,
हुल्लड़बाजी ,
शब्दों की बाजीगरी ,
चोरी सीनाज़ोरी के खेल में  ?
फिर तो कभी रात कटेगी जेल में!
कभी-कभी चेतना
हम सबको आगाह करती है
पर किसी किसी को
उसकी आवाज़ सुनाई देती है।
०६/०३/२०१८.
Joginder Singh Dec 2024
आज
किस से
रखूं आस कि
भूख लगने पर
वह डालेगा घास
मेरे सम्मुख ही नहीं
समय आने पर
खुद के सम्मुख भी...?

सुना है --
सच्चाई छिपती नहीं !
ज़िंदगी डरती नहीं !!

वह सतत अस्तित्व में रहेगी
भले ही मोहरे जाएं बदल !
समय के महारथी तक जाएं पिट !
बेबसी के आलम में
वे हाथ मलते आएं नज़र !
वे पांव पटकते जाएं ग़र्क !!

आज
किस से
रखूं आस कि
प्यास लगने पर
रखेगा कोई मेरे सम्मुख पानी
मेरे आगे ही नहीं ,
खुद के आगे भी...?

देखा महसूसा है --
असंतुष्टि के दौर में
तृप्ति कभी मिलती नहीं ,
तृषा कभी मिटती नहीं ,
तृष्णा कभी संतुष्ट होगी नहीं !
आदमी
खुद को कभी तो
समझे ज़रूर
ताकि तोड़ सके
अपने दुश्मन का गुरूर
आदमी का दुश्मन कोई ग़ैर नहीं
खुद उसका हमसाया है ,
यह भी समय की माया है।
.........
क्यों कि
हम तुम
बने रहते ,  मनचले होकर  , गधे हैं !
जब तक कोई हम पर
चाबुक फटकारता नहीं ,
भला हम सब कभी सधे हैं !
क़दम क़दम पर जिद्दी बनकर
रहते अड़े  और खड़े हैं
कभी न बदलने की ज़िद्द का दंभ पाले हुए।

०२/०८/२००७.
Joginder Singh Dec 2024
हाल
न पूछो ,
हालात की
बाबत सोचो ।

धमकी दी नहीं ,
धमाका हुआ बस समझो ।
अब हालात हुए
वश से बाहर।
चुपचाप न रहो ,
हाथ पर हाथ रख कर
न बैठे रहो।
अब और अन्याय न सहो।
कुछ करो , कुछ तो करो ।
अब दंगाइयों पर
सख़्त कार्रवाई करो।

न करो चौकन्ना
घर में रह  रहे  
भीतरघात कर रहे  
आंतरिक शत्रुओं को
अब सबक सिखाना चाहिए।
उन पर अंकुश लगना चाहिए।

हर कार्रवाई के बाद
नेतृत्व को
मौन धारण करना चाहिए,
हालात सुधरने तक।

धमकी  न  दो ,
धमाके सुना दो ।
हो सके तो बग़ैर डरे ,
उन्हें गहरी नींद सुला दो ।
उन्हें मिट्टी में मिला दो ।
अब सही समय है कि
जीवन की खिड़की से
तमाम पर्दें हटा दिए जाएं ।
अपने तमाम मतभेद भूला दिए जाएं ।

अपने और गैरों के बीच से
सभी पर्दों को हटा दिया जाए ।
गफलतों और गलतफहमियों को
जड़ से ख़त्म कर दिया जाए ।
जीवन में पारदर्शिता लाई जाए ।
  २६/०२/२०१७.
मुझे सच में
पता नहीं था कि
जिगरी यार
कर जाएगा
यार मार।
वह बरगला ले जाएगा
मेरा प्यार।
सच !
अब मुझे
यारी दोस्ती पर
एतबार नहीं रहा।
आजतक
अर्से तक
अंदर ही अंदर
एक अनाम दर्द सहता रहा ,
जब रहा नहीं गया
तो थक हार कर
अपना दुखड़ा कहा।
यार मार
किसी भी मामले में
जज़्बात की हत्या से कम नहीं,
यार मार करने में कोई किसी से कम नहीं।
आज यह बन चुकी रवायत है,
मुझे इस बाबत ही आप सभी से करनी शिकायत है।
दोस्त!
यार मार से बच ,
कभी तो अपना किरदार गढ़
और जीवन धारा में
सार्थक दिशा में बढ़ ,
भूल कर भी
किसी से अपेक्षा न रख ,
न ही अपने भीतर के इन्सान से लड़।
सच से रूबरू होने की खातिर
दिल से प्रयास कर।
ताकि फिर से यार मार करने से बच सके!
जीवन में प्यार के मायने को समझ सके!!
३०/०४/२०२५.
आजकल
कुछ नेतागण
सनातनी अस्मिता को
धूमिल करने के निमित्त
दे देते हैं उलटे सीधे बयान।
जिनसे झलकता है
अक्सर उनका मिथ्याभिमान।
ऐसे बयानों पर
बिल्कुल ध्यान न दो ,
अगर ऐसा नहीं किया
तो वे बरसाती मेंढ़क बनकर
और ज़्यादा टर्राहट करेंगें ,
जन साधारण को भयभीत करेंगें ,
और जान बूझ कर
अट्टहास करेंगें ,
यही नहीं मौका मिलेगा
तो जन का उपहास करेंगे !
जन धन पर कुदृष्टि रखेंगे !
आप उनकी बाबत क्या कहेंगें ?
कब तक सब अन्याय सहेंगें ?

ऐसे बयान
अचानक जुबान फिसलने से
निर्मित नहीं हुआ करते।
इनके पीछे सोची समझी
रणनीति हुआ करती है।
सोचा समझा बयान
भले किसी को
बुरा न लगे ,
पर यह गहरे घाव किया करता है ,
धुर अंदर तक मार किया करता है।
यह कभी कभी क्या हमेशा
जन मानस को विरोध के लिए
चुपके चुपके तैयार किया करता है।
अचानक
छोटी सी बात
अराजकता फैलने की
वज़ह बन जाया करती है ,
अनाप शनाप बयान देने वालों की
चाँदी हो जाया करती है।
इसे जनता जर्नादन
गहरे आघात के बाद समझती है ,
पर तब तक
जनतंत्र की गरिमा
धूमिल हो चुकी होती है।
अतः ऐसे बयान के आघात को
कभी मत भूलो तुम ,
ये जन मानस में पैदा कर देते हैं मति भ्रम। काश !समय आने पर ,
काश!
जनता
लोकतंत्र का पर्व मनाने वाले दिन
वोट से चोट देना
जल्द ही सीख जाए ,
तो उन उपद्रवियों के
परखच्चे
बिना गोला बारूद के
उड़ जाएं ,
निरीह पंछी
उन्मुक्त होकर
जीवनाकाश में
उड़ पाएं ।
वे गंतव्य तक
पहुँच जाएं।
सोच समझ कर
नेतृत्वकर्ता को देना
चाहिए बयान
अन्यथा अनजाने ही
जनता की म्यान ,
जनता जर्नादन का का आंतरिक ज्ञान
चुपके चुपके
अपने भीतर छुपी
असंतोष की तलवार को
धार लगा दिया करती है।
वह समय के साथ बढ़ती हुई
सत्ता पक्ष को
हतप्रभ , स्तब्ध , वध के लिए बाध्य करती हुई ,
संघर्ष पथ पर बढ़कर
परिवर्तन लाया करती है ,
देश दुनिया और समाज में
जिजीविषा भर जाया करती है।
अतः सब सजग हो जाएं ,
कम से कम
अपनी जुबां पर
समय रहते लगाम लगाएं !
वे असमय काल कवलित होने से
स्वयं को बचाएं !
आजकल
नेतागण
सोच समझ कर
अपने बयान दें ,
व्यर्थ ही बाद विवाद को
हवा भूल कर भी न दें !
वे अपने आचरण को
शिष्टता का स्पर्श कराएं !
अशिष्ट बनकर कड़वाहट न फैलाएं !!
२४/०३/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यदि तुम अंतर्मुखी हो
और अपने बारे में कुछ कहना नहीं चाहते
तो इससे अच्छी बात क्या होगी ?
'दुनिया  तुम्हें  जानने  के  लिए  उतावली  है । '
इस संदर्भ में ऊपर लिखित पंक्ति कोरा झूठ ही होगी।
इसे तुम अच्छी तरह से जानते हो;
बल्कि
इस सच को
भली भांति पहचानते हो , मेरे अंतर्मुखी दोस्त !


यदि तुम बहिर्मुखी हो
और अपने बारे में सब कुछ,
सच और झूठ सहित, कहने को उतावले हो
तो इससे बुरी बात क्या होगी?
'आदमी नंगेपन की सभी सीमाएं लांघ जाए ।'
दुनिया इसे भीतर से कभी स्वीकारेगी नहीं ;
भले ही ,वह
तुम्हारे सामने
खुलेपन का इज़हार करे,
इसे तुम अच्छी तरह से जानते हो ,
बल्कि इसे भली भांति
दृढ़ता से मानते हो , मेरे बहिर्मुखी दोस्त !
आज हम सब
एक अनिश्चित समय में
स्वयं की
धारणाओं के मिथ्यात्व से
रहे हैं जूझ,
और निज के विचारों को
समय की कसौटी पर कस कर
आगे बढ़ने के वास्ते
ढूंढते हैं नित्य नवीन रास्ते ।
हम करते रहते हैं
अपनी पथ पर आगे बढ़ते हुए ,
निरंतर संशोधन !
अच्छा रहेगा/  हम सभी / स्वयं को / संतुलित करें ;
अन्तर्मुखता और बहिर्मुखता के
गुणों और अवगुणों को तटस्थता से समझें और गुने ।
अपनी खूबियों पर
अटल रहते हुए,
अपनी कमियों को
धीरे-धीरे त्यागते हुए ,
पर्दे में अपने स्वाभिमान को रखकर ,
निज को हालातों के अनुरूप ढालकर ,
नूतन जीवन शैली और जीवनचर्या का वरण करें ,
न कि जीवन में क़दम क़दम पर
भीड़ का हिस्सा बनाकर उसकी नकल करें।
क्यों न हम सब अपनी मौलिकता से जुड़ें !
जीवन को  सुख ,संपन्नता , सौंदर्य से जोड़कर आगे बढ़ें ।८/१०/२०१७.
आज
आसपास
बहुत से लोग
बोल रहे हैं
नफ़रत की बोली ,
जो लगती है
सीने में गोली सी।
वे लोग
डाल डाल और पात पात पर
हर पल डोलने वाले ,
अच्छे भले जीवन में
विष घोलने वाले ,
देश , समाज और परिवार को
जड़ से तोड़ने में हैं लगे हुए।

उनसे मेरी कभी बनेगी नहीं ,
क्योंकि वे कभी सही होना चाहते नहीं।

वे समझ लें समय की गति को ,
आदमी की मूलभूत प्रगति की लालसा को ।
यदि वे इस सच को समझेंगे नहीं ,
तो उनकी दुर्गति होती रहेगी।
उन्हें हरपल शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी।
जिस दिन वे स्वयं की सोच को
बदलना चाहेंगे।
समय के साथ चलना चाहेंगे।
ठीक उस दिन वे जनता जर्नादन से हिल मिल कर
निश्चल और निर्भीक बन पाएंगे।
वे होली की बोली ख़ुशी ख़ुशी बोलेंगे।
उनकी झोली होली के रंगों से भर जाएगी ।
उन्हें गंगा जमुनी तहज़ीब की समझ आ जाएगी।
वे सहयोग, सद्भावना और सामंजस्य से
जीवन पथ पर अग्रसर हो जाएंगे।
देश , धरा और समाज पर से
संकट के काले बदल छंट जाएंगे।
सब लोग परस्पर सहयोग करते दिख जाएंगे।
११/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
झूठ बोलने वाला,
मुझे कतई भाता नहीं ।
ऐसा व्यक्ति मुझे विद्रूप लगता रहा है।
उससे बात करना तो दूर,
उसकी उपस्थिति तक को मैंने
बड़ी मुश्किल से सहा है।

उसका चलना ,फिरना ,नाचना,भागना।
उसकी सद्भावना या दुर्भावना ।
सब कुछ ही तो
मेरे भीतर
गुस्सा जगाती रही हैं।

आज अचानक एहसास हुआ,
कई दिनों से वह
नज़र नहीं आया !
इतना सोचना था कि
वह झट से मेरे सामने
हंसता ,मुस्कुराता, खिलखिलाता आ गया।
मुझ से बोला वह,
"अरे चुटकुले! आईना देख ।
मैं चेहरा हूं तेरा।
मुझसे कब तक नज़र चुरायेगा?
मुझे कदम-कदम पर
अनदेखा करता जाएगा।
झूठ बोलना आजकल ज़रूरी है
आज बना है यह युग धर्म,
कि चोरी सीनाज़ोरी करने वाले
जीवन में आगे बढ़ते हैं!
सत्यवादी तो बस यहां!
दिन-रात भूखे मरते हैं!
सो तू भी झूठ बोला कर,
जी भरकर कुफ्र तोला कर।"

मुझे अपना नामकरण अच्छा लगा था।
आईने को देख मेरा चेहरा खिल उठा था।
आईना भी मुझे इंगित कर बोल उठा था,
"अरे चुटकुले! अपना चेहरा देख।
रोनी सूरत ना बनाया कर।
खुद को कभी चुटकुला ना बनाया कर।
कभी-कभी तो अपना जी बहलाया कर।
किसी में कमियां ना ढूंढा कर,
बल्कि उनकी खूबियों को ढूंढ कर,
सराहा  कर।
उनसे ईर्ष्या भूल कर भी न किया कर।
कभी तो खुलकर जीया कर।
तब तू नहीं लगेगा जोकर।"
यह सब सुनकर मुझे अच्छा लगा।
मैंने खुद को हल्का-फुल्का महसूस किया।
कल
अचानक राष्ट्र
जीतते जीतते हार गया।
गाय भक्त देश
कसाई से कट गया।
तृतीय पक्ष
बन्दर कलन्दर
बिल्लियों के
हिस्से की रोटी को
छीनने का
जुगाड़ कर गया।
साधन सम्पन्न देश
खुद को विपन्न
सिद्ध कर गया।
कल कोई
बुद्धू के सुख को
हड़प कर गया।
उसे लाचार कर गया।
११/०५/२०२५.
64 · Nov 2024
मेरी हसरत
Joginder Singh Nov 2024
आधी दुनिया
भूखी सोती है।
सोचता हूं,
क्या कभी लोग
भूखी नंगी
गुरबत से
जूझ रही दुनिया की
बाबत फ़िक्र करते हैं?

मुझे
थाली में जूठन
छोड़ने वाले अच्छे नहीं लगते।
मुझे
वे लोग
नफरत के लायक़
लगते हैं।
दुनिया खाने का
सलीका
सीख ले,
यही काफ़ी है।
हे अन्न देवता!
कोई जूठन छोड़ कर
आप का अपमान न करें।
यही मेरी हसरत है।
कोई भी खाना बर्बाद  होने न दे,
तो देशभर में बरकत होगी।
यही मानवता के लिए
बेहतर है।
भूखे को अन्न मिल जाए।
उसके प्राण बच जाए,
इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता
क्यों कि
आदमी का जमीर
कभी मर नहीं सकता।
यदि
मूल्य अवमूल्यन के दौर में
आदमी अपने आदर्श ढंग से अपना पाए
तो क्यों न  
सब उसे
सराहना का पात्र मान लें।
आजकल संगम तट पर
बेहिसाब आस्था से महिमा मंडित
देश दुनिया से आए
श्रद्धालुओं ने डेरा डाला हुआ है ,
सब इस मंगल अवसर का
उठाना चाहते हैं लाभ
ताकि आत्मा को जागृत किया जा सके ,
अपने भीतर की मैल को
तन और मन से धोया जा सके।
निर्मल हृदय के साथ विश्व कल्याण
और सरबत का भला किया जा सके।
कभी देवताओं और दानवों ने
समुद्र मंथन किया था
परस्पर सहयोग करते हुए
और अमृत कलश पाया था।
वही अमृत तुल्य
आनंद रस सुलभ होने का
अनुपम अवसर आया है
सभी के लिए
प्रयागराज की पावन भूमि पर।


आप बेशक वहां सशरीर
उपस्थित नहीं हो सकते ,
पर यह तो संभव है कि
आप अपने घर पर
स्नान ध्यान करते हुए
इस पावन पर्व का
हृदय से स्मरण कीजिए ,
स्वयं को संतुलित रखने की
अपने अपने इष्टदेव से मंगल कामना कीजिए।
ऐसा करने भर से
आप को संगम स्नान का फल हो
जाता है प्राप्त।
सूक्ष्म रूप से
समस्त ब्रह्माण्ड
परस्पर एक परम चेतना से
जुड़ा हुआ है ,
इसलिए आप किसी भी
देश दुनिया के कोने में रहें ,
किसी भी मज़हब और संप्रदाय से संबंध रखते हों ,
सूक्ष्म रूप से
कहीं भी,
कभी भी,
किसी भी समय
कुंभ स्नान कर सकते हैं,
अपने को सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
जोड़ सकते हैं,
आस्थावान बन सकते हैं।
स्वयं को परम चेतना का साक्षात्कार करवाने में
सफल हो सकते हैं।
नैर्मल्य प्राप्त कर सकते हैं।
15/01/2025.
पिछले साल
यही कोई पांच महीने हुए
मुझे सेवानिवृत्ति दे दी गई ।
इस मौके पर
मुझे भव्य विदाई पार्टी दी गई ,
मेरी सच्ची झूठी प्रशंसा भी की गई ।
मैं खुश था कि
अब मैं अपने जीवन को
मन मुताबिक जी सकूंगा ,
खुलकर अपनी बात रख सकूंगा ।

मैंने भी अपने चिरपरिचितों को
खुशी खुशी पार्टियां दीं ।
फिर यकायक
मुझे इससे विरक्ति हो गई ,
मेरे भीतर असंतुष्टि भरती गई ।

घर वापसी का अहसास
कुछ समय अच्छा लगा।
अब मैं वापिस
अपनी अनुशासित दिनचर्या पाना चाहता हूँ।

समय भी
नए साल की
पूर्व संध्या पर
सेवानिवृत्त कर
दिया जाता है।
उसकी विदायगी का
दुनिया भर में
आडंबर रचा जाता है,
फिर आधी रात को
नए साल को
खुश आमद कहने के लिए
जोशोखरोश से
जश्न मनाया जाता है ,
फिर अगला नया साल आने तक
नवागन्तुक साल को भी
भुला दिया जाता है।

विगत वर्ष से
मैंने पूर्ववत जीवन से सीख लेकर
कविताएं पढ़ना और लिखना
शुरू कर दिया है , उम्मीद है
मैं इस माध्यम से
समय से संवाद रचा लूंगा।
विगत वर्षों को याद करते हुए
उनसे भी वर्तमान और भविष्य के
सम्बन्ध में कुछ राय मशवरा करूंगा
ताकि मैं भी जीवन से विदायगी लेते हुए
शब्दों के रूप में समय की वसीयत और विरासत को
अपनी समझ के अनुसार
कुछ अनूठे रूप में
अपनी भावी पीढ़ी को सौंप समय धारा में
विलीन हो सकूं...अनंत में , अनंत को खोज सकूं।
Joginder Singh Nov 2024
आज
एक साथी ने
मुझे
मेरे बड़े कानों की
बाबत पूछा।

मैंने सहज रहकर  
उत्तर दिया,
"यह आनुवांशिक है।
मेरे पिता के भी कान बड़े हैं ।
वे बुढ़ापे के इस दौर में
शान से खड़े हैं।
दिन-रात घर परिवार के
कार्य करते हैं ,
अपने को हर पल
व्यस्त रखते हैं।"


अपने बड़े कानों पर
मैं तरह-तरह की
टिप्पणियां और फब्तियां
सुनता आया हूं।


स्कूल में बच्चे
मुझे 'गांधी' कहकर चिढ़ाते थे।
मुझे उपद्रवी बनाते थे।
कभी-कभी पिट भी जाते थे।
मास्टर जी मुझे मुर्गा बनाते थे।
कोई कोई मास्टर साहब,
मेरे कान
ताले में चाबी लगाने के अंदाज़ से
मरोड़कर
मेरे भीतर
दर्द और उपहास की पीड़ा को
भर देते थे।
मैं एक शालीन बच्चे की तरह
चुपचाप पिटता रहता था,
गधा कहलाता था।



कुछ बड़ा हुआ,
जब गर्मियों की छुट्टियों में
मैं लुधियाना अपने मामा के घर जाता था
तो वहां भी
सभी को मेरे बड़े-बड़े कान नज़र आते थे।
मेरा बड़ा भाई पेशे  से मास्टर गिरधारी लाल
मुझे 'कन्नड़ ' कहता
तो कोई मुझे समोसा कहता ,
किसी को मेरे कानों में 'गणेश' जी नज़र आते,
और कोई सिर्फ़
मुझे हाथी का बच्चा भी कह देता,
यह तो मुझे बिल्कुल नहीं भाता था,
भला एक दुबला पतला ,मरियल बच्चा,
कभी हाथी का बच्चे  जैसा दिख सकता है क्या?
उस समय मैं भीतर से खीझ जाया करता था।
सोचता था, पता नहीं सबको क्यों
मेरे ये कान भाते हैं ?
इतने ही अच्छे लगते हैं,  
तो क्यों नहीं अपने कान भी
मेरी तरह बड़े करवा लेते।
लुधियाना तो डॉक्टरों का गढ़ है,
किसी डॉक्टर से ऑपरेशन करवा कर
क्यों नहीं करवा लेते बड़े , अपने कान?


कभी-कभी
मैं अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के सामने
अपने बड़े-बड़े कान
इस ढंग से हिलाता हूं
कि बच्चे हंसने मुस्कुराने लगते हैं।
इस तरह मैं एक विदूषक बन जाता हूं।
मनोरंजन तो करता ही हूं,
उनके मासूम चेहरों पर
सहज ही मुस्कान ले आता हूं।


मैं एक बड़े-बड़े कानों वाला विदूषक हूं।
पर  विडंबना देखिए ,
आजकल मुझे कानों से सुनने में दिक्कत होती है।
अब मैं इसे सुनने का काम कम ही लेता हूं,
मेरा एक तरफ का कान  तो काम ही नहीं करता,
सो मुझे पढ़ते समय चालाकी से काम लेना पड़ता है।
फिर भी कभी-कभी दिक्कत हो ही जाती है,
बच्चे और साथी अध्यापक मुझे इंगित कर हंसते रहते हैं।
और मैं कुछ-कुछ शर्मिंदा, थोड़ा सा बेचैन हो जाता हूं।
कई बार तो खिसिया तक जाता हूं ।
अब मैं हंसते हंसते दिल
बहलाने का
काम ज़्यादा करता हूं,
और
पढ़ने से ज़्यादा
गैर सरकारी काम ज़्यादा करता हूं,
यहां तक की सेवादार ,चौकीदार भी बन जाता हूं।
आजकल मैं खुद को
'कामचोर 'ही नहीं 'कान चोर 'भी कहता हूं।



कोई यदि मेरे जैसे
बड़े कान वाले का मज़ाक उड़ाता है ,
उसे उपहास का पात्र बनाता है ,
तो मैं भीतर तक
जल भुन जाता हूं ।
उससे लड़ने भिड़ने पर
आमादा हो जाता हूं।



बालपन में
जब मैं उदास होता था,
किसी द्वारा परेशान किए जाने पर
भीतर तक रुआंसा हो जाता था,
तब मेरे पिता जी मुझे समझाते थे ,
"बेटा , तुम्हारे दादाजी के भी कान बड़े थे।
पर वे किस्मत वाले थे,
अपनी कर्मठता के बल पर
घर समाज में इज़्ज़त पाते थे।
बड़े कान तो भाग्यवान होने की निशानी है।"

यह सब सुनकर मैं शांत हो जाता था,
अपने कुंठित मन को
किसी हद तक समझाने में
सफल हो जाता था।


अब मैं पचास के पार पहुंच चुका हूं ।
कभी-कभी मेरा बेटा
मेरे कानों को इंगित कर
मेरा मज़ाक उड़ाता है।
सच कहूं तो मुझे बड़ा मज़ा आता है।


आजकल मैं उसे बड़े गौर से देखा करता हूं,
और सोचता हूं, शुक्र है परमात्मा का, कि
उसके कान मेरे जैसे बड़े-बड़े नहीं हैं।
उस पर कान संबंधी
आनुवांशिकता का कोई असर नहीं हुआ है।
उसके कान सामान्य हैं !
भाग्य भी तो सामान्य है!!
उसे भी मेरी तरह जीवन में मेहनत मशक्कत करनी पड़ेगी।
उसे अपनी किस्मत खुद ही गढ़नी पड़ेगी ।
और यह है भी  कटु सच्चाई ।
जात पात और बेरोजगारी
उसे घेरे हुए हैं,
सामान्य कद काठी,कृश काया भी
उसे जकड़े हुए हैं ।

सच कहूं तो आज भी
कभी-कभी मुझे
लंबे और  बड़े
कानों वाली कुंठा
घेर लेती है,
यह मुझे घुटनों के बल ला देती है,
मेरे घुटने टिकवा देती है।
64 · Nov 2024
कोई मुझे...
Joginder Singh Nov 2024
जब से
मैं भूल गया हूं
अपना मूल,
चुभ रहे हैं मुझे शूल ।

गिर रही है
मुझे पर
मतवातर
समय की धूल ।

अब
यौवन बीत चुका है,
भीतर से सब रीत गया है,
हाय ! यह जीवन बीत चला है,
लगता मैंने निज को छला है।
मित्र,
अब मैं सतत्
पछताता हूं,
कभी कभी तो
दिल बेचैन हो जाता है,
रह रह कर पिछली भूलों को
याद किया करता हूं,
खुद से लड़ा करता हूं।

अब हूं मैं एक बीमार भर ,
ढूंढ़ो बस एक तीमारदार,  
जो मुझे ढाढस देकर सुला दे!!
दुःख दर्द भरे अहसास भुला दे!!
या फिर मेरी जड़ता मिटा दे!!
भीतर दृढ़ इच्छाशक्ति जगा दे।!

८/५/२०२०.
जीवन भर भागता रहा
कृत्रिम खुशियों के पीछे।
हरेक तरीके से
अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए
छल प्रपंच का सहारा लिया,
अब भीतर तक गया हूं ‌रीत
सो सबने किनारा कर लिया।
आपाधापी
और
मारामारी के दौर में
चहुं ओर
मचा था शोर ।
बस यह कोलाहल
बाहर बाहर तक सीमित रहा,
कभी भी भीतर नहीं गया।
भीतर भी कुछ है,
इस तरफ़ नहीं गया ध्यान।
बस भागता रहा
जीवन में
पगलाया हुआ।
अब शरीर कमजोर है,
रहा नहीं मन और तन पर
नियंत्रण !
यातना शिविर का अहसास
कराता है अब
पल पल रीतता जाता जीवन।
अपने बीते को याद कर
अक्सर सोचता हूं,
व्यर्थ ही माया मोह में बंधा रहा ,
सारी उम्र अंधा बना रहा।
मैं कब किसी के लिए
उपयोगी बना ?
कुछ उसका काज संवरें,
इस खातिर
कभी सहयोगी बना।
नहीं न!
फिर  पछतावा कैसे?
फिर फिर घूम घाम कर
पछतावा आए न क्यों ?
यह रुलाए न क्यों ?
शायद
कोई भीतर व्यापा
अन्त:करण का सच
रह रह कर पूछता हो ,
आज मानसजात
जा रही किस ओर !
आदमी को
दुःख की लंबी अंधेरी
रात के बाद
कब दर्शन देगी भोर ?
....कि उसका
खोया आत्मविश्वास जगे ,
वह कभी तो संभले ,
उसे जीने के लिए
संबल मिले।
आदमी
इस जीवन यात्रा में
अध्यात्म के पथ पर बढ़े ।
या फिर वह
अति भौतिकवादी होकर
पतन के गर्त में
गिरता चला जाएगा।
क्या वह कभी संभल नहीं पाएगा ?
यदि आपाधापी का यह दौर
यूं ही अधिक समय तक चलता रहा,
तो आदमी कब तक पराजय से बच पाएगा।
यह भी सच है कि रह रह कर मिली हार
आदमजात को भीतर तक झकझोर देती है,
उसे कहीं गहरे तक तोड़ दिया करती है,
भीतर निराशा हताशा भर दिया करती है,
आत्मविश्वास को कमजोर कर
आंशका से भर , असमय मृत्यु का डर भर कर
भटकने के लिए निपट अकेला छोड़ दिया करती है।
ऐसी मनोस्थिति में
आदमी भटक जाया करता है ,
वह जीवन में
असंतुलन और असंतोष का
शिकार हो कर
अटक जाया करता है।
आजकल
बाहर फैला शोरगुल
धीरे-धीरे
अंदर की ओर
जाने को उद्यत है ,
यह भीतर डर भर कर
आदमजात को
तन्हां और बेघर करता जा रहा है।
आदमी अब पल पल
रीतता और विकल होता जाता है।
उसे अब सतत्
अपने अन्तःकरण में
शोरगुल सुनाई देता है।
इससे डरा और थका आदमी
आज जाए तो जाए कहां ?
अब शांति की तलाश में
वह किस की शरण में जाए ?
अति भौतिकता ने
उसे समाप्त प्रायः कर डाला है।
अब उसका निरंकुशता से पड़ा पाला है।
भीतर का शोर निरंतर
बढ़ता जा रहा है ,
काल का गाल
उसे लीलता ही नहीं
बल्कि छीलता भी जा रहा है।
वह मतवातर कराहता जा रहा है।
पता नहीं कब उसे इस अजाब से छुटकारा मिलेगा ?
अब तो अन्तःकरण में बढ़ता शोरगुल सुनना ही पड़ेगा...सुन्न होने तक!
२९/०३/२०२५.
64 · Nov 2024
Assurity
Joginder Singh Nov 2024
Among uncertainties in life,
no body can provide assurity in a changing world.

As I am growing old with the mercy of time.
Too some extent, I have lost my purity in life.
I have a desire to purify myself right from beginning to the level of consciousness.
As I am aged year by year,
I find myself vague and unclear.
I have  strong desires for purification.
I need balance in life,
I'm balancing now myself .
Wandering aimlessly makes a person infertile, unproductive and destructive.
I like a constructive and well adjusted life ,with a deep attraction for living a peaceful and purposeful life.

Nobody can give assurity regarding this except self.
Joginder Singh Nov 2024
हे दर्पणकार! कुछ ऐसा कर।
दर्प का दर्पण टूट जाए।
अज्ञान से पीछा छूट जाए।
सृजन की ललक भीतर जगे।
हे दर्पणकार!कोई ऐसा
दर्पण निर्मित कर दो जी,
कि भीतर का सच सामने आ जाए।
यह सब को दिख जाए जी।

हे दर्पणकार!
कोई ऐसा दर्पण
दिखला दो जी।
जो
आसपास फैले आतंक से
मुक्ति दिलवा दे जी ।

हे दर्पणकार!
अपने दर्पण को
कोई आत्मीयता से
ओतप्रोत छुअन दो
कि यह जादुई होकर
बिगड़ों के रंग ढंग बदल दे,
उनके अवगुण कुचल दे ,
ताकि कर न सकें वे अल छल।
उनका अंतःकरण हो जाए निर्मल।

हे दर्पणकार!
तोड़ो इसी क्षण
दर्प का दर्पण ,
ताकि हो सके  
किसी उज्ज्वल चेतना से साक्षात्कार ,
और हो सके
जन जन की अंतर्पीड़ा का अंत,
इसके साथ ही
अहम् का विसर्जन भी।
सब सच से नाता जोड़ सकें,
जीवन नैया को
परम चेतना की ओर मोड़ सकें।
८/६/२०१६
Joginder Singh Nov 2024
नाद
पर कर नृत्य
अनुभूति के पार उतरकर,
बनकर अद्वितीय !
कर मुझे चमत्कृत !
ओ ,योगीनाथ शिव !

तुम्हारे आगमन की गंध,
कण-कण में है जा समाई।

आज नाट्य, नाद, नाच ,गान के स्वर, आदिनाथेश्वर!
कर रहे पग पग पर मानव को प्रखर!!

तुम प्रखरता के शिखर पर
बैठी संवेदना हो,
साक्षात सत्य हो,
परम कल्याणकारी हो।

स्वयं में सुंदरता का सार हो।
तुम्हें मेरा नमन।
हे सत्यं शिवम्  सुंदरम के प्रणेता।!
तुम्हीं सृष्टि की दृष्टि हो ।
तुम्हारे भीतर समाया है काल।
तभी तुम महाकाल कहलाते हो।
यही काल बनता जीवन का आकर्षण है ,
जो जीव , जीव को अपनी ओर खींचता है।
मृत्यु का संस्पर्श कराकर
भोलेनाथ ब्रह्मांड की चेतना से
जीवन के कल्पवृक्ष को सींचते हैं !!

हे  भूतनाथ !
नाद तुम्हारा
जीवन का संवाद बने,
साथ ही यह समस्त वाद विवाद हरे ।
सृष्टि के कण कण से
जीव के भीतर व्यापी चेतना का
आप में समाई महाचेतना से संबंध जुड़े।

ओ' आदियोगी भगवान!
तुम्हारे दिशा निर्देशों पर
सब आगे बढ़ें,
जीवन के भीतर से अमृत का संधान करें।
तुमसे प्रेरित होकर
विषपान करने में सक्षम बनें।
जीवन में ज़हर सरीखे कष्टों को सहन कर सकें।
तुम्हारे भक्त अमर जीवन की  चाहत से सदैव दूर रहें।
वह मृत्यु को अटल मानकर
अपने भीतर बाहर की तमाम हलचलों को भूलकर
अपने  और आप को खोजने का प्रयास करें।
आपको खोजने की खातिर सदैव लालायित रहें।


हे आदिनाथ!
आपको क्या कहूं?
आप अंतर्यामी हैं।
सर्वस्व के स्वामी हैं।
हम सब जीवन धारा के साथ बहते रहें।
आपकी कृपा में ही मोक्ष को देखें ।
सभी आपकी चेतना को
जानने और समझने की चेष्टा करते रहें।

२४/०२/२०१७.
इस बार होली पर
खूब हुड़दंग हुआ ,
पर मैं सोया रहा
अपने आप में खोया रहा।
कोई कुछ नया घटा ,
आशंका का कोई बादल फटा!
यह सब सोच बाद दोपहर
टी.वी.पर समाचार देखे सुने
तो मन में इत्मीनान था ,
देश होली और जुम्मे के दिन शांत रहा।
होली रंगों का त्योहार है ,
इसे सब प्रेमपूर्वक मनाएं।
किसी की बातों में आकर
नफ़रत और वैमनस्य को न फैलाएं।

बालकनी से बाहर निकल कर देखा।
प्रणव का मोटर साइकिल रंगों से नहाया था।
उस पर हुड़दंगियों ने खूब अबीर गुलाल उड़ाया था।

इधर उमर बढ़ने के साथ
रंगों से होली खेलने से करता हूँ परहेज़।
घर पर गुजिया के साथ शरबत का आनंद लिया।
इधर हुड़दंगियों की टोली उत्साह और जोश दिखलाती निकल गई।

दो घंटे के बाद प्रणव होली खेल कर घर आया था।
उसके चेहरे और बदन पर रंगों का हर्षोल्लास छाया था।
जैसे ही वह खुद को रंगविहीन कर बाथरूम से बाहर आया,
उसकी पुरानी मित्र मंडली ने उसे रंगों से कर दिया था सराबोर।

मैं यह सब देख कर अच्छा महसूस कर रहा था।
मन ही मन मैंने सौगंध खाई ,अगली होली पर
मैं कुछ अनूठे ढंग से होली मनाऊंगा।
कम से कम सोए रहकर समय नहीं गवाऊंगा।
कैनवास पर अपने जीवन की स्मृतियों को संजोकर
एक अद्भुत अनोखा अनूठा कोलाज बनाने का प्रयास करूंगा।

और हाँ, रंग पंचमी से एक दिन पूर्व होलिका दहन पर
एक  संगीत समारोह का आयोजन घर के बाहर करवाऊंगा।
उसमें समस्त मोहल्ला वासियों को आमंत्रित करूंगा।
उनके उतार चढ़ावों भरे जीवन में खुशियों के रंग भरूंगा।
१७/०३/२०२५.
" हमें
जीवन में  
ज़ोर आजमाइश नहीं
बल्कि
जिन्दगी की
समझाइश चाहिए ।"
सभी से
कहना चाहता है
आदमी का इर्द गिर्द
और आसपास ,
ताकि कोई बेवजह
जिन्दगी में न हो कभी जिब्ह ,
उसके परिजन न हों कभी उदास।
पर कोई इस सच को
सुनना और मानना नहीं चाहता।
सब अपने को सच्चा मानते हैं
और अपने पूर्वाग्रहों की खातिर
अड़े खड़े हैं, वे स्वयं को
जीवन से भी बड़ा मानते हैं।
और जीवन उनकी हठधर्मिता को
निहायत गैर ज़रूरी मानता है ,
इसलिए
कभी कभी वह
नाराज़गी के रुप में
अपनी भृकुटि तानता है ,
पर जल्दी ही
चुप कर जाता है।
उसे आदमी की
इस कमअक्ली पर तरस आता है।
पर कौन
उसकी व्यथा को
समझ पाता है ?
क्या जीवन कभी
हताश और निराश होता है ?
वह स्वत: आगे बढ़ जाता है।
जीवन धारा का रुकना मना है।
जीवन यात्रा रुकी तो समय तक ख़त्म !
इसे जीवन भली भांति समझता है,
अतः वह आगे ही आगे बढ़ता रहता है।
समय भी उसके साथ क़दम ताल करता हुआ
अपने पथ पर  सतत अग्रसर रहता है।
Joginder Singh Nov 2024
स्वप्न जगाती
दुनिया में बंद दुस्वप्न
पता नहीं
कब
ओढ़ेंगे कफन ?



मुझे भली भांति है विदित
दुस्वप्नों के भीतर
छिपे रहते हैं हमारे अच्छे बुरे रहस्य।
इन सपनों के माध्यम से
हम अपना विश्लेषण करते हैं,
क्योंकि सपने हमारे आंतरिक सच का दर्पण होते हैं।


मुझे चहुं और
मृतकों के फिर से जिंदा होने
उनकी  श्वासोच्छवास का
हो रहा है मतवातर अहसास।
मेरे मृत्यु को प्राप्त हो चुके मित्र संबंधी
वापस लौट आए हैं
और वे मेरे इर्द-गिर्द जमघट लगाए हैं।
वे मेरे भीतर चुपचाप ,धीरे-धीरे डर भर रहे हैं।
मैं डर रहा हूं और वह मेरे ऊपर हंस रहे हैं।



अचानक मेरी जाग खुल जाती है,
धीरे-धीरे अपनी आंखें खोल,देखता हूं आसपास ।
अब मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा हूं।
अपने तमाम डर किसी ताबूत में चुपचाप भर रहा हूं।


हां ,यकीनन
मुझे अपने तमाम डर
करने होंगे कहीं गहरे दफन
ताकि कर सकूं मैं निर्मित
रंग-बिरंगे , सम्मोहन से भरपूर
वर वसन, वस्त्र
और उन्हें दुस्वप्नों पर ओढ़ा सकूं।


इन दुस्वप्नों को
बार बार देखने के बावजूद
मन में चाहत भरी है
इन्हें देखते रहने की,
बार-बार डरते, सहमते रहने की।



चाहता हूं कि
स्वप्न जगती इस अद्भुत दुनिया में
सतत नित्य नूतन
सपनों का सतत आगमन देख सकूं
और समय के समंदर की लहरों पर
आशाओं के दीप तैरा सकूं।



मैं जानता हूं यह भली भांति !
दुस्वप्न फैलाते हैं मन के भीतर अशांति और भ्रम।
फिर भी इस दुनिया में भ्रमण करने का हूं चाहवान।
दुस्वप्न सदैव, रहस्यमई,डर भरपूर
दुनिया की प्रतीति कराते हैं।
चाहे इन पर कितना ही छिड़क दो
संभावनाओं का सुगंधित इत्र।!
ये जीवन की विचित्रताओं का अहसास बनकर लुभाते हैं।



काश! मैं होऊं इतना सक्षम!
मैं इन दुस्वप्नों से लड़ सकूं।
उनसे लड़ते हुए आगे बढ़ सकूं।

१६/०२/२००९.
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