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Joginder Singh Dec 2024
कहां गया ?
वह फिल्मों का
जाना माना खलनायक
जो दिलकश अंदाज में करता था पेश
अपने मनोभावों को  
यह कह,
बहुत हुआ , अब  ,चुप भी करो,
' मोना डार्लिंग ' चलें दार्जिलिंग!
काश! वह मेरे स्वप्न में आ जाए,
अपनी मोना डार्लिंग के संग
मोना को मोनाको की सैर कराता हुआ
नज़र आ जाए !
वह अचानक
अच्छाई की झलक दिखला
मुझे हतप्रभ कर जाए !

ऐसा एक अटपटा ख्याल
मन में आ गया था
अचानक,
ऐसे में
जीवन में
किसी का भी ,
न नायक और न खलनायक,
न नायिका और न खलनायिका, ...न होना
करा गया मुझे न होने की भयावहता का अहसास।
यह जीवन बीत गया।
अब जीवन की 'रील लाइफ'का भी
"द ऐंड" आया समझो!
ऐसा खुद को समझाया था,
तब ही मैं कुछ खिल पाया था।
जीवन का अर्थ
और आसपास का बोध हो गया था ,
मुझ को
अचानक ही
जब एक खलनायक को
ख्यालों में बुलाने की हिमाकत की थी मैंने।
यह जीवन
एक अद्भुत फिल्मी पटकथा ही तो है,
शेष सब
एक हसीन झरोखा ही तो है।
११/१२/२०२४.
63 · Feb 16
खेल
बच्चे
हरेक स्थिति में
ढूंढ़ लेते हैं
अपने लिए ,
कोई न कोई
अद्भुत खेल !

यदि तुम भी
कभी वयस्कता भूल
बच्चे बन पाओ ,
अपना मूल ढूंढ पाओ ,
तो अपने आप
कम होते जाएंगे
कहीं न पहुँचने की
मनोस्थिति से
उत्पन्न शूल।
जीवन यात्रा
स्वाभाविक गति से
आगे बढ़ेगी।
चेतना भी
जीवन में उतार चढ़ावों को
सहजता से स्वीकार करेगी।
मन के भीतर
सब्र और संतोष की
गूँज सुन पड़ेगी।
कभी कहीं कोई कमी
नहीं खलेगी।

बच्चों के
अलबेले खेल से
सीख लेकर
हम चिंता तनाव कम
कर सकते हैं,
अपने इर्द गिर्द और भीतर से
खुशियाँ तलाश सकते हैं ,
जीवन को खुशहाल कर सकते हैं।
१६/०२/२०२५.
प्यार क्या है ?
इस बाबत कभी तो
सोच विचार
या फिर
चिंतन मनन किया होगा।
प्यार हो गया बस !
इस अहसास को जी भर के जीया होगा।
भीतर और बाहर तक
इसकी संजीदगी को महसूसा होगा।
प्यार जीवन की ऊर्जा से साक्षात्कार करना है।
जीवन में यह परम की अनुभूति को समझना है।

प्यारे !
प्यार एक बहुआवर्ती अहसास है,
जो इंसान क्या सभी जीवों को
जीवन में बना देता खास है।
इसकी तुलना
कभी कभी
प्याज की परतों के साथ की
जा सकती है ,
यदि इसे परत दर परत
खोला जाए तो हाथ में कुछ भी नहीं आता है !
बस कुछ ऐसा ही
प्यार के साथ भी
घटित होता है।
प्यार की प्यास हरेक जीव के भीतर
पनपनी चाहिए,
यह क़दम क़दम पर
जीवन को रंगीन ही नहीं ,
बल्कि भाव भीना और खुशबू से
सराबोर कर देता है ,
यह चेतना को नाचने गाने के लिए
बाध्य कर देता है,
कष्ट साध्य जीवन जी रहे
जीव के भीतर
यह जिजीविषा भर देता है।
यह किसी अमृतपान की अनुभूति से कम नहीं,
बशर्ते आदमी जीवन में
आगे बढ़ने को लालायित रहे ,
तभी इसकी खुशबू और जीवन का तराना
सभी को जागृत कर प
पाता है ,
जीवन को सकारात्मकता के संस्पर्श से
सार्थकता भरपूर बना देता है ,
सभी को गंतव्य तक पहुँचा देता है।
इसकी प्रेरणा से जीवन सदैव आगे बढ़ता रहा है,
प्यार का अहसास
किसी सच्चे और अच्छे मित्र सरीखा होकर
मार्ग दर्शन का निमित्त बनता है,
जिसमें सभी का चित्त लगता है।
प्रत्येक जीव
इस अहसास को पाने के लिए
आतुर रहा है।
वे सब इस दिशा में
सतत अग्रसर रहे हैं।
इस राह चलते हुए
सभी ने उतार चढ़ाव देखे हैं !
जीवन पथ पर आगे बढ़े हैं !!
२५/०२/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
साथी
चाहता जब सुख
और
बिना हेर फेर
कर देता
अपनी चाहत का
इज़हार।

तब
एक  सकपकाहट
स्वत: भीतर आ जाती,
तोड़ देती
कभी-कभी
आत्मविश्वास तक !
आदमी सोचने लगता तब ,
अंदर भरे हैं ढ़ेरों दुःख ,
रह जाता वह तब चुप।

भीतर
एक डर
बना रहता है,
कहीं साथी
इसे कुछ और न मान लें !
काश ! वह मेरी मनोदशा जान ले !!
२१/१२/२०१६.
63 · Nov 2024
Salute
Joginder Singh Nov 2024
To make life easy and smooth
Parents, guardians are keeping themselves busy from early morning to till late night.
So I salute them all.
Because,they are all in all next to God.They are our true survivors.


Can you heard the mesmerizing sound of wonderful flute?

Answer is in yes or no.
Parent's constantly working ability play  a special role in our lives.
So dear!
Let us salute to
them
for providing rhythm and stability in life.
अख़बार के
एक ही पन्ने पर
छपी है  दो खबरें।
दोनों का संबंध
सड़क हादसों से है ,
एक सकारात्मक है
और दूसरी नकारात्मक,
पर ...!

शुरूआत सकारात्मक खबर से,
"देशभर में सड़क हादसों में ११.९ प्रतिशत इजाफा,
चंडीगढ़ में १९ प्रतिशत कमी ।..."
आंकड़ों की इस बाजीगरी को पढ़ और समझ
आया मुझे समय में व्याप्त चेतना का ध्यान,
हम क्यों नहीं करते इस समय बोध का
रोज़मर्रा की दिनचर्या में , सम्मान ?
ताकि सभी सुरक्षित रहें,
काल कवलित होने से बच सकें।
मेरे मन में सिटी ब्यूटीफुल की
ट्रैफिक व्यवस्था के प्रति सम्मान भावना बढ़ गई।
काश! ऐसी ट्रैफिक व्यवस्था देश भर में दिखे ,
जिसने की ट्रैफिक रूल्स की अवहेलना
उसका चेतावनी के साथ चालान भी कटे।
यही नहीं , इस चालान राशि में से
एकत्रित की गई
धन राशि में से
न केवल सड़क सुरक्षा जागरूकता कार्यक्रम को चलाया जाना चाहिए बल्कि इससे
ट्रैफिक व्यवस्था से संबंधित उत्पादों को भी खरीदा जाए बल्कि आम आदमी तक को  
ट्रैफिक संचालन से जोड़ा जाना चाहिए ,
ताकि देश की आर्थिकता को भी बल मिल सके।

इसी पन्ने पर दूसरी ख़बर थोड़ी नकारात्मक है ,
" धुंध में साइन बोर्ड से टकराया बाइक सवार ,
अस्पताल में मौत ।"

क्यों न सड़क सुरक्षा के निमित्त
आसपास निर्मित कर दिए जाएं  बैरियर ?
जो धुंध के समय ट्रैफिक को
स्वत: कम रफ़्तार से आगे बढ़ाएं ,
ताकि बाइक सवार डिवाइडर से टकराने से बच जाएं।
वैसे भी बाइक सवार यदि ड्रेस कोड को भी अपना लें,
तब भी किसी हद तक
हो सकता है  
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाव।
धुंध के समय
ज़रूरी होने पर ही
घर और दफ्तर से निकलें बाहर,
इस समय स्वयं पर
अघोषित कर्फ्यू लगा लेना ही है पर्याप्त।
एक ही पन्ने पर
बहुत कुछ अप्रत्याशित
छप जाता है ,
उसे पढ़ना और गुनना
अपरिहार्य हो जाता है ,
बशर्ते किसी की
पढ़ने लिखने और उसे
अभिव्यक्त करने में रुचि हो।
कभी तो वह
छोटी-छोटी बातों पर
ध्यान केंद्रित करे,
जीवन में आगे बढ़ सके।
०३/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
स्वप्न जगाती
दुनिया में बंद दुस्वप्न
पता नहीं
कब
ओढ़ेंगे कफन ?



मुझे भली भांति है विदित
दुस्वप्नों के भीतर
छिपे रहते हैं हमारे अच्छे बुरे रहस्य।
इन सपनों के माध्यम से
हम अपना विश्लेषण करते हैं,
क्योंकि सपने हमारे आंतरिक सच का दर्पण होते हैं।


मुझे चहुं और
मृतकों के फिर से जिंदा होने
उनकी  श्वासोच्छवास का
हो रहा है मतवातर अहसास।
मेरे मृत्यु को प्राप्त हो चुके मित्र संबंधी
वापस लौट आए हैं
और वे मेरे इर्द-गिर्द जमघट लगाए हैं।
वे मेरे भीतर चुपचाप ,धीरे-धीरे डर भर रहे हैं।
मैं डर रहा हूं और वह मेरे ऊपर हंस रहे हैं।



अचानक मेरी जाग खुल जाती है,
धीरे-धीरे अपनी आंखें खोल,देखता हूं आसपास ।
अब मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा हूं।
अपने तमाम डर किसी ताबूत में चुपचाप भर रहा हूं।


हां ,यकीनन
मुझे अपने तमाम डर
करने होंगे कहीं गहरे दफन
ताकि कर सकूं मैं निर्मित
रंग-बिरंगे , सम्मोहन से भरपूर
वर वसन, वस्त्र
और उन्हें दुस्वप्नों पर ओढ़ा सकूं।


इन दुस्वप्नों को
बार बार देखने के बावजूद
मन में चाहत भरी है
इन्हें देखते रहने की,
बार-बार डरते, सहमते रहने की।



चाहता हूं कि
स्वप्न जगती इस अद्भुत दुनिया में
सतत नित्य नूतन
सपनों का सतत आगमन देख सकूं
और समय के समंदर की लहरों पर
आशाओं के दीप तैरा सकूं।



मैं जानता हूं यह भली भांति !
दुस्वप्न फैलाते हैं मन के भीतर अशांति और भ्रम।
फिर भी इस दुनिया में भ्रमण करने का हूं चाहवान।
दुस्वप्न सदैव, रहस्यमई,डर भरपूर
दुनिया की प्रतीति कराते हैं।
चाहे इन पर कितना ही छिड़क दो
संभावनाओं का सुगंधित इत्र।!
ये जीवन की विचित्रताओं का अहसास बनकर लुभाते हैं।



काश! मैं होऊं इतना सक्षम!
मैं इन दुस्वप्नों से लड़ सकूं।
उनसे लड़ते हुए आगे बढ़ सकूं।

१६/०२/२००९.
63 · Nov 2024
Exit
Joginder Singh Nov 2024
If you can enter only.
You have no option to exit.
How can you feel happiness ?
In such an adverse situation,
you will find yourself in stress.
How can a person survive,and
revive to his values and beliefs?
It is extremely painful, dangerous and unpathetic to exist .

Some people put barricades at the exiting point.
Life in such hard times
becomes like a paramount.Where climbing is very difficult,when at the same time,man feel himself hungry as well angry to think his miserable surroundings.
Only there is no escape and no existence at exiting point. Sometimes man starts haunting himself for his imprisonment like situation. He feels that he has been caught and trapped in  a cage.
It can be anybody 's page of the life.
जीवन भरपूर आनंद से जीना
एक स्वप्न सरीखा बन जाता है लोगों के लिए
इसलिए बेहद ज़रूरी है कि
जिंदगी को जीया जाए
जिंदादिल बने रहकर
संघर्षों के बीच
बने रहकर
जिजीविषा सहित
हरेक उतार चढ़ाव के साथ
भीतर और बाहर से
तने रहकर ,
हरपल खिले रहकर ।
यह सब सीखना है
तो गुलाब का जीवन चक्र देखिए ,
इस के रूप ,रंग ,गंध,  मुरझाने ,धरा में मिल जाने की
प्रक्रिया को अपने अहसास में भरकर !
ताकि जीवन यात्रा कर सके
आदमी एकदम से निर्भय होकर !!
कहीं आदमी असमय न मुरझा जाए ,
अतः अपरिहार्य है
जिन्दगी जीनी चाहिए
बंदगी करते हुए !!
अपने तन और मन की गंदगी को
अच्छे से साफ करते हुए !!
सकारात्मकता और स्वच्छता से जुड़ते हुए !!
जीवन पथ पर अग्रसर होकर
सतत सार्थकता का वरण करते हुए !!
ज़िंदगी जीओ बन्दगी करते हुए !!
स्वयं को संतुलित रखते हुए!!
०५/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
अदालत के भीतर बाहर
सच के हलफनामे के साथ
झूठ का पुलिंदा
बेशर्मी की हद तक
क़दम दर क़दम
किया गया नत्थी!
सच्चे ने देखा , महसूसा , इसे
पर धार ली चुप्पी।
ऐसे में,
अंधा और गूंगा बनना
कतई ठीक नहीं है जी।

यदि तुम इस बाबत चुप रहते हो,
तो इसके मायने हैं
तुम भीरू हो,
हरदम अन्याय सहने के पक्षधर बने हो।
इस दयनीय अवस्था में
झूठा सच्चे पर हावी हो जाता है।
न्यायालय भी क्या करे?
वह बाधित हो जाता है।
अब इस विकट स्थिति में
मजबूरी वश
सच्चे को झुकना पड़ता है।
बिना अपराध किए सज़ा काटनी पड़ती है।

क्या यही है सच्चे का हश्र और नियति ?
बड़ी विकट बनी हुई है परिस्थिति।
सोचता हूं कि अब हर पल की यह चुप्पी ठीक नहीं।
इससे तो बस चहुं ओर उल्टी गंगा ही बहेगी।
अब तुम अपनी आवाज़ को
बुलंद बनाने की कोशिशें तेज़ करो।
सच के पक्षधर बनो, भीतर तक साहसी बनो।
छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतार फेंको।
० ४/०८/२००९.
जीवन अच्छा लगता है
यदि यह निरन्तर गतिशीलता का
आभास करवाता रहे।
और जैसे ही
यह जड़ता की प्रतीति करवाने लगे
यह निरर्थक और व्यर्थ बने।
जीवन गुलाब सा खिला रहे,
इसके लिए
आदमी निरंतर
संघर्ष और श्रम साध्य जीवन जीए
ताकि स्थिरता बनी रहे।
आदमी कभी भी
थाली का बैंगन सा न दिखे ,
वह इधर उधर लुढ़कता
किसे अच्छा लगता है ?
ऐसे आदमी से तो भगोड़ा भी
बेहतर लगता है।
सब स्थिरता के साथ जीना चाहते हैं,
वे भला कब खानाबदोश जिन्दगी को
बसर करना चाहते हैं ?
सभी स्थिर रहकर सुख ढूंढना चाहते हैं।
१०/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
जब
अचानक
क्रोध से
निकली
एक चिंगारी
बड़ी मेहनत से
श्रृंगारी जिन्दगी को
अंदर बाहर से
धधकाकर ,
आदमी की
अस्मिता को झुलसा दे
तब
आप ही बताइए
आदमी कहाँ जाए ?

मन के भीतर
असंतोष की ज्वालाएं
फूट पड़ें
अचानक
......
मन के भीतर की
कुढ़न और घुटन
बेकाबू होकर
मन के अंदर
रोक कर रखे संवेगों को
बरबस
आंखों के रास्ते
बाहर निकाल दें ...!

तब तुम ही बता दो
आदमी क्या करे?
वह कहाँ जाए ?

कभी कभी
यह जिंदगी
एक मरुभूमि के बीच
श्मशान भूमि की
कराने लगती है
प्रतीति ,
तब
रह जाती  
धरी धराई
सब प्रीति और नीति ।

ऐसे में
तुम्हीं बताओ
आदमी कहाँ जाए ?
क्या वह स्वयं के
भीतर सिमटता जाए ?

क्यों न वह !
मन में सहृदयता
और सदाशयता के
लौट आने तक
खुद के मन को समझा ले ।
यह दुर्दिन का दौर भी
जल्दी ही बीत जाएगा।
तब तक वह धैर्य धारण करे।
वह खुद को संभाल ले ।

बेशक आज
निज के अस्तित्व पर
मंडरा रहीं हैं काल की
काली काली बदलियां ,
ये भी समय बीतने के साथ
इधर उधर छिटक बिखर जाएंगी।
सूर्य की रश्मियां
फिर से अपना आभास
कराने लग जाएंगी।
बस तब तक
आदमी ठहर जाए ,
वह अपने में ठहराव लेकर आए ,
तो ही अच्छा।
वह दिख पड़े फ़िलहाल
एकदम
सीधा सादा और सच्चा।

संकट के समय
आदमी
कहीं न भागे ,
न ही चीखे चिल्लाए ,
वह खुद को शांत बनाए रखे,
मुसीबत के बादल
जिन्दगी के आकाश में
आते जाते रहते हैं ,
बस जिन्दगी बनी रहनी चाहिए।
आदमी की गर्दन
स्वाभिमान से तनी रहनी चाहिए।

१३/१२/२०२४.
63 · Nov 2024
यात्रा पथ
Joginder Singh Nov 2024
कभी-कभी
समय
यात्री से
सांझा करता है
अपने अनुभव
यात्री के ख़्वाब में आकर।

कहता है वह उससे,
" नपे तुले सधे कदमों से
किया जाना चाहिए तय
यात्रा पथ ,
बने रहकर अथक
बगैर किसी वैर भाव के
एक सैर की तरह ,
जीवन पथ पर
खुद को आगे बढ़ाकर
अपने क़दमों में गति लाकर
स्वयं के भीतर
उत्साह और जोश जगाकर ।


यात्री
सदैव आगे बढ़ें ,
अपनी पथ पर
सजग और सतर्क होकर ।
वे सतत् चलते रहें ,
भीतर अपने
मोक्ष और मुक्ति की
चाहत के भाव जगा कर ।
वे अपने लक्ष्य तक
पहुंचने की खातिर
मतवातर चलते रहें ।
जीवन पथ की राह
कभी नहीं होती आसान,
इस मार्ग में
आते हैं कई
उतार चढ़ाव।
कभी राह होती है
सीधी सपाट
और
कभी एकदम
उबड़ खाबड़ ,
इस पथ पर
मिलते हैं कभी
सर्पिल मोड़।
यात्रा यदि निर्विघ्न
करनी हो संपन्न ,
तो यात्री रखें ,
स्वयं को तटस्थ।
एकदम मोह माया से
हो जाएं निर्लिप्त।"

यात्री को हुआ
ऐसा कुछ प्रतीत,
मानो समय
कहना चाहता हो
उससे कि वह
चले अपने यात्रा पथ पर ,
सोच संभलकर।
नपे तुले सधे कदमों से
वह बिना रुके, चलता चले।
जब तक मंज़िल न मिले।

यात्री मन के भीतर
यह सोच रहा था कि
समय, जिसे ईश्वर भी कहते हैं।
सब पर बहा जा रहा है ,
काल का बहाव
सभी को
अपनी भीतर बहाकर
ले जा रहा है,
उन्हें उनकी नियति तक
चुपचाप लेकर जा रहा है।

सो वह आगे बढ़ता रहेगा,
सुबह ,दोपहर ,शाम
और यहां तक
रात्रि को
सोने से पहले
परमेश्वर को याद करता रहेगा।
यात्रा की स्मृतियों के दीपक को
अपनी चेतना में जाजवल्यमान रखकर।


यात्री को यह भी लगा कि
कभी-कभी खुद समय भी
उसके सम्मुख
एक बाधा बन कर
खड़ा हो जाता है।
कभी यह अनुकूल
तो कभी यह
प्रतिकूल हो जाता है।
ऐसे में आदमी
अपना मूल भूल जाता है।
कभी-कभी
पथिक
बगैर ध्यान दिए चलने से
घायल भी हो जाता है।

उसे  हर समय यात्रा पथ पर
स्वयं को आगे बढ़ाना है।
कभी-कभी
यह यात्रा पथ
अति मुश्किल लगने लग जाता है,
मन के भीतर
दुःख ,पीड़ा ,दर्द की
लहरें उठने लगती हैं ,
जो यात्रा पथ में
बाधाएं
पैदा करती हैं।


समय
पथिक की दुविधा को
झट से समझ गया
और
ऐसे में
तत्क्षण
उसने यात्री को
संबोधित कर कहा,
"अपनों या परायों के संग
या फिर उनके बगैर
रहकर निस्संग
जीवन धारा के साथ बह।
अन्याय, पीड़ा ,उत्पीड़न को
सतत् सहते सहते, सभी को
तय करना होता है , जीवन पथ।"

समय के मुखारविंद से
ये दिशा निर्देश सुनकर ,
समय के रूबरू होकर ,
पथिक ने किया यह विचार कि
' अब मैं चलूंगा निरंतर
अपने जीवन पथ पर ,संभल कर।'


पथिक समय के समानांतर
अपने क़दम बढ़ाकर
चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर।
उसे लगा यह जीवन है ,
एक अद्भुत संघर्ष कथा ,
जहां व्याप्त है मानवीय व्यथा।
नपे तुले सधे कदमों के बल पर,
लड़ा जाना चाहिए ,जीवन रण यहां पर ।

यात्री अपने पथ पर चलते-चलते
कर रहा था विचार कि अब उसे सजगता से
अपनी राह चलना होगा, हताशा निराशा को कुचलना होगा।
तभी वह अपनी मंज़िल तक निर्विघ्न पहुंच पाएगा।
अपनी यात्रा सुख पूर्वक सहजता से संपन्न कर पाएगा।


समय करना चाहता है,
जीवन पथ पर चल रहे यात्रियों को आगाह,
अपनी यात्रा करते समय ,वे हों न कभी ,बेपरवाह,
समय का दरिया , महाकाल के विशालकाय समंदर में
करता रहा है अपनी को लीन,
मानव समझे आज, उसके ,
स्वयं के कारण, कभी न बाधित हो,
समय चेतना का प्रवाह।

समय की नदी से ही गुज़र कर,
इंसान बनते प्रबुद्ध, शुद्ध, एकदम खालिस जी ।
फिर ही हो सकते हैं वे, काल संबंधी चिंतन में शामिल जी।

अब समय नपे तुले सधे क़दम आगे बढ़ाकर।
संघर्ष की ज्वालाओं को,
सोए हुओं में जगा कर ।
तोड़ेगा अंधविश्वासों के बंधन,
ताकि रुके क्रंदन जीवन पथ पर।
समय अपना राग पथिकों को सुनाकर,
कर सके मानवीय जिजीविषा का अभिनंदन।

०९/१२/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
हर हाल में
उम्मीद का दामन
न छोड़, मेरे दोस्त!
यह उम्मीद  ही है
जिसने साधारण को
असाधारण तो बनाया ही है ,
बल्कि
जीवन को
जीवंत बनाए रखा है ।
इसके साथ ही
बेजोड़ !
बेखोट!
एकदम कुंदन सरीखा !
अनमोल और उम्दा !
साथ ही  तिलिस्म से भरपूर ।
उम्मीद ने ही
जीवन को
नख से शिख तक ,
रहस्यमय और मायावी सा
निर्मित किया है,
जिसने मानव जीवन में
एक नया उत्साह भरा है।

उम्मीद ही
भविष्य को संरक्षित करती है,
यह चेतन की ऊर्जा  सरीखी है।
यह सबसे यही कहती है कि
अभी
जीवन में
बेहतरीन का आगाज़
होना है ,
तो फिर
क्यों न इंसान
सद्कर्म करें!
वह चिंतातुर क्यों रहे?
क्यों न वह
स्वयं के भीतर उतरकर
श्रेष्ठतम जीवन धारा में बहे !
संवेदना के
स्पंदनों को अनुभूत करे !!
62 · Jan 7
ਮੁਕਾਮ
ਮੁੱਕਿਆ ਕੰਮ ,
ਹੁਣ ਕੁਝ ਮਿਲਿਆ ਆਰਾਮ।
ਪਰ ਰੁਕੀਂ ਨਾ ਮਿੱਤਰਾ !
ਹਾਸਿਲ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ
ਹੁਣ ਤੱਕ ਮੁਕਾਮ।
ਕੰਮ ਨੇ ਤਾਂ ਮੁੜ ਘਿਰ ਫਿਰ ਕੇ
ਫਿਰ ਆ ਜਾਣਾ ਹੈ ,
ਬੰਦਾ ਆਪਣੇ ਕੰਮਾਂ ਵਿੱਚ
ਹਮੇਸ਼ਾ ਰੁਝਿਆ ਰਹਿਗਾ,
ਆਖਿਰ ਕਦੋਂ ਉਹ
ਆਪਣੀਆਂ ਰੀਝਾਂ ਤੇ ਸੱਧਰਾਂ ਨੂੰ
ਪੁਰਾ ਕਰੇਗਾ ?
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਅੱਗੇ ਵਧੇਗਾ।
ਆਪਣੇ ਮੁਕਾਮ ਨੂੰ
ਹਾਸਿਲ ਕਰਨ ਲਈ
ਵੱਧ ਚੜ੍ਹ ਕੇ ਕੰਮ ਕਰੇਗਾ।
ਉਹ ਕਦੀ ਅਵੇਸਲਾ ਨਹੀਂ ਬਣੇਗਾ।
ਉਹ ਵਿਹਲੜ ਰਹਿ ਕੇ
ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਵਿੱਚ ਭਟਕਦਿਆਂ ਹੋਇਆ
ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ੀਆਂ ਤੋਂ
ਵਾਂਝਾ ਨਹੀਂ ਕਰੇਗਾ।
07/01/2025.
Joginder Singh Nov 2024
वह आदमी
जो अभी अभी
तुम्हारी बगल से निकला है ।
एक आदमी भर नहीं,
एक खुली किताब भी है।

दिमाग उसके में
हर समय चलता रहता
हिसाब-किताब  है ,
वह ज़िंदगी की बारीकियां को
जानने ,समझने के लिए रहा बेताब है,
उस जैसा होना
किसी का भी
बन सकता ख़्वाब है,
चाल ढाल, पहनने ओढ़ने,
खाने पीने, रहने सहने, का अंदाज़
बना देता उसे नवाब है।
वह सच में
एक खुली किताब है।

तुम्हें आज
उसे पढ़ना है,
उससे लड़ना नहीं।
वह कुछ भी कहे,
कहता रहे,
बस !उससे डरना नहीं ।
वह इंसान है , हैवान नहीं ।
उम्मीद है ,तुम उसे ,अच्छे से ,पढ़ोगे सही ।
न कि ढूंढते रहोगे, उस पूरी किताब के
किरदार में , कोई कमी।
जो तुम अक्सर करते आए हो
और जिंदगी में
खुली किताबों को
पढ़ नहीं पाए हो।
पढ़े लिखे होने के बावजूद
अनपढ़ रह गए हो।
बहुत से अजाब सह रहे हो।

३०/११/२०२४.
छोटी और लाडली कार को
होली का कोई हुड़दंगी
चोट पहुँचा गया
जब अचानक,
दर्द से बेहाल
अंदर से
आवाज़
आई तब,
"होली मुबारक !"
मन में
उस समय
क्रोध उत्पन्न हुआ ,
मैं थोड़ा सा खिन्न हुआ !
मैंने खुद से  कहा ,
" कमबख्त पाँच हज़ार की
चपत लगा गया !
होली के दिन
मन के भीतर
सुख सुविधा से उत्पन्न
अहंकार की वाट लगा गया !"
मेरी तो होली हो ली जी!
अब सी सी कर के
क्या मिलेगा जी!
यह सोच मन को समझा लिया
और पल भर में
दुनियादारी में
मन लगा
लिया।
१४/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
कभी
किसी
चिड़िया को
चिड़चिड़ाते
देखा है?
नहीं तो!
फिर तो तुम
दिल से चहका करो।
कभी बहका न करो।
ओ चिड़चिड़े! ओए...चि...डे...
भीतर कुछ कुढ़न हुई ,
जैसे अचानक चुभे सूई ।

अचानक
घर के आंगन में
एक चिड़िया कीट खाती हुई
दिख पड़ी।
लगा मुझे कि वह
मुझसे कह रही है,..
'अरे चिड़चिड़े !चहक जरा।
चहकने से , जीवन रहता, महक भरा।
एकदम चहल पहल भरा।'

यह सब मेरा भ्रम था।
शायद मन के भीतर से
कोई चिड़िया चहक उठी थी।
मेरी उदासीनता कुछ खत्म हुई थी ।
मैंने अपने मन की आवाज जो सुन ली थी ।

मैंने अपनी आंखें खोलीं।
घर के आंगन में धूप खिली थी।
वह चिड़िया किसी कल्पना लोक में चली गई थी।

१९/०६/२०१८.
62 · Dec 2024
जंगल
Joginder Singh Dec 2024
जंगल में मंगल अमंगल
परस्पर एक दूसरे से
गुत्थमगुत्था हुए
करते रहते हैं अठखेलियां।

वहां कैक्टस सरीखी वनस्पति भी है,
तो बांस जैसी लंबी घास भी,
विविधता से भरपूर वृक्ष, झाड़ झंखाड भी।
इन जंगलों में पाप पुण्य से इतर
जीव जगत के मध्य चलता रहता है संघर्ष।
जैसे अचानक कहीं फूल खिल जाए ,
और अप्रत्याशित रूप से
कोई जीवन बुझ जाए ,
यहां हवा के चलने  से
सूखे और मुरझाए पत्ते
मतवातर गिरते जाएं
और वह पगडंडियों को
धीरे-धीरे लें ढक।


अब शहर जंगल सा हो गया है ,
जहां जीवन तेजी से रहा है भाग
सब एक आपाधापी में खोए हैं ।
इसी शहर में कभी-कभी
कोई विरला व्यक्ति
बहुत धीमी गति से
चलता दिखाई देता है ।
मुझे वह आदमी
जंगल का रखवाला सा प्रतीत होता है।

कभी-कभी इस जंगल में
कोई बालक धीरे-धीरे
अपने ही अंदाज से चलता दिखाई देता है,
कभी धीरे, कभी तेज़,कभी रुक गया,कभी भाग गया।
उसे देख मन में आता है ख़्याल
कि क्या कभी यह  नन्हा सा फूल
इस शहरी जंगल की आपाधापी के बीच
ढंग से खेल पाएगा ,या असमय
नन्हे कंधों पर महत्वाकांक्षा की गठरी लादे जाने से
किसी पत्ते जैसा होकर नीचे तो नहीं गिर जाएगा?
वह किसी बेपरवाह के पैरों के नीचे तो नहीं दब जाएगा ?


जंगल अब शहर में गमलों तक गया है सिमट।
जैसे अच्छी खासी जिंदगी
जो कभी जंगल की खुली हवा में पली-बढ़ी थी।
गांव से शहर आने के बाद  
दफ्तर और घर तक तक सीमित होकर रह जाए।
वह वहीं घुट घुट कर एक दिन जगत से निपट जाए।

अच्छा रहेगा ,  दोस्त !
अपने भीतर के कपाट खोले जाएं ।
स्मृति के झरोखों को खोल कर
अपना विस्मृत हुआ जंगल, जानवर और पंछी
फिर से अपने आसपास खोजें जाएं ।

प्राकृतिक जंगल में
जहां
सब कुछ बंधन मुक्त रूप से  
होता है घटित ,
वहीं
शहरी जंगल में
सब कुछ बंधा बंधा सा,
सब कुछ घुटा घुटा सा
होता है घटित।

कमबख्त आदमी
कभी भी
शहरी जंगल में
सुखी नहीं रह पाता है ,
और  कभी सुख का सांस नहीं ले पाता है,
वह तो असमय
एक मुरझाया फूल बनकर रह जाता है
जो हर समय
अपनी बचपन के जंगलों के
ख्वाब लेता रहता है।
०६/१२/२०२४.
अचानक
दादा को अपने पोते की
आठ पासपोर्ट साइज तस्वीरें
फटी हुई अवस्था में
मिल गईं थीं।
उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगा
कि जिसे बड़े प्यार से,
भाव भीने दुलार से जीवन में
खेलाया और खिलाया हो ,
उसकी तस्वीरें
जीर्ण शीर्ण
लावारिस हालत में पड़ीं हों।
उन्हें यह सब पसंद नहीं था ,
सो उन्होंने अपने पुत्र को बुलाया।
एक पिता होने के कर्त्तव्य के बाबत समझाया
और तस्वीरों को जोड़ने का आदेश सुनाया।
फिर क्या था
पिता काम पर जुट गया
और उसने उन तस्वीरों को जोड़ने का
किया चुपके चुपके से प्रयास।
किसी हद तक
तस्वीरें ठीक ठाक जुड़ भी गईं।
उसने अपने पिता को दिखाया और कहा,
" अब ये काम में आने से रहीं ।
बेशक ये जुड़ गईं हैं,
फिर भी फटी होने की गवाही देती लगती हैं।"
यह सुन कर
दादा ने अपने पोते की बाबत कहा ,
"बेशक अब वह बड़ा हो गया है।
स्कूल के दौर की ये तस्वीरें
उसे बिना किसी काम की
और बेकार लगातीं हों।
फिर भी उसे इन्हें फाड़ना नहीं चाहिए था।
तस्वीरों में भी बीते समय की पहचान होती है।
ये जीवन के एक पड़ाव को इंगित करतीं हैं।
अतः इन्हें समय रहते संभाला जाना चाहिए ,
बेकार समझ फाड़ा नहीं जाना चाहिए।
अच्छा अब इन्हें एक मोटी पुस्तक के नीचे दबा दे ,
ताकि ये तस्वीरें ढंग से जुड़ सकें।"

पुत्र ने पिता की बात मान ली।
तस्वीरों को एक मोटी पुस्तक के नीचे दबा दिया।
पुत्र मन में सोच रहा था कि
दादा को मूल से ज़्यादा ब्याज से
प्यार हो जाता है।
वह भी इस हद तक कि
पोते की जीर्ण शीर्ण तस्वीर तक
दादा को आहत करती है।
उन्हें भविष्य की आहट भी
विचलित नहीं कर पाती
क्योंकि दादा अपना भावी जीवन
पोते के उज्ज्वल भविष्य के रूप में जीना चाहता है।
उन्हें भली भांति है विदित
कि प्रस्थान वेला अटल है
और युवा पीढ़ी का भविष्य निर्माण भी
अति महत्वपूर्ण है।

सबसे बढ़ कर जीवन का सच
एक समय बड़े बुजुर्ग
न जाने कब
बन जाते हैं सुरक्षा कवच !
यही नहीं
उनमें अनिष्ट की आशंका भी भर जाती है,
पर वे कहते कुछ नहीं ,
हालात अनुसार
जीवन के घटनाक्रम को
करते रहते हैं मतवातर सही।
यही उनकी दृष्टि में जीवन का लेखा जोखा।
बुजुर्गों की सोच को  
सब समझें
और दें जीने का मौका ;
न दें उन्हें भूल कर भी धोखा।
बहुत से बुजुर्गों को
वृद्धाश्रम में निर्वासित जीवन जीने को
बाध्य किया जाता है।
उनका सीधा सादा जीवन कष्ट साध्य बन जाता है।
किसी हद तक
जीर्ण शीर्ण तस्वीर की तरह!
इसे ठीक ठाक कर पटरी पर लाया जाना चाहिए।
जीवन को गंतव्य पथ पर
सलीके से बढ़ाया जाना चाहिए।
१३/०२/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
देश
अलगाव
नहीं चाहता ।

देश
विकास को
वरना है चाहता ।


कोई कोई
घटना दुर्घटना
गले की फांस बनकर
देश को तकलीफ़ है देती।
करने लगती
उसके विश्वास पर चोट ,
हर एक चेहरे पर
नज़र आने लगती खोट ।


देश
अलगाव
नहीं चाहता ।


देश
दुराव छिपाव
कतई नहीं चाहता।


काश !
देश के हर बाशिंदे का चेहरा
पाक साफ़ रह पाता ।
फिर कैसे नहीं
हरेक जीवात्मा
प्रसन्नता को वर पाती?
अपनी जड़ों और मंसूबों को समझ पाती ?


काश !
सबने देश की आकांक्षा,
अंतर्व्यथा को समझा होता
तो अलगाव का बखेड़ा
खड़ा ही न होता ।
देश में संतुलित विकास  होता ।

२६/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
मूल्य विघटन के
दौर में
नहीं चाहते लोग जागना ,
वे डरते हैं
तो बस
भीतरी शोर से।

बाह्य शोर
भले ही उन्हें
पगला दे!
बहरा बना दे!!
ध्वनि प्रदूषण में
वे सतत इज़ाफ़ा करते हैं।
बिन आई मौत का
आलिंगन करते हैं।
पर नहीं चेताते,
न ही स्वयं जागते,
सहज ही
वे बने
रहते घाघ जी!
मूल्य विघटन के
दौर में
बुराई और खलनायकों का
बढ़ रहा है दबदबा और प्रभाव,
और...
सच, अच्छाई और सज्जनों का
खटक रहा है अभाव।
लोग
डर, भय और कानून
जड़ से भूले हैं,
आदमियत के पहरेदार तक
अब बन बैठे
लंगड़े लूले हैं।
कहीं गहरे तक पंगु!
वे लटक रहे हवा में
बने हुए हैं त्रिशंकु!!
अब
कहना पड़ रहा है
जनता जनार्दन की बाबत,
अभी नहीं जगे तो
शीघ्र आ जाएगी सबकी शामत।
लोग /अब लगने लगे हैं/ त्रिशंकु सरीखे,
जो खाते फिरते
बेशर्मी से धक्के!
घर,बाहर, बाजारों में!!
त्रिशंकु सरीखे लोग
कैसे मनाए अब ?
आदमियत की मृत्यु का शोक!
जड़ विहीन, एकदम संवेदना रहित होंगे
उन्हें  हो गया है विश्व व्यापी रोग!!
   १६/०२/२०१०.
Joginder Singh Nov 2024
तुम्हें मुझ से
काम है,
पर
पास नहीं दाम है।


इससे पहले कि
क्रोध का ज्वर चढ़े,
मेरे भाई, तू भाग ले ।
दुम दबाकर भाग ले ।
कुत्ते कहीं के।


अचानक
जिंदगी में
यह सब सुना
तो पता नहीं क्यों?
मैं चुप रहा।
मुझे डर घेर रहा।


सोचा
कब उससे
लड़ने का साहस जुटाऊंगा ?
कभी अपने पैरों पर
खड़ा हो पाऊंगा भी कि नहीं  ?
या फिर
पहले पहल
व्यवस्था को कोसता
देखा जाऊंगा
और फिर
व्यवस्था के भीतर
घुसपैठ कर
दुम हिलाऊंगा ।


सच ! मैं अनिश्चय में हूं।
अर्से से  किंकर्तव्यविमूढ़!
कहीं गहरे तक जड़!!
२३/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
बच्चो !
नकल यदि तुम करोगे ,
नकली तुम खुद को करोगे।


देता हूं यदि मैं तुम्हें
असलियत से
कोसों दूर
कभी
नकली प्यार दुलार!
तुम्हें लुभाने की खातिर
मतलब की चाशनी से सराबोर
चमक दमक के आवरण से
लिपटा कोई उपहार
तो समझिए
मैंने दिया आपको धोखा।
छीन लिया है तुमसे कुछ करने का मौका।


बच्चो!
कभी न कभी करता है
सौ सौ पर्दों में छुपा झूठ
स्वयं को प्रकट
तब छल कपट
स्वत:
होते उजागर ।
ऐसे में
पहुंचता मन को दुःख।
सामने आ जाता है यकायक ,
नकली उपहार मिलने का सच।
कैसे न मन को पहुंचे ठेस ?
कैसे ना मन में पैदा हो
कलह और क्लेश ?
इस समय
आदमी ही नहीं,
आदमियत तक
लगने लगती
धन लोलुप सौदागर ।


बच्चो !
यदि नकल तुम करोगे।
नकली तुम बनोगे।

तुम मां-बाप ,
देश और समाज को डसोगे ।

आज
तुम खुद से
करो ये
वायदे कि
कभी भी
भूल से भी
नकल नहीं करोगे ।
जिंदगी में  नकली
कभी न बनोगे ।
सच के पथ पर
हमेशा चलोगे।
जीवन में मतवातर
आगे बढ़ोगे।
कभी आपस में नहीं लड़ोगे
और परस्पर गले मिलोगे।

०१/०३/२०१३.
परीक्षा में नकल करने की प्रवृत्ति को रोकने और इस के दुष्परिणामों से बचने,बचाने के नजरिए से लिखी गई कविता।
Joginder Singh Nov 2024
असंतोष की लपटों से घिरा आदमी
छल प्रपंच,उठा पटक के चलते
क्या कभी ऊपर उठ पाएगा?
वह अपने पैरों पर  खड़ा होने की
क्या कभी हिम्मत वह जुटा पाएगा ?


तुम उसके भविष्य को लेकर
दिन रात चिंतित रहते हो।
यदि तुम उसका भला चाहते हो ,
तो कर दो भय दूर उसके भीतर से।
देखना वह स्वत: साहसी हो जाएगा।
सच्चा साथी बनकर सबको दिखाएगा।
बशर्ते तुम भी उसकी तरह संजीदा रहो।
उस के साथ इंसाफ की आवाज उठाते रहो।
हाथों में थाम कर मशाल
उसके साथ साथ चल सको।
62 · Nov 2024
Waiting
Joginder Singh Nov 2024
Dead bodies are   waiting
for creameation in the battlefield of life.
But nobody is available near them to clean and clear their scattered body parts.
All are busy in their routine activities.
How can they take care of them ?
There is no information regarding their death.There is no rhythm,no movements ,no feelings in their deadly surrounding.
They all are victims.... living or dead...of an insensitive world.


Among them
we also are some ones who have completely  forgotten their sincere efforts and sensitiveness.
We have lost our credibility for them...
who has lost their lives for the petty interests of their countrymen.
Joginder Singh Nov 2024
तुम:  नाम में क्या रखा है?

मैं :सब कुछ!
   यह अदृश्य पहचान का जो ताज सब के सिर पर रखा है।
    यह नाम ही तो है।
तुम: ‌ठीक ।
  ‌    काम से होती है जिस की पहचान,वह नाम ही तो है।
      यह न मिले तो आदमी रहे परेशान, वाह,नाम ही तो है।
    ‌‌  जो सब को भटकाता है।
      ‌ ‌यह बेसब्री का बनता सबब।
मैं:सो तो है, नाम विहीन आदमी सोता रह जाता है।
‌     उस के हिस्से के मौके कोई अनाम खा जाता है।
      ऐसा आदमी मतवातर भीड़ में खो जाता है।
  तुम: खोया आदमी! सोया आदमी!!
        किसी काम धाम का नहीं जी!
        करो उसकी अस्मिता की खोज जी।
     ‌    कहीं हार न जाए, वह जीवन की बाजी।
   मैं : इससे पहले आदमी भीड़ में खो जाए ।
        उसकी भाड़ में जाए , वाली सोच बदली जाए।
        यही है उस   की मानसिकता में बदलाव लाने का
         तरीक़ा।
    तुम: सब कुछ सच सच कहा जी।
          क्या वह इसके लिए होगा राजी?
      मैं: आदमी जीवन में पहचान बनाने में जुटे ।
         इस के लिए वह अपनी जड़ों से नाता जोड़े ।
           ऐसी परिस्थिति पैदा होने से उसका वजूद बचेगा।
              वरना वह यूं ही मारा मारा भटकता फिरेगा।
Joginder Singh Dec 2024
किसी भी तरह से
किसी किताब पर
लगना नहीं चाहिए
कोई भी प्रतिबंध।
यह सीधे सीधे
व्यक्तिगत आज़ादी पर रोक लगाना है।
बल्कि किताब तो समय के काले दौर को
आईना दिखाना भर है।
यह जरूरी नहीं कि हर कोई
प्रतिबंधित किताब को पढ़ेगा।
कोई जिज्ञासा के वशीभूत होकर इसे पढ़ेगा।
जिज्ञासू कभी नियंत्रण से बाहर नहीं जाएगा।
हां, वह कितना ही अच्छा या फिर बुरा हो,
वह देश ,समाज और दुनिया भर के खिलाफ़
अपनी टिप्पणी का इन्दराज करने से बचना चाहेगा।
कोई किसी के बहकावे और उकसावे में आकर
क्यों अपनी ज़िन्दगी को उलझाएगा ?
अपने शांत और तनाव मुक्त जीवन में आग लगाना चाहेगा।
प्रतिबंधित किताब को पढ़ने की आज़ादी सब को दो।
आदमी के विवेक और अस्मिता पर कभी तो भरोसा करो।
आदमी कभी भी इतना बेवकूफ नहीं रहा कि वह अपना घर-बार छोड़कर आत्मघाती कदम उठा ले।
यदि कोई ऐसा दुस्साहस करे
तो उसे कोई क्या समझा ले ?
ऐसे आदमी को यमराज अपनी शरण में बुला ले।
३१/१२/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
व्यथित मन
आजकल मनमानियों पर
उतारू है,
इस ने बनाया हुआ
बहुतों को
बीमारू है।
उसके अंदर व्याप्त
प्रदूषण पर कैसे रोक लगे।
आओ,इस बाबत जरा बात करें ।
मन के भीतर का
सूख चुका जंगल तनिक हो सके हरा भरा।

मन के प्रदूषण पर रोक लगे,
कुछ तो हो कि
मानव का व्यक्तित्व
आकर्षण का केंद्र बने ।

जब मन
मनमानियां करने लगे,
और आदमी
अनुशासन भंग करने लगे ,
तो कैसे नहीं ?
आदमी औंधे मुँह गिरे!
फिर तो मतवातर
भीतर डर भरे।
अब सब सोचें,
मन की मनमानी कैसे रुके?

मन की उच्छृंखलता पर
लगाम कसने की
सब कोशिश करें,
ताकि आदमी
सच से नाता जोड़ सके,
और वह पूर्ववत के
अपने अधूरे छूट चुके कामों को
निष्पादित करने का यत्न करे।

इसी प्रक्रिया से आदमी निज को गुजारे।
उसके भीतर
खोया हुआ आत्मविश्वास लौटे
और शनै: शनै:
उसकी मनोदशा में सुधार हो,
वह आगे बढ़ने के लिए तैयार हो।

उसके मन की संपन्नता बढ़े,
और मन में जो मुफलिसी के ख्यालात भर चुके हैं,
वे धीरे धीरे से समाप्त हों।
मन के आकाश में से
दुश्चिंतता,अनिश्चितता, अस्पष्टता,
अंधेरे के बादल
छंटने लगें,
मन के भीतर
फिर से
उजास भर जाए।
सब आगे बढ़ने के प्रयास करते जाएं।

मन का उदास जंगल
फिर से खिल उठे,
सब इस खातिर प्रयास करें।
आओ,इस मुरझाए
मन के जंगल में
हरियाली के बीज फैलाएं।
यह हरा भरा होता चला जाए।

आओ,
मन के जंगल में
कुछ
प्रसन्नता, संपन्नता की खाद डालकर ,
वहां अंकुरित बीजों को
सुरक्षा का आवरण प्रदान करें,
ताकि वहां शांति वन बनाया जा सके।

कालांतर में
यही वन
व्यक्ति,समाज,देश को
अशांति, दुःख,दर्द, मुफलिसी के दौर में
तेज तीखी धूप में
छाया देते प्रतीत हों।
मन में कुछ ठंडक महसूस हो।

जब मन के भीतर खुशियां भर जाती हैं,
तब मन को नियंत्रित करना सरल है,
मन के भीतर से कड़वाहट खत्म होती जाती है,
एक पल सुख सुकून का भी आता है,
उस समय मन की मनमानी पर रोक लग ही जाती है।
और मन का वातावरण
हरियाली के बढ़ने,
पुष्पों के खिलने,
परिंदों के चहकने,
बयार के चलने से
सुवासित हो जाता है।
मन के भीतर कमल खिल जाता है!
आदमी स्वत: खिल खिल जाता है।!!
यह सब कुछ
भीतर के ताप को
कम कर देता है।
आदमी शीतलता की अनुभूति करता है।
धीरे धीरे मन के प्रदूषण पर रोक लग जाती है।
मन के भीतर सकारात्मकता भर जाती है।
आदमी  के मन की मरुभूमि
नखलिस्तान सरीखी हो जाती है।
हर किसी की सोच बदल जाती है।
मन का प्रदूषण दूर हुआ तो
अमन चैन की दुनिया घर में बस जाती है।
ऐसे में
संपन्नता की खनक भी सुनी जाती है।
अभी अभी
पढ़ा है कि
देश दुनिया में
फेक न्यूज़ मेकर्स की
भरमार है।
जो अराजकता को
बढ़ावा देते हैं  
और
कर देते हैं
जन साधारण को
भ्रामक जानकारी से
बीमार,
बात बात पर
भड़कने वाले !
लड़ने झगड़ने पर
उतारू!

ऐसी फेक न्यूज़ से
बनते हैं फेक व्यूज़ !
त्रासदी है कि
ग़लत धारणा
बेशक
बाज़ार में
अधिक समय तक
नहीं टिकती ,
यह चेतना की
खिड़की को
कर देती हैं बंद!
आदमी
अपने को
मानता रहता है
चुस्त चालाक व अक्लमंद।
वह इसके सच से
कभी रूबरू नहीं हो पाता,
वह झूठ को ही है
सच समझता रहता।
ऐसे लोगों से कैसे बचा जाए ?
सोचिए समझिए ज़रा
फेक न्यूज को कैसे नकारा जाए ?
ताकि अपने को सच से जोड़े रखा जा सके।
किसी भी किस्म की
भ्रम दुविधा से बचा जा सके।
१२/०४/२०२५.
ऋण लेकर
घी पीना ठीक नहीं ,
बेशक बहुत से लोग
खुशियों को बटोरने के लिए
इस विधि को अपनाते हैं।
वे इसे लौटाएंगे ही नहीं!
ऋणप्रदाता जो मर्ज़ी कर ले,
वे बेशर्मी से जीवन को जीते हैं।
ऋण लौटाने की कोई बात करे
तो वे लठ लेकर पीछे पड़ जाते हैं।
ऐसे लोगों से निपटने के लिए
बाउंसर्स, वकील, क़ानून की मदद ली जाती है ,
फिर भी अपेक्षित ऋण वसूली नहीं हो पाती है।

कुछ शरीफ़ इंसान अव्वल तो ऋण लेते ही नहीं,
यदि ले ही लिया तो उसे लौटाते हैं।
ऐसे लोगों से ही ऋण का व्यापार चलता है,
अर्थ व्यवस्था का पहिया विकास की ओर बढ़ता है।

ऋण लेना भी ज़रूरी है।
बशर्ते इसे समय पर लौटा दिया जाए।
ताकि यह निरन्तर लोगों के काम में आता जाए।

कभी कभी ऋण न लौटाने पर
सहन करना पड़ता है भारी अपमान।
धूल में मिल जाता है मान सम्मान ,
आदमी का ही नहीं देश दुनिया तक का।
देश दुनिया, समाज, परिवार,व्यक्ति को लगता है धक्का।
कोई भी उन पर लगा देता है पाबंदियां,
चुपके से पहना देता है अदृश्य बेड़ियां।
आज कमोबेश बहुतों ने इसे पहना हुआ है
और वे इस ऋण के मकड़जाल से हैं त्रस्त,
जिसने फैला दी है अराजकता,अस्त व्यस्तता,उथल पुथल।

हो सके तो इस ऋण मुक्ति के करें सब प्रयास !
ताकि मिल सके सभी को,
क्या व्यक्ति और क्या देश को, सुख की सांस !!
सभी को हो सके सुख समृद्धि और संपन्नता का अहसास!!
१७/०१/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
चापलूस
कभी भी चले हुए
कारतूस नहीं होते।
जब वे चलते हैं
तो बड़ी तबाही करते हैं ।

यह यक़ीन जानिए।
वे जिसकी की जी हजूरी करते हैं,
उसे ही सब से पहले चलता करते हैं।
चापलूस से बचिए।
अपना काम संभल कर कीजिए।
मेहनतकश को प्रोत्साहित जरूर कीजिए।
उसे समुचित मेहनताना दीजिए।


जो कुछ आप काम करते हैं।
जिनके दम पर आप आगे बढ़ें हैं।
नाम और दाम कमाते हैं।
वह सारा काम कोल्हू के बैल करते हैं,
दिन रात अविराम मेहनत करते हैं।

चापलूस उनकी राह में रोड़े अटकाते हैं,
मौका मिलने पर निंदा चुगली कर उन्हें भगाते हैं।

आप बेशक चापलूसी करने वाले से खुश रहते हैं।
आप यह भी जानते हैं, वह जिंदा बम भी हैं,
पिस्तौल भी हैं और कारतूस भी।
वे चल भी जाते हैं और चलवा भी देते हैं।
आप कभी एक बम , पिस्तौल,कारतूस में बदल जाते हैं।
अपने वफादार को नुक्सान पहुंचा देते हैं,
इसे आप भी नहीं जान पाते।

आप चापलूसों से बच सकें तो बचिए।
कम से कम खुद को तो न एक कठपुतली बनाएं।

हो सके तो चापलूस की जासूसी करवाएं।
उसके खतरनाक मनसूबों से खुद को समय रहते बचाएं।
चापलूस सब को खुश रखते हैं,
बेशक बढ़िया कारगुज़ारी तो कोहलू के बैल ही कर पाते हैं।

निर्णय आप को करना है।
इन बमों ,पिस्तौलों और कारतूसों का क्या करना है ?
ये चापलूस बड़े शातिर और ख़तरनाक हैं।....
...और साथ अव्वल दर्जे के नाकाबिल,नाबरदाश्त, नालायक जी...वे जी,जी, करने वाले उस्ताद भी।
ये उस्तरे से होते हैं,
देखते ही देखते अपने काम को अंजाम दे देते हैं।
ये बड़ों बड़ों को औंधे मुंह गिरा देते हैं जी ।
जीवन बेइंतहा दौड़ धूप से
कहीं एक तमाशा न लगने लग जाए ,
इससे पहले ही अपने हृदय के भीतर
आशा के फूल खिलाओ।
ये सुगंधित पुष्प सहज रहने से
जीवन वाटिका में लेते हैं आकार
अतः स्वयं को व्यर्थ की भाग दौड़ से बचाओ।
निज जीवन धारा में निखार लाकर
अपने को मानसिक तौर से भी
स्वच्छ और उज्ज्वल बनाने में सक्षम बनाओ।
इसलिए श्रम साध्य जीवन शैली
और सार्थक सोच को
अपने व्यक्त्तिव के भीतर विकसित करो।
जीवन के उतार चढ़ावों से न डरते फिरो।
अपने आप को सुख समृद्धि
और संपन्नता से भरपूर करो।
जीवन निराशा और हताशा की गर्त में न डूब जाए ,
इसे ध्यान में रखकर अपने जीवन को सार्थक बनाओ।
अपने और दूसरों के जीवन में सहयोग से
जीवन में ऊर्जा, सद्भावना
और जिजीविषा की सुगंध फैलाओ।
सदैव मन में आशा के पुष्प खिलाओ।
१४/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
झूठ बोलने से पहले
थोड़ा थूक गटक गया
तो क्या बुरा किया ?
कम से कम
मैं एक क्षण के लिए
सच को तो जिया।

यह अलग बात रही--
जिसके खिलाफ
अपने इस सच का
पैंतरा फैंका था ,
वह अपनी अक्लमंदी से बरी हुआ,
मुझे अक्लबंद सिद्ध कर विजयी रहा।


सच्ची झूठी इस दुनिया में
आते हैं बेहिसाब उतार चढ़ाव
आदमी रखे एक अहम हिसाब--
किस राह पर है समय का बहाव ?
जिसने यह सीख लिया
उसने जीवन की सार्थकता को समझ लिया।
उसने ही जीवन को भरपूर शिद्दत से जिया।
और इस जीवन घट में आनंद भर लिया।
१६/०६/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
यहाँ
झूठ के सौदागर
क़दम क़दम पर
मिलते हैं !

सच कभी
आसानी से बिकता नहीं ,
सो सब इसे
अपने पास रखने से
डरते हैं !!

सच पास रहेगा
तो कभी काम आएगा
क्या कमी रह गई जीवन में है ?
इसका अहसास कराएगा !
यह किसी विरले को भाएगा !!

यह नितांत सच है
कि यहाँ सच के पैरवीकार भी
मिलते हैं !
जो अपनी जान देने से
कभी पीछे नहीं
हटते हैं !!

झूठ के सौदागर की भी
कभी हार हो ;
इसकी खातिर
क्या तुम तैयार हो ?

तुम सच
अपने पास रखे रहो ।
तुम झूठ बोलने से करो परहेज़
ताकि यह जिन्दगी
बने  न कभी
झूठ , लड़ाई झगड़े की मानिंद
सनसनी खेज़।

दुनिया के बाज़ार में
बेशक झूठ धड़ल्ले से बिकता है!
पर यह भी तो सच है कि
यहाँ सच भी  अनमोल बना रहता है।
वह भला बिक सकता है ?

सच कभी खुद को
बेचने को उद्यत नहीं होता ।
यह कभी छल नहीं करता !
यह आदमी को
कल ,आज और कल के लिए
संयम अपनाने ,
सदैव तैयार रहने ,की खातिर
उद्यम दिन रात करता है।
तभी सच झूठी दुनिया में अपनी मौजूदगी का
अहसास करा पाता है।
वरना सच और सच्चे को
हर कोई हड़पना चाहता है।
२१/१२/२०१७.
62 · Dec 2024
कष्ट न दे
Joginder Singh Dec 2024
कष्ट
हद की दहलीज़ को
लांघ कर
आदमी को
पत्थर बना देता है ,
आंसुओं को सुखा देता है ।


कष्ट
उतने ही दे
किसी प्रियजन को
जितने वह
खुशी खुशी सह सके ।
कहीं
कष्ट का आधिक्य
चेतना को कर न दें
पत्थर
और
बाहर से
आदमी ज़िंदा दिखे
पर भीतर से जाए मर ।

२१/०२/२०१४.
Joginder Singh Nov 2024
पहला रंग
शब्दशः/

शब्दशः व्यथा अपनी को
मैंने सहजता से व्यक्त किया ,
फिर भी कुछ कहने को बचा रहा।


      दूसरा रंग

रुलना /

ढोल की पोल
खुलनी थी , खुल गई!
अच्छी खासी ज़िंदगी रुल गई।
मैं अवाक मुंह बाए बैठा रहा।
यह क्या मेरे साथ हुआ !!


    तीसरा रंग


   अंततः/

अंततः अंत आ ही गया ‌!
खिला था जो फूल कल ,
वो आज मुरझा ही गया!!

१४/०५/२०२०.
62 · Mar 5
पछतावा
काश! यह जीवन
एक तीर्थ यात्रा समझ कर
जीना सीख पाता
तो नारकीय जीवन से
बच जाता।
इधर उधर न भटकता फिरता।
चिंता और तनाव से बचा रहता।
जीवन के लक्ष्य को भी
हासिल कर लेता।
अब पछतावा भी न होता।
पछतावा
विगत की गलतियों का
परछावा भर है।
आदमी समय रहते
संभल जाए ,
यही इसका हल है।
पछताने और इसकी वज़ह को
समझ कर
समय रहते
निदान करने से
आदमी का बढ़ जाता
आत्मबल है।
जो बनता जीने का
संबल है।
०५/०३/२०२५.
Joginder Singh Nov 2024
ठीकरा
असफलता का
किसी और की तरफ़ उछाल दूं ,
अपना दामन झाड़ लूं ।

यह कतई ठीक नहीं ,
यह तो अपने को ठगना है ,
अपने को नष्ट करना है ।

अच्छा रहेगा,
सच से ही प्यार करूं ,
झूठ बोलकर जीवन न बेकार करूं ,
फिर मैं अपना और
दूसरों का
जीना क्यों दुश्वार करूं ?

ठीकरा
असफलता का
फोडूंगा न किसी पर ,
उस पर मिथ्या आरोप लगा ।
बल्कि
करूंगा निरंतर सार्थक प्रयास
और  करूंगा प्राप्त एक दिन
इसी जीवन में सफलता का दामन
खुले मन से,
बगैर किसी झिझक के।

अब स्वयं को
और ज्यादा न करूंगा शर्मिंदा ,
बनूंगा ख़ुदा का बंदा,
न कि कोई अंधा दरिंदा ।

इतना तो खुद्दार हूं,
संघर्ष पथ पर चलने की खातिर
द्वार तुम्हारे पर खड़ा तैयार हूं ।

तुम तो साथ दोगे न ?
दोस्ती का हाथ ,
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ,
आगे बढ़ाओगे ना !!

०१/१०/२००८.
61 · Apr 26
Back Benchers
Today's world
Seems me
A unique product of wise persons
Who always remain
Back Benchers in their respective lives
In the struggle of life to survive
During the journey of the life.

Back Benchers
Always enjoy their lives
Without stress.
Because they keep themselves
In the corner without any limelight.

All are welcome
In the unique world of
Back Benchers.
They are less known champions of
Contemporary times.
25/04/2024.
61 · Feb 12
श्राप
किसी की आस्था से
खिलवाड़ करना
ठीक नहीं है ,
यह न केवल
पाप कर्म है ,
बल्कि
यह अधर्म है ।
यदि ऐसा करने पर
सुख मिलता ,
तो सभी इस में
संलिप्त होते ,
वे जीवन के अनुष्ठान में
भाग न लेकर
भोग विलास में
लिप्त होते।

किसी की आस्था पर
चोट करना सही नहीं ,
बेशक
तुम बुद्धि बल से
जीवन संचालित करने के
हो पक्षधर ,
तुम आस्थावादी के
मर्म पर अकारण
न करो चोट ,
न पहुंचाओ कोई ठेस,
न करो पैदा किसी के भीतर क्लेश।
यदि कोई अनजाने दुःखी होकर
कोई दे देता है बद्दुआ,
समझो कि
अपने पैरों पर
कुल्हाड़ी मार ली ,
अपने भीतर
देर सवेर बेचैनी को
हवा दी ,
अपने सुख समृद्धि और संपन्नता को
अग्नि के हवाले कर दिया ,
अपना जीवन श्राप ग्रस्त कर लिया।
किसी के विश्वास पर
जान बूझ कर किया गया आघात
है बरदाश्त से बाहर ।
यही मनोस्थिति श्राप की वजह बनती है।
भीतर की संवेदनशीलता
अंदर ही अंदर
पछतावा भरती है ,
जो किसी श्राप से कम नहीं है।
अतः आस्था पर चोट न करना बेहतर है ,
अच्छे और सच्चे कर्म करना ही
मानव का होना चाहिए ,
कर्म क्षेत्र है।
आस्था के विरुद्ध किया कर्म अधर्म है ,
न केवल यह पाप है ,
बल्कि तनावयुक्त करने वाला एक श्राप है,
मानवता के खिलाफ़ किया गया अपराध है।
12/02/2025.
Joginder Singh Nov 2024
वह  
कभी कभी मुझे
इंगित कर कहती है,
" देह में
आक्सीजन की कमी
होने पर
लेनी पड़ती है उबासी।"

पता नहीं,
वह सचमुच सच बोलती है
या फिर
कोतुहल जगाने के लिए
यों ही बोल देती अंटशंट,
जैसे कभी कभार
गुस्सा होने पर,
मिकदार से ज़्यादा पीने पर
बोल सकता है कोई भी।


मैं सोचता हूं
हर बार
आसपास फैले
ऊब भरे माहौल में
लेता है कोई उबासी
तो भर जाती है
भीतर उदासी।

मुझे यह तनिक भी
भाती नहीं।
लगता है कि यह तो
नींद के आने की
निशानी है।
यह महज़
निद्रा के आकर
सुलाने का
इक  इशारा भर है,
जिस से जिंदगी सहज
बनी रहती है।
वह अपना सफ़र
जारी रखती है।


पर बार बार की उबासी
मुझे ऊबा देती है।
यह भीतर सुस्ती भरती है।
मुझे इससे डर लगता है।
लगता है
ज़िंदगी का सफ़र
अचानक
रुक जाएगा,
रेत भरी मुट्ठी में से
रेत झर जाएगा।
कुछ ऐसे ही
आदमी
रीतते रीतते रीत जाता है!
वह उबासी लेने के काबिल भी
नहीं रह जाता है।

चाहता हूं... इससे पहले कि
उबासी मुझे उदास और उदासीन करे ।
मैं भाग निकलूं
और तुम्हें
किसी ओर दुनिया में मिलूं ।

वह
अब मुझे इंगित कर
रह रह कर कहती है,
" जब कभी वह  
अपनी प्राण प्रिय  के सम्मुख
उबासी लेती है, भीतर ऊब भर देती है।
उसके गहन अंदर
अंत का अहसास भरा जाता है।
फिर बस तिल तिल कर,
घुटन जैसी वितृष्णा का
मन में आगमन हो जाता है।
यही नहीं वह यहां तक कह देती है
कि उबासी के वक्त
उसे  सब कुछ
तुच्छ प्रतीत होता है।
जब कभी मुझे यह
उबासी सताती है,
मेरी मनोदशा बीमार सी हो जाती है।
जीने की लालसा
मरने लगती है।"

सच तो यह है कि
उबासी के आने का अर्थ है,
अभी और ज़्यादा  सोने की जरूरत है।
   अतः
पर्याप्त नींद लीजिए।
तसल्ली से सोया कीजिए।
बंधु, उबासी सुस्ती फैलाती है।
सो, यह किसी को भाती नहीं है।
इसका निदान,समय पर ‌सोना और जागना है।
उबाऊ, थकाऊ,ऊब भरे माहौल से भागना है।
३/८/२०१०.
61 · Jan 28
तलाश
सच की तलाश में
इधर उधर
भटकना
कोई अच्छी बात नहीं,
आदमी
समय रहते
स्वयं को
ढंग से तराश ले,
यही पर्याप्त है।

बहुत से लोग
सोचते कुछ
और करते कुछ हैं ,
इन की वज़ह से
सुख की तलाश में
निकले जिज्ञासुओं को
भटकना पड़ता है ,
अपने जीवन में
कष्टों से जूझना पड़ता है।
यदि आदमी की
कथनी और करनी में
अंतर न रहे ,
तो सुख समृद्धि और शांति की
तलाश में और अधिक
भटकना न पड़े ,
उसे सुख चैन सहज ही मिले ,
उसका अंतर्मन सदैव खिला रहे !
वह अपने अंदर  के आक्रोश से
और
असंतोष की ज्वाला से
कभी भी न झुलसे ,
बल्कि वह समय-समय पर
अपने को जागृत रखने का प्रयास करता रहे
ताकि वह सहजता पूर्वक
अपनी मंजिल को तलाश सके।
वह जीवन में आगे बढ़ कर न केवल
अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके ,
बल्कि तनावमुक्त जीवन धारा में ‌बहकर
समय रहते
स्वयं की संभावना को
सहज ही खोज सके।
वह जीवन में
सार्थकता की अनुभूति कर सके ,
सहजता से
उसे निरर्थकता के अहसास से मुक्ति मिल सके।
२८/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
मैं :  हे ईश्वर !
       तुम साम्यवादी हो क्या ?

ईश्वर : हाँ ,  बिल्कुल ।
        मेरे यहाँ से
        व्यक्ति
        इस धरा पर
        समानता और स्वतंत्रता के
        अधिकार सहित आता है ।
  मैं :   फिर क्यों वह गैर बराबरी और
          शोषण का शिकार बन जाता है ?
  ईश्वर :...पर ज़माने की हवा खाकर कोई कोई
          व्यक्ति साधन सम्पन्न बनकर
         पूंजीवादी मानसिकता का बन जाता है।
         वह पहले पहल अपने हमसायों से ख़ूब मेहनत
         करवाता है।
         ‌फिर उन्हें बेच खाता है,
   ‌      शोषण का शिकार बनाता है।
   मैं: आप इस बाबत क्या सोचते हैं ?
   ईश्वर : सोचना ‌क्या ?
          आज का आदमी हर समय धन कमाने की सोच
  ‌         रखता है।
           वह उन्हें गुलाम बना कर रखता है ।
           उनके कमज़ोर पड़ने पर
            वह उन्हें हड़प कर जाता है । तुम्हारा इस बारे में
            क्या सोचना है ?
    मैं :  .......!
    ईश्वर : सच कहूं, बेटा!
‌‌          मेरा जी भर आता है और मुझे लगता है कि
            ईश्वर कहाँ?...वह तो मर चुका है । ईश्वर को तो
           आदमी के अहंकार ने मार दिया है।
    मैं: ......!!
     मैं ईश्वर के इस कथन के समर्थन में सिर हिला देता हूँ।
     पर कहता कुछ नहीं, उन्होंने मुझे निरुत्तर जो कर दिया
      है ।
Joginder Singh Nov 2024
जिंदगी को
चाहने वाले
कभी
जल्दी नहीं करते,
वे तो बस
अपने भीतर
मतवातर
तब तक
सब्र को हैं भरते,
सदा जोश और मस्ती में
हैं हर पल रहते
जब तक
बाहर
कुछ छलक न जाए !

अचानक
आंखों से
कुछ निकल कर
बाहर न आ जाए!

तन मन को नम कर जाए!!
  २५/०४/२०२०
वैसे तो लोग और देश
आपस में लड़ते हैं,
कभी हारते हैं तो कभी जीतते भी हैं।
मेरा देश आज़ादी के बाद
चार युद्ध लड़ चुका है ,
वह अपने पड़ोसी से शांति चाहता रहा है।
पर उसे अशांति ही मिलती रही है।

अब पांचवीं लड़ाई की तैयारी है ।
यह कभी भी शुरू हो सकती है।
कोई भी देश जीते या फिर हारे।
अवाम हर हाल में बदहाल होगी।
देश की प्रगति दशकों पीछे जाएगी।
फिर भी किसी को सुध बुध नहीं आएगी।
कुछ वर्ष ठहर कर क्या फिर से युद्ध लड़ा जाएगा ?
नेतृत्व का अहम् विकास को धराशाई करता नजर आएगा।
जीता हुआ देश हारे  हुए देश को चिढ़ाएगा।
हमारा अपना देश दुर्दिन और दुर्दशा झेलता देखा जाएगा।
व्यवस्था परिवर्तन के बावजूद किसी के हाथ पल्ले कुछ नहीं आएगा।
०३/०५/२०२५.
आज असंतोष की आग
हर किसी के भीतर
धधक रही है।
यह आग
दावानल सी होकर
निरन्तर बढ़ती जा रही है
और सुख समृद्धि और संपन्नता को
झुलसाती जा रही है।
यह कभी रुकेगी भी कि नहीं ?
इस बाबत कुछ कहा नहीं जा सकता ;
आदमी का लोभ,लालच, प्रलोभन
सतत दिन प्रति दिन बढ़ रहा है,
फलत: आदमी असंतोष की आग में
झुलसता जा रहा है।
वह इस अग्नि दहन से कैसे बचे ?
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है।
उसके भीतर अस्पष्टता का बादल घना होता जा रहा है।
यह कभी बरसेगा नहीं , यह भ्रम उत्पन्न करता जा रहा है।
असंतोष जनित आग निरन्तर रही धधक।
पता नहीं यह कब अचानक उठे एकदम भड़क ?
कुछ कहा नहीं जा सकता ।
इससे आत्म संयम से ही है बचा जा सकता।
और कोई रास्ता सूझ नहीं रहा।
मनो मस्तिष्क में इस आग से उत्पन्न धुंधलका
अस्पष्टता की हद तक बढ़ता जा रहा।
इस आग की तपिश से हरेक है घबरा रहा।
१६/०१/२०२५.
Joginder Singh Dec 2024
यह जीवन किसी को
कभी भीख में
नहीं मिला,
यही रही है
मेरे सम्मुख
बीते पलों की सीख।
अब जो
समय
गुजारना है,
उसमें अपने आप को
संभालना है,
बीते पलों से सीख लेकर
खुद को
अब निखारना है।
आने वाला कल बेशक अनिश्चित है
पर कभी तो अपने भीतर
पड़ेगा झांकना ,
यह करना पड़ेगा अब
हम सब को सुनिश्चित ,
ताकि तलाश सकें सब
भविष्य में सुरक्षित जीवन धारा के
आगमन की मंगलमयी
संभावना को,
तजकर भीतर सुप्तावस्था में पड़ीं
समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त
दुर्भावनाओं को।

आओ हम सब अपनी मौलिकता को
बरकरार रखकर जोड़ें ,
जीवन को, आमूल चूल परिवर्तन की
अपरिहार्य हवाओं से ,
अतीतोन्मुखी जड़ों से ,
ताकि हम सब मिलकर इस जीवन में
अभिन्नता सिद्ध कर सकें
परम्परा और आधुनिकता के समावेश की।
अंतर्ध्वनियां सुन सकें,
अपने बाहर और भीतर व्यापे परिवेश की।
०१/०१/२०२५.
महाभारत में कौन थी मत्स्य कन्या
जिसने किया था विवाह
राजा शांतनु से और
जिसका संबंध
भीष्म पितामह से
आजीवन ब्रह्मचर्य  का पालन करने
और कुरु वंश  का संरक्षक बने रहने के
वचन लेने से
जोड़ा जाता
है ?
इस बाबत मुझे सूचित कीजिए !
मेरे भीतर व्याप्त भ्रम को  तनिक दूर कीजिए !!
हो सकता है कि  मैं गलत हूं।
मां सत्यवती के बारे में
मेरी जिज्ञासा शान्त कीजिए।

मरमेड की बाबत आपने सुना होगा।
अपने जीवन में भी एक जलपरी की खोज कीजिए।
सतरंगी इंद्रधनुषी मछली
और
गिप्पी मछली के बारे में भी
कुछ खोजबीन कीजिए ,
अपनी सोच में
एक मीन को भी जगह दीजिए।
शायद कोई मीन जैसी आंखों वाली
कोई गुड़िया दिख जाए।
जीवन के प्रति आकर्षण बढ़ जाए।
जीवन में धरा पर ही नहीं जीवन है ,
बल्कि यह आकाश और जल में भी पनपता है ,
इस बाबत भी सोचिए।
उनके लिए भी सोचिए
जो धरा से इतर
जल और वायु में श्वास ले रहे हैं !
जीवन को आकर्षक बनाने में भरपूर योगदान दे रहे हैं!!
०७/०१/२०२५.
61 · Feb 18
अकेलापन
आदमी
दुनिया में
अकेला न रहे
इसके लिए
वह खुद को
अपने जीवन में
छोटे छोटे कामों में
व्यस्त रखने का
प्रयास करता रहे
ताकि जीवन में
अकेलापन
दोधारी तलवार सा होकर
पल प्रति पल
काटता हुआ सा न लगे।

अभी अभी
अखबार में
एक हृदय विदारक
ख़बर पढ़ी है कि
शहर के एक वैज्ञानिक ने
अपने आलीशान मकान में
अकेलपन को न सहन कर
आत्महत्या कर ली है।
परिवार विदेश में रहता है
और वह अकेले अपने घर में
एक निर्वासित जीवन कर
रहे थे बसर,
वे जीवन में
निपट अकेले होते चले गए ,
फलत: मौत को गले लगा गए।

हम कैसी
सुख सुविधा और संपन्नता भरपूर
जीवन जीने को हैं बाध्य
कि जीवन बनता जा रहा है कष्ट साध्य ?
आदमी सब कुछ होते हुए भी
दिनोदिन अकेला पड़ता जा रहा है।
वह खुल कर खुद को
अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा है।
वह भीतर ही भीतर
अपनी तन्हाई से घबराकर
मौत को गले लगा रहा है।

हमारे यहां
कुछ जीवन शैली
इस तरह विकसित होनी चाहिए
कि आदमी अकेला न रहे ,
वह अपने इर्द गिर्द बसे
मानवों से हँस और बतिया सके।
कम से कम अपने मन की बात बता सके।
१८/०२/२०२५.
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