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सब्र,संतोष
भीतर
व्याप जाएं,
इसके लिए
कर्मठता जरूरी है।
कर्म करने से पीछे हटा नहीं जाए ।
इसे ढंग से निष्पादित किया जाए।
इस हेतु निरन्तर डट कर संघर्ष किया जाए।
सतत
सब्र, संतोष, सहृदयता,
व्यक्ति को संत सरीखा
कर देती है,
लालसा और वासना तक
हर लेती है।
कभी कभी
देह में से नेह और संतुष्टि का
नहीं होना,
मन को अशांत
कर देता है।
अतः
जीवन में संतुष्टि का होना
निहायत जरूरी है,
इस बिन जीवन यात्रा
रह जाती अधूरी है,
जिससे
रिश्तों में
बढ़ जाती दूरी है,
इसी वज़ह से मन भटकता है,
आदमी क़दम क़दम पर अटकता है,
और जीव जीवन भर
संतुष्टि के द्वार पर
दस्तक देने की कोशिश करता है,
अपने भीतर कशिश भरना चाहता है,
परन्तु
कभो कभी ही
आदमी सफल हो पाता है,
हर कोई संतुष्टि को
अनुभव करना चाहता है।
उस्ताद जी,
माना कि आप अपने काम में व्यस्त रहते हो,
खूब मेहनत करते हो,
जीवन में मस्त रहते हो।
पर कभी कभी तो
अपने कस्टमर की
जली कटी सुनते हो।
आप कारसाज हो,
बड़ी बेकरारी से काम निपटाते हो,
काम बिगड़ जाने पर
सिर धुनते हो, पछताते हो।

ऐसा क्यों?
बड़े जल्दबाज हो।
क्षमा करना जी ।
मेरे उस्ताद हो।
मुआफ करना , चेला करने चला, गुस्ताखी जी।
अब नहीं देखी जाती,खाना  खराबी जी।
काम के दौरान आप बने न शराबी जी।
अब अपनी बात कहता हूं।
दिन रात गाली गलौज सुनता हूं।
कभी कभी तो बिना गलती किए पिटता हूं।
आप के साथ साथ मैं भी सिर धुनता हूं।
अंदर ही अंदर खुद को भुनता हूं।


सुनिए उस्ताद, कभी कभी खाद पानी देने में कंजूसी न करें,
वरना चेला...हाथ से गया समझो ,जी ।
कौन सुने ? ‌‌
रोज की खिच खिच,चील,पों जी।
आप के मेहरबान ने...आफर दिया है जी।

समय कम है उस्ताद
अब जलेबी की तरह
साफ़ साफ़ सीधी बात जी।


जल्दबाजी में न लिया करें
कोई फ़ैसला।
जो कर दे
जीभ का स्वाद कसैला।

हरदम  चेले चपटे  के नट बोल्ट न कसें।
वो भी इन्सान है,,....बेशक कांगड़ी पहलवान है।

सुनो, उस्ताद...
जल्दबाजी काम बिगाड़े
इससे तो जीती बाजी भी हार में बदल जाती है जी।
विजयोन्माद और खुमारी तक उतर जाती है।
उस्ताद साहब,
सौ बातों की एक बात...
जल्दबाजी होवे है अंधी दौड़ जी।
यदि धीमी शुरुआत कर ली जाए,
तो आदमी जीत लिया करता, हार के कगार पर पहुंची बाजी...!

आपका अपना बेटा
भौंदूंमल।
वो अब इतना अच्छा लिखेगा,
कभी सोचा न था।
अब लिख ही लिया है
उसने अच्छा
तो क्यों न उसकी बड़ाई करें!
क्यों क्षुद्रता दिखा कर
उससे शत्रुता मोल लें ?
वो अब इतना अच्छा है कि पूछो मत
हम सब उसके पुरुषार्थ से सौ फ़ीसदी सहमत।
सुनिए,उसका सुनियोजित तौर तरीका और सच ।

अब उसने अपने वजूद को
उनकी झोली में डाल दिया है ।
आतंक भरे दौर में
वे अपने भीतर के डर ,
उसकी जेब में भर
उसे खूब फूला रहें हैं,
उसके अहम के गुब्बारे को
फोड़ने की हद तक ।

पता नहीं!
वो कब फटने वाला है?
वैसे उसके भीतर गुस्सा भर दिया गया है।
वो अब इतना बढ़िया लिखता है,
लगता , सत्ताधीशों पर फब्तियां कसता है।
पता नहीं कब, उसे इंसान से चारा बना दिया जाएगा।
कभी कभी
ठग तक को
ठेस पहुँचती है।
यही बात
ठग बाबू को
कचोटती है।
फिर भी
वह ठगने,
मनमानी करने से
आता नहीं बाज़।
वह नित्य नूतन ढंग से
ढूंढता है,वे तरीके कि
शिकार अपनी अनभिज्ञता से
हो जाएं हताश और  निराश,
आखिरकार हार मान कर,
जड़ से भूलें करना प्रतिकार!


ऐसी अवस्था में
यदि कोई साहस कर
ठग का करता है प्रतिकार।
शिकार ,होने लगता है जब,
जागरूक और सतर्क।
ऐसे में
शिकार के गिर कर
खड़े होने से ही
पहुंचती है ठग को ठेस।
और ऐसा होने पर
उसकी ठसक का गुब्बारा फूटता है,
ठग अकेले में फूट फूट कर रोता है,
वह अंदर ही अंदर खुद को कोसता है।
विडंबना है कि
वह कभी ठगी करना नहीं छोड़ता ।
कभी भी
ठगी करने का मौका
नहीं छोड़ता ।
ठग का पुरजोर विरोध ही
ठगी पर रोक लगा सकता है।
ठग को
सकते में ला सकता है।
यदि ऐसा हो जाए
तो क्या ठग
कभी
कोमा में जा सकता है?
शायद नहीं,पर
वह किसी हद तक खुद को
सुधारने की
कोशिश कर सकता है।
32 · 2d
मोहरे
जीवन की
शतरंज में मोहरे
रणनैतिक योद्धे हैं;
केवल
ऊँट,घोड़े,हाथी,
सिपाही,
वज़ीर, बेग़म, बादशाह नहीं।
वे यथार्थ में
जीवन धारा को
दिशा देना चाहते हैं,
अपने मालिक की रक्षा करना चाहते हैं ।
इस के लिए
अपना बलिदान भी देते हैं।
यथा सामर्थ्य
अपनी जिंदगी जीते हैं,
एक एक करके जीवन रण से
विदा होते हैं।

कभी कभी मोहरे सोचते हैं,
सोचते भर हैं, कुछ कहते नहीं।
वे तो मोहरे हैं,
उन्हें तो जीवन की बिसात पर
चलाया भर जाता है,
आगे,पीछे,दाएं,बाएं,
इधर उधर ले जाया और
सरकाया जाता है।
वे नियमों में बंध कर
अपनी भूमिका निभाते हैं।
बादशाह को बचाना उनका फ़र्ज़ होता है,
प्यादे से लेकर वज़ीर,बेगम सभी बादशाह को
जिंदा रखने की कोशिश करते हैं।
मोहरे तो बस
अपने प्राण न्योछावर करते हैं।
उनके वश में कुछ नहीं,
मालिक की मर्ज़ी ही उनके लिए सही।
वे मालिक की इच्छा को
अपनी इच्छा मानते हैं
क्योंकि वे केवल मोहरे हैं,
मोह से वे बचते हैं,
मरकर  ही वे मोक्ष पा जाते हैं।
इनका जीवन काल कुछ क्षण का होता है,
जब तक खेल जारी रहता है, वे हैं,वरना डिब्बे में कैद!!

जीवन में खेल खेला,
कुछ पल के लिए उतार चढ़ाव,
झंझट,झमेला, मोहरों ने झेला!
और खेल खत्म के साथ ही रीत गए!
समय यात्रा पूरी कर रीत, बीत गए!
दो खिलाड़ी मनोरंजन के लिए खेले।
कभी जीते,कभी हारे,कभी हार न जीत ।

मोहरे तो बस अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं।
लोग बेवजह शतरंजी चालें चल,
एक दूसरे को निर्वसन करते हैं।

मोहरे इंसानों की तरह
स्वतंत्र सोच नहीं रखते ।
वे तो मोहरे हैं,
वे उसी के हैं,
जिसकी बिसात में वे बिछे हैं।
खिलाड़ी बदला नहीं कि
वे छिछोरे  हो जाते हैं,
वे उसका कहना मानते हैं,
जिसके वे अधीन होते हैं,
एकदम मोह विहीन! निर्मोही!!
  ०९/०५/२०२०.
अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
भूले भटके से
होती है
और
जीवन के बीते दिनों के
भूले बिसरे लम्हों की
आती है याद।

ये भूले बिसरे लम्हे
रचाना चाहते संवाद।
ऐसा होने पर
मैं अक्सर रह जाता मौन ।


आजकल
मैं बना हूं भुलक्कड़
मिलने, याद दिलाने,,..के बावजूद
कुछ ख़ास नहीं रहता याद
नहीं कायम कर पाता संवाद।

हां, कभी-कभी भीतर
एक प्रतिक्रिया होती है,
'हम कभी साथ साथ रहें हैं,
यकीन नहीं होता!
कसमें वादे करने और तोड़ने के जुर्म में
हम शरीक रहे हैं,
दोस्ती में हम शरीफ़ रहे हैं,
यकीन नहीं होता।'

अपने और जमाने की
खुद ग़र्ज हवा के बीच
        यारी  दोस्ती,
गुमशुदा अहसास सी
होकर रह गई है
एकदम संवेदनहीन!
और जड़ विहीन भी।


अब
दोस्तों से
मुलाकात
कभी कभार
अख़बार, रेडियो पर बजते नगमों,
टैलीविजन पर टेलीकास्ट हो रहे
इंटरव्यू के रूप में
होती है।
सच यह है कि
दोस्त की उपलब्धि से जलन,
अपनी  नाकामियों से घुटन,
आलोचक वक्त की मीठी मीठी चुभन,सरीखी
तीखी प्रतिक्रियाएं होती हैं भीतर
पर... अपने भीतर व्यापे शातिरपने की बदौलत,
सब संभाल जाता हूं...
खुद को खड़ा रख पाता हूं,बस!
खुद को समझा लेता हूं,

....कि समय पर नहीं चलता किसी का वश!!
यह किसी को देता यश, किसी को अपयश,बस!!

अब
कभी कभार
दोस्त, दोस्ती का उलाहना देते हुए मिलते हैं,
तो उनके सामने नतमस्तक हो जाता हूं
उन को हाथ जोड़कर,
उन से हाथ मिलाया,
और अंत में
नज़रों नज़रों से
फिर से मिलने के वास्ते वायदा करता हूं
भीतर ही भीतर
न मिल सकने का डर
सतत् सिर उठाता है, इस डर को दबा कर
घर वापसी के लिए
भारी मन से क़दम बढ़ाता हूं।
कभी कभी
दोस्तों से मुलाक़ात
किसी दुस्वप्न सरीखी होती है
एकदम समय की तेज तर्रार छुरी से कटने की मानिंद।
९/६/२०१६.
जब दोस्त
बात बात पर
मारने लगें ताना,
तब टूट ही जाता है
दोस्ताना।
अतः
दोस्त!
दोस्ती
बचाने की खातिर
अपने आप को
संतुलित करना सीख।
अरे भाई!
तुम दोस्त हो
दोस्तों पर
तानाकशी से बच,
कभी कभी तो
बोला करो
खुद से ही सच।


२५/०४/२०२०.
जनाब
यहां थूकिए मत।

थू!थू! थूक ना!
जीवन में
आपात काल आ चुका है।
अगर
किसी ने देख लिया
आफत आ जाएगी ।
जान बचानी
मुश्किल हो जाएगी।
जुर्माना तो देना ही होगा,
बल्कि हवालात की
सैर भी करनी पड़ सकती है।
जीवन में मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
अच्छा होगा
भूल कर भी न थूक।
यह बन सकती है एक
सुरक्षा, स्वास्थ्य संबंधी चूक।
१४/०५/२०२०.क
कोरोना काल के भयभीत करने वाले काल खंड को ध्यान में रखते हुए कविता को पढ़ा जाए।
यह ठीक है कि
राजनीति
होनी चाहिए     लोक नीति ।

पर    लोक    तो   बहिष्कृत  हैं ,
राजनीति के      जंगल    में।

कैसे   जुटे...
आज       राजनीति   लोक मंगल   में  ?

क्या   वह    समाजवाद  के  लक्ष्य  को
अपने   केन्द्र   में  रख    आगे    बढे   ?
.....  या   फिर   वह   पूंजीवाद  से  जुड़े  ?
..... या   फिर  लौटे वह सामंती ढर्रे   पर  ?

आजकल  की   राजनीति
राजघरानों  की  बांदी   नहीं  हो   सकती   ।
न  ही  वह  धर्म-कर्म  की  दासी बन  सकती  ।
हां,  वह जन गण    के   सहयोग  से...
अपनी    स्वाभाविक   परिणति     चुने   ।

क्यों  न   वह ‌ ...
परंपरागत  परिपाटी  पर  न   चलकर
परंपरा    और    आधुनिकता  का  सुमेल  बने ‌?
वह  लोकतंत्र   का   सच्चा   प्रतिनिधित्व  करे  ?

काश  !  राजनीति  राज्यनीति  का  पर्याय  बन उभरे  ।
देश भर  में   लगें  न  कभी  लोक  लुभावन   नारे   ।
नेतृत्व   को  न   करने पड़ें जनता  जनार्दन से  बहाने ।
न  ही  लगें   धरने  ,  न  ही  जलें   घर ,  बाजार  ,  थाने ।

   १०/६/२०१६.
दोस्त!
अपने भीतर की
नफ़रत का नाश कर,  
उल्फत के जज़्बात
अपने भीतर भरा कर ,
अपनी वासना से न डरा कर,
देशऔर दुनिया के सपनों को,
सतत् मेहनत और लगन से
साकार किया कर ।


ऐसा कुछ कहती हैं,
देश के अंदर
और
सरहद पार
रहने वाले बाशिंदों के
दिलों  से निकली
सदा।
समय पाकर
जो बनतीं जातीं
अवाम की दुआएं।
ऐसा
हमने समझ लिया है
इस दुनिया में रहकर,
समय की हवाओं के
संग बहकर।

फिर क्यों न हम
अपने और परायों को
कुछ जोश भरे,कुछ होश भरे
रास्तों पर
आगे बढ़ना सिखलाएं ,
उन्हें मंज़िल तक लेकर जाएं ।

९/५/२०२०.
आज फिर बंदर
दादा जी को छेड़ने
आ पहुंचा।
दादा ने छड़ी दिखाई, कहा,"भाग।"
जब नहीं भागा तो दादू  पुनः चिल्लाए,"भाग, सत्यानाशी...।"
तत्काल,बंदर ने कुलाठी लगाई
और नीम के पेड़ पर चढ़कर
पेड़ के साथ लगी, ग्लो की बेल,
जिसकी लताएं  ,  नीम पर चढ़ी थीं,से एक टहनी तोड़,
दांतों से चबाने लगा।
मुझे लगा, चबाने के साथ,वह कुछ सतर्कता भी
दिखा रहा था।
बूढ़े दादू उस पर लगातार चिल्ला रहे थे ,
उसे भगा रहे थे।
पर वह भी ढीठ था,पेड़ की शाखा पर बैठा रहा,
अपनी ग्लो की डंडी चबाने की क्रिया को सतत करता रहा।
  उसने आराम किया और बंदरों की टोली से जा मिला।

दादू अपने पुत्र और पोते को समझा रहे थे।
ये होते हैं समझदार।
वही खाते हैं,जो स्वास्थ्यवर्धक हो ।
इंसान की तरह   बीमार करने वाला भोजन नहीं करते।

मुझे ध्यान आया,
बस यात्रा के दौरान पढ़ा एक सूचना पट्ट,
जिस पर लिखा था,
"वन क्षेत्र शुरू।
कृपया बंदरों को खाद्य सामग्री न दें,
यह उन्हें बीमार करती है ।"
मुझे अपने बस के कंडक्टर द्वारा
बंदरों के लिए केले खरीदने और बाँटने का भी ध्यान आया।
साथ ही भद्दी से नूरपुरबेदी जाते समय
बंदरों के लिए केले,ब्रेड खरीदने
और बाँटने वाले धार्मिक कृत्य का ख्याल भी।

हम कितने नासमझ और गलत हैं।
यदि उनका ध्यान ही रखना है तो क्यों नहीं
उनके लिए उनकी प्रकृति के अनुरूप वनस्पति लगाते?
इसके साथ साथ उनके लिए
शेड्स और पीने के पानी का इंतजाम करवाते।
  
भिखारियों को दान देने से
अच्छा है
वन विभाग के सहयोग से
वन्य जीव संरक्षण का काम किया जाए।
प्रकृति मां ने
जो हमें अमूल्य धन  सम्पदा
और जीवन दिया है ,
उससे ऋण मुक्त हुआ जाए।
प्रकृति को बचाने,उसे बढ़ाने के लिए
मानव जीवन में जागरूकता बढ़ाई जाए।
समाज को वनवासियों के जीवन
और उनकी संस्कृति से जोड़ा जाए।
निज जीवन में भी
सकारात्मक सोच विकसित की जाए ,
ताकि जीवन शैली प्रकृति सम्मत हो पाए।
बड़े बुजुर्ग
अक्सर कहते हैं ,
बच्चे मस्तमौला होते हैं,
उनका खेल तो शरारत है,
अगर बचपन में न कोई शरारत की
तो ज़िन्दगी ख़ाक जी!
अभी अभी
एक बंदर
एकदम मस्त खिलंदर
दादा जी के चश्मे को
सलीके से लगा कर इधर उधर देख
उधम मचाने की फिराक में था
कि देख लिया
दादा ने अचानक

वे अपनी छड़ी उठा कर चिल्लाए, बोले," भाग।"
बंदर भी
आज्ञाकारी बच्चे की तरह
भाग गया।
उसने कोई प्रतिकार नहीं किया।
इससे पहले
कई बार उसने
बूढ़े दादू को खूब खिजाया था।
यही नहीं
कई खाद्य पदार्थों को कब्जाया था।
आज
कुछ ख़ास नहीं हुआ।
उसने बस चश्मे को छुआ
और पल भर को आंखों पर लगाया बस!
और दादा की घुड़की सुन भाग गया।
चश्मा नीचे गिरा
और उसके शीशे पर
खरोंच आ गई।
शुक्र है
चश्मा ठीक ही था
दादा जी
अखबार पढ़ने बैठ गए,
बंदर किसी दूसरे मकान की छत पर
धमाचौकड़ी कर रहा था।
पास ही बंदर का बच्चा
अपनी मां की गोद से लिपटा पड़ा था,
बंदरिया उसे साथ लेकर
मकानों की दूसरी कतार की ओर निकल गई थी।
यह घटनाक्रम देख मेरी हँसी निकल गई।
दादा जी ने मुझे घूर कर देखा,
तो मैं सकपका गया।
एक बार फिर से डांट खाने से बच गया।
१३/११/२०२४.
कैसी
नासमझी भरी
सियासत है यह।
भीड़ भरी
दुनिया के अंदर तक
जन साधारण को
महंगाई से भीतर ही भीतर
त्रस्त कर
भयभीत करो
इस हद तक कि
जिंदगी लगने लगे
एक हिरासत भर।


कैसी
नासमझी भरी
हकीकत है यह कि
विकास के साथ साथ
महंगाई का आना
निहायत जरूरी है।

कैसी
शतरंज के बिसात पर
अपना वजूद
जिंदा रखने की कश्मकश के
दौर में
नेता और अफसरशाही की
मूक सहमति से
गण तंत्र दिवस के अवसर पर
बस किराया
यकायक बढ़ा दिया जाता है।
आम आदमी को लगता है कि
उसकी आज़ादी को काबू में करने के लिए
उसकी आर्थिकता पर
अधिभार लगा दिया गया है।

शर्म ओ हया के पर्दे
सत्ता की दुल्हनिया सरीखे
झट से गिराने को तत्पर
नेतृत्व शक्तियां!
किश्तीनुमा टोपियां!!
धूमिल और उज्ज्वल पगडंडियां!!!
कुछ तो शर्म करो।
गणतंत्र के मौके पर
मंहगाई का तोहफ़ा तो न दो।
तोहफ़ा देना ही है
तो एक दिन आगे पीछे कर के दे दो!
ताकि टीस ज़्यादा तीव्र महसूस न हो।
महसूस करना,
शिद्दत से महसूस कराना,
एक अजब तोहफ़ा नहीं तो क्या है?
यहां सियासत के आगे सब सियाह है, स्वाह है जी!
अब हमें
दबंगों को,
कभी-कभी
दंगाइयों के संग
और
दंगा पीड़ितों को
दबंग, दंगाइयों के साथ
रखना चाहिए ,
ताकि
सभी परस्पर
एक दूसरे को जान सकें,
और भीतर के असंतोष को खत्म कर
खुद को शांत रख सकें,
ढंग से जीवन यापन कर सकें,
जीवन पथ पर
बिखरे बगैर
आगे ही आगे बढ़ सकें,
ज़िंदगी की किताब को
अच्छे से पढ़ सकें,
खुद को समझ और समझा सकें।


देश में दंगे फसाद ही
उन्माद की वजह बनते हैं,
ये जन,धन,बल को हरते हैं,
इन की मार से बहुत से लोग
बेघर हो कर मारे मारे भटकते हैं।

जब कभी दंगाई
मरने मारने पर उतारू हों
तो उन्हें निर्वासित कर देना चाहिए।
निर्वाचितों को भी चाहिए कि
उनके वोटों का मोह त्याग कर
उन्हें तड़ीपार करने की
सिफारिश प्रशासन से करें
ताकि दंगाइयों को  
कारावास में न रखकर
अलग-अलग दूरस्थ इलाकों में
कमाने, कारोबार करने,सुधरने का मौका मिल सके।
यदि वे फिर भी न सुधरें,
तो जबरन परलोक गमन कराने का रास्ता
देश की न्यायिक व्यवस्था के पास होना चाहिए।
आजकल के हालात
बद्तर होते-होते
असहनीय हो चुके हैं।
अंतोगत्वा
सभी को,
दबंगों को ही नहीं,
वरन दंगाइयों को भी
अपने  अनुचित कारज और दुर्व्यवहार
से गुरेज करना चाहिए
अन्यथा
उन सभी को
होना पड़ेगा
निस्संदेह
व्यवस्था के प्रति
जवाबदेह।
सभी को अपने दुःख, तकलीफों की
अभिव्यक्ति का अधिकार है,
पर अनाधिकृत दबाव बनाने पर ,
दंगा करने और करवाने पर
मिलनी चाहिए सज़ा,
साथ ही बद्तमीजी करने का मज़ा।

देश के समस्त नागरिकों को
अपराधी बनने पर
कोर्ट-कचहरी का सामना करना चाहिए,
ना कि दहशत फैलाने का कोई प्रयास ।


दंगा देश की
अर्थ व्यवस्था के लिए घातक है,
यह प्रगति में भी बाधक है,
इससे दंगाइयों के भी जलते हैं।
पर वे यह मूर्खता करने से
कहां हटते हैं?
वे तो सब को मूर्ख और अज्ञानी समझते हैं।
१२/०८/२०२०.
दिन भर की थकी हुई वह बेचारी ,
जी भर कर सो भी नहीं सकती।
पता नहीं,वह पत्नी है या बांदी?
शायद विवाहिता यह सब नहीं सोचती।
समय कभी कभी
उवाचता है अपनी
गहरी पैठी अनुभव जनित
अनुभूति को
अभिव्यक्ति देता हुआ,
" अगर सभी चेतना प्राप्त
अपने  भीतर गहरे उतर
निज की खूबियों को जान पाएं,
अपनी सीमाएं पहचान जाएं
तो वे सभी एकजुट होकर
व्यवस्था में बदलाव ले आएं।"

"खुद को समझ पाना,
फिर जन जन की समझ बढ़ाना,
कर सकता है समाजोपयोगी परिवर्तन।
अन्यथा बने रहेंगे सब, लकीर के फ़कीर।
जस के तस,जो न होंगे कभी, टस से मस।
जड़ से यथास्थिति के बने शिकार,
नहीं होंगे जो सहजता से, परिवर्तित।"
समय मतवातर कह रहा,
" देखो,समझो, काल का पहिया
उन्हें किस दिशा की ओर बढ़ा रहा।
मनुष्य सतत संघर्षरत रहकर
जीवन में उतार चढ़ाव की लहरों में बहकर
पहुँचता है मंज़िल पर, लक्ष्य सिद्धि को साध कर।"

" युगांतरकारी उथल पुथल के दौर में
परिवर्तन की भोर होने तक,बने रहो शांत
वरना अशांति का दलदल, तुम्हें लीलने को है तैयार।
यदि तुम इस अव्यवस्था में धंसते जाओगे,
तो सदैव अपने भीतर
एक त्रिशंकु व्यथा को
पैर पसारते पाओगे।
फिर कभी नहीं
दुष्चक्रों के मकड़जाल से
निकल पाओगे।
तुम तो बस , खुद को
हताश, निराश,थका, हारा, पाओगे।"
  १४/०५/२०२०.
सुना है,
स्पर्श की भी
अपनी एक स्मृति होती है
जो अवचेतन का हिस्सा बन जाती है।
यदि
दिव्य की अनुभूति
करना चाहते हो तो प्रार्थना करो
पांच तत्वों के सुमेल के लिए !
भीतर के उजास के लिए !
दिव्यता के प्रकाश के लिए!
इस के लिए
संभावना खोजने के प्रयास करो।
हो सके तो दुर्भावना से बचो।
दिव्यता से साक्षात्कार कर पाने के लिए।
वैसे...
धरा पर भटकाव बहुत हैं
पर सब निरर्थक
सार्थक है तो केवल
नैतिकता,
जिस पर हावी होना चाहती अनैतिकता।


दिव्यता का संस्पर्श
हमें साहसी बनाता है।

अन्यथा हम पीड़ित बने रहेंगे।
इस बाबत आप क्या कहेंगे?
अभी अभी
टेलीविजन पर
एक कार्यक्रम देखते हुए,
ब्रेक के दौरान
विज्ञापन देखते हुए
आया एक ख्याल
कि श्रीमती को
दिया जाए एक उपहार।
विज्ञापित सामग्री खरीदी जाए,
और एक टिप्पणी के साथ
श्रीमती जी को सहर्ष
सौंप दी जाए।
विज्ञापन कुछ यूं प्रदर्शित था,
मक्खन सी मुलामियत वाली
पांच सौंदर्य साबुन के  पैक के साथ
एक बॉलपेन फ्री।

श्रीमती की लेखन प्रतिभा का  
करते हुए सम्मान
उन्हें
उपरोक्त विज्ञापन वाली
सामग्री दी जाए,
साथ ही किया जाए
टिप्पणी सहित अनुरोध,
" ....यह सौंदर्य सामग्री बॉलपेन की
ऑफ़र के साथ प्राप्त हुई है जी।
आप  इसका उपयोग करें,
सौंदर्य साबुन से
मल मल कर स्नान कीजिए।
साबुनों के साथ मिले
फ्री के पैन से  कविताएं लिखें
और सुनाएं,
निखार के साथ भी, निखार के बाद भी,मन बहलाएं जी।"

विज्ञापित सामग्री मैं बाज़ार से
ले आया हूं,
सोचता हूँ,
दूं या न दूं,
दूं तो डांट, फटकार के लिए
खुद को तैयार करूँ।
आप से मार्ग दर्शन अपेक्षित है।
वैसे अनुरोधकर्ता घर बाहर उपेक्षित है,
एक दम भोंदू,
रोंदू पति की तरह,
जो तीन में है न तेरह में।
ढूंढता है मजा जीने में,
कभी कभार की सजा में।
तुम:  नाम में क्या रखा है?

मैं :सब कुछ!
   यह अदृश्य पहचान का जो ताज सब के सिर पर रखा है।
    यह नाम ही तो है।
तुम: ‌ठीक ।
  ‌    काम से होती है जिस की पहचान,वह नाम ही तो है।
      यह न मिले तो आदमी रहे परेशान, वाह,नाम ही तो है।
    ‌‌  जो सब को भटकाता है।
      ‌ ‌यह बेसब्री का बनता सबब।
मैं:सो तो है, नाम विहीन आदमी सोता रह जाता है।
‌     उस के हिस्से के मौके कोई अनाम खा जाता है।
      ऐसा आदमी मतवातर भीड़ में खो जाता है।
  तुम: खोया आदमी! सोया आदमी!!
        किसी काम धाम का नहीं जी!
        करो उसकी अस्मिता की खोज जी।
     ‌    कहीं हार न जाए, वह जीवन की बाजी।
   मैं : इससे पहले आदमी भीड़ में खो जाए ।
        उसकी भाड़ में जाए , वाली सोच बदली जाए।
        यही है उस   की मानसिकता में बदलाव लाने का
         तरीक़ा।
    तुम: सब कुछ सच सच कहा जी।
          क्या वह इसके लिए होगा राजी?
      मैं: आदमी जीवन में पहचान बनाने में जुटे ।
         इस के लिए वह अपनी जड़ों से नाता जोड़े ।
           ऐसी परिस्थिति पैदा होने से उसका वजूद बचेगा।
              वरना वह यूं ही मारा मारा भटकता फिरेगा।
अर्से पहले
मेरे मुहल्ले में
आया करते थे कभी कभी
तमाशा दिखलाने
मदारी और बाज़ीगर
मनोरंजन करने
और धन कमाने
ताकि परिवार का
हो सके भरण पोषण।

मैं उस समय बच्चा था
उनके साथ चल पड़ता था
किसी और कूचे गली में
तमाशा देखने के निमित्त।
उस समय जीवन लगता था
एकदम शांत चित्त।
आसपास,देश समाज की हलचलों से अनभिज्ञ।

अब समय बदल चुका है
रंग तमाशे का दौर हो चुका समाप्त।
उस समय का बालक
अब एक सेवानिवृत्त बूढ़ा
वरिष्ठ नागरिक हो चुका है,
एक भरपूर जीवन जी चुका है।

अब गली कूचे मुहल्ले
पहले सी हलचलों से
हो चुके हैं मुक्त,
शहर और कस्बे में,
यहां तक कि गांवों में भी
संयुक्त परिवार  
कोई विरले,विरले बचे हैं
एकल परिवार उनका स्थान ले चुके हैं।
इन छोटे और एकाकी परिवारों में
रिश्ते और रास्ते बिखर गए हैं
स्वार्थ का सर्प अपना फन उठाए
अब व्यक्ति व्यक्ति को भयभीत रहा है कर
और कभी कभी कष्ट,दर्द के रूबरू देता है कर।


आजकल
मेरे देश,घर,समाज, परिवार के सिर पर
हर पल लटकी रहती तलवार
मतवातर कर्ज़,मर्ज का बोझ
लगातार रहा है बढ़
मन में फैला रहता डर
असमय व्यवस्था के दरकने की व्यापी है शंका,आशंका।

ऐसे में
आप ही बताएं,
देश ,समाज , परिवार को
एकजुट, इकठ्ठा रखने का
कोई कारगर उपाय।

डीप स्टेट का आतंक
चारों और फैल रहा है ,
विपक्ष मदारी बना हुआ
खेल रहा है खेल,
रच रहा है सतत साज़िश,
सत्ता पर आसीन नेतृत्व को
धूल चटाने के लिए
कर रहा है षडयंत्र
ताकि रहे न कोई स्वतंत्र
और देश पर फिर से
विदेशी ताकतें करने लगें राज।
वे साधन सम्पन्न लोग
वर्तमान
सत्ता के सिंहासन पर आसीन
नेता का अक्स
एक तानाशाह के रूप में
करने लगे हैं चित्रित।

अब आगे क्या कहूँ?
पीठासीन तानाशाह,
और सत्ता से हटाए तानाशाह की
आपसी तकरार पर
कोई ढंग का फैसला कीजिए।
लोकतंत्र को ठगतंत्र से मुक्ति दिलवाइए।
आओ !सब मिलकर
इन हालातों को अपने अनुकूल बनाएं।
वैसे तानाशाहों का तमाशा ज़ारी है।
लगता है ...
अब तक तो
अपने प्यारे वतन पर
गैरों ने कब्ज़ा करने की,की हुई तैयारी है।
जनता के संघर्ष करने की अब आई बारी है।
उम्मीद है...
इस तमाशे से देश,समाज
बहुत जल्दी बाहर आएगा।
आम आदमी निकट भविष्य में
अपने भीतर सोए विजेता को बाहर लाएगा,
देश और  दुनिया पर
मंडराते संकट से
निजात दिलवाएगा।
कोई न कोई
इस आपातकाल को नेस्तनाबूद करने का
साहस जुटाएगा।
तभी सांस में सांस आएगा।
समय
इस दौर की कहानी
इतिहास का हिस्सा बन
सभी को सुनाएगा ताकि लोग
स्वार्थ की आंधी से
अपने अपने घर,परिवार बचा सकें।
निर्विघ्न कहीं भी आ जा सकें।
दीन ओ धर्म के नाम पर
जब अवाम को
बरगलाया जाता है,
तब क्या ईश्वर को
भुलाया नहीं जाता है?

दीन ओ धर्म
तब तक बचा रहेगा ,
जब तक आदमी का किरदार
सच्चा बना रहेगा ।

दीन ओ धर्म
तभी तक असरकारी है,
जब तक आदमी की
आंखों में
शर्म ओ हया के
जज़्बात जिंदा रहते हैं,
अन्यथा लोग हेराफेरी,
चोरी सीनाज़ोरी में
संलिप्त रहते हैं,
अंहकारी बने रहते हैं,
जो धर्म और कर्म को
दिखावा ही नहीं,
बल्कि छलावा तक मानते हैं।
ऐसे लोग
धर्म की रक्षा के नाम पर
देश, समाज, दुनिया को बांटते हैं,
नफ़रत फैला कर
अपनी दुकान चलाते हैं,
भोले भाले और भले आदमी
उनके झांसे में आकर
बेमौत मारे जाते हैं।
रिश्ते पाकीज़गी के जज़्बात हैं,इनका इस्तेमाल न कर।
पहले दिल से रिश्ता तोड़,फिर ही कोई गुनाह कर ।।
रिश्ते समझो, तो ही,ये जिंदगी में रंग भरते हैं।
ये लफ़्फ़ाज़ी से नहीं बनते,नादान,तू खुद कोआगाह कर।।
दोस्तों ओ दुश्मनों की भीड़ में, खोया न रहे तेरा वजूद ।
जिंदगी में ,इनसे बिछड़ने के लिए,खुद को तैयार कर।।
अपना,अपनों से क्या रिश्ता रहा है,इस जिंदगी में।
इस  पर न सोच,इसे सुलझाने में खुद को तबाह न कर।।
आज तू हमसफ़र के बग़ैर नया आगाज़ करने निकला है।
अकेलापन,तमाम दर्द भूल,आगे बढ़, नुक्ताचीनी ना कर।।
अब यदि किताब ए जिन्दगी के पन्ने भूत बन मंडरा रहे।
तब भी न रुक, ना डर, इन्हें पढ़ने से इंकार ना कर।।
कारवां जिन्दगी का चलता रहेगा,तेरे रोके ये ना रूकेगा।
जोगी तू  भीतर ये यकीं पैदा कर, रिश्ते मरते नहीं मर
कर।।
अर्थ
शब्द की परछाई भर नहीं
आत्मा भी है
जो विचार सूत्र से जुड़
अनमोल मोती बनती है!
ये
दिन रात
दृश्य अदृश्य से परे जाकर
मनो मस्तिष्क में
हलचलें पैदा करते हैं,
ये मन के भीतर उतर
सूरज की सी रोशनी और ऊर्जा भरते हैं।


अर्थ
कभी अनर्थ नहीं करता!
बेशक यह मुहावरा बन
अर्थ का अनर्थ कर दे!
यह अपना और दूसरों का
जीना व्यर्थ नहीं करता!!
बल्कि यह सदैव
गिरते को उठाता है,
प्रेरक बन आगे बढ़ाने का
कारक बनता है।
इसलिए
मित्रवर!
अर्थ का सत्कार करो।
निरर्थक शब्दों के प्रयोग से
अर्थ की संप्रेषक
ध्वनियों का तिरस्कार न करो।
अर्थ
शब्द ब्रह्म की आत्मा है ,
अर्थानुसंधान सृष्टि की साधना है ,
सर्वोपरि ये सर्वोत्तम का सृजक है।
ये ही मृत्यु और जीवन से
परे की प्रार्थनाएं निर्मित करते हैं।

तुम अर्थ में निहित
विविध रंगों और तरंगों को पहचानो तो सही,
स्वयं को अर्थानुसंधान के पथ का
अलबेला यात्री पाओगे।
अपने भीतर के प्राण स्पर्श करते हुए
परिवर्तित प्रतिस्पर्धी के रूप में पहचान बनाओगे।
शुक्र है ...
संवेदना अभी तक बची है,
मौका परस्ती और नूराकुश्ती ने,
अभी नष्ट नहीं होने दिया
देश और इंसान के
मान सम्मान को।
सो शुक्रिया सभी का,
विशेषकर नज़रिया बदलने वालों का।
देश,दुनिया में बदलाव लाने वालों का।।

शुक्रिया
कुदरत तुम्हारा,
जिसने याद तक को भी
प्यासे की प्यास,
प्यारे के प्यार की शिद्दत से भी बेहतर बनाया।
जिससे इंसान जीव जीव का मर्म ग्रहण कर पाया।

शुक्रिया
प्रकृति(स्वभाव)तुम्हारा
जिसने इंसानी फितरत के भीतर उतार,
उतार,चढ़ाव  भरी जीवन सरिता के पार पहुँचाया।
तुम्हारी देन से ही मैं निज अस्मिता को जान पाया।

शुक्रिया
प्रभु तुम्हारा
जिन्होंने प्रभुता की अलख
समस्त जीवों के भीतर, जगाकर
उनमें पवित्र भाव उत्पन्न कर,जीवन दिशा दिखाई ।
तुम्हारे सम्मोहक जादू ने अभावों की, की भरपाई ।
    

शुक्रिया
इंसान तुम्हारा
जिसने भटकन के बावजूद
अपनी उपस्थिति सकारात्मक सोच से जोड़ दर्शाई।
तुम्हारे ज्ञान, विज्ञान, जिज्ञासा, जिजीविषा ने नित नूतन राह दिखाई।

शुक्रिया! शुक्रिया!! शुक्रिया!!!
शुक्रिया कहने की आदत अपनाने वाले का भी शुक्रिया!
जिसने हर किसी को पल प्रति पल आनंदित किया,
सभी में उल्लास भरा ।
हर चाहत को राहत से हरा भरा किया।

७/६/२०१६.
जीवन युद्ध
है एक सतत संघर्ष,
इसमें उत्कर्ष भी है,
तो अपकर्ष भी।
अनमोल मोती सा
उत्कृष्ट निष्कर्ष भी।

यदि
आप चाहते हैं कि
जीवन युद्ध रहे ज़ारी।
यह तानाशाह के हाथों में
बने न नासूर सी बीमारी।
...
बनना होगा
भीतर तक निष्पक्ष।
करना होगा
भीतर बाहर संघर्ष।
आप
काले दिन झेलने की
करें प्राण, प्रण से तैयारी।
....और हाँ,खुद को
सच केवल सच
कहने, सुनने के लिए
करें तैयार।
जीवन मोह सहर्ष दें त्याग।
२६/०१/२०१०
जब से
मैं भूल गया हूं
अपना मूल,
चुभ रहे हैं मुझे शूल ।

गिर रही है
मुझे पर
मतवातर
समय की धूल ।

अब
यौवन बीत चुका है,
भीतर से सब रीत गया है,
हाय ! यह जीवन बीत चला है,
लगता मैंने निज को छला है।
मित्र,
अब मैं सतत्
पछताता हूं,
कभी कभी तो
दिल बेचैन हो जाता है,
रह रह कर पिछली भूलों को
याद किया करता हूं,
खुद से लड़ा करता हूं।

अब हूं मैं एक बीमार भर ,
ढूंढ़ो बस एक तीमारदार,  
जो मुझे ढाढस देकर सुला दे!!
दुःख दर्द भरे अहसास भुला दे!!
या फिर मेरी जड़ता मिटा दे!!
भीतर दृढ़ इच्छाशक्ति जगा दे।!

८/५/२०२०.
निठल्ले बैठे रह कर
हम कहां पहुंचेंगे ?
अपने भीतर व्याप्त विचारों को  
कब साकार करेंगे?
आज
सुख का पौधा
सूख गया है,
अहंकार जनित गर्मी ने
दिया है उसे सुखा।
आज का मानस
आता है नज़र
तन,मन,धन से भूखा!
कैसे नहीं उसकी जीवन बगिया में पड़ेगा सूखा?
आज दिख रहा वह,लालच के दरिया में बह रहा।
बाहर भीतर से मुरझाया हुआ, सूखा, कुमलहाया सा।

सुन मेरे भाई!
लोभ लालच की प्रवृति ने
नैसर्गिक सुख तुम से छीन लिए हैं ,
आज सब असमंजस में पड़े हुए हैं।

चेतना
सुख का वह बीज है ,
जो मनुष्य को जीवन्त बनाए रखती है।
मनुष्यता का परचम लहराए रखती है।

यह बने हमारी आस्था का केंद्र।
यह सुख की चाहत सब में भर,
करे सभी को संचालित
नहीं जानते कि सुखी रहने की चाहत,से ही
मनुष्य की क्रियाएं,प्रतिक्रियाएं, कामनाएं होती हैं चालित।
लेने परीक्षा तुम्हारी
वासना के कांटे
सुख की राह में बिछाए गए हैं।
भांति भांति के लोभ, लालच दे कर
लोग यहां भरमाए  गए हैं।
नहीं है अच्छी बात,
चेतना को विस्मृति के गर्त में पहुंचा कर,
पहचान छिपाना
और अच्छी भली राह से भटक जाना ।

अच्छा रहेगा, अब
शनै:शनै:
अपनी लोलुपता को घटाना,
धीरे धीरे
अपनी अहंकार जनित
जिद को जड़ से मिटाना।
जिससे रोक लग सके
मनुष्य की  अपनी जड़ें भूलने की प्रवृत्ति पर।

बहुत जरूरी है कि
मनुष्य वृक्ष होने से पहले ही
अपना मूल पहचाने,
वह अपनी जड़ों को जाने।

यही सार्थक रहेगा कि आज मानव
विचारों की कंकरियों के ढेर के मध्य
अपनी जीवंतता से साक्षात्कार  कर पाए।
प्रवास की चाहत
बेशक भीतर छुपी है,
परन्तु प्रयास
कुछ नहीं किया,
जहां था, वहीं रुका रहा।
दोष किस पर लगाऊं?
अपनी अकर्मण्यता पर..?
या फिर अपने हालात पर?
सच तो यह है कि
असफलता
बहानेबाजी का सबब भी बनती है।
सब कुछ समझते बूझते हुए भी
भृकुटी  तनती है।
    १७/१०/२०२४
सुख की खोज,
दुःख की खीझ,

सचमुच!

रूप बदल देती।

यह दर्द भी है देती!

यह मृगतृष्णा बनकर
सतत चुभती रहती।

२५/०४/२०२०
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
    उड़ान से पूर्व,  बंधु
    ‌ करनी पड़ती तैयारी,
   ताकि न पड़े चुकानी
   जीवन में कीमत भारी।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
विद्यालय के प्रांगण में,
गुरुजन करते लक्ष्य स्पष्ट।
जीवन के समरांगन में,
ताकि श्रम न हो नष्ट।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
शिक्षा आधार जीवन का,
हम इसे नींव बनायेंगे।
यह उत्तम फल जीवन का
इसे जीवन बगिया में उगायेंगे।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
  विपदा देश पर कभी पड़ी,
  हम एकजुट होंगे सभी।
   मातृभूमि की रक्षा में,
   हम प्राण वार देंगे सभी।।
ज्ञान विज्ञान के पंख लगा कर।
हम बच्चे उड़ेंगे उन्मुक्त होकर।।
   ‌
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब
अलग अलग, रंग ढंग ओढ़े
विश्व रचयिता की पूजा अर्चना,
इबादत और वन्दना।

प्यार को हवस,
विश्वास को विश्वासघात
समझे जाने का खतरा
अपने कंधों पर उठाये
चल रहे हैं लोग
तुम्हारे घर की ओर!
तुम्हारे दिल की ओर!!

तू पगले! उन्हें क्यों रोकता है?
अच्छा है, तुम भी उनमें शामिल हो जा ।
अपने उसूलों , सिद्धांतों की
बोझिल गठरी घर में छोड़ कर आ ।
प्यार, विश्वास
रही है हमारी दौलत
जिसकी बदौलत
कर रहे हैं सब मौज ।
तुम भी इसकी करो खोज।
न मढ़ो, अपनी नाकामी का किसी पर दोष।
प्यारे समझ  लें,तू बस!
जीवन का सच
कि अब सलीके से जीना ही
सच्ची इबादत है।
इससे उल्ट चलना ही खाना खराबी है,
अच्छी भली ज़िन्दगी की बर्बादी है।
   ९/६/२०१६.
जारी,जारी,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं,इस जहान की।
यहां
ईमानदार
भूखे मरते हैं,
दिन रात
मतवातर
डरते हैं।
अजब-गजब
रवायत है
इस जहान की।
जारी ,जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं ,इस जहान की।
यहां
बेईमान
राज करते हैं,
दिन रात
जनता के रखवाले
रक्षा करते हैं ,
जबकि
शरारती डराते हैं ,  
और
वे उत्पात मचाने से पीछे नहीं हटते हैं ।
जारी, जारी ,जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं, इस जहान की।
अजब
सियासत है ,
इस हिरासत की ।
यहां
कैदी
आज़ादी भोगते हैं
और
दिन रात
गुलामों पर बेझिझक भौंकते हैं ।
जारी ,जारी, जारी ,जारी,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीते हैं , इस जहान की।
सभी
यहां खुशी-खुशी
देश की खातिर
लड़ते हैं ।
अजब
प्रीत है
इस देश की।
यहां
सभी
अवाम की खातिर
संघर्ष करते हैं।
जारी ,जारी, जारी ,जारी ,जारी है यारो!
अजब ,अजब सी रीतें हैं , इस जहान की।
अजब
अजाब है
इस अजनबियत का।
यहां
सब लोग
नाटक करते हैं।
दिन रात
लगातार
नौटंकी करते हैं।
अजब
नौटंकी जारी है,
पता नहीं
अब किसकी बारी है।
किसने की रंग मंच पर
आगमन की तैयारी है ?
लगता है  
अब हम सब की बारी है।
क्या हम ने कर ली
इसकी खातिर तैयारी है ?
जारी ,जारी ,जारी ,जारी , जारी नौटंकी जारी है।
अजब ,अजब, अजब सी रीतें हैं इस जहान की।
अजब
नौटंकी जारी है।
लगता है ,
अब हम सब की बारी है।
कभी-कभी
झूठ मजबूर होकर
बोला जाता है,
उसे कुफ्र की हद तक तोला जाता है।
और कोई जब
इसे सुनने, मानने से
कर देता इन्कार,
तब उस पर  दबाव बनाया जाता है,
शिकंजा कसा जाता है।

ऐसे में
बचाव का
झट  से   एकमात्र उपाय
झूठ का सहारा  नजर आता है ,
ऐसा होने पर,
झूठ डूबते का सहारा होता है।
आदमी
जान हथेली पर रखकर
बेहिसाब दबाव से जूझते हुए
जान लेता है
जीवन का सच!
विडंबना देखिए!!
यह सच
नख से शिखा तक
झूठ से होता है
पूर्णतः सराबोर,
चाहकर भी आप जिसका
ओर छोर पकड़ नहीं पाते ,
भले ही आप कितने रहे हों विचलित।
कभी-कभी
झूठ,सच से ज़्यादा
रसूख और असर रखता है,
जब वह प्राण रक्षक बनता है।
आदमी झूठ का असर महसूस करता है।
ऐसे दौर में
झूठ,सच पर हावी होकर
विवेक तक को धुंधला देता है।
आदमी गिरावट का हो जाता शिकार।

सोचता हूं ...
आजकल कभी कभी
आखिर क्या है आदमी के भीतर कमी?
अच्छा भला, कमाता खाता ,
आदमी क्यों नज़र से गिर जाता है?

रख रहा हूं ,
अपने आसपास का घटनाक्रम।
जब झूठ
सच को
पूर्णतः ढकता है,
आदमी भीतर तक थकता है
और तब  तब
अन्याय का साम्राज्य फलता-फूलता है।

आजकल
लोग लोभी होकर
बहुत कुछ नज़र अंदाज़ करते हैं,
अपने अन्त की पटकथा को निर्देशित करते हैं।
27 · 7d
खेला
सन २०२३और २०२४ के दौर में राजनीति
नित्य नूतन खेल ,खेल रही है।  
मेरे शब्दकोश में एक नया शब्द " खेला" शामिल हुआ है। समसामयिक परिदृश्य में राजनीति करने वाले सभी दल
उठा पटक के खेल में मशगूल हैं।
सन २००५ में
लिखे शब्द उद्धृत कर रहा हूँ....,
"इन दिनों
एक अजब खेल खेलता हूँ...
जिन्हें/ मैं/दिल से/चाहता नहीं ,
उनके संग/सुबह और शाम
जिंदगी की गाड़ी ठेलता हूँ!
अपनी बाट मेल ता हूँ।"

आप ही बतलाइए
२००५ से लेकर २०२४ में क्या परिवर्तन हुआ है ?
या बस / व्यक्ति,परिवार,समाज और राजनीति में/
नर्तन ही हुआ है ।
उम्मीद है ,यह सब ज़ारी रहने वाला है।
याद रखें,अच्छा समय आने वाला है।
आजकल
सियासत
दूसरे के कंधे पर
बंदूक रखकर
चलाना है।
इसे अब
तथाकथित
आज़ादी के
उपासकों ने
बना लिया
एक बहाना है।

ऐसी
सियासत का
बोझ सब को
उठाना पड़
रहा है,
आदमी
व्यर्थ ही
इससे डर
रहा है।
२१/०५/२०२०.
जिंदगी ने
मुझे अक्सर
क़दम क़दम पर
झिंझोड़ा है
यह कहकर,
"वक़त तो
अरबी घोड़ा है,
वह सब पर
सवार रहता है,
कोई विरला
उसे
समझ पाता है।
जो समझा,वह कामयाब
कहलाता है,और....
नासमझ उम्रभर
धक्के खाता है,
ज़ुल्म और ज़लालत सहता है।"


यह सुनना भर था कि
बग़ैर देर किए
बरबस मैं
जिन्दगी के साए को महसूस
वक़्त को
संबोधित करते हुए
अदना सी गुस्ताख़ी कर बैठा ,
"तुम भी बाकमाल हो,यही नहीं लाजवाब हो,
हरेक सवाल के जवाब हो ।"
वक़्त ने मुझे घूरा।
फिर अचानक न जाने मैं कह गया,
सितम ए वक़्त सह गया...!,
"तुम सदाबहार सी जिन्दगी के अद्भुत श्रृंगार हो।
यही नहीं तुम एक अरबी घोड़े की रफ्तार सरीखे
मतवातर भाग रहे हो ।तुम चाह कर भी रुक न पाओगे।जानते हो भली भांति कि रुके नहीं कि
धरा पर विनाश, विध्वंस हुआ समझो । "
महसूस कर रहा हूं कि वक़्त एक शहंशाह है ...
और वह एक दरिया सा सब के अंदर बह रहा है...
......

धरा पर वक़्त एक अरबी घोड़े सा भाग रहा है।
हर पल वो , अंतर्मन का आईना बना हुआ
सर्वस्व के भीतर झांक रहा है।

सब को खालीपन के रु ब रु करा रहा है।

११/८/२०२४
26 · 2d
Protection
One is rightist
and another is leftist.
Their tussle for power
makes the world
pathetic and miserable.

Common man
must keep a choice
for protection and survival of life.
So he must lead a responsible simple life to survive.
He must keep check  himself on his income and
expenditure.
Otherwise capitalistic forces
are very active to write stories of destruction,suppression for a common man who has  no interest for politics,
possibly can create hurdles on the pathway of his progress.

Protection is necessary for all
powerful as well as small.
No body has right to create walls among person to person
with a motive of restrictions.
That' s why
we need protection in our lives to survive safely, neatly  and smoothly.
26 · 6d
तलाश
समय को
तलाश है
उस पीढ़ी की ।
जिसने पकड़ी न हो,
आगे बढ़ने की खातिर
भ्रष्टाचार की सीढ़ी।
24 · 1d
Need
Do we need limitless greed?
Inspite  a home,food, clothes and a job.
Engage yourself in search for a
contented life.
Keep your spirit so high,where only limit is sky.
Make constant efforts to attain
a comfortable life .
23 · 3d
Antique
My friend is very liberal.
He likes his antique collection and his selection of classic books.
But my philosophy of life is totally anti to his tastes.
He warns me not to interfere in his life, otherwise he will change me into an antique.
Guide me regarding this unhumantic behaviour.
At present I am planning to steal all his antique collection and to present this to someone who anticipates his ideas time to time.

Am I right or wrong?
At present,I am angry with his attitude toward me.
All this compels me to do some mischievous action.
वेदों, गीता, रामायण, महाभारत की
सृजन स्थली
भारतवर्ष
अब
आज के भागम भाग वाले
काल खंड में
महाभारत का स्वरूप भर
प्रतीत होता है।
हर कहीं छोटे बड़े
खंडित स्वरूपों में महाभारत
देश
और दुनिया में मंचित की
जा रही है।
लगता है महाभारत का युद्ध
अभी तक
जारी है।
यहां वहां चारों ओर
अंधकार फैला हुआ है।
छल प्रपंच के मध्य
यहां हर कोई
एक दूसरे को मार रहा है।
यहां हर कोई धीमी मौत मर रहा है।
अर्जुन सरीखा,जो लड़ने में सक्षम है,
जीवन की युद्धभूमि से भाग रहा है।
यहां हर कोई पार्थ की प्रतीक्षा कर रहा है।
इस सब के बावजूद
हर कोई अपना अपना युद्ध लड़ रहा है।
१५/११/२०२४.
गुप्त
देर
तक

गुप्त न रहेगा!
यह नियति है !!
विचित्र स्थिति है!
वह सहजता से  
होता है प्रकट
अपनी संभावना को खोकर।


गुप्त
भेद खुल जाने पर
हो जाता है
लुप्त!
न!न! असलियत यह है कि
वह
अपने भेदों को
मतवातर छुपाता आया है
आज अचानक भेद खुलने से
उसका हुआ है अवसान।  
सारे भेद हुए प्रकट यकायक।
भीतर तक शर्मसार!!
अस्तित्व झिंझोड़ा गया!!लगा दंश!!
कोई अंत की सुई चुभोकर,
कर गया बेचैन।
जगा गया गहरी नींद से,
और स्वयं सो गया गहरी  नींद में।
वह मेरा प्रतिबिंब आज अचानक खो गया है ,
जिसे गुप्त के अवसान के
नाम से नई पहचान दे दी तुमने
जाने अनजाने ही सही,हे मेरे मन!
तुम्हें मेरा सर्वस्व समर्पण।! ,हे मेरे प्यारे , न्यारे मन!
22 · 2d
Chess board
I am worried to see the climatic change.
It is beyond my range.
The whole world 🌎 seems me
like a chess board where
ups and downs related to 🌡️☁️🌡️☁️ weather change
is  disturbing to all of us.

Where all human beings,are playing the role of puppets.
Because nowadays
they have lost control over their destiny.
I am in a deep state of worries
from where I can see the finishing point of my planet 's life.
Who will cry 😢 with me to express sorrows for our beautiful mother Earth 🌍🌎🌍🌎!
Climatic changes made us like disturbed helpless souls wandering
here  and there on Earth.
22 · 22h
पतन
एक पत्ता
पेड़ से गिरा ही था कि
मुझे हुआ अहसास,
कोई अपना पता भूल गया है,
उसे तो सृजनहार से मिलने जाना था।
जाने अनजाने ही!
शायद गिरने के बहाने से ही!!

सोचता हूं...
वो कैसे
उस सृजनहार को
अपना मुख दिखला पाएगा।
कहीं वह भी तो नहीं
डाल से गिरे पत्ते जैसा हो जाएगा।
कभी मूल तक न पहुंच पाएगा।
१४/०५/२०२०.
22 · 6d
Waiting
Dead bodies are   waiting
for creameation in the battlefield of life.
But nobody is available near them to clean and clear their scattered body parts.
All are busy in their routine activities.
How can they take care of them ?
There is no information regarding their death.There is no rhythm,no movements ,no feelings in their deadly surrounding.
They all are victims.... living or dead...of an insensitive world.


Among them
we also are some ones who have completely  forgotten their sincere efforts and sensitiveness.
We have lost our credibility for them...
who has lost their lives for the petty interests of their countrymen.
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
तू अनाप शनाप खर्च न किया कर।
कठिन समय है,कुछ बचत किया कर।
खुदगर्ज़ी छिपाने की मंशा से दान देता है,
बिना वज़ह धन को लुटाने से बचा कर।
मन का मीत करता रहता मुझे आगाह।
मत बन बेपरवाह, मितव्ययिता अपना,
अनाप शनाप खर्च से जीवन होता तबाह।
धोखा खाने, पछताने से अपना आप बचा।
देख, कहीं यह जीवन बन न जाए एक सज़ा।।
कम दाम में
बादाम खाने हों
तो बंदा चतुर होना चाहिए।

अधिक दाम दे कर
धक्के खाने हों
तो बंदा अति चतुर होना चाहिए।

एक बात कहूं
बंदा,जो सुन ले, सभी की
करे अपनी मर्ज़ी की ।
वह कतई न ढूंढना चाहे
किसी में ‌कोई भी कमी पेशी।
ऐसा इन्सान
न केवल सम्मान पाता है,
सभी से हंसी-मजाक कर पाता है,
बल्कि सभी की कसौटी पर खरा उतरता है।
ऐसा शख्स आज़ाद परिंदे सरीखा होता है,
जिससे दोस्ती का चाहवान हर कोई होता है।
ऐसा आदमी न केवल भाई की कमी हरता है,
बल्कि उसकी सोहबत से हर कोई खुशी वरता है।
मित्र वर! एक पते की बात कहूं,
वह शख्स मुझे तुम्हारे   जैसा लगता है।


दोस्त,
आज़ाद परिंदों की सोहबत कर
ताकि मिट सकें बेवजह के डर ।
कतई न अपनी आज़ादी
किसी आततायी के पास गिरवी रख ,
ताकि तुम अपनी मंजिल की तरफ़ बेख़ौफ़ सको बढ़ ।

१०/०६/२०१६.
हमें
जो संस्कार मिले हैं,
वे हमें सच से जोड़ते हैं,
झूठ से मुख मोड़ना बतलाते हैं।

हम
सच बोलने के आदी हैं
ना कि
ज़ुल्म ओ सितम के आगे
घुटने टेकने वाले
नैतिकता के अपराधी हैं।


हम तो बस फरियादी हैं।
जीवन के रस से पले बढ़े हैं!
जीवन संघर्षों में सीना तान खड़े हैं!!

हमें जो संस्कार मिले हैं,
उनसे हमें जीवनाधार मिला है।
इन संस्कारों ने हमें निर्मित किया है ,
और बतौर उपहार , हमारा व्यक्तित्व गढ़ा है।
  १४/०५/२०२०.
व्यथित मन
आजकल मनमानियों पर
उतारू है,
इस ने बनाया हुआ
बहुतों को
बीमारू है।
उसके अंदर व्याप्त
प्रदूषण पर कैसे रोक लगे।
आओ,इस बाबत जरा बात करें ।
मन के भीतर का
सूख चुका जंगल तनिक हो सके हरा भरा।

मन के प्रदूषण पर रोक लगे,
कुछ तो हो कि
मानव का व्यक्तित्व
आकर्षण का केंद्र बने ।

जब मन
मनमानियां करने लगे,
और आदमी
अनुशासन भंग करने लगे ,
तो कैसे नहीं ?
आदमी औंधे मुँह गिरे!
फिर तो मतवातर
भीतर डर भरे।
अब सब सोचें,
मन की मनमानी कैसे रुके?

मन की उच्छृंखलता पर
लगाम कसने की
सब कोशिश करें,
ताकि आदमी
सच से नाता जोड़ सके,
और वह पूर्ववत के
अपने अधूरे छूट चुके कामों को
निष्पादित करने का यत्न करे।

इसी प्रक्रिया से आदमी निज को गुजारे।
उसके भीतर
खोया हुआ आत्मविश्वास लौटे
और शनै: शनै:
उसकी मनोदशा में सुधार हो,
वह आगे बढ़ने के लिए तैयार हो।

उसके मन की संपन्नता बढ़े,
और मन में जो मुफलिसी के ख्यालात भर चुके हैं,
वे धीरे धीरे से समाप्त हों।
मन के आकाश में से
दुश्चिंतता,अनिश्चितता, अस्पष्टता,
अंधेरे के बादल
छंटने लगें,
मन के भीतर
फिर से
उजास भर जाए।
सब आगे बढ़ने के प्रयास करते जाएं।

मन का उदास जंगल
फिर से खिल उठे,
सब इस खातिर प्रयास करें।
आओ,इस मुरझाए
मन के जंगल में
हरियाली के बीज फैलाएं।
यह हरा भरा होता चला जाए।

आओ,
मन के जंगल में
कुछ
प्रसन्नता, संपन्नता की खाद डालकर ,
वहां अंकुरित बीजों को
सुरक्षा का आवरण प्रदान करें,
ताकि वहां शांति वन बनाया जा सके।

कालांतर में
यही वन
व्यक्ति,समाज,देश को
अशांति, दुःख,दर्द, मुफलिसी के दौर में
तेज तीखी धूप में
छाया देते प्रतीत हों।
मन में कुछ ठंडक महसूस हो।

जब मन के भीतर खुशियां भर जाती हैं,
तब मन को नियंत्रित करना सरल है,
मन के भीतर से कड़वाहट खत्म होती जाती है,
एक पल सुख सुकून का भी आता है,
उस समय मन की मनमानी पर रोक लग ही जाती है।
और मन का वातावरण
हरियाली के बढ़ने,
पुष्पों के खिलने,
परिंदों के चहकने,
बयार के चलने से
सुवासित हो जाता है।
मन के भीतर कमल खिल जाता है!
आदमी स्वत: खिल खिल जाता है।!!
यह सब कुछ
भीतर के ताप को
कम कर देता है।
आदमी शीतलता की अनुभूति करता है।
धीरे धीरे मन के प्रदूषण पर रोक लग जाती है।
मन के भीतर सकारात्मकता भर जाती है।
आदमी  के मन की मरुभूमि
नखलिस्तान सरीखी हो जाती है।
हर किसी की सोच बदल जाती है।
मन का प्रदूषण दूर हुआ तो
अमन चैन की दुनिया घर में बस जाती है।
ऐसे में
संपन्नता की खनक भी सुनी जाती है।
दंगा
दंग नहीं
तंग करता है,
यह मन की शांति को
भंग करता है।
दंगाई
बेशक  
अक्ल पर पर्दा पड़ने से
जीवन के रंगों को
न केवल
काला करता है ,
बल्कि वह खुद को
एक कटघरे में खड़ा करता है।

उसकी अस्मिता पर
लग जाता है प्रश्नचिह्न।
दंगे के बाद
भीतर उठे प्रश्न भी मन को
कोयले सरीखा
एक दम स्याह काला
कर देते हैं
कि वहां उजाला पहुंचना
नामुमकिन हो जाता है,
फिर दंगाई
कैसे उज्ज्वल हो सकता है ?
वो तो
समाज के चेहरे पर
स्याही पोतने का काम करता है।
उसके कृत्यों से  
उसका हमसफ़र भी घबराता है।
वह धीरे-धीरे
दंगाई से कटता जाता है।
बेशक वह लोक दिखावे की वज़ह से
साथ निभाता लगे।

दंगा
मानव के चेहरे से
नक़ाब उतार देता है
और असलियत का अहसास कराता है।
दंगाई न केवल नफ़रत फैलाता है,
बल्कि उसकी वज़ह से
आसपास कराहता सुन पड़ता है।

इस कर्कश
कराहने के पीछे-पीछे
विकास के विनाश का
आगमन होता है ,
इसे दंगाई कहां
समझ पाता है?
यह भी सच है कि
दंगा
सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाता है।
दंगा
अराजकता फैलाने की
ग़र्ज से प्रायोजित होता है।
इसके साथ ही
यह
समाज का असली चेहरा दिखाता है
और आडंबरकारी व्यवस्था की  
असलियत को
जग ज़ाहिर कर देता है।

भीड़ तंत्र का  
अहसास है दंगा,
जो यदा-कदा व्यक्ति और समाज के
डाले परदे उतार देता है ,साथ ही नक़ाब भी।
यह देर तक
इर्द-गिर्द  बेबसी की दुर्गन्ध बनाये रखता है ,
सोई हुई चेतना को जगाये रखता है।
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