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हमें
जो संस्कार मिले हैं,
वे हमें सच से जोड़ते हैं,
झूठ से मुख मोड़ना बतलाते हैं।

हम
सच बोलने के आदी हैं
ना कि
ज़ुल्म ओ सितम के आगे
घुटने टेकने वाले
नैतिकता के अपराधी हैं।


हम तो बस फरियादी हैं।
जीवन के रस से पले बढ़े हैं!
जीवन संघर्षों में सीना तान खड़े हैं!!

हमें जो संस्कार मिले हैं,
उनसे हमें जीवनाधार मिला है।
इन संस्कारों ने हमें निर्मित किया है ,
और बतौर उपहार , हमारा व्यक्तित्व गढ़ा है।
  १४/०५/२०२०.
मर्यादा
माया से डरें नहीं
बल्कि
वह अपनी सीमा से बंधी रहे।
कुछ ऐसा
तुम पार्थ करो,
सार्थक जीवन के लिए
जन जन के
प्रेरक बनो ।
कहे है इतिहास सभी से
कृष्ण सा चेतना पुंज बनो।
जीवन युद्ध के संघर्षों में  
शत्रुहंता होने के निमित्त
धनुष पर राम बाण से होकर तनो ।
जीवन के वर्चस्व को  
राष्ट्र प्रथम के सिद्धांत की तरह चुनो।
I want to learn endless lessons from the listening.
The sounds of the surroundings inspire me to connect with the sensitivity of the living beings and also non living beings.
These days I am not able to hear the sounds of life which is closely associated with my existence.
And as a natural result,due to hearing loss, it haunts me.
I am now almost  helpless and  starts feeling the undetected sounds of the mind .
These sounds teach me, how to make life full of happiness and kindness.
So,these days,I am engaged myself to listen and learn endless lessons from the life and the time.
My expiry date is very near,and I am listening the sounds of the life to clear my doubts regarding the fear of the death as well as rebirth,dear..!
In spite of the lack of the listening power ,I am waiting for my last hours of the life with a tearful eyes and fearful mind.
Oh !I am astonished to hear the foot steps of the life during  waiting for the death hours.

All of sudden the Life assured me that she is granting me a bonus chance to listen and learn lessons from the life. Now I am happy with the presence of the sounds.
तू जिंदगी की राह में
राहत क्यों ढूंढता ‌है?
तुम्हें उतार चढ़ाव से भरी
डगर पर चलना है।
आखिरकार लक्ष्य हासिल कर
मंज़िल तक पहुंचना है।
सकारात्मक सोचना है।
शोषण को भी रोकना है।
सच से नाता जोड़ना है।
निज अस्मिता को खोजना है।
ताकि मिले खोई हुई पहचान,
बना रहे जीवन में आत्मसम्मान।
आजतक
स्वयं से
की है प्रीत।
फलत:अब
हूँ भीतर तक
भयभीत।
चाहता हूँ,
करना
औरों से भी
निस्वार्थ प्रीत!
ताकि जीवन में
रह सकूँ सहज।
नित्य सीख सकूँ
कुछ नवीन,
बन सकूँ
प्रवीण
और स्वयं को
लूँ जीत।
रचूँ जीवन में
एक नई रीत।
न रहूँ कभी
भयभीत।
२/६/२०२०.
17 · 1d
Exit
If you can enter only.
You have no option to exit.
How can you feel happiness ?
In such an adverse situation,
you will find yourself in stress.
How can a person survive,and
revive to his values and beliefs?
It is extremely painful, dangerous and unpathetic to exist .

Some people put barricades at the exiting point.
Life in such hard times
becomes like a paramount.Where climbing is very difficult,when at the same time,man feel himself hungry as well angry to think his miserable surroundings.
Only there is no escape and no existence at exiting point. Sometimes man starts haunting himself for his imprisonment like situation. He feels that he has been caught and trapped in  a cage.
It can be anybody 's page of the life.
जब जेबें खाली हो गईं,
बैठे बैठे खाते रहे,
कमाया कुछ नहीं,
घरों में बदहाली आ गई,
तब आई
गाँव में रह रहे
सगे संबंधियों की याद।
सोचा, अपनों के पास जाकर ,
फरियाद करेगें ,
उधार के रूप में
मदद के लिए
अनुरोध करेंगे,
बंधु बांधवों के सम्मुख ।
चल पड़े जैसे तैसे पैदल
थके हारे, प्रभु आसरे,गिरते पड़ते,
एक के पीछीक सभी लोग,
तज के सारे लालच लोभ ।
बहुत सारे बीच मार्ग में
भूख और लाचारी,
लूटपाट, मारा मारी ,
धोखाधड़ी का बने शिकार ।
ऊपर से कोरोना का भय विकराल,
लगा कर रहे ताण्डव महाकालेश्वर
बाबा भोलेनाथ
सब की परीक्षा ले रहे,
क्रोध में हैं महाकाल।

देख दुर्दशा बहुतों की,
सुख सुविधा वंचित दिन हीनों की,
बहुतों की आँखों में अश्रु आए झर।
उन्होंने मदद हेतु हाथ बढ़ाए,
वे मानवता के सेतु बन पाए ।
देख, महसूस, दुर्दशा,उन सभी की,
बहुतों को रोना आ गया।
सोचते थे घड़ी घड़ी।
यह कैसा आपातकाल आ गया।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का अप्रत्याशित भय
उनकी संवेदना, सहृदयता,
सहयोग, सौहार्द,
सहानुभूति को खा गया।
सब सकते में थे।
यह कैसा समय आ गया।
अकाल मृत्यु का भय
सबके मनों में घर कर गया।मृत्यु का चला
अनवरत सिलसिला
बहुतों के रोजगार खा गया।
सामाजिक सुरक्षा की मज़बूत दीवारों को ढा गया।
रिश्तेदारों ने दुत्कार दिया।
सोचते थे सब तब
अब कैसे प्राप्त होगी सुरक्षा ढाल?
सब थे बेहाल,
बहुत से मजदूर वर्ग के
बंधु बांधव थे फटेहाल।
कौन रखेगा अब
आदमी और उसकी आदमियत का ख्याल ?

आज वह दौर बीत गया है।
बहुत कुछ सब में से रीत गया है।
अब भी
बहुल से लोग
कोरोना का दंश झेल रहे हैं।
उनकी आर्थिकता बिल्कुल चरमरा चुकी है,
अब भी  कभी कभी
बीमारी,लाचारी, हताशा, निराशा ,
उन्हें आत्महत्या के लिए बाध्य करती है,
कमज़ोर हो चुकी मानसिकता
आत्मघात के लिए उकसाती है।
अभी कुछ दिन पहले मेरे एक पड़ोसी ने
रात्रि तीन बजे करोना काल में आई बीमारी, कमज़ोरी के कारण कर लिया था आत्मघात ।
अब भी कभी कभी
पोस्ट कोरोना  का दुष्प्रभाव
देखने को मिल जाता है।
इसे महसूस कर
अब भी भीतर
भूकंपन सा होता है,
भीतर तक हृदय छलनी हो जाता है।

कोरोना महामारी अब भी जिंदा है,
बेशक आज इंसान,देश,दुनिया,समाज
इस महामारी से उभर चुका है।
मानवता  अभी भी शोकग्रस्त और पस्त है।
कोरोना काल में
बहुत से घरों में
जीवन का सूरज अस्त हुआ था,
वहाँ आज भी सन्नाटा पसरा हुआ है।
वहां बहुत कुछ बिखरा हुआ है,
जिसे समेटा नहीं जा सकता।
बिकती देह,
घटता स्नेह
यह सब क्या है?
यह सब क्या है?
शायद
यही स्वार्थ है!
हम निस दिन
करते रहते ढोंग,
कि पाना चाहते हैं परमार्थ।
परन्तु
पल प्रति पल
होते जाते हम उदासीन।
सभ्यता के जंगल में
यह है एक जुर्म संगीन।
जो बिकती देह
और बिखरते स्नेह के बीच
हमें सतत रहा है लील ।
जिसने आज़ादी, सुख चैन,
लिया है छीन।
यह कतई नहीं ठीक
हमारे वजूद के लिए।

मूल्य विघटन के दौर में
यदि संवेदना बची रहे
तो कुछ हद तक
न बिके देह बाजार में,
और न घटे स्नेह संसार में
बने रहें सब इन्सान निःसंदेह।
सच! हरेक को प्राप्त हो तब स्नेह,
जिसकी खातिर वह भटकता आया है
नाना विध ख्वाबों को बुनते हुए
वह स्वयं को भरमाता आया है,
जो रिश्तों को झूठलाया आया है।
और जिस के अभाव में
आज का इन्सान
निज देह और पर देह तक को
टुकड़ों टुकड़ों में
गिरवी रखता आया है !
आज उसने बाजार सजाया है!!
वो व्यापारी बना हुआ गली गली घूमता है।
अपने रिश्तों को नये नये नाम दे,
सरे बाजार बेचता पाया गया है।
मूल्य विहीन सोच वाला होकर
उसने खुद को
खूब सताया है।
उसने खुद को
कहां कहां नहीं
भटकाया है?
आज रिश्ते बिखरे गये हैं,
सभ्यता का मुलम्मा ओढ़े
हम जो निखर गये हैं।
बिखरे रिश्तों के बीच
हम एक संताप
मन के भीतर रखें
जर्जर रिश्तों को ढोते आ रहे हैं,
स्व निर्मित बिखराव में खोते जा रहे हैं,
जागे हुए होते हैं प्रतीत,
मगर सब कुछ समझ कर भी सोये हुए हैं।

  १०/०६/२०१६.

— The End —