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आज कल
इंसान होना बहुत मुश्किल है  
क्यों कि
उसके सामने
मुश्किलें बढ़ाने वाला कल है।
सो, यदि इंसान कहलाना चाहते हो
तो यह भी समझ लो,
तेज भागते समय को
अच्छे से समझ लो।

क्रोध करने से पहले
आदमी के पास
सच सुनने का जिगरा होना चाहिए
और साथ ही
उस के पास
झूठ को झुठलाने का  
हुनर होना चाहिए।

कभी कभार
दिल की जुस्तजू को पीछे रख
खुद से गुफ्तगू करते हुए
दिल को बहलाने का भी
हुनर होना चाहिए।
यदा कदा दिल
बहलाते रहना चाहिए।
उसे हल्के हल्के
मुस्कराते रहना चाहिए।




अब तो
मुस्करा प्यारे
तुझे जीवन भर
अपनों से सम्मान मिलेगा,
जिससे स्वत:
जीवन धारा में निखार दिखेगा।
देश और समाज को
स्वस्थ,साधन, सम्पन्न
संसार मिलेगा।
मुस्करा प्यारे मुस्करा।
अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ा।
१६/०७/२०२२
कभी कभी
अप्रत्याशित घट जाता है
आदमी इसकी वज़ह तक
जान नहीं पाता है,
वह संयम को खुद से अलहदा पाता है
फलत: वह खुद को बहस करने में
उलझाता रहता है,वह बंदी सा जकड़ा जाता है।

कभी कभी
अच्छे भले की अकल घास
चरने चली जाती है
और काम के बिगड़ते चले जाने,
भीतर तक तड़पने के बाद
उदासी
भीतर प्रवेश कर जाती है।
कभी कभी की चूक
हृदय की उमंग तरंग पर
प्रश्नचिन्ह अंकित कर जाती है ।
यही नहीं
अभिव्यक्ति तक
बाधित हो जाती है।
सुख और चैन की आकांक्षी
जिंदगी ढंग से
कुछ भी नहीं कर पाती है।
वह स्वयं को
निरीह और निराश,
मूक, एकदम जड़ से रुका पाती है।

कभी कभी
अचानक हुई चूक
खुद की बहुत बड़ी कमी
सरीखी नज़र आती है,
जो इंसान को
दर बदर कर, ठोकरें दे जाती है।
यही भटकन और ठोकरें
उसे एकदम
बाहर भीतर से
दयनीय और हास्यास्पद बनाती है।
फलत: अकल्पनीय अप्रत्याशित दुर्घटनाएं
सिलसिलेवार घटती जाती हैं।
   १६ /१०/२०२४.
सूरज के उदय और अस्त के
अंतहीन चक्र के बीच
तितली
जिंदगी को
बना रही है आकर्षक।
यह
पुष्पों, लताओं, वृक्षों के
इर्द गिर्द फैली
सुगन्धित बयार के संग
उड़ती
भर रही है
निरन्तर
चेतन प्राणियों के घट भीतर
उत्साह,उमंग, तरंग
ताकि कोई असमय
ना जाए
जीवन के द्वंद्वों, अंतर्द्वंद्वों से हार
और कर दे समर्पण
जीवन रण में मरण वर कर।

तितली को
बेहतर ढंग से
समझा जा सकता है
उस जैसा बन कर।
जैसे ही जीवन को
जानने की चाहत
मन के भीतर जगे
तो आदमी डूबा दे
निज के पूर्वाग्रह को
धुर गहन समंदर अंदर
अपने को जीवन सरिता में
खपा दे,...अपनी सोच को
चिंतन के समन्दर सा
बना दे।


और खुद को
तितली सा उड़ना
और...
उड़ना भर ही
सिखा दे।

वह
अपने समानांतर
उड़ती तितली से
कल्पना के पंख उधार लेकर
अपने लक्ष्यों की ओर
पग बढ़ा दे।
चलते चलते
स्वयं को
इस हद तक थका दे, वह तितली से
प्रेरणा लेकर
अपने भीतर आगे बढ़ने,
जीवन रण में लड़ने,उड़ने का जुनून भर ले।
अपने अंदर प्रेरणा के दीप जगा ले।
जीवन बगिया में खुद को तितली सा बना ले।
"दंभ से भरा मानस
नरक ही तो भोगता है, ... । "
इसका अहसास
दंभी होने पर ही हुआ।
वरना इससे पहले मैं
नासमझी से भरा
जीवन को समझता फिरा
महज़ एक जुआ।
अब मानता हूँ,
"जब जब हार मिली,
तब तब आत्मविश्वास की चूल हिली ।"
  १७/१०/२०२४
मौत को मात
अभी तक
कौन दे पाया?

कोई विरला
इससे पंजे लड़ाकर,
अविचल खड़ा रहकर
लौट आता है
जीवन धारा में
कुछ समय बहने के लिए।

बहुत से सिरफिरे
मौत को मात देना चाहकर भी
इसके सम्मुख घुटने टेक देते हैं।
मौत का आगमन
जीवन धारा के संग
बहने के लिए
अपरिहार्य है!
सब जीवों को
यह घटना स्वीकार्य है!!

कोई इसे चुनौती नहीं दे पाया।
सब इसे अपने भीतर बसाकर,
जीवन की डोर थाम कर ,
चल रहे हैं...अंत कथा के समानांतर ,
होने अपनी कर्मभूमि से यकायक छूमंतर।

महाकाल के विशालकाय समन्दर में
सम्पूर्ण समर्पण और स्व विसर्जन के
अनूठे क्षण सृजित कर रहे ,
जीवन से प्रस्थान करने की घटना का चित्र
प्रस्तुत करते हुए एक अनोखी अंतर्कथा।
मान्यता है यह पटकथा तो
जन्म के साथ ही लिखी जाती है।
इस बाबत आपकी समझ क्या कहती है?
शब्द
कुछ कहते हैं सबसे,
हम अनंत काल से
समय सरिता के संग
बह रहे हैं।

कोई
हमें दिल से
पकड़े तो सही,
समझे तो सही।
हम खोल देंगे
उसके सम्मुख
काल चेतना की बही।

कैसे न कर देंगे हम
जीवन में,आमूल चूल कायाकल्प।
भर दें, जीवन घट के भीतर असीम सुख।
२६/१२/२००८.
श्री मान,
सुनिए,
दिल से निकली बात ,
जिसने
मानस पटल पर
छोड़ा अमिट प्रभाव।
  
बहुत सी समस्याओं का समाधान,
लेकर आता जीवन में मान सम्मान।
और
बहुधा
समस्या का हल
सीधा और सरल
होता है।
समस्या को सुलझाने के
प्रयासों की वज़ह से
कभी कभी
हम उलझ जाते हैं,
उलझन में पड़ते जाते हैं।
समाधान
कुछ ऐसा है,
समस्या को
बिल्कुल समस्या न समझें,
बल्कि
समस्या के संग
जीवन जीने का तरीका सीखें।
देखना,समस्या छूमंतर हो जाएगी।
वह कुछ सकारात्मकता उत्पन्न कर
जीवन में बदलाव लाकर
जन जन में उमंग तरंग भर जाएगी।
  ११/०५/२०२०.
आज
फिर से
झूठ बोलना पड़ा!
अपने
सच से
मुँह मोड़ना पड़ा!
सच!
मैं अपने किए पर
शर्मिंदा हूँ,
तुम्हारा गला घोटा,
बना खोटा सिक्का,
भेड़ की खाल में छिपा
दरिंदा हूँ।
सोचता हूँ...
ऐसी कोई मज़बूरी
मेरे सम्मुख कतई न थी
कि बोलना पड़े झूठ,
पीना पड़े ज़हर का घूंट।

क्या झूठ बोलने का भी
कोई मजा होता है?
आदमी बार बार झूठ बोलता है!
अपने ज़मीर को विषाक्त बनाता है!!
रह रह अपने को
दूसरों की नज़रों में गिराता है।

दोस्त,
करूंगा यह वायदा
अब खुद से
कि बोल कर झूठ
अंतरात्मा को
करूंगा नहीं और ज्यादा ठूंठ
और न ही करूंगा
फिर कभी
अपनी जिंदगी को
जड़ विहीन!
और न ही करूंगा
कभी भी
सच की तौहीन!!
१६/०२/२०१०
जिस्म
सर्द मौसम में
तपती आग को
ढूंढना है चाहता।

जिस्म
गर्म मौसम में
बर्फ़ सरीखी
शीतलता है चाहता।

जिस्म
अपनी मियाद
पूरी होने पर
टूट कर बिखर है जाता।

नष्ट होने पर
उसे जलाओ या दफनाओ,
चील,गिद्ध, कौओं को खिलाओ।
क्या फ़र्क पड़ता है?
क्यों न उसे दान कर पुण्य कमाओ!
क्या फ़र्क पड़ता है?
जगत तो अपने रंग ढंग से
प्रगति पथ पर बढ़ता है ।
हे दर्पणकार! कुछ ऐसा कर।
दर्प का दर्पण टूट जाए।
अज्ञान से पीछा छूट जाए।
सृजन की ललक भीतर जगे।
हे दर्पणकार!कोई ऐसा
दर्पण निर्मित कर दो जी,
कि भीतर का सच सामने आ जाए।
यह सब को दिख जाए जी।

हे दर्पणकार!
कोई ऐसा दर्पण
दिखला दो जी।
जो
आसपास फैले आतंक से
मुक्ति दिलवा दे जी ।

हे दर्पणकार!
अपने दर्पण को
कोई आत्मीयता से
ओतप्रोत छुअन दो
कि यह जादुई होकर
बिगड़ों के रंग ढंग बदल दे,
उनके अवगुण कुचल दे ,
ताकि कर न सकें वे अल छल।
उनका अंतःकरण हो जाए निर्मल।

हे दर्पणकार!
तोड़ो इसी क्षण
दर्प का दर्पण ,
ताकि हो सके  
किसी उज्ज्वल चेतना से साक्षात्कार ,
और हो सके
जन जन की अंतर्पीड़ा का अंत,
इसके साथ ही
अहम् का विसर्जन भी।
सब सच से नाता जोड़ सकें,
जीवन नैया को
परम चेतना की ओर मोड़ सकें।
८/६/२०१६
निजता को
यदि बचाना है
तो कीजिए एक काम।
मोबाइल तंत्र से
प्रतिदिन
कुछ घंटों के लिए
ले लीजिए विश्राम।
ताकि तनाव भी
तन से दूर रहे,
निज देह में
नेह और संवेदना बनी रहे।
कभी
देश में फैला था
एक दंगा।
अर्से बाद हुआ
खुलासा ,
जिससे
नेतृत्व हुआ
नंगा।
सोचता हूँ,
अब
क्या होगा?
नेतृत्व
खुद को
बचा पाएगा
या कुछ
अप्रत्याशित
घट जाएगा।
क्या
समाज
जातियों में
बंट जाएगा?
३/६/२०२०
कोई
बरसात के मौसम की तरह
बिना वज़ह
मुझ पर
बरस गया।
सच! मैं सहानुभूति को
तरस गया,
यह मिलनी नहीं थी।
सो मैं खुद को समझा गया,
यहाँ अपनी लड़ाई
अपने भीतर की आग़ धधकाए रख कर
लड़नी पड़ती है।

अचानक
कोई देख लेने की बात कर
मुझे टेलीफ़ोन पर
धमकी दे गया।
मैं..... बकरे सा
ममिया कर रह गया,
जुर्म ओ सितम सह गया।
कुछ पल बाद
होश में आने के बाद
धमकी की याद आने के बाद
एक सिसकी भीतर से निकली।
उस पल खुद को असहाय महसूस किया।

जब तब यह धमकी
मेरी अंतर्ध्वनियों पर
रह रह हावी होती गई,
भीतर की बेचैनी बढ़ती गई।

समझो बस!
मेरा सर्वस्व आग बबूला हो गया।

मैंने उसे ताड़ना चाहा,
मैने उसे तोड़ना चाहा।
मन में एक ख्याल
समय समंदर में से
एक बुलबुले सा उभरा,
...अरे भले मानस !
तुम सोचो जरा,
तुम उससे कितना ही लड़ो।
उसे तोड़ो या ताड़ना दो।
टूटोगे तुम ही।
बल्कि वह अपनी बेशर्म हँसी से
तुम्हे ही रुलाएगा और करेगा प्रताड़ित
अतः खुद पर रोक लगाओ।
इस धमकी को भूल ही जाओ।
अपने सुकून को अब और न आग लगाओ।
वो जो तुम्हारे विरोध पर उतारू है,
सिरे का बाजारू है।
तुम उसे अपशब्द कह भी दोगे ,तो भी क्या होगा?
वो खुद को डिस्टर्ब महसूस कर
ज़्यादा से ज़्यादा पाव या अधिया पी लेगा।
कुछ गालियां देकर
कुछ पल साक्षात नरक में जी लेगा।

तुम रात भर सो नहीं पाओगे।
अगले दिन काम पर
उनींदापन झेलते हुए, बेआरामी में
खुद को धंसा पाओगे।

यह सब घटनाक्रम
मुझे अकलमंद बना गया।

एक पल सोचा मैंने...
अच्छा रहेगा
मैं उसे नजरअंदाज करूँ।
खुद से उसे न छेड़ने का समझौता करूँ ।
यूं ही हर पल घुट घुट कर न मरूं ।
क्यों न मैं
उस जैसी काइयां मानस जात से
परहेज़ करूँ।
२७/०७/२०१०.
E
यह कतई झूठ नहीं
कि अधिकार पात्र व्यक्ति को मिलते हैं।
तुम्हीं बताओ...
कितने लोग
अधिकारी बनने के वास्ते
सतत संघर्ष करते हैं?


मुठ्ठी भर लोग
भूल कर दुःख,  दर्द , शोक
जीवन में तपस्या कर पाते हैं;
वे निज को खरा सिद्ध कर
कुंदन बन पाते हैं।
    
ये चन्द मानस
रखें हैं अपने भीतर अदम्य साहस
और समय आने पर
तमाशबीनों का
उड़ा पाते हैं उपहास।

सच है, तमाशबीन मानस
अधिकारों को
नहीं कर पाते हैं प्राप्त।
वे समय आने पर
निज दृष्टि में
सतत गिरते जाते हैं,
कभी उठ नहीं पाते हैं,
जीवन को नरक बनाते हैं,
सदा बने रहते हैं,
अधिकार वंचित।
जीवन में नहीं कर पाते
पर्याप्त सुख सुविधाएं संचित।

उठो, गिरने से न डरो,
आगे बढ़ने का साहस भीतर भरो।
सतत बढ़ो ,आगे ही आगे।
अपने अधिकारों की आवश्यकता के वास्ते ।
इसके साथ साथ कर्तव्यों का पालन कर,
खोजो,समरसता, सामंजस्य, सद्भावना के रक्षार्थ
नित्य नूतन रास्ते।

तभी अधिकार बचेंगे
अन्यथा
एक दिन
सभी यतीमों सरीखे होकर
दर बदर ठोकरें खाकर
गुलाम बने हुए
शत्रुओं का घट भरते फिरेंगे।
फिर हम कैसे खुद को विजयपथ पर आगे बढ़ाएंगे?
प्रिया!

मैं
तुम्हारे
मन के भावों को चुराकर,
तुम्हारे
कहने से पहले,
तुम्हारे
सम्मुख व्यक्त करना चाहता हूँ।
..... ताकि
तुम्हारी
मुखाकृति पर
होने वाले प्रतिक्षण  
भाव परिवर्तन को
पढ़ सकूँ ,
तुम्हें  हतप्रभ
कर सकूँ ।

तुम्हारे भीतर
उतर सकूँ ।
तुम्हारी और अपनी खातिर ही
बेदर्द ,  बेरहम दुनिया से
लड़ सकूँ ।


तुम्हारा ,
अहसास चोर !!

८/६/२०१६..
आधी दुनिया
भूखी सोती है।
सोचता हूं,
क्या कभी लोग
भूखी नंगी
गुरबत से
जूझ रही दुनिया की
बाबत फ़िक्र करते हैं?

मुझे
थाली में जूठन
छोड़ने वाले अच्छे नहीं लगते।
मुझे
वे लोग
नफरत के लायक़
लगते हैं।
दुनिया खाने का
सलीका
सीख ले,
यही काफ़ी है।
हे अन्न देवता!
कोई जूठन छोड़ कर
आप का अपमान न करें।
यही मेरी हसरत है।
कोई भी खाना बर्बाद  होने न दे,
तो देशभर में बरकत होगी।
यही मानवता के लिए
बेहतर है।
भूखे को अन्न मिल जाए।
उसके प्राण बच जाए,
इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता
क्यों कि
आदमी का जमीर
कभी मर नहीं सकता।
यदि
मूल्य अवमूल्यन के दौर में
आदमी अपने आदर्श ढंग से अपना पाए
तो क्यों न  
सब उसे
सराहना का पात्र मान लें।
गुनाह
जाने अनजाने हो जाए
तो आदमी करे क्या?
मन पर
बोझ पड़ जाए
तो आदमी करे क्या?
वो पगला जाए क्या??

आदमी
आदमियत का परिचय दे ।
अपने गुनाह
स्वीकार लें
तो ही अच्छा!
समय रहते
अपने आप को संभाल ले,
तो ही अच्छा!
गुनाह
आदमी को
रहने नहीं देते सच्चा।

यह ठीक नहीं
आदमी गुनाह करे
और चिकना घड़ा बन जाए ।
वह कतई न पछताए
बल्कि चोरी सीनाज़ोरी पर उतर आए
तो भी बुरा,
आदमी
बना रहता ताउम्र अधूरा।
अरे भाई!
तुम बेशक गुनाहगार हो,
पर मेरे दोस्त हो।
मित्र वर, सुनो एक अर्ज़
हम भूले न अपने फ़र्ज़
आजकल भूले जा रहे दायित्व
इनको निभाया जाना चाहिए।
सो समय रहते
हम गलती सुधार लें।

सुन, संभलना सीख
यह जीवन नहीं कोई भीख

यह मौका है बंदगी का,
यह अवसर है दरिंदगी से
निजात पाने का ।
परम के आगे शीश नवाने का।
आओ, प्रार्थना कर लें।
जाने अनजाने जो गुनाह हुए हैं हम से ,
उनके लिए आज प्रायश्चित कर लें ।
अपने सीने के अंदर दबे पड़े बोझ को हल्का कर लें।
   ९/६/२०१६.

Written by
अब तो बस!
यादों में
खंडहर रह गए।
हम हो बेबस
जिन्दगी में
लूटे, पीटे, ठगे रह गए।
छोटे छोटे गुनाह
करते हुए
वक़्त के
हर सितम को सह गए।

पर...
अब सहन नहीं होता
खड़े खड़े
और
धराशाई गिरे पड़े होने के
बावजूद
हर ऐरा गेरा घड़ी दो घड़ी में
हमें आईना दिखलाए,
शर्मिंदगी का अहसास कराए,
मन के भीतर गहरे उतर नश्तर चुभोए
तो कैसे न कोई तिलमिलाए !
अब तो यह चाहत
भीतर हमारे पल रही है,
जैसे जैसे यह जिंदगी सिमट रही है
कि कोई ऐसा मिले जिंदगी में,
जो हमें सही डगर ले जाए।
बेशक वह
रही सही श्वासों की पूंजी के आगे
विरामचिन्ह,प्रश्नचिन्ह,विस्मयादि बोधक चिन्ह लगा दे ।
बस यह चाहत है,
वह मन के भीतर
जीने ,मरने,लड़ने,भटकने,तड़पने का उन्माद जगा दे।
९/६/२०१६.
वक़्त से पहले
गुनाहगार
कब जागते हैं?
वे तो निरंतर
जुर्म करने,
मुजरिम बनने की खातिर
दिन रात शातिर बने से भागते हैं।

वक़्त आने पर
वे सुधरते हैं,
नेक राह पर
चलने की खातिर
पल पल तड़पते हैं!

कभी कभी
अपने गुनाहों के साए से
लड़ते हैं,
अकेले में सिसकते हैं।

पर वक़्त
उनकी ज़बान पर
ताला जड़
उन्हें गूंगे बनाए रखता है।
सच सुनने की ताकत से
मरहूम रखकर
उन्हें बहरा करता है।

वक़्त आने पर,
सच है...
वे भीतर तक
खुद को
बदल पाते हैं

अक्सर
वे स्वयं को
अविश्वास से
घिरा पाते हैं।
वे पल पल पछताते हैं,
वे दिन रात एक कर के
पाक दामन शख़्स ढूंढते हैं,
जो उन्हें  मुआफ़ करवा सके,
दिल के चिरागों को
रोशन कर सकें,
जीवन के सफ़र में
साथ साथ चल सकें।
आखिरकार
खुद और खुदा पर यक़ीन करना
उनके भीतर आत्मविश्ववास भरता है
जो क़यामत तक  
उनके भीतर जीवन ऊर्जा
बनाए रखता है,
उन्हें जिंदा रखता है,
ताकि वे जी भर कर पछता सकें!
वे खुद को कुंदन बना सकें !!

२१/०४/२००९
मूल्य विघटन के
दौर में
नहीं चाहते लोग जागना ,
वे डरते हैं
तो बस
भीतरी शोर से।

बाह्य शोर
भले ही उन्हें
पगला दे!
बहरा बना दे!!
ध्वनि प्रदूषण में
वे सतत इज़ाफ़ा करते हैं।
बिन आई मौत का
आलिंगन करते हैं।
पर नहीं चेताते,
न ही स्वयं जागते,
सहज ही
वे बने
रहते घाघ जी!
मूल्य विघटन के
दौर में
बुराई और खलनायकों का
बढ़ रहा है दबदबा और प्रभाव,
और...
सच, अच्छाई और सज्जनों का
खटक रहा है अभाव।
लोग
डर, भय और कानून
जड़ से भूले हैं,
आदमियत के पहरेदार तक
अब बन बैठे
लंगड़े लूले हैं।
कहीं गहरे तक पंगु!
वे लटक रहे हवा में
बने हुए हैं त्रिशंकु!!
अब
कहना पड़ रहा है
जनता जनार्दन की बाबत,
अभी नहीं जगे तो
शीघ्र आ जाएगी सबकी शामत।
लोग /अब लगने लगे हैं/ त्रिशंकु सरीखे,
जो खाते फिरते
बेशर्मी से धक्के!
घर,बाहर, बाजारों में!!
त्रिशंकु सरीखे लोग
कैसे मनाए अब ?
आदमियत की मृत्यु का शोक!
जड़ विहीन, एकदम संवेदना रहित होंगे
उन्हें  हो गया है विश्व व्यापी रोग!!
   १६/०२/२०१०.
निज के रक्षार्थ
दूर रखिए
स्वयं से स्वार्थ।
कैसे नहीं अनुभूत होगा परमार्थ?
किसे लिखें ?
अपने हाल ए दर्द की तफ़्सील।
महंगाई ने कर दिया
अवाम का फटे हाल।


पिछले साल तक
चार पैसे खर्च के बावजूद
बच जाते थे!
तीज त्योहार भी
मन को भाते थे!!

अब त्योहार की आमद पर
होने लगी है घबराहट
सब रह गए ठाठ बाठ!
डर दिल ओ दिमाग पर
हावी हो कर, करता है
मन की शांति भंग!
राकेट सी बढ़ती महंगाई ने
किया अब सचमुच नंग!
अब वेतनभोगी, क्या व्यापारी
सब महंगाई से त्रस्त एवं तंग!!
किस से कहें?
अपनी बदहाली का हाल!
अब तो इस महंगाई ने
बिगाड़ दी है अच्छे अच्छों की चाल!
सब लड़खड़ाते से, दुर्दिनों को कोसते हैं
सब लाचारी के मारे हैं!
बहुत जल्दी बन बैठे बेचारे हैं!!
सब लगने लगे थके हारे हैं!!
कोई उनका दामन थाम लो।
कहीं तो इस मंहगाई रानी पर लगाम लगे ।
सब में सुख चैन की आस जगे।
  १६/०२/२०१०.
वत्स का उत्स
उत्सव में छिपा है!
समय और उसने
कहीं कुछ छिपाया नहीं!!
आगे बढ़ने की ललक
बराबर भीतर बनी रही,
इसे कभी दबाया नहीं।
बस आप इसे समझिए सही।
जीवन में गड़बड़ी न होगी कभी।
००५/२०२०.
काश!
कोई समय रहते
अपनी कर्मठता से
वसुंधरा पर
सुख के बीज
बिखेर जाए!
ताकि
सुख का वृक्ष
फलता फूलता
नज़र आए!!

२५/०४/२०२०
अब
कभी कभी
झूठ
बोलने की
खुजली
सिर उठाने
लगी है।
जो सरासर
एक ठगी है।

अक्सर
सोचता हूँ,
कौन सा
झूठ कहूँ?
... कि बने न
भूले से कभी भी
झूठ की खुजली
अपमान की वज़ह।
होना न पड़े
बलि का बकरा बन
बेवजह
दिन दिहाड़े
झूठे दंभ का शिकार।
न ही किसी दुष्ट का
कोप भाजन
पड़े बनना
  और कहीं
लग न जाए
घर के सामने
कोई धरना।

अचानक
उठने लगता है
एक ख्याल,
मन में फितूर बन कर

अतः कहता हूँ...
चुपके से , खुद को ही,
एक नेता जी
जो थे अच्छे भले
मंहगाई के मारे
दिन दिहाड़े
चल बसे!
(बतौर झूठ!!)

आप सोचेंगे
एक बार जरूर
... कि नेता मंहगाई से
लाभ उठाते हैं,
वे भ्रष्टाचार के बूते
माया बटोर कर
मंहगाई को लगाते हैं पर!
फिर वे कैसे
मंहगाई की वज़ह से
चल बसे।

मैं झूठ बोलकर
अपनी खारिश
मिटाना चाहता था
कुछ इस तरह कि...
लाठी भी न टूटे,
भैंस भी बच जाए,
और चोर भी मर जाए।

इस ख्याल ने
रह रह कर सिर उठाया।
मैंने भी मंहगाई की आड़ ले
तथा कथित नेता जी को
जहन्नुम जा पहुंचाया।
कभी कभी
झूठ भी अच्छा लगता है
सच की तरह।
(है कि नहीं?)
बहुत से मंहगाई त्रस्त
जरूर चाहते होंगे कि...
आदमी झूठ तो बोले
मगर उसकी टांगें
छुटभैये नेता के
गुर्गों के हाथों न टूटें!
बल्कि मन को मिले
कैफ़ियत, खैरियत के झूले।


अब जब कभी भी
झूठ बोलने की खुजली
सिर उठाने लगती है,
मुझे बेशर्म मानस को
शिकार बनाने का
करने लगती है इशारा।
मैं खुद को काबू में करता हूँ।
मुझे भली भांति विदित है,
झूठ हमेशा मारक होता है,
भले वह युद्ध के मैदान में
किसी धर्मात्मा के मुखारविंद से निकला हो।
झूठ के बाद की ठोकरें
झूठे सच्चे को सहज ही
अकलबंद से अकलमंद बना देती हैं,
झूठ की खुजली पर लगाम लगा देती हैं।
नाहक
नायक बनने की
पकड़ ली थी ज़िद।
अब
उतार चढ़ाव की तरंगों पर
रहा हूं चढ़ और उतर
टूटती जाती है
अपने होश खोती जाती है
अहम् से
जन्मी अकड़।

निरंतर
रहा हूं तड़प
निज पर से
ढीली होती जा रही है
पकड़।

एकदम
बिखरे खाद्यान्न सा होकर...
जितना भी
बिखराव को समेटने का
करता हूं प्रयास,
भीतर बढ़ती जाती
भूख प्यास!
अंतस में सुनाई देता
काल का अट्टहास!!
  १३/१०/२००६.
चेतना
कभी नहीं कहती
किसी से
कभी भी
कि ढूंढों,
सभी में कमी।
बल्कि वह तो कमियों को  
दूर करती है,
भीतर और बाहर से
दृढ़ करती है।

चेतना ने
कभी न कहा,
  "चेत ना। "
वह तो हर पल
कहती रहती है,
" रहो चेतन,
ताकि तन रहे
हर पल प्रसन्न।"

सुनो,
सदैव जीवन से निकली
जीवंतता की
ध्वनियों को।

खोजो,
अपनी अन्तश्चेतना की
ध्वनियों को,
ताकि हर पल
चेतना के संग
महसूस कर सको,
आगे बढ़ सको,
जीवन धारा से
निकलीं उमंग भरी
तरंगों को,पल पल,
जीवन धारा की कल कल को
सुनकर
तुम निकल पड़ो
साधना के पथ पर
जीव मर्म,युग धर्म
आत्मसात कर
अंतर्द्वंद्वों से दूर रह
स्वयं को तटस्थ कर
महसूस करो
अंतर्ध्वनियों को,  
चेतना की उपस्थिति को।

अब सब कुछ
भूल भाल कर
ढूंढ लो निज की विकास स्थली।
शक्ति तुम्हारे भीतर वास कर रही।
उस की महता को जानो।
सनातन की महिमा का गुणगान करो।
अपने भीतर को  गेरूआ से रंग दो।
नाचो,खूब नाचो।
अपने भीतर को
अनायास
उजास से भर दो।
साथ ही
जीवन के रंगों से
होली खेलकर
अपनी मातृभूमि को
शक्ति से सज्जित कर दो।
ताकि जीवन बदरंग न लगे!
हर रंग जीवन धारा में फबे!!

१७/०७/२०१६.
खाक अच्छा लगता है
जब अचानक बड़ा धक्का लगता है
भीड़ भरे चौराहे पर
जिंदगी यकायक अकेला छोड़ दे !
वह संभलने का मौका तक न दे!!
पहले पहल आदमी घबरा जाता है ,
फिर वह संभल कर,
आसपास भीड़ का अभ्यस्त हो जाता है,
और खुद को संभालना सीख जाता है।
जिंदगी दिन भर तेज रफ्तार से भाग रही है।
आदमी इस भागम भाग से तंग आ कर
क्या जिन्दगी जीना छोड़ दे ?
क्यों ना वह समय के संग आगे बढ़े!
आतंक के साए के निशान पीछे छोड़ दे!
जब तक जीवनधारा नया मोड़ न ले !
जिंदगी की फितरत रही है...
पहले आदमी को भंवरजाल में फंसाना,
तत्पश्चात उसे नख से शिखर तक उलझाना।
सच यह है... आदमी की हसरत रही है,
भीतर के आदमी को जिंदादिल बनाए रखना।
उसे आदमियत की राह पर लेकर जाना।
थके हारे को मंज़िल के पार पहुंचाना।
बड़ा अच्छा लगता है ....
पहले पहल आदमी का लड़खड़ाना,
फिर गिरने से पहले ही, खुद को पतंग सा उठाना
....और मुसीबतों की हवा से लड़ते हुए ... उड़ते जाना।
१५/०२/२०१०.
वह  
कभी कभी मुझे
इंगित कर कहती है,
" देह में
आक्सीजन की कमी
होने पर
लेनी पड़ती है उबासी।"

पता नहीं,
वह सचमुच सच बोलती है
या फिर
कोतुहल जगाने के लिए
यों ही बोल देती अंटशंट,
जैसे कभी कभार
गुस्सा होने पर,
मिकदार से ज़्यादा पीने पर
बोल सकता है कोई भी।


मैं सोचता हूं
हर बार
आसपास फैले
ऊब भरे माहौल में
लेता है कोई उबासी
तो भर जाती है
भीतर उदासी।

मुझे यह तनिक भी
भाती नहीं।
लगता है कि यह तो
नींद के आने की
निशानी है।
यह महज़
निद्रा के आकर
सुलाने का
इक  इशारा भर है,
जिस से जिंदगी सहज
बनी रहती है।
वह अपना सफ़र
जारी रखती है।


पर बार बार की उबासी
मुझे ऊबा देती है।
यह भीतर सुस्ती भरती है।
मुझे इससे डर लगता है।
लगता है
ज़िंदगी का सफ़र
अचानक
रुक जाएगा,
रेत भरी मुट्ठी में से
रेत झर जाएगा।
कुछ ऐसे ही
आदमी
रीतते रीतते रीत जाता है!
वह उबासी लेने के काबिल भी
नहीं रह जाता है।

चाहता हूं... इससे पहले कि
उबासी मुझे उदास और उदासीन करे ।
मैं भाग निकलूं
और तुम्हें
किसी ओर दुनिया में मिलूं ।

वह
अब मुझे इंगित कर
रह रह कर कहती है,
" जब कभी वह  
अपनी प्राण प्रिय  के सम्मुख
उबासी लेती है, भीतर ऊब भर देती है।
उसके गहन अंदर
अंत का अहसास भरा जाता है।
फिर बस तिल तिल कर,
घुटन जैसी वितृष्णा का
मन में आगमन हो जाता है।
यही नहीं वह यहां तक कह देती है
कि उबासी के वक्त
उसे  सब कुछ
तुच्छ प्रतीत होता है।
जब कभी मुझे यह
उबासी सताती है,
मेरी मनोदशा बीमार सी हो जाती है।
जीने की लालसा
मरने लगती है।"

सच तो यह है कि
उबासी के आने का अर्थ है,
अभी और ज़्यादा  सोने की जरूरत है।
   अतः
पर्याप्त नींद लीजिए।
तसल्ली से सोया कीजिए।
बंधु, उबासी सुस्ती फैलाती है।
सो, यह किसी को भाती नहीं है।
इसका निदान,समय पर ‌सोना और जागना है।
उबाऊ, थकाऊ,ऊब भरे माहौल से भागना है।
३/८/२०१०.
जीवन की ऊहापोह और आपाधापी के बीच
किसी निर्णय पर पहुँचना है
यकीनन महत्वपूर्ण।
....और उसे जिन्दगी में उतारना
बनाता है हमें किसी हद तक पूर्ण।

कभी कभी भावावेश में,
भावों के आवेग में बहकर
अपने ही निर्णय पर अमल न करना,
उसे सतत नजरअंदाज करना,
उसे कथनी करनी की कसौटी पर न कसना,
स्वप्नों को कर देता है चकनाचूर ।
समय भी ऐसे में लगने लगता, क्रूर।

कहो, इस बाबत
तुम्हें क्या कहना है?
यही निर्णय क्षमता का होना
मानव का अनमोल गहना है।
यह जीवन को श्रेष्ठ बनाना है।
जीवन में गहरे उतर जाना है ।
जीवन रण में
स्वयं को सफल बनाना है।
   ८/६/२०१६.
सुना है,
वह धमकी बहादुर है।
उम्मीद है,
पूरा पूरा भरोसा है
वह अपने शब्दों पर
एकदम खरा उतरेगा,
गहरी मार करेगा,
चूंकि वह धमकी बहादुर है,
जिसे वह धमकी दे रहा है,
वह सिरे का कायर हो,
यह भला यकीन से
कैसे कहा जा सकता है?
कभी कभी
शेर को सवा शेर
मिल ही जाया करता है।
जिस से पराजित होने वाला डरता है।
न केवल डरता है, बल्कि दबता भी है।

मुझे यकीन है कि वह
गीदड़ भभकी नहीं दे रहा!
दिल से दहशत को हवा दे रहा !!

अब मेरी भी सुन लीजिए,
धमकी बहादुर को
हवा न दीजिए।
बल्कि उसका सामना कीजिए।
सौ बातों की एक बात कर रहा हूँ,
न कि भीतर डर भर रहा हूँ।
यहाँ
सब स्वाभिमानी हैं,
समय आने पर बनते बलिदानी हैं।
प्रतिक्रिया स्वरूप
हम भी
धमकी बहादुर और उसके गुर्गों पर
करना चाहते प्रबल प्रहार ।
हम उन पर
करेंगे
दिमाग से
घात प्रतिघात
और संहार...!
लौटाएंगे
उनको उनका उपहार
उनके ही अंदाज़ में।
हम उनसे उनकी बोली में
करेंगे संवाद।
निज भाषा का अपना स्वाद!!
हम चाहते हैं करना सामना
अपनी अतीत की पराजय को भूल कर
धमकी बहादुरों की आसुरी शक्तियों से दो दो हाथ।
हमारी रही है कामना,
सदैव शोषितों वंचितों को समय रहते थामना।
हम  मूलतः अहिंसक हैं,
नहीं चाहते मरना और मारना।
न ही चाहते कभी, धमकियों के आकाओं से ...
लड़ना, भिड़ना,मरना,डरना,
अपने सुकून को
खत्म होते देखना, बेशक
कभी धमकियों के बूते आगे बढ़ना पड़े,
कभी कभी समझौता करना पड़े।
१३/०५/२०२०
नन्ही सी गुड़िया सल्लू
अपने मामा के हाथ पर हल्के से मार,
"हुआ दर्द?"
"बिल्कुल नहीं। "
सोचा मैंने...
पर यदि वह
मां,बाप,बड़ों का
कहा नहीं मानेगी
तो होगा बेइंतहा दर्द!...

मेरी अपनी बिटिया
गुड्डू पूछती है पापा से
गोदी में चढ़े चढ़े,
"भगवान् बच्चों की
रक्षा करते हैं न पापा?
भगवान् बच्चों की
बातों को मानते हैं न पापा!"
"बिल्कुल ।"
सोचा मैंने...
पर यदि वह
माँ,बाप, बड़ों की
करेगी अवहेलना,
तो जिन्दगी में
उसे अपमान पड़ेगा झेलना।


छोटू सा काकू
मियां प्रणव से
पूछते हैं पापा,
" कितनी चीज़ी लेगा,तू?"
वह कहता है,"दो ।"
सोचता हूँ...
यदि वह करेगा शरारत कभी।
गोविंदा की फिल्म सरीखा होकर
घरवाली, बाहरवाली के चक्कर में पड़
तो जिन्दगी उसे कर देगी बेघर,
अनायास जिन्दगी देगी थप्पड़ जड़।


नन्हा सा पुनीत
उर्फ़ गोलू
अपनी माँ की गोदी में
लेटा हुआ कर रहा दुग्ध पान।

वह अभी शिशु है
बोल सकता नहीं,
अपनी बात रख सकता नहीं।
शायद सब कुछ जान कह रहा हो
चुप रह कर,
"अरे मामा!इधर उधर न भटक
मेरी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध रख
ना कि दुनियावी प्रदूषण में हो लिप्त।

समय यह लीला देख समझ मुस्करा कर रह गया।
आसपास की जिन्दगी खामोश हँसी का जलवा दिखाकर मचलने लगी।
बच्चे मस्त थे और...उनसे बातें करने वाला एकदम अनभिज्ञ।
हे मेरे मन!
अब और न करो निर्मित
बंधनयुक्त घेरे
स्वयं की कैद से
मुझे इस पल
मुक्त करो।
अशांति हरो।

हे मन!
तुमने मुझे खूब भटकाया है,
नित्य नूतन चाहतों को जन्म दे
बहुत सताया है।
अब
मैं कोई
भ्रांति नहीं, शान्ति चाहता हूँ।
जर्जर देह और चेहरे पर
कांति चाहता हूँ।
देश समाज में क्रांति का
आकांक्षी हूँ।

हे मेरे मन!
यदि तुम रहते शांत हो
तो बसता मेरे भीतर विराट है
और यदि रहते कभी अशांत हो
तो आत्म की शरण स्थली में,
देह नेह की दुनिया में
होता हाहाकार है।

हे मन!
सर्वस्व तुम्हें समर्पण!
तुम से एक अनुरोध है
अंतिम श्वास तक
जीवन धारा के प्रति
दृढ़ करते रहो पूर्व संचित विश्वास।
त्याग सकूँ
अपने समस्त दुराग्रह और पूर्वाग्रह ,
ताकि ढूंढ सकूँ
तुम्हारे अनुग्रह और सहयोग से
सनातन का सत्य प्रकाश,
छू सकूँ
दिव्य अनुभूतियुक्त आकाश।

हे मेरे मन!
अकेले में मुझे
कामनाओं के मकड़जाल में
उलझाया न करो।
तुम तो पथ प्रदर्शक हो।
भूले भटकों को राह दिखाया करो।
अंततः तुम से विनम्र प्रार्थना है...
सभी को अपनी दिव्यता और प्रबल शक्ति के
चमत्कार की अनुभूति के रंग में रंग
यह जीवन एक सत्संग है, की प्रतीति कराया करो।
बेवजह अब और अधिक जीवन यात्रा में भटकाया न करो।


हे मेरे मन!
नमो नमः

मन मंदिर में सहजता से
प्रवेश करवाया करो,
सब को सहज बना दरवेश बनाया करो।
सभी का सहजता से साक्षात्कार कराया करो,
हे मन के दरवेश!
वो आदमी
नख से शिख तक
रंगीन है।

हर पल
मौज और मस्ती,
नाच और गाने,
हास परिहास,
रास रंग की
सोचता है !

वह
पल प्रति पल
परंपरावादी मानसिकता के
आदमी की संवेदना को
नोचता है!!

उस आदमी का
जुर्म संगीन है।
दोष उसका यही,
वो रंगीन है।

उसे सुधारो,
वरना
लोग देखा देखी
उसके रंग में रंगे जायेंगे!
रंगीन मिज़ाज होते जायेंगे!!
   १७/०७/२०२२
देवों को,देवियों को,
छप्पन भोग लगाने का
जीवन के मन मंदिर में
रहा है चलन।
उसका वश चले
तो वह फास्ट फूड को भी
इसमें कर ले शामिल।
वह खुद को नास्तिक कहता है,यही नहीं अराजक भी।
वह जन संवेदना को नकार
बना बैठा है एहसासों का कातिल।
जो दुनिया भर पर कब्जा करना चाहता है।
भविष्य का तानाशाह होना चाहता है।
वह कोई और नहीं, तुम्हारे ही नहीं, सब में मौजूद
घना अज्ञान का अंधेरा है।
इससे छुटकारा पा लोगे
तो ही होगा ज्ञान का सूरज उदित।
मन भी रह पाएगा मुदित।
आदमी के लिए
छप्पन भोग
फास्ट फूड से छुटकारा पा लेना है।
देखिए,कैसे नहीं ,उसकी सेहत सुधरती?
देह से नेह कर ,
मगर
इस राह में
ख़तरे बहुत हैं !!
यह
कुछ कुछ
मन के परिंदे के
पंख कुतरने जैसा है,
वह उड़ने के दिवास्वप्न ले जरूर,
मगर
परवाज़ पर
पाबंदी लगा दी जाए।

इसलिए
देह से नेह करने पर
नियंत्रण
व्यक्ति के लिए
बेहद ज़रूरी है।
हाँ,यह भी एक सच है
कि देह से नेह रखने पर
उल्लासमय हो जाता है जीवन,
वह
बाहर भीतर से
होता जाता है दृढ़
इस हद तक
कि यदि तमाम सरहदें तोड़ कर
बह निकले
जज़्बात की नदी
तो कर सकता है वह
निर्मित
उस दशा में
अटल रह,
जीवन रण में
जूझने में सक्षम तट बंध
भले ही
देह में नेह रहना चाहे
निर्बंधन !
यानिकि
सर्वथा सर्वथा बन्धन मुक्त!!


देह से नेह
अपनी सोच की सीमा में रह कर,कर।
ताकि झेलना न पड़ें संताप!
करना न पड़े पल प्रति पल प्रलाप!!

वैसे
सच यह है...
यह सब घटित हुआ नहीं, कि तत्काल
मानस अदृश्य बन्धन में बंधता जाता है।
वह
आज़ादी,सुख की सांस लेना तक भूल जाता है।
काल का कपाल उस की चेतना पर हावी होता जाता है।

इसलिए
मनोज और रति का जीवन प्रसंग
हमें अपनी दिनचर्या में
बसाए रखना अपरिहार्य हो जाता है।
नियंत्रित जीवन
देह से नेह में चटक रंग भरता है !
रंगीले चटकीले रंगों से ही यौवन निखरता है!!
   १७/११/२००९.
जिंदगी को
चाहने वाले
कभी
जल्दी नहीं करते,
वे तो बस
अपने भीतर
मतवातर
तब तक
सब्र को हैं भरते,
सदा जोश और मस्ती में
हैं हर पल रहते
जब तक
बाहर
कुछ छलक न जाए !

अचानक
आंखों से
कुछ निकल कर
बाहर न आ जाए!

तन मन को नम कर जाए!!
  २५/०४/२०२०
सबके भीतर से
बेहतर बहे,
इस के लिए
हर कोई
न केवल दुआ करे,
बल्कि
प्रयास भी करे ,
.....
ताकि
जीवन जीवंत लगे,
जिंदगी
बेहतरी की ओर बढ़े।

हर कोई
दुआ दिल से करे,
न कि खुद और गैरों को छले
ताकि
यह दुनिया
प्यार और विश्वास की
सुरक्षा छतरी बने ।

सब के भीतर से
सच का मोती बहे ,
सब सहिष्णु बनें।
आओ! आज कुछ नया करें।
आशा और विश्वास के संग
जीवन के नित्य नूतन क्षितिज छूएं।
सब सहिष्णु बने।
अब तो सभी पर यह सुरक्षा छतरी तने।
८/६/२०१६.
36 · 4d
Salute
To make life easy and smooth
Parents, guardians are keeping themselves busy from early morning to till late night.
So I salute them all.
Because,they are all in all next to God.They are our true survivors.


Can you heard the mesmerizing sound of wonderful flute?

Answer is in yes or no.
Parent's constantly working ability play  a special role in our lives.
So dear!
Let us salute to
them
for providing rhythm and stability in life.
36 · 3d
Adversity
Whole world is busy to face
numerous challenges.
One of these is adversity.
Poverty, unemployment, instability,chaos,communal killings,illiteracy and many more adversities are running to win this unhumantic  race .

Friends,keep your eyes and windows of mind open to welcome the changes which will become our fate.

Your mind is like a gateway of universe.
Please educate it from time to time.
So that we all can create beautiful as well as timeless songs.
I am sure
that our forthcoming generation will sing such self written songs
to show and prove that anarchists always failed to execute their concipracies.
.
यदि मेरा
फिर से
कोई मेरा नाम रखना चाहे  
तो मुझे अच्छा लगेगा यह नाम ।
चूंकि भाता नहीं मुझे कोई काम।
श्रीमान जी,
रखिए मेरा नाम निखट्टू,सुबह से शाम तक
सुननी पड़ती
तरह तरह की बातें...!

प्रतिक्रिया देना मैने छोड़ दिया है।
गूंगा बन जीना सीख लिया है।
अकलमंद बन समझौता किया है।
फिर भी बहुत सी
अंतर्ध्वनियों ने मुझे ढेर किया है
सो अब निःशब्द हूं।

आप भी कहेंगे
निखट्टू
निशब्द कैसे हो सकता है?
उत्तर है जी,
यह तो वही जानता है।
जो कुछ अच्छा बुरा खोजने पर
प्रतिक्रिया न कर चुप रहना सीख गया है।
जिसके पास संवेदना के बावजूद चुप्पी है,
वह नि:शब्द नहीं तो क्या है?
है कोई प्रत्युत्तर जी??

अब
निखट्टू को
परिभाषित करता हूँ,
ऐसा व्यक्ति
जो देश काल से
निर्लिप्त रहे,
आदेशों के बावजूद
कुछ भी न करे।
कोई उस पर कितना ही चिल्लाए,
पर वह चुप रहने से बाज़ न आए।
...और जो जरूरत के बावजूद
कुछ न करे,
निष्क्रियता की चादर ओढ़कर
देश, घर,दुनिया में कहीं पड़ा रहे।
ऐसे आदमी को निखट्टू कहते हैं।
जिसके वजूद को सब सहने को मजबूर हैं।
कमल देखिए, उसे सारी समझ है,फिर भी चुप है।
वह निखट्टू नहीं तो क्या है?

मुझे विदित है कि निखट्टू
आदतन
लिखती, निखट्टू रह जाते हैं।
वरना,मौका मिले तो वह सब के कान कतर दें।
यदि किसी व्यक्ति  को जीवन में उद्देश्य न मिले,
तो वह धीरे धीरे  एक निखट्टू में तब्दील हो जाता है।
एक दिन चिकना घड़ा बन जाता है,
जिस के कान पर जूं तक नहीं रेंगती।
कोई कितना ही अपनी खीझ उस पर निकाले,
निखट्टू हर दम हंसता मुस्कुराता रहता है।
निखट्टू  तो निखट्टू है,
वह तो बेअसर है।
उसे अपने तरीके से जिंदगी जीनी है, भले ही
किसी को वह एकदम
सिर से पैर तक   ढीठ लगे,
बेशर्मी का ताज उसके सिर ही सजे।
भई वाह!निखट्टू के मजे ही मजे!!
जिन्दगी में
तना तनी,
छीन लेती
सुख की नागमणि!
२५/०४/२०२०
बेशक
तुमने जीवन पर्यन्त की है
सदैव नेक कमाई
पर
आज आरोपों की
हो रही तुझ पर बारिश
है नहीं तेरे पास,

कोई सिफारिश
खुद को पाक साफ़
सिद्ध किए जाने की ।
फल
यह निकला
तुम्हें मिला अदालत में आने
अपना बयान दर्ज़ करने के लिए
स्वयं का पक्ष रखने निमित्त
फ़रमान।
अब श्री मान
कटघरे में
पहुँच चुकी है साख।
यहाँ निज के पूर्वाग्रह को
ताक पर रख कर कहो सच ।
निज के उन्माद को थाम,
रखो अपना पक्ष, रह कर निष्पक्ष।
यहाँ
झूठ बोलने के मायने हैं
अदालत की अवमानना
और इन्साफ के आईने से
मतवातर मुँह चुराना,
स्वयं को भटकाना।
मित्र! सच कह ही दो
ताकि/ घर परिवार की/अस्मिता पर
लगे ना कोई दाग़।
आज
कटघरे में
है साख।
न्याय मंदिर की
इस चौखट से
तो कतई न भाग!
भगोड़े को बेआरामी ही मिलती है।
भागते भागते गर्दनें
स्वत: कट जाया करती हैं ,
कटे हुए मुंड
दहशत फैलाने के निमित्त
इस स्वप्निल दुनिया में
अट्टहास किया करते हैं।
आतंक को
चुपचाप
नैनों और मनों में भर दिया करते हैं।
तुम लड़ो
व्यवस्था के ख़िलाफ़
पूरे आक्रोश के साथ।
लड़ने के लिए
कोई मनाही नहीं,
बशर्ते तुम उसे एक बार
तन मन से समझो सही।


यकीनन
फिर कभी
होगी अनावश्यक
तबाही नहीं।


तुम लड़ो
अपनी पूरी शक्ति
संचित कर।

तुम बढ़ो
विजेता बनने के निमित्त।
पर, रखो
तनाव को, अपने से दूर
ताकि हो न कभी
घुटने तकने को मजबूर।
करो खुद को
भीतर से मजबूत।


तुम
अपने भीतर व्याप्त
अज्ञान के अंधेरे से लड़ो।
तुम
शोषितों के पक्ष में खड़े रहो।
तुम
अपने अंतर्मन से
करो सहर्ष साक्षात्कार
ताकि प्राप्त कर सको
अपने मूलभूत अधिकार।

लड़ने, कर्तव्य की खातिर
मर मिटने का लक्ष्य लिए
तुम लड़ो,बुराई से सतत।
तुम बांटो नहीं, जोड़ो।

तुम जन सहयोग से
प्रशस्त करो जीवन पथ।
तुम्हारे हाथ में है
संघर्ष रूपी मशाल।
यह सदैव रोशन रहे।
तुम्हारी लड़ाई
परिवर्तन का आगाज़ करे।

तुम लड़ो, कामरेड!
करो खुद को दृढ़ प्रतिज्ञा से
स्थिर, संतुलित,संचक, सम्पूर्ण
कि...कोई टुच्चा तुम्हें न सके छेड़।
कोई आदर्शों को समझे न खेल भर।
तुम सिद्ध करो,
आन ,बान,शान की खातिर
कुर्बानी दे सकने का
तुम्हारे भीतर जज़्बा है,
संघर्ष का तजुर्बा है।
सुनो उपभोक्ता!
बाजार का सच ।
आज
बाजार की गिद्ध नज़र
तुम्हारी जेब पर है।


हे उपभोक्ता जी,
अपनी जेब संभालो ,
उसमें बची खुची रेज़गारी भी डालो ।
भले ही
रेज़गारी को
आप नजरअंदाज करें,
इसे महत्व  न दें, लेकिन ना भूलें,
बूंद बूंद से घट भर जाता है,
व्यापारी भान जोड़कर ही  
धन कमाने का हुनर जान पाता है,
जब कि बहुत बार उपभोक्ता
अठन्नी जैसी रेज़गारी छोड़ देता है।
दिन भर की बीस अठन्नियां जुड़े,
तो दस रुपए की कीमत रखतीं हैं।
मत भूलो,
कभी-कभी खोटा सिक्का भी खुद को
कारगर साबित कर जाता है।  
कंगाली में नैया पार लगा देता है,
इज़्ज़त भी बचा देता है।

सुनो उपभोक्ता!
तुम उपभोग्य सामग्री तो कतई न बनना।
तुम उपभोगवादी सभ्यता में
जन्मे, पले-बढ़े,चमके हो,
उपभोग संयम से करो।
बाजार को
अपनी ताकत का अहसास करा दो।
उसे अपने चौकन्नेपन से चौंका दो ।

व्यापारी भ्रष्टाचार के पंख
आपसी मिली-भगत से फैला न पाएं ,
तुम्हारी जागरूकता है ,इस समस्या का सटीक उपाय।
बाजार का गणित
यानि अर्थशास्त्र
मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलता है।
इन दोनों में रहे संतुलन तो बाजार फलता-फूलता है।
ध्यान रहे,मांग और पूर्ति का संतुलन
उपभोक्ता के चित्त पर निर्भर करता है।
तुम्हारा चित्त डोला नहीं
कि बाजार तुम पर हावी हुआ।
बाजार में चोरी  , मक्कारी,
मंहगाई ,लूट खसोट,
हेराफेरी का दुष्चक्र शुरू हुआ।
भाई मेरे,
किसी के मकड़जाल
और उसके चालाकी से
निर्मित घेरे में न फंसना।
तुम फंसे नहीं कि
बाजार बहुत बड़ा खेल, खेल देगा।
इसे आजकल खेला (वस्तुत: झमेला)
कह  दिया जाता है।
ऐसे में
सुख ,सुरक्षा का भरोसा
छिन्न भिन्न होता है।
उपभोक्ता ठगा सा महसूस करता है,
और थक हार कर,सिर पकड़ कर बैठ जाता है,
उसका माथा ठनकता है,
वह हतप्रभ हुआ,हताश, निराश हुआ
स्वयं को अकेला करता जाता है।

कुछ ऐसा ही
खेला शेयरों में, सट्टेबाजी में भी है ,
जिस में
अनाड़ी से लेकर खिलाड़ी तक
भरे पड़े हैं।
कल तक
जो हवा में उड़ रहे थे,
वे आज औंधे मुंह गिरे हुए पत्ते जैसा महसूस कर रहे हैं।
सुनो उपभोक्ता!
इस दुनिया के बाजार में
सब गोलमाल है।
यहां सतर्क रहना जरूरी है।
अन्यथा मन में
अंतर्कलह होने से
आदमी अन्यमनस्क हो जाता है।
वह खुद को रुका हुआ
और रूठा हुआ पाता है ।
उसे कहीं ठौर नहीं मिलता है,
वह भीतर तक
इस हद तक
हिल जाता है,
जैसे किसी ने उसे दिया हो
अचानक , अप्रत्याशित  घटनाक्रम बनकर
झकझोर और झिंझोड़,
ऐसे में
धरी की धरी रह जाती मरोड़।
सुनो उपभोक्ता, मेरी बात गौर से सुनो,
इस पर अमल भी करो
ताकि ठगे न जाओ।

बाजार से सामान लेने के बाद
सुरक्षित घर पहुंच पाओ।

डिजिटल खरीददारी भी
सोच समझकर करो ,
अपने भेद अपने भीतर रखो,
निडर,सतर्क रहना तुम्हारा दायित्व है,
कोई क्या करे, मामला वित्त और चित्त का है।१२/०८/२०२०.
आज देश में
संविधान बचाने के
मुद्दे पर
नेता प्रति पक्ष
और सत्ताधीन नेतृत्व के बीच
एक होड़ा  होड़ी लगी हुई है।
दोनों , संविधान खतरे में है, कहते हैं,
असंख्य लोग अन्याय, शोषण के दंश को सहते हैं।
नेता प्रति पक्ष का कहना है,
सत्ता पक्ष ने
संविधान पढ़ा नहीं, सो वो
संविधान को खोखला बता रहे।
' अगर संविधान पढ़ा होता,
तो उन्होंने अलग नीतियां अपनाईं होतीं।'
सत्ता पक्ष ने भी  
नेता प्रति पक्ष के ऊपर
आरोप लगाया कि
विपक्ष
देश के एक संवेदनशील राज्य में
एक अलग संविधान बनाने की योजना पर
अड़ा हुआ है।
आप ही बताइए
एक देश,एक संविधान,
होना चाहिए कि नहीं।
आप ही फ़ैसला कीजिए,
कौन है सही।
देश में संविधान को लेकर
बहस छेड़ने का मुद्दा गर्म है।
हर कोई बना देश में बेशर्म है।
सब के अपने अपने पाले हैं।
क्या नेतागण
नागरिकों को मूर्ख बना रहे हैं?
आज
देश में संविधान सर्वोपरि रहना चाहिए।
यह देश की अस्मिता का वाहक होना चाहिए।
संविधान को लेकर
पड़ोसी देश में भी विवाद चल रहा है।
यहां वहां,सब जगह
संविधान को विवादित किया जा रहा है।
संविधान से धर्मनिरपेक्ष, समाजवाद, जैसे
अप्रासंगिक हो चुके मुद्दों को
एक परिवर्तनकारी आंदोलन का
आधार बनाया जा रहा है।  
बहुत से देश उलझे हैं, उनके  सुलझाव के लिए
संविधान जरूरी है कि नहीं?
यह देश की तकदीर,दशा, दिशा निर्मित करता है।
इस सच को
देश दुनिया के
समस्त नेताओं को समझना चाहिए,
अपने दुराग्रह, पूर्वाग्रह छोड़ने चाहिएं।
विकास के मौके देश दुनिया में बढ़ने चाहिएं ।
१५/११/२०२४.
34 · 1d
अहसास
गर्मी में ठंड का अहसास
और
ठंड में गर्मी का अहसास
सुखद होता है,
जीवन में विपर्यय
सदैव आनंददायक होता है।

ठीक
कभी कभी
गर्मी में तेज गर्मी का अहसास
भीतर तक को जला देता है,
यह किसी हद तक
आदमी को रुला देता है।
देता है पहले उमस,
फिर पसीने पसीने होने का अहसास,
जिंदगी एकदम बेकार लगती है,
सब कुछ छोड़ भाग जाने की बातें
दिमाग में न चाहकर भी कर जातीं हैं घर,
आदमी पलायन
करना चाहता है,
यह कहां आसानी से हो पाता है,
वह निरंतर दुविधा में रहता है।
कुछ ऐसे ही
ठंड में ठंडक का अहसास
भीतर की समस्त ऊष्मा और ऊर्जा सोख
आदमी को कठोर और निर्दय बना देता है,
इस अवस्था में भी
आदमी
घर परिवार से पलायन करना चाहता है,
वह अकेला और दुखी रहता है,
मन में अशांति के आगमन को देख
धुर अंदर तक भयभीत रहता है।
उसका यह अहसास कैसे बदले?
आओ, हम करें इस के लिए प्रयास।
संशोधन, सहिष्णुता,साहस,नैतिकता,सकारात्मकता से
आदमी के भीतर बदलते मौसमों को
विकास और संतुलित जीवन दृष्टि के अनुकूल बनाएं।
क्यों उसे बार बार थका कर
जीवन में पलायनवादी बनाएं?

ठंड में गर्मी का अहसास,
गर्मी में ठंड का अहसास,
भरता है जीवों के भीतर सुख।
इसके विपरीत घटित होने पर
मन के भीतर दुःख उपजता है ।
यह सब उमर घटाता है,
इसका अहसास आदमी को
बहुत बाद में होता है।
सोचता है रह रह कर, भावों में बह बह कर
कि अब पछताए क्या होत ,जब चिड़िया चुग गईं खेत।
पिता श्री,
एक दिन अचानक
आपने कहा था जब,
"मैं तुम से
कुछ भी अपेक्षा नहीं करता।
बस तुम्हें
एक काम सौंपना चाहता हूँ।
वह काम है...
जाकर अपनी प्रसन्नता खोजो!"
यह सुनकर
अनायास
तब मैं खिलखिलाकर हंस पड़ा था ।
  

अब महसूस होने लगा है,
जीवन में कुछ ठगा गया है।
अब क़दम दर कदम लगता है कि
आजकल
प्रसन्नता ढूंढ़ी जाती है
चारों ओर....
अंदर क्या बाहर...
सुप्रिया के इर्द गिर्द भंवरे सा मंडरा कर
शेखचिल्ली बन खयाली पुलाव पका कर
अपनों को मूर्ख बना कर


प्रसन्नता ढूंढना अब एक चुनौती बन गई है
सौ,सौ प्रयास के बाद
फिर भी कुछ गारंटी नहीं है कि वह मिले,
मिले तो किसी दिलजले मनचले को जा मिले
अन्यथा.... असफलता का चल पड़ता एक सिलसिला,
आदमी खुद के भंवरजाल में धंसा,
किस से करे शिकवा गिला।
आदमी का अंतर्मानस बन जाता एक शिला!

पिता,
आज अंतर्द्वंद्वों से घिरा
मैं आप के कहे पर करता हूँ सोच विचार
तो लगने लगा है कि
सचमुच प्रसन्नता खोजना,
अपनी खुशी तलाशना,
आखिरकार उसे दिल ओ दिमाग से वरना,
किसी एवरेस्ट सरीखी दुर्गम शिखर पर चढ़ना है ।


तुम्हारा  "अपनी प्रसन्नता खोजो " कहना
आज की युवा पीढ़ी के लिए एक अद्भुत पैग़ाम है।

आज मैं बुध बनना चाहता हूँ।
पर सच है कि मैं इर्द गिर्द की चकाचौंध से भ्रमित
बुद्धू सा हो गया हूँ।
बेशक प्रबुद्ध होने का अभिनय कर
लगातार एक फिरकी बना नाच रहा हूँ।

आपका अंश!
जिन्दगी भर गुनाह किए ,
फिर भी है चाहत ,
मुझे तेरे दर पर
पनाह मिले।

कर कुछ इनायत
मुझ पर
कुछ इस तरह ,जिंदगी!

अब और न भटकना पड़े,
क़दम दर क़दम मरना न पड़े !
शर्मिंदा हूँ....कहना न पड़े!!
    २१/०४/२००९
वो अब इतना अच्छा लिखेगा,
कभी सोचा न था।
अब लिख ही लिया है
उसने अच्छा
तो क्यों न उसकी बड़ाई करें!
क्यों क्षुद्रता दिखा कर
उससे शत्रुता मोल लें ?
वो अब इतना अच्छा है कि पूछो मत
हम सब उसके पुरुषार्थ से सौ फ़ीसदी सहमत।
सुनिए,उसका सुनियोजित तौर तरीका और सच ।

अब उसने अपने वजूद को
उनकी झोली में डाल दिया है ।
आतंक भरे दौर में
वे अपने भीतर के डर ,
उसकी जेब में भर
उसे खूब फूला रहें हैं,
उसके अहम के गुब्बारे को
फोड़ने की हद तक ।

पता नहीं!
वो कब फटने वाला है?
वैसे उसके भीतर गुस्सा भर दिया गया है।
वो अब इतना बढ़िया लिखता है,
लगता , सत्ताधीशों पर फब्तियां कसता है।
पता नहीं कब, उसे इंसान से चारा बना दिया जाएगा।
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