कुछ हासिल न होने की सूरत में
आदमी की सूरत
बिगड़ जाती है ,
तन मन के भीतर
तड़प होने लगती है,
जो न केवल बेचैनी को बढ़ाती है ,
बल्कि भीतर तक
होने लगता है
अशांत,
जैसे शांत झील में
किसी ने
अचानक
कोई कंकर
भावावेश में आकर
दिया हो फैंक...!
यह सब उदासी के
बढ़ने का बनता है सबब ,
स्वतः प्रतिक्रिया वश
आदमी
उदासीन होता जाता है ,
वह जीवन में
आनंद लेने और देने से
करने लगता है गुरेज़ ,
ऐसा
अक्सर होने पर
वह थकान को
किया करता है महसूस।
उसके भीतर
असंतुष्टि घर कर जाती है ,
यह अवस्था ही
तड़प बनकर
वजूद के आगे
एक सवाल खड़ा करती है,
उसे कटघरे में खड़ा कर
उद्वेलित किया करती है।
जिजीविषा से युक्त
आदमी और उसकी मनोवृत्ति
हमेशा इस अज़ाब से
मुक्त
होना चाहते हैं।
उसे जीवन भर
निष्क्रिय रह कर तड़पना
और मतवातर
मरणासन्न होते चले जाने का दंश
झकझोरता है।
उसे कभी भी
तड़प तड़प कर
जीना नहीं मंजूर !
अतः
वह इस तड़पने की
जकड़न से
हर सूरत में
बचना चाहता है ,
वह सार्थक सोच से जुड़कर
सकारात्मक दिशा में
बढ़ना चाहता है।
वह अपनी संभावना को
टटोलना चाहता है।
वह अपनी सीरत को
सतत संघर्ष युक्त कर
बदलना चाहता है ,
ताकि वह जीवन पथ पर
निर्विघ्न बढ़ सके !
और एक दिन
वह स्वयं को पढ़ सके !
और वह भली भांति जान सके कि
आखिर वह
जीवन धारा से
क्या अपेक्षा करता है ?
कौन है ,
जो उसे उपेक्षित
रखना चाहता है ?
और जो उसकी तड़प की
वज़ह बना है।
वह बस संघर्ष करना चाहता है ,
अपने भीतर
जिजीविषा की
उपस्थिति
और इसकी अनुभूति से
उत्पन्न संवेदना को
जानना भर चाहता है।
वह तड़प, तड़प कर
अब जिन्दा नहीं रहना चाहता ,
वह जीवन यात्रा में
गंतव्य तक
यथाशीघ्र
पहुंचने का आकांक्षी है बस!
इससे पहले कि...
यह तड़प सर्वस्व कर ले हड़प।
वह दृढ़ निश्चय करके
अपने हालातों का
मूल्यांकन कर जीवन के
उज्ज्वल पक्षों पर
दृष्टिपात कर
अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण
विकसित कर जीना चाहता है।
०७/०४/२०२५.