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अन्याय
तन मन में आग
लगाता रहा है ,
यह भीतर को
फूंकता ही नहीं ,
बल्कि आदमी को
हद से ज़्यादा
बीमार और लाचार
बना देता है ,
यह थका देता है।
अन्याय
ज़ोर ज़बरदस्ती
जबरन झुकने के लिए
बाध्य करने वाला
धक्का है ,
यह वह थपेड़ा है,
जिसने यकायक
आदमी को
भीतर तक तोड़ा है।
इसका विरोध
हर सूरत में
होना ही चाहिए।
अन्याय से मुक्ति के लिए
कोई जन आन्दोलन होना ही चाहिए।
कौन सहेगा अन्याय अब
और अधिक देर तक
इस बाबत सब को
समय रहते विरोध की खातिर
खड़ा होना ही चाहिए।
कोई भी व्यक्ति
इसका शिकार नहीं बनना चाहिए।
बस इस की खातिर
सब को स्वयं को
जागरूक बनाना होगा ,
विरोध करने का बीड़ा उठाना होगा ,
समय बार बार नहीं देता
समाज से अन्याय और शोषण जैसी
गन्दगी साफ़ करने का मौका।
अब भी विरोध का सुर
बुलन्द न किया
तो यह निश्चित है
कि भविष्य
अनिश्चित काल तक
धूमिल बना रहेगा,
इसके साथ ही
मिलता रहेगा
सब को क़दम क़दम पर धोखा।
अन्याय का विरोध करना
सब का फ़र्ज़ है ,
विरोध से पीछे हटना और डरना
बन चुका है अब मर्ज़
समाज में।
आज अन्याय को कौन सहे ?
क्यों अब सब
देर तक मौन रहें ?
क्यों न सब
विरोध और प्रतिरोध के
सुर मुखर करें ?
वे अन्याय और शोषण की
ख़िलाफत करें ।
०६/०४/२०२५.
Frustration bursts first peace of mind
and
than it imposes restrictions on human beings,
to feel secure in life.

Frustration is like an invitation for destruction ,
so engage yourself in constructive activities to avoid huge damage in life  for survive.

06/04/2025.
इस धरा पर
जीवन धारा का
बह निकलना
अपने आप में
लगता है एक करिश्मा।
मैं भी कभी
चमत्कार में
विश्वास नहीं करता था,
मुझे कार्य कारण संबंध खोजना,
और फिर इस सब की बाबत
अपनी धारणा बनाना अच्छा लगता है।
पिछले कुछ अर्से से
देश दुनिया में
असंभव प्रायः को
जीवन में घटित होते देखता हूँ
तो लगता है ,
कहीं निकट ही
चमत्कार घट रहा है,
जो न केवल विस्मित कर रहा है,
बल्कि सोच को भी बदल रहा है,
जिससे सब कुछ बदलाव की ओर बढ़ता लग रहा है।
जीवन यात्रा में चमत्कार घटित होता महसूस हो रहा है।
असंभव का संभावना में बदल कर
दृश्यमान होना चमत्कार ही तो है
जो बुद्धि पर पड़े पर्दे को हटाकर
कभी कभी  परम की जादुई उपस्थिति का
अहसास करा देता है।
चेतना को जगा देता है।
आदमी की सुप्त चेतना का
अचानक अनुभूति बनकर
अपनी प्रतीति कराना
एक चमत्कार से कम नहीं ,
जो आदमी को रख पाता है संतुलित और सही।
जीवन और मरण के घटनाक्रम का
सतत अस्तित्वमान होना ,
आदमी का दुरूह परिस्थितियों में
जिजीविषा के बूते बचे रहना
किसी चमत्कार से कम नहीं।
अनास्था के विप्लव कारी दौर में
आस्था का बना रहना भी
किसी करिश्मे से कम नहीं है जी ,
जो जीवन में जिजीविषा का आभास कराता है,
मृत प्रायः को जीवन देने का चमत्कार कर जाता है।
०६/०४/२०२५.
वह हठी है
इस हद तक
कि सदा
अपनी बात
मनवा कर छोड़ता है।
उसके पास
अपना पक्ष रखने के लिए
तर्क तो होते ही हैं ,
बल्कि जरूरत पड़ने पर
वह कुतर्क, वाद विवाद का भी
सहारा लेने से
कभी पीछे नहीं हटता।
वह हठी है
और इस जिद्द के कारण
मेरी कभी उससे नहीं बनी है,
छोटी छोटी बातों को लेकर
हमारी आपस में ठनती रही है।
हठी के मुंह लगना क्या ?...
सोच कर मैं अपनी हार मानता रहा हूं।
वह  अपने हठ की वज़ह से
अपने वजूद को
क़ायम रखने में सफल रहा है ,
इसके लिए वह कई बार
विरोधियों से
बिना किसी वज़ह से लड़ा है ,
तभी वह जीवन संघर्ष में टिक पाया है ,
अपनी मौजूदगी का अहसास करा पाया है।
उसकी हठ मुझे कभी अच्छी लगी नहीं ,
इसके बावजूद
मुझे उससे बहस कभी रुचि नहीं।
मेरा मानना है कि वह सदैव
जीवन में आगे बढ़ चढ़ कर
अपने को अभिव्यक्त करता रहे।
उसका बहस के लिए उतावला होना
उसके हठी स्वभाव को भले ही रुचता है ,
मुझे यह अखरता भी जरूर है ,
मगर उसके मुंह न लगना
मुझे उससे क़दम क़दम पर बचाता है।
हठी के मुंह लगने से सदैव बचो।
अपने सुख को
सब कुछ समझते हुए
तो न हरो।
बहस कर के
अपने सुख को तो न सुखाओ ।
इसे ध्यान में रखकर
मैं  उस जैसे हठी के आगे
अकड़ने से परहेज़ करता हूं।
आप भी इसका ध्यान रखें कि
...हठी के मुंह लगना क्या ?
बेवजह जीवन पथ में लड़ भिड़कर अटकना क्या ?
इन से इतर खुद को समझ लो,
खुद को समझा लो,
बस यही काफी है।
कभी कभी
हठी से बहस करने
और उलझने की निस्बत
खुद ही आत्म समर्पण कर देना ,
अपनी हार मान लेना बुद्धिमत्ता है।
०५/०४/२०२५.
हरेक जीव
विशेष होता है
और उसके भीतर
स्वाभिमान कूट कूट कर
भरा होता है।
परंतु कभी कभी
आदमी को मयस्सर
होती जाती है
एक के बाद
एक एक करके
सफलता दर सफलता ,
ऐसे में
संभावना बढ़ जाती है कि
भीतर अहंकार
उत्पन्न हो जाए ,
आदमी की हेकड़ी
मकड़ी के जाल सरीखी होकर
उस मकड़जाल में
आदमी की बुद्धिमत्ता को
उलझाती चली जाए,
आदमी कोई ढंग का निर्णय
लेने में मतवातर पिछड़ता चला जाए।
उसका
एक अनमने भाव से लिया गया
फ़ैसला
कसैला निर्णय बनता चला जाए ,
आदमी जीवन की दौड़ में
औंधे मुंह गिर जाए
और कभी न संभल पाए ,
वह
बैठे बिठाए पराजित हो जाए।
वह
एकदम चाहकर भी
खुद में
बदलाव न कर पाए।
अंतिम क्षणों में
जीत
उसके हाथों से
यकायक
फिसल जाए।
उसकी हेकड़ी
धरी की धरी रह जाए।
उसे अपने बेबस होने का अहसास हो जाए।
हो सकता है
इस झटके से
वह फिर से
कभी संभल जाए
और जड़ से विनम्र होने की दिशा में बढ़कर
सार्थकता का वरण कर पाए।
०५/०४/२०२५.
हाज़िरजवाब
प्रतिस्पर्धी
किसी खुशकिस्मत को
नसीब होता है ,
वरना
ढीला ढाला प्रतिद्वंद्वी
आदमी को
लापरवाह बना देता है ,
आगे बढ़ने की
दौड़ में
रोड़े अटकाकर
भटका देता है ,
चुपके चुपके से
थका देता है।
वह किसी को न ही मिले तो अच्छा ,
ताकि जीवन में
कोई दे कर गच्चा
कर न सके
दोराहे और चौराहे पर
कभी हक्का बक्का।
अच्छा और सच्चा प्रतिद्वंद्वी
बनने के लिए
आदमी सतत प्रयास करता रहे ,
वह न केवल अथक परिश्रम करे ,
बल्कि समय समय पर
समझौता करने के निमित्त
खुद को तैयार करता रहे।
संयम से काम करना
प्रतिस्पर्धी का गुण है ,
और विरोधी को अपने मन मुताबिक
व्यवहार करने को बाध्य करना
कूटनीतिक सफलता है।

प्रतिस्पर्धा में
कोई हारता और जीतता नहीं,
मन में कोई वैर भाव रखना,
यह किसी को शोभा देता नहीं।
प्रतिद्वंद्विता की होड़ में
यह कतई सही नहीं।
आदमी जीवन पथ की राह में
मिले अनुभवों के आधार पर
स्वयं को परखे तो सही ,
तभी प्रतिभा के समन्वय से
प्रतिस्पर्धा में टिका जाता है ,
जीवन के उतार चढ़ावों के बीच
प्रगति को गंतव्य तक पहुंचाया जाता है।
०४/०४/२०२५.
राजनीति में
मुद्दाविहीन होना
नेतृत्व का
मुर्दा होना है।
नेतृत्व
इसे शिद्दत से
महसूस कर गया।
अब इस सब की खातिर
कुछ कुछ शातिर बन रहा है।
यही समकालीन
राजनीतिक परिदृश्य में
यत्र तत्र सर्वत्र
चल रहा है।
बस यही रोना धोना
जी का जंजाल
बन रहा है।
नेता दुःखी है तो बस
इसीलिए कि
उसका हलवा मांडा
पहले की तरह
नहीं मिल रहा है।
उसका और उसके समर्थकों का
काम धंधा ढंग से
नहीं चल रहा है।
जनता जनार्दन
अब दिन प्रतिदिन
समझदार होती जा रही है।
फलत:
आजकल
उनकी दाल
नहीं गल रही है।
समझिए!
ज़िन्दगी दुर्दशा काल से
गुज़र रही है।
राजनीति
अब बर्बादी के
मुहाने पर है!
बात बस अवसर
भुनाने भर की है ,
दुकानदारी
चलाने भर की है।
मुद्दाविहीन
हो जाना तो बस
एक बहाना भर है।
असली दिक्कत
ज़मीर और किरदार के
मर जाने की है ,
हम सब में
निर्दयता के
भीतर भरते जाने की है।
इसका समाधान बस
गड़े मुर्दों को
समय रहते दफनाना भर है ,
मुद्दाविहीन होकर
निर्द्वंद्व होना है
ताकि मुद्दों के न रहने के बावजूद
सब सार्थक और सुरक्षित
जीवन पथ पर चलते रहें।
वे सकारात्मक सोच के साथ
जीवन में दुविधारहित होकर आगे बढ़ सकें ,
आपातकाल में
डटे रहकर संघर्ष कर सकें।
०४/०४/२०२५.
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