उम्र बढ़ने के साथ साथ
भूलना एकदम स्वाभाविक है ,
परन्तु अस्वाभाविक है ,
विपरीत हालातों में
आदमी की
जिजीविषा का
कागज़ की पुड़िया की तरह
पानी में घुल मिल जाना ,
उसका लड़ने से पीछे हटते जाना ,
लड़ने , संघर्ष करने की वेला में ,
भीतर की उमंग तरंग का
यकायक घट जाना ,
भीतर घबराहट का भर जाना ,
छोटी छोटी बातों पर डर जाना।
ऐसी दशा में
आदमी अपने को कैसे संभाले ?
क्या वह तमाम तीर
और व्यंग्योक्तियों को
अपने गिरते ढहते ज़मीर पर आज़मा ले ?
क्या वह आत्महंता बन कर धीरू कहलवाना पसंद करे ?
क्यों न वह मूल्यों के गिरते दौर में
धराशाई होने से पहले
खुद को अंतिम संघर्ष के लिए तैयार करे ?
जीवन में अपने आप को
विशिष्ट सिद्ध करने के लिए हाड़ तोड़ प्रयास करे ?
वह जीवन में
लड़ना कतई न भूले ,
वरना सर्वनाश सुनिश्चित है ,
त्रिशंकु बनकर लटके रहना , पछताना भी निश्चित है।
अनिश्चित है तो खुद की नज़रों में फिर से उठ पाना।
ऐसे हालातों से निकल पाने के निमित्त
तो फिर
आदमी अपने आप को
क्यों न जीवन पथ पर लड़ने के काबिल बनाए ?
वह बिना लड़े भिड़े ही क्यों खुद को पंगु बनाए ?
वह अपने को जीवन धारा के उत्सव से जोड़े।
जीवन की उत्कृष्टता के साक्षात दर्शनार्थ
अपने भीतर उत्साह,उमंग तरंग,
अमृत संचार के भाव
निज के अंदर क्यों न समाहित करे ?
वह बस बिना लड़े घुटने टेकने से ही जीवन में डरे।
अतः मत भूलो तुम जीवन में मनुष्योचित लड़ना।
लड़ना भूले तो निश्चित है ,
आदमजात की अस्मिता का
अज्ञानता के नरक में जाकर धंसना।
पल पल मृत्यु से भी
बदतर जीवन को
क़दम क़दम पर अनुभूत करना।
खुद को सहर्ष हारने के लिए प्रस्तुत करना।
भला ऐसा कभी होता है ?
आदमी विजेता कहलवाने के लिए ही तो जीता है !
०२/०४/२०२५.