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वह कितना चतुर हैं!
झटपट झूठ
परोस कर
बात का रुख
बदल देता है ,
जड़ से समस्या को
खत्म करता है।
यह अलग बात है कि
झूठ को छिपाने की
एक और समस्या को
दे देता है
जन्म !
जो भीतर की
ऊर्जा को करती रहती है
धीरे धीरे कम !
किरदार को
कमजोर करती हुई ,
आदमी को
अंदर तक
इस हद तक
निर्मोही करती हुई
कि उसका वश चले
तो हरेक विरोधी को
जीते जी एक शव में
कर दे तब्दील !
उसे झंड़े की तरह लहरा दे !
उसे एक कंदील में बदल
झूठे सच्चे के स्वागतार्थ
तोरण बना लटका दे !
झूठा आदमी ख़तरनाक होता है।
वह हर पल सच्चे के कत्ल का गवाह
बनने के इरादे में मसरूफ रहता है
और दिन रात
न केवल साजिशें रचता है
बल्कि मतवातर
गड़बड़ियां करता है,
ताकि वह हड़बड़ी फैला सके ,
मौका मिलने पर
हर सच्चे और पक्के को
धमका सके ,
मिट्टी में मिला सके।

०४/०४/२०२५.
आज के तेज रफ़्तार के
दौर में
अंदर व्यापे
अशांत करने वाले
शोर में
अचानक लगे
ट्रैफिक जाम में
धीरे धीरे
वाहनों का आगे बढ़ना
किसी को भी अखर सकता है ,
तेज़ रफ़्तार का आदी आदमी
अपना संयम खोकर
भड़क सकता है।
वह
अचानक
क्रोध में आकर
दुर्घटनाग्रस्त हो ,
जाने पर परेशान हो ,
तनावग्रस्त हो जाता है।
इस दयनीय अवस्था में
आज का आदमी
सचमुच
नरक तुल्य जीवन में फंसकर
अपना सुख चैन गंवा लेता है।
ऐसी मनोस्थिति में
वह क्या करे ?
वह कैसे अपने भीतर धैर्य भरे ?
वह कैसे संयमित होने का प्रयास करे ?
आओ इस बाबत
हम सब मिलकर विचार करें।

संयम के
अभाव में
धीमी गति
असह होती है ,
यह मन में
झुंझलाहट भरती है।
कभी कभी तो यह
आदमी को
बिना उद्देश्य से चलने वाली
एक ब्रेक फेल गाड़ी की तरह
व्यवहार करने को
बाध्य करती है ,
इस अवस्था में
आदमी की बुद्धि के कपाट
बंद हो जाते हैं ।
आदमी
लड़ने झगड़ने पर
आमादा हो जाते हैं।
अच्छी भली ज़िन्दगी में
गतिहीनता का अहसास
पहले से व्याप्त घुटन में
इज़ाफ़ा कर देता है।
आदमी
रुकी हुई जीवन स्थिति का
न चाहकर भी
बन जाता है शिकार!
वह कुंठित होकर
जाने अनजाने
बढ़ा लेता है
अपने भीतर व्यापे मनोविकार,
जिन्हें वह सफ़ाई से
छुपाता आया है,
वे सब मनोविकार
धीरे-धीरे
लड़ने झगड़ने की स्थिति में
होने लगते हैं प्रकट !
जीवन के आसपास
फैल जाता है कूड़ा कर्कट!
धीमी गति से
आज के तेज़ रफ़्तार
जीवन में
स्थितियां परिस्थितियां
बनतीं जाती हैं विकट !
विनाश काल भी
लगने लगता है अति निकट !!
कभी कभी
जीवन में धीमी गति
कछुए को विजेता
बना देती है।
परन्तु
जिसकी संभावना
आज के तेज़ तर्रार रफ़्तार भरे जीवन में
है बहुत कम।
तेज़ रफ़्तार जीवन
आदमी को
न चाहकर भी
बना देता है निर्मम!
और जीवन में व्याप्त  धीमी गति
आदमी को बेशक
दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाती है!
यह निर्विवाद सब को
गंतव्य तक पहुंचाती है !
तेज़ रफ़्तार वाले युग का मानस
इस सच को कभी तो समझे !
वह जीवन में
धीमी गति होने के बावजूद
किसी से न उलझे !
बल्कि वह शांत चित्त होकर
अपनी अन्य समस्याओं को सुलझाए।
व्यर्थ ही जीवन को
और  ज़्यादा  उलझाता न जाए।
वह अपने क़दम धीरे धीरे आगे बढ़ाए।
ताकि जीवन में
सुख समृद्धि और शांति को तलाश पाए।
०३/०४/२०२५.
बिगड़ैल का सुधरना
किसी सुख के मिलने जैसा है ,
किसी का बिगड़ना
विपदा के आगमन जैसा है।
इस बाबत
आप की सोच क्या है ?
बिगड़े हुए को सुधारना
कभी होता नहीं आसान।
वे अपने व्यवहार में
समय आने पर
करते हैं बदलाव।
इसके साथ साथ
वे रखते हैं आस ,
उनकी सुनवाई होती रहे।
वे सुधर बेशक गए ,
इसे भी अहसान माना जाए।
उनका कहना माना जाए।
वरना वे बिगड़ैल उत्पात मचाने
फिर से आते रहेंगे।

कुछ मानस
बिगड़े बच्चों को
लठ्ठ से सुधारना चाहते हैं,
आजकल यह संभव नहीं।
आज भी उनकी सोच है कि डर
अब भी उन सब पर कायम रहना चाहिए।
ऐसी दृष्टि रखने वालों को आराम दे देना चाहिए।
बिगड़ैल को पहले प्यार मनुहार से
सुधरने का मौका देना चाहिए।
फिर भी न मानें वे,
तो उन्हें अपने माता पिता से
मिला प्रसाद दे ही देना चाहिए।
कठोर दंड या तो सुधार देता है
अथवा बदमाश बना देता है।
उन्हें कभी कभी ढीठ बना देता है।
कई बार सुधार के चक्कर में
आदमी खुद को बिगाड़ लेता है।
हरेक ऐसे सुधारवादी पर हंसता है,
चुपके चुपके चुटकियां भरता है,
और कभी कभी अचानक फब्तियां भी कसता है।
किसी किसी समय आदमी को
उसकी सुधारने की जिद्द महंगी पड़ जाती है,
सारी अकड़ धरी धराई रह जाती है,
छिछालेदारी अलग से हो जाती है।
आप बताइए,
ऐसे मानस की इज्ज़त
कहां तक बची रह पाती है ?
०२/०४/२०२५.
कल अख़बार में
एक सड़क दुर्घटना में
मारे गए तीन कार सवार युवकों की
दुखद मौत की बाबत पढ़ा।
लिखा था कि
दुर्घटना के समय
बैलून खुल नहीं पाए थे,
बैलून खुलते तो उन युवाओं के असमय
काल कवलित होने से बचने की संभावना थी।
इसके बाद
एक न्यूज बॉक्स में
ऑटो एक्सपर्ट की राय छपी थी कि
सीट बैल्ट बांधने पर ही
बैलून खुलते हैं , अन्यथा नहीं।
मेरे जेहन में
एक सवाल कौंधा था ,
आखिर सीट बैल्ट बांधने में
कितना समय लगता है ?
चाहिए यह कि
कार की अगली सीटों पर बैठे सवार
न केवल सीट बैल्ट लगाएं
बल्कि पिछली सीट पर
सुशोभित महानुभाव भी
सीट बैल्ट को सेफ़्टी बैल्ट मानकर
सीट बैल्ट को बांधने में
कोई कोताही न करें ।
सब सुरक्षित यात्रा का करें सम्मान ,
ताकि कोई गवाएं नहीं कभी जान माल।
सब समझें जीवन का सच
दुर्घटनाग्रस्त हुए नहीं कि
हो जाएंगे हौंसले पस्त !
साथ ही सपने भी ध्वस्त !!

अतः यह बात पल्ले बांध लो
कि किसी वाहन पर सवार  होते ही
सीट  बैल्ट और अन्य सुरक्षा उपकरणों को पहन लो।
आप भी सुरक्षित रहो ,
साथ ही जनधन भी बचा रहे।
ज़िन्दगी का सफ़र भी आगे बढ़ता रहे।
आकस्मिक दुर्घटना का दंश भी न सहना पड़े।
०२/०४/२०२५.
उम्र बढ़ने के साथ साथ
भूलना एकदम स्वाभाविक है ,
परन्तु अस्वाभाविक है ,
विपरीत हालातों में
आदमी की
जिजीविषा का
कागज़ की पुड़िया की तरह
पानी में घुल मिल जाना ,
उसका लड़ने से पीछे हटते जाना ,
लड़ने , संघर्ष करने की वेला में ,
भीतर की उमंग तरंग का
यकायक घट जाना ,
भीतर घबराहट का भर जाना ,
छोटी छोटी बातों पर डर जाना।
ऐसी दशा में
आदमी अपने को कैसे संभाले ?
क्या वह तमाम तीर
और व्यंग्योक्तियों को
अपने गिरते ढहते ज़मीर पर आज़मा ले ?
क्या वह आत्महंता बन कर धीरू कहलवाना पसंद करे ?
क्यों न वह मूल्यों के गिरते दौर में
धराशाई होने से पहले
खुद को अंतिम संघर्ष के लिए तैयार करे ?
जीवन में अपने आप को
विशिष्ट सिद्ध करने के लिए हाड़ तोड़ प्रयास करे ?

वह जीवन में
लड़ना कतई न भूले ,
वरना सर्वनाश सुनिश्चित है ,
त्रिशंकु बनकर लटके रहना , पछताना भी निश्चित है।
अनिश्चित है तो खुद की नज़रों में फिर से उठ पाना।
ऐसे हालातों से निकल पाने के निमित्त
तो फिर
आदमी अपने आप को
क्यों न जीवन पथ पर लड़ने के काबिल बनाए ?
वह बिना लड़े भिड़े ही क्यों खुद को पंगु बनाए ?
वह अपने को जीवन धारा के उत्सव से जोड़े।
जीवन की उत्कृष्टता के साक्षात दर्शनार्थ
अपने भीतर उत्साह,उमंग तरंग,
अमृत संचार के भाव
निज के अंदर क्यों न समाहित करे ?
वह बस बिना लड़े घुटने टेकने से ही जीवन में डरे।
अतः मत भूलो तुम जीवन में मनुष्योचित लड़ना।
लड़ना भूले तो निश्चित है ,
आदमजात की अस्मिता का
अज्ञानता के नरक में जाकर धंसना।
पल पल मृत्यु से भी
बदतर जीवन को
क़दम क़दम पर अनुभूत करना।
खुद को सहर्ष हारने के लिए प्रस्तुत करना।
भला ऐसा कभी होता है ?
आदमी विजेता कहलवाने के लिए ही तो जीता है !
०२/०४/२०२५.
हरेक क्षेत्र में
हरेक जगह एक मसखरा मौजूद है
जो ढूंढना चाहता
अपना वजूद है
वह कोई भी हो सकता है
कोई ‌मसखरा
या फिर
कोई तानाशाह
जो चाहे बस यही
सब करें उसकी वाह! वाह!
अराजकता की डोर से बंधे
तमाम मसखरे और तानाशाह
लगने लगे हैं आज के दौर के शहंशाह!
जिन्हें देखकर
तमाशबीन भीड़
भरने को बाध्य होगी
आह और कराह!
शहंशाह को सुन पड़ेगी
यह आह भरी कराहने की आवाजें
वाह! वाह!! ...के स्वर से युक्त
करतल ध्वनियों में बदलती हुईं !
तानाशाह के
अहंकार को पल्लवित पुष्पित करती हुईं !!
०१/०४/२०२५.
मच गया हड़कंप
जब सत्तासीन हुआ ट्रम्प ,
डोंकी मोंकी रूट हुए डम्प।
यह सब अब तक ज़ारी है।
साधन सम्पन्न देश में अब
राष्ट्र प्रथम की अवधारणा को
क्रियान्वित करने की बारी है।
यह लहर चहुं ओर फैल रही है ,
दुनिया सार्थक परिवर्तन के निमित्त
अब
धीरे धीरे
अपनी सुप्त शक्ति को
करने लग पड़ी है
मौन रहकर संचित,
ताकि सकारात्मक ऊर्जा कर सके
देश दुनिया और समाज को
ढंग से संचालित ,
जिससे कि
निर्दोष न हों सकें
अब और अधिक
कभी भी
अन्याय के शिकार,
वे न हों सकें कभी
किसी जन विरोधी
व्यवस्था के हाथों
असमय प्रताड़ित।
वे श्रम,धन,बल,संगठन से
प्राप्त कर सकें
अपने सहज और स्वाभाविक
मानवीय जिजीविषा से
ओत प्रोत मानवाधिकार।
०१/०४/२०२५.
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