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तुम कभी
बहुत ताकतवर रहे होंगें कभी ,
समय आगे बढ़ा ,
तुम ने भी तरक्की की होगी कभी ,
जैसे जैसे उम्र बढ़ी ,
वैसे वैसे शक्ति का क्षय ,
सामर्थ्य का अपव्यय
महसूस हुआ हो कभी !
बरबस आंखों में से
झरने सा बन कर
अश्रु टप टप टपकने
लगने लगे हों कभी।
अपनी सहृदयता ही
कभी लगने  लगी हो
अपनी कमज़ोरी और कमी।
इसके विपरीत
धुर विरोधियों ने
कमीना कह कर
सतत् चिढ़ाया हो
और भावावेश में आकर
भीतर बाहर
यकायक
गुस्सा आन समाया हो।
इस बेबसी ने
समर्थवान को आन रुलाया हो।

समर्थ के आंसू
पत्थर को
पिघलाने का
सामर्थ्य रखते हैं ,
पर जनता के बीच होने के
बावजूद
ये आंसू
समर्थ को सतत्
असुरक्षित करते रहते हैं ,
सत्तासीन सर्वशक्तिमान होने पर भी
निष्ठुर बने रहते हैं।
वे स्वयं असुरक्षित होने का बहाना
बना लेते हैं ,
वे बस जाने अनजाने
अपना उपहास उड़वा लेते हैं ,
मगर उन पर
अक्सर
कोई हंसता नहीं ,
उन्हें
अपने किरदार की
अच्छे से
समझ है कि
यदि कोई  
स्वभावतया भी हंस पड़ता है
तो झट से धड़
अलग हुआ नहीं ,
सब वधिक को ,
उसके आका को
ठहरायेंगे सही।
समर्थ को सतत् सक्रिय रहकर
आगे बढ़ना पड़ता है ,
क़दम क़दम पर
जीवन के विरोधाभासों से
निरंतर लड़ना पड़ता है।
समर्थ के आंसू
कभी बेबसी का
समर्थन नहीं करते हैं।
ये तो सहजता से
बरबस निकल पड़ते हैं।
हां,ये जरूर
मन के भीतर पड़े
गर्दोगुब्बार को धोकर
एक हद तक शांत करते हैं।
वरना समर्थ जीवन पर्यन्त
समर्थ न बना रहे।
वह अपने अंतर्विरोधों का
स्वयं ही शिकार हो जाए।
आप ही बताइए कि
वह कहां जाए ?
वह कहां ठौर ठिकाना पाए ?
०१/०४/२०२५.
हमने अज्ञानता वश
कर दी है एक भारी भरकम भूल ,
जिस भूल ने
जाने अनजाने
चटा दी है बड़े बड़ों को धूल
और जो बनकर शूल
सबको मतवातर
बेचारगी का अहसास
करवा रही है ,
अंदर ही अंदर
हम सब को
कमजोर
करती जा रही है।

हमने
लोग क्या कहेंगे ,
जैसी क्षुद्रता में फंसे रहकर
जीवन के सच को
छुपा कर रखा हुआ है ,
अपने भीतर
अनिष्ट होने के डर को भर
स्वयं को
सहज होने से
रोक रखा है।
यही असहजता
हमें भटकाती रही है ,
दर दर की ठोकरें खाने को
करती रही है बाध्य ,
जीवन के सच को
छुपाना
सब पर भारी पड़ गया है !
यह बन गया है
एक रोग असाध्य !!
आदमी
आजतक हर पल
सच को झूठलाने की
व्यर्थ की दौड़ धूप
करता रहा है ,
वह
स्वयं को छलता रहा है ,
निज चेतना को
छलनी छलनी कर रहा है !
स्व दृष्टि में
गया गुजरा बना हुआ सा
इधर उधर डोल रहा है ,
चाहकर भी
मन की घुंडी खोल
नहीं  रहा है ,
वह
एक बेबस और बेचारगी भरा
जीवन बिता रहा है ,
और
अपने भीतर पछतावा
भरता जा रहा है।
अतः
यह जरूरी है कि वह
जीवन के
सच को  
बेझिझक
बेरोक टोक
स्वीकार करे ,
जीवन में छुपने छुपाने का खेल
खेलने से गुरेज करे।
वह
इर्द गिर्द फैली
जीवन की खुली किताब को
रहस्यमय बनाने से परहेज़ करे।
इसे सीधी-सादी ही रहने दे।
इसे अनावृत्त ही रहने दे।
ताकि
सब सरल हृदय बने रह कर
इसे पढ़ सकें ,
जीवन पथ पर
आगे बढ़ सकें।
आओ , इस की खातिर
सब चिंतन मनन करें।
जीवन में कुछ भी छिपाना ठीक नहीं,
ताकि हम अपनी नीयत को रख सकें सही।
०१/०४/२०२५.
बाज़ार में
ऋण उपलब्ध करवाने की
बढ़ रही है होड़ ,
बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान
ऋण आसानी से
देने के  
कर रहे हैं प्रयास।
लोग खुशी खुशी
ऋण लेकर
अनावश्यक पदार्थों का
कर रहे हैं संचय।
ऋण लेना
सरल है ,
पर उसे
समय रहते
चुकाना भी होता है ,
समय पर ऋण चुकाया नहीं,
तो आदमी को
प्रताड़ना और अपमान के लिए
स्वयं को कर लेना चाहिए तैयार।
ऋण को न मोड़ने की
सूरत में  
ब्याज पर ब्याज लगता जाता है ,
यह न केवल
मन पर बोझ की वज़ह बनता है ,
बल्कि यह आदमी को
भीतर तक
कमजोर करता है,
आदमी हर पल आशंकित रहता है।
उसके भीतर
अपमानित होने का डर भी
मतवातर भरता जाता है।
उसका सुकून बेचैनी में बदल जाता है।

यह तो ऋणग्रस्त आदमी की
मनोदशा का सच है ,
परन्तु ऋणग्रस्त देश का
हाल तो और भी अधिक बुरा होता है,
जब आमजन का जीना दुश्वार हो जाता है,
तब देश में असंतोष,कलह और क्लेश, अराजकता का जन्म होता है,
जो धीरे-धीरे देश दुनिया को मरणासन्न अवस्था में ले जाता है,
और एक दिन देश विखंडन के कगार पर पहुंच जाता है ,
देश का काम काज
ऋण प्रदायक देश और संस्थान के इशारों पर होने लगता है।
यह सब एक नई गुलामी की व्यवस्था की वज़ह बनता जा रहा है ,
ऋण का दुष्चक्र विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को
विकास के नाम पर
विनाश की ओर ले जाता है।
इस बाबत बहुत देर बाद
समझ में आता है ,
जब सब कुछ छीन लिया जाता है,
तब ... क्या आदमी और क्या देश...
लूटे पीटे नज़र आते हैं ,
वे केवल नैराश्य फैलाने के लिए
पछतावे के साये में लिपटे नज़र आते हैं।
वे एक दिन आतंकी
और आतंकवाद फैलाने की नर्सरी में बदलते जाते हैं।
बिना उद्देश्य और जरूरत के
ऋण के जाल में फंसने से बचा जाए।
क्यों न
चिंता और तनाव रहित जीवन को जीया जाए !
सुख समृद्धि और शांति की खातिर चिंतन मनन किया जाए !
सार्थक जीवन धारा को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ा जाए !!
ऋण मुक्ति की बाबत समय रहते सोच विचार किया जाए ।
३१/०३/२०२५.
प्यार
जब एक जादूगर
सरीखा
लगने लगता है ,
तब जीवन
अत्यंत मनमोहक और
सम्मोहक
लगने लगता है,
इसका
जीवन में होना
मादकता का
कराने लगता है
अहसास,
आदमी का अपना होना
लगता है
भीतर तक
खासमखास।

किसी के जीवन में
प्यार की बदली
बरसे या न बरसे।
यह सच है कि
यह हरेक को
लगती रही है
अच्छी और सम्मोहक।

अहसास
प्यार का
जीवन घट में
कभी झलके या न झलके।
यह सच है कि
हरेक इस की चाहत
अपने भीतर
रखता रहा है,
यह उदासीनता की
कारगर दवा है।
इसकी उपस्थिति मात्र से
मन का नैराश्य
पलक झपकते ही
होने लगता है दूर !
बल्कि आंतरिक खुशी से
बढ़ जाता है नूर !!
यही वजह है कि सब
इसके लिए
लालायित रहते हैं,
इसकी प्राप्ति की खातिर
सतरंगी स्वप्न बुनते रहते हैं।
कोई कोई
इसकी खातिर ताउम्र
तरसता रह जाता है।
वह प्यार के जादू से
वंचित रह जाता है।
पता नहीं क्यों
प्यार एक जादूगर बनकर
कुछ लोगों के जीवन में
आने से रह जाता है ?
उनके हृदय में
हरदम कोहराम
मचा रहता है।
खुशकिस्मत हो!
जो यह जीवन में
अपनी उपस्थिति का
अहसास करा रहा है ,
तुम्हें और आसपास को
अपनी जादूगरी के रंग ढंग
सिखला रहा है ,
जीवन को सार्थक दिशा में
सतत् ले कर जा रहा है।
३०/०३/२०२५.
(मूल विचार ०७/०७/२००७ ).
जीवन भर भागता रहा
कृत्रिम खुशियों के पीछे।
हरेक तरीके से
अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए
छल प्रपंच का सहारा लिया,
अब भीतर तक गया हूं ‌रीत
सो सबने किनारा कर लिया।
आपाधापी
और
मारामारी के दौर में
चहुं ओर
मचा था शोर ।
बस यह कोलाहल
बाहर बाहर तक सीमित रहा,
कभी भी भीतर नहीं गया।
भीतर भी कुछ है,
इस तरफ़ नहीं गया ध्यान।
बस भागता रहा
जीवन में
पगलाया हुआ।
अब शरीर कमजोर है,
रहा नहीं मन और तन पर
नियंत्रण !
यातना शिविर का अहसास
कराता है अब
पल पल रीतता जाता जीवन।
अपने बीते को याद कर
अक्सर सोचता हूं,
व्यर्थ ही माया मोह में बंधा रहा ,
सारी उम्र अंधा बना रहा।
मैं कब किसी के लिए
उपयोगी बना ?
कुछ उसका काज संवरें,
इस खातिर
कभी सहयोगी बना।
नहीं न!
फिर  पछतावा कैसे?
फिर फिर घूम घाम कर
पछतावा आए न क्यों ?
यह रुलाए न क्यों ?
शायद
कोई भीतर व्यापा
अन्त:करण का सच
रह रह कर पूछता हो ,
आज मानसजात
जा रही किस ओर !
आदमी को
दुःख की लंबी अंधेरी
रात के बाद
कब दर्शन देगी भोर ?
....कि उसका
खोया आत्मविश्वास जगे ,
वह कभी तो संभले ,
उसे जीने के लिए
संबल मिले।
आदमी
इस जीवन यात्रा में
अध्यात्म के पथ पर बढ़े ।
या फिर वह
अति भौतिकवादी होकर
पतन के गर्त में
गिरता चला जाएगा।
क्या वह कभी संभल नहीं पाएगा ?
यदि आपाधापी का यह दौर
यूं ही अधिक समय तक चलता रहा,
तो आदमी कब तक पराजय से बच पाएगा।
यह भी सच है कि रह रह कर मिली हार
आदमजात को भीतर तक झकझोर देती है,
उसे कहीं गहरे तक तोड़ दिया करती है,
भीतर निराशा हताशा भर दिया करती है,
आत्मविश्वास को कमजोर कर
आंशका से भर , असमय मृत्यु का डर भर कर
भटकने के लिए निपट अकेला छोड़ दिया करती है।
ऐसी मनोस्थिति में
आदमी भटक जाया करता है ,
वह जीवन में
असंतुलन और असंतोष का
शिकार हो कर
अटक जाया करता है।
आजकल
बाहर फैला शोरगुल
धीरे-धीरे
अंदर की ओर
जाने को उद्यत है ,
यह भीतर डर भर कर
आदमजात को
तन्हां और बेघर करता जा रहा है।
आदमी अब पल पल
रीतता और विकल होता जाता है।
उसे अब सतत्
अपने अन्तःकरण में
शोरगुल सुनाई देता है।
इससे डरा और थका आदमी
आज जाए तो जाए कहां ?
अब शांति की तलाश में
वह किस की शरण में जाए ?
अति भौतिकता ने
उसे समाप्त प्रायः कर डाला है।
अब उसका निरंकुशता से पड़ा पाला है।
भीतर का शोर निरंतर
बढ़ता जा रहा है ,
काल का गाल
उसे लीलता ही नहीं
बल्कि छीलता भी जा रहा है।
वह मतवातर कराहता जा रहा है।
पता नहीं कब उसे इस अजाब से छुटकारा मिलेगा ?
अब तो अन्तःकरण में बढ़ता शोरगुल सुनना ही पड़ेगा...सुन्न होने तक!
२९/०३/२०२५.
ध्यान से सुनें ,
अपने इर्द गिर्द
तामझाम का मुलम्मा
चढ़ाने वाले ,
दिखावे का
महाप्रसाद तैयार करने वाले।
यह सब क्या है ?
इस आडंबर रचने की
वज़ह क्या है ?
इस दिखावे की बीमारी की
दवा कहां है ?
यह सब कुछ क्या है ?
आप सबको हुआ क्या है ?
दिखावे से क्षुब्ध
आदमी के अंदर
बहुत से सवालात
भीतर पैदा होते रहते हैं !
उसे दिन रात सतत
मथते रहते हैं !!
सवालात की हवालात में बंद करके,
उसे बेचैन करते रहते हैं !!
आज आदमी क्या करे ?
किस पर वह अपना आक्रोश निकाले ?
अच्छा हो कि देश दुनिया और समाज
दिखावा करने वालों को
निर्वासित कर दे
ताकि वे अप्रत्याशित ही
किसी साधारण मनुष्य को
कुंठित न कर सकें।
दिखावे और आडंबर के
मकड़जाल में उलझाकर
अशांति और अराजकता को फैलाकर
जीवन को अस्त व्यस्त कर
आदमी के भीतर तक
असंतोष और डर न भर दें।
एक हद तक
तामझाम अच्छा लग सकता है ,
परन्तु इसकी अति होने पर
यह विकास की गति को बाधित करता है।
अच्छा रहे कि लोग इससे बचें।
वे सादगीपूर्ण जीवन जीने की ओर बढ़ें।
बल्कि वे आपातकाल में संघर्षरत रहकर
जीवन धारा को स्वाभाविक रूप से बहने दें !
इस की खातिर
वे स्वयं को संतुलित भी करें ,
ताकि जीवन में सब सहजता से आगे बढ़ ‌सकें।
तामझाम का आवरण
अधिक समय तक
टिक नहीं पाता है ,
यह आदमी ‌को दुर्दशा की तरफ धकेल कर ,
सुख समृद्धि और सम्पन्नता से
वंचित कर देता है ,
भटकने के लिए
अकेलेपन से जूझने के निमित्त
असहाय,दीन हीन अवस्था में छोड़
प्रताड़ित करता है ,
सतत् डर भरकर
आदमी को बेघर करता है।
२८/०३/२०२५.
ज़िन्दगी के सफ़र में
बहुत से
उतार चढ़ाव आना
अनिवार्य है ,
पर क्या तुम्हें
ज़िन्दगी के सफ़र में
रपटीली सड़क पर
गड्ढे स्वीकार्य हैं ?
जो बाधित कर दें
तुम्हारी स्वाभाविक गति,
जीवन में होने वाली प्रगति।
अभी अभी
एक स्वाभिमानी
आटो चालक
कुशलनगर के
गुलज़ार बेग की बाबत पढ़ा है ,
जिन्होंने
प्रशासन के अधिकारियों से
सड़क सुरक्षा को
ध्यान में रखकर की थीं
शिकायतें कि
भर दो
क़दम क़दम पर
आने वाले सड़क के गड्ढे
ताकि अप्रत्याशित दुर्घटनाग्रस्त होने से
बचा जा सके।
परन्तु प्रशासन उदासीन बना रहा ,
उसने अपना अड़ियल रवैया न छोड़ा।
बल्कि फंड की कमी को
गड्ढे न भर सकने की वजह बताया।
इस पर
उन्होंने ठान लिया कि
अब वे कोई शिकायत नहीं करेंगे,
वह स्वयं ही सड़क के गड्ढे भरेंगे।
उस दिन से लेकर आज तक
अकेले अपने दम पर
उन्होंने साठ हजार से अधिक
सड़क के गड्ढे भर कर
जीवन को सुरक्षित किया है।
वह जिजीविषा की
बन गए हैं एक अद्भुत मिसाल।
अभी अभी पढ़ा है कि
गुलज़ार बेग साहब
रीयल लाइफ हीरो हैं।
सोचता हूं कि
यदि हमने उनसे कोई सीख न ली
तो हम सब जीरो हैं ,
आओ हम सार्थक जीवन वरें,
लोग क्या कहेंगे ?,
जैसी क्षुद्रता को नकारते हुए
जीवन पथ पर अग्रसर होने की ओर बढ़ें।
हम अपने भीतर की आवाज़ को सुनें।
उसके अनुसार कर्म करते हुए
अपने और आसपास के जीवन को सार्थक करें।
२७/०३/२०२५.
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