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आदमी का दंभ
जब कभी कभी
अपनी सीमा लांघ जाता है,
तब वह विद्रूपता का
अहसास कराता है,
यह न केवल उसे जीवन में
भटकने को बाध्य करता है,
बल्कि उसे सामाजिक ताने-बाने से
किसी हद तक बेदखल कर देता है।
यह उसे जीवन में उत्तरोत्तर
अकेला करता चला जाता है,
आदमी दहशतज़दा होता रहता है।
वह अपना दर्द भी
कभी किसी के सम्मुख
ढंग से नहीं रख पाता है।

कोई नहीं होना चाहता
अपने जीवन में
विद्रूपता के दंश का शिकार,
पर अज्ञानता के कारण
जीवन के सच को जान न पाने से,
अपने विवेक को लेकर
संशय से घिरा होने की वज़ह से  
वह समय रहते जीवन में
ले नहीं पाता कोई निर्णय
जो उसे सार्थकता की अनुभूति कराए ,
उसे निरर्थकता से निजात दिलवा पाए ,
उसे विद्रूपता के मकड़जाल में फंसने से बचा जाए।

विद्रूपता का दंश
आदमी की संवेदना को
लील लेता है,
यह उसे क्रूरता के पाश में
जकड़ लेता है,
आदमी दंभी होकर
एक सीमित दायरे में
सिमट जाता है ,
फलत: वह अपने मूल से
कटता जाता है ,
अपनी संभावना के क्षितिज
खोज नहीं पाता है !
दिन रात भीतर ही भीतर
न केवल
हरपल कराहता रहता है,
बल्कि वह अंतर्मन को
आहत भी कर जाता है।
उसका जीवन तनावयुक्त
बनता जाता है ,
वह शांत नहीं रह पाता है !
असमय कुम्हला कर रह जाता है !!
२८/०१/२०२५.
सच की तलाश में
इधर उधर
भटकना
कोई अच्छी बात नहीं,
आदमी
समय रहते
स्वयं को
ढंग से तराश ले,
यही पर्याप्त है।

बहुत से लोग
सोचते कुछ
और करते कुछ हैं ,
इन की वज़ह से
सुख की तलाश में
निकले जिज्ञासुओं को
भटकना पड़ता है ,
अपने जीवन में
कष्टों से जूझना पड़ता है।
यदि आदमी की
कथनी और करनी में
अंतर न रहे ,
तो सुख समृद्धि और शांति की
तलाश में और अधिक
भटकना न पड़े ,
उसे सुख चैन सहज ही मिले ,
उसका अंतर्मन सदैव खिला रहे !
वह अपने अंदर  के आक्रोश से
और
असंतोष की ज्वाला से
कभी भी न झुलसे ,
बल्कि वह समय-समय पर
अपने को जागृत रखने का प्रयास करता रहे
ताकि वह सहजता पूर्वक
अपनी मंजिल को तलाश सके।
वह जीवन में आगे बढ़ कर न केवल
अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके ,
बल्कि तनावमुक्त जीवन धारा में ‌बहकर
समय रहते
स्वयं की संभावना को
सहज ही खोज सके।
वह जीवन में
सार्थकता की अनुभूति कर सके ,
सहजता से
उसे निरर्थकता के अहसास से मुक्ति मिल सके।
२८/०१/२०२५.
हम कितनी ही फराखदिली
और सहिष्णुता की बात
आपस में कर लें ,
हमारे मन में
मान सम्मान जैसी
मानवीय कमज़ोरी
अवचेतन में
पड़ी रह जाती है,
जब जीवन में
उपेक्षित रह जाने का दंश
दर्प को ठोकर
अचानक अप्रत्याशित ही
दे जाता है
तब मानव सहज नहीं रह पाता है ,
वह भीतर तक तिलमिला जाता है ,
वह प्रतिद्वंद्वी को झकझोरना चाहता है।

इस समय मन में गांठ पड़ जाती है
जो आदमी के समस्त ठाट-बाठ को
धराशायी कर जाती है ,
यह सब घटनाक्रम
आदमी के भीतर को
अशांत और व्यथित कर जाता है।
वह प्रतिद्वंद्वी को
नीचा दिखाने की ताक में लग जाता है।

विनाश काल , विपरीत बुद्धि वाले
दौर में विवेक का अपहरण हो जाता है,
आदमी अपना बुरा भला तक सोच नहीं पाता है।
ऐसा अक्सर सभी के साथ होता है ,
इस नुकसान की भरपाई की चेष्टा करते हुए
दिन रात सतत प्रयास करने पड़ते हैं ,
तब भी वह पहले जैसी बात नहीं बनती है ,
मन के भीतर पछतावे की छतरी रह रह कर तनती है।
यह मनोदशा मरने तक
आदमी को हैरान व परेशान मतवातर करती रहती है।
पर विपरीत परिस्थितियों के आगे किसकी चलती है ?
यह उलझन आदमी का पीछा कभी नहीं छोड़ती है।
२७/०१/२०२५.
जन्म और मरण
इन्सान के हाथ में नहीं।
जैसे जन्मना और मरना
किसी के वश में नहीं।
बीमार -लाचार  
हताश-निराश
आदमी
कभी कभी
मरना चाहता है
पर यह कतई आसान नहीं।
असमय मरने को तुला व्यक्ति
यदि मर भी जाता है
तो वह करता है
किसी पर
कोई अहसान नहीं।
बल्कि वह दुनिया में
कायर ‌कहलाता है,
और उसे भुला दिया जाता है।

आदमी अपने को सक्रिय रखें
ताकि वह सहजता से जीवन पथ पर आगे बढ़े,
अपने अंतर्मन को दृढ़ करते हुए ,
अपनी क्षुद्रताओं से लड़ने का हौसला मन में भरे ,
वह जीवन में संयम से काम लेते हुए
सुख समृद्धि और सम्पन्नता का वरण कर सके।
सक्रियता जीवन है और निष्क्रियता मरण।
कर्मठता से आदमी बन सकता है असाधारण।
मरना और जीना,संघर्ष करते हुए टिके रहना, आसान नहीं।
जीवन को सार्थक दिशा में आगे बढ़ाना ही है सही।
२७/०१/२०२५.
यह सुखद अहसास है कि
उपेक्षित
कभी किसी से
कोई अपेक्षा नहीं रखता क्यों कि उसे
आदमी की फितरत का है
बखूबी पता ,
कोई मांग रखी नहीं कि
समझो बस !
जीवन का सच
समर्थवान शख्स
दाएं बाएं, ऊपर नीचे
होते हुए हो जाएगा
चुपके-चुपके ,चोरी-चोरी
लापता।
उपेक्षित रह जाता बस खड़ा ,
उलझा हुआ,
अपनी बेबसी पर
खाली हाथ मलता हुआ।

इसलिए
उपेक्षित
कभी भी ,
कहीं भी ,
हर कमी और अभाव के बावजूद
हर संभव संघर्ष करता हुआ ,
किसी के आगे
हाथ नहीं फैलाता।
वह कठोर परिश्रम करना  
है भली भांति जानता।
सब तरफ से उपेक्षित रहने के बावजूद
वह अपने बुद्धि कौशल से
सफलता हासिल कर
बनाए रखता है अपना वजूद ।
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपनी मौजूदगी का अहसास
हरपल कराता हुआ
अपनी जिजीविषा बनाए रखता है।
अपनी संवेदना और संभावना को जीवंत रखता है।
चुपचाप सतत् मेहनत कर
अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता है
ताकि वह अपने भीतर व्याप्त चेतना को
जीवन में सार्थक दिशा निर्देश के अनुरूप
ढाल सके,
समाज की रक्षार्थ
स्वयं को एक ढाल में बदल सके ,
तथाकथित सेक्युलर सोच के
अराजक तत्वों से
बदला ले सके ,
उन्हें सार्थक बदलाव के लिए
बाध्य कर सके।
जीवन में सब कुछ  
सर्व सुलभ साध्य कर सके ,
जीवन में निधड़क होकर आगे बढ़ सके।
उपेक्षित स्वयं से परिवर्तन की
अपेक्षा रखता है ,
यही वजह है कि वह अपने प्रयासों में
कोई कमीपेशी नहीं छोड़ता ,
वह संकट के दौर में भी
कभी मुख नहीं मोड़ता,
कभी संघर्ष करना नहीं छोड़ता।
२६/०१/२०२५.
समय समर्थ है
यह सदैव गतिशील रहता है
जीवन में यात्रा करने के दौरान
रुके रहने का अहसास
हद से ज्यादा अखरता है
यह न केवल प्रगति के  न होने का दंश दे जाता है
बल्कि नारकीय जीवन जीने की
प्रतीति भी कराता है।
जीवन में रुके रहने का अहसास
असाधारण उपलब्धियों की प्राप्ति तक को
आम बना देता है।
यह आदमी को
भीतर तक हिला देता है ,
उसे कहीं गहरे तक
थका देता है।

रुके रहने से बेहतर है कि
आदमी स्वयं को गतिशील रखें
ताकि वह असमय न थके,
जीवन में आगे बढ़ कर
अपनी मंजिल को वरता रहे।
२६/०१/२०२५.
आज आदमी ने
बाहर और भीतर को
इतना कर दिया है
प्रदूषण युक्त
इस हद तक
कि कभी कभी
लगने लगता है डर...
पर्यावरण बच पाएगा भी कि नहीं ?
जीवन का दरिया
निर्बाध रूप से
बह पाएगा भी कि नहीं ?
हम सब इस धरा पर
ढंग से रह पाएंगे भी कि नहीं ?
इससे पहले कि
कुछ अवांछित घटे
हम सब
अपने अपने ‌ढंग से
पर्यावरण को सुरक्षित रखने के निमित्त
दिन रात सतत प्रयास करें।
क्यों न हम !
प्रतिदिन
अपना अनमोल समय
परिवेश को सुरक्षित करने के निमित्त
दिन भर चिंतन मनन और व्यवहार में निवेश करें।
हम सब सादा जीवन उच्च विचार को अपनाएं।
जीवन की आपाधापी में
समष्टि के रक्षार्थ
अपनी जीवन शैली को
जंगल ,जल, जमीन, हवा,
धरा, पहाड़,जीवनादि के अनुरूप ढालकर
स्वयं को निरंतर संतुलित और जागृत करते जाएं।
आज जरूरत है
आदमी अपनी संवेदना को
समय रहते बचा पाए।
वह प्रकृति के सान्निध्य में रहकर
पर्यावरण को बचाने के लिए
पुरज़ोर कोशिशें करे
ताकि चेतना परिवेश और पर्यावरण के रक्षार्थ
आदमी को क़दम क़दम पर
न केवल मार्गदर्शन करें
बल्कि वह समय-समय पर
विनाश की चेतावनी भी देती रहे ,
आदमी जागरूक और चौकन्ना बना रहे।
आदमजात अपना विकास
समयबद्ध और सुनियोजित तरीके से करे
ना कि विकास के नाम पर
इस धरा पर
विनाश का तांडव होता रहे !!!
प्रकृति रुदन करती दिखाई दे !!!
आओ हम सब परिवेश के रक्षार्थ
अपने अपने जीवन काल में
किसी न किसी तरह से
समर्थन, समर्पण, संघर्ष करते हुए
तन , मन , धन  का  निवेश  करें
ताकि परिवेश और पर्यावरण को बचाया जा सके,
प्रकृति के सान्निध्य में रहकर
जीवन धारा को स्वाभाविक गति से
आगे बढ़ाया जा सके।
जीवन को सुख ,समृद्धि और सम्पन्नता से
भरपूर बनाया जा सके।
इस जीवन में सार्थकता का आधार
निर्मित किया जा सके ,
ताकि आदमी को
कभी भी अपना जीवन
आधा अधूरा न लगे।
वह पूर्णता का अहसास कर सके।
जीवन में क्षुद्रताओं का त्याग कर सके।
२५/०१/२०२५.
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