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कभी कभी
पतंग किसी खंबे में अटक जाती है,
इस अवस्था में घुटे घुटे
वह तार तार हो जाती है।
उसके उड़ने के ख़्वाब तक मिट्टी में मिल जाते हैं।

कभी कभी
पतंग किसी पेड़ की टहनियों में अटक
अपनी उड़ान को दे देती है विराम।
वह पेड़ की डालियों पर
बैठे रंग बिरंगे पंछियों के संग
हवा के रुख को भांप
नीले गगन में उड़ना चाहती है।
वह उन्मुक्त गगन चाहती है,
जहां वह जी भर कर उड़ सके,
निर्भयता के नित्य नूतन आयामों का संस्पर्श कर सके।

मुझे पेड़ पर अटकी पतंग
एक बंदिनी सी लगती है,
जो आज़ादी की हवा में सांस
लेना चाहती है,
मगर वह पेड़ की
टहनियों में अटक गई है।
उसकी जिन्दगी उलझन भरी हो गई है ,
उसका सुख की सांस लेना,
आज़ादी की हवा में उड़ान भरना
दुश्वार हो गया है।
वह उड़ने को लालायित है।
वह सतत करती है हवा का इंतज़ार ,
हवा का तेज़ झोंका आए
और झट से उसे हवा की सैर करवाए ,
ताकि वह ज़िन्दगी की उलझनों से निपट पाए।
कहीं इंतज़ार में ही उसकी देह नष्ट न हो जाए ।
दिल के ख़्वाब और आस झुंझलाकर न रह जाएं ।
वह कभी उड़ ही न पाए।
समय की आंधी उसको नष्ट भ्रष्ट और त्रस्त कर जाए।
वह मन माफ़िक ज़िन्दगी जीने से वंचित रह जाए।
कभी कभी
ज़िंदगी पेड़ की टहनियों से
उलझी पतंग लगती है,
जहां सुलझने के आसार न हों,
जीवन क़दम क़दम पर
मतवातर आदमी को
परेशान करने पर तुला हो।
ऐसे में आदमी का भला कैसे हो ?
जीवन भी पतंग की तरह
उलझा और अटका हुआ लगता है।
वह भी राह भटके
मुसाफ़िर सा तंग आया लगता है।
सोचिए ज़रा
अब पतंग
कैसे आज़ाद फिजा में निर्भय होकर उड़े।
उसके जीवन की डोर ,
लगातार उलझने
और उलझते जाने से न कटे।
वह  यथाशक्ति जीवन रण में डटे।

२४/०१/२०२५.
धन्य है वह समाज
जहां कन्या पूजन
किया जाता है,
यही है वह दिया
जहां से जीवन शक्ति का
होता है जागरण।
हिंदू समाज पर व्यर्थ ही
नारी अपमान का
लगाया जाता है आक्षेप,
यह वह उर्वर धरा है
जहां से संजीवनी का
उद्भव हुआ है,
मानव ने चेतना को
साक्षात जिया है।
यह वह समाज है
जहां हर पुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम राम
और स्त्री जगत जननी माता सिया है।

२४/०१/२०२५.
आज
दूध  
पता नहीं
मन में चल रही
उधेड़ बुन से
या फिर वैसे ही
लापरवाही से
उबालते समय
बर्तन से बाहर निकल गया ,
यह डांट डपट की
वज़ह बन गया कि
घर में कोई
कब दूध की क़दर करेगा ?
एक समय था जब दूध को तरस जाते थे और
अब घोर लापरवाही !
आज भी आधी आबादी दूध को तरसती है।
और यहां फ़र्श को दूध पिलाया जा रहा है।

पत्नी श्री से कहा कि
घर में
आई नवागंतुक
जूनियर ब्लैकी को
दूध दे दो ,
बेचारी भूखी लगती है ।
वह ऊपर गईं
और फिसल गईं।
दूध का कटोरा
नीचे गिरा ,
दूध फ़र्श पर फैला,
डांट डपट का
एक और बहाना गढ़ा गया।
जैसे सिर मुंडाते ही ओले पड़ें !
न चाहकर भी तीखी बातें सुननी पड़ें !!

सोचता हूँ...
यह रह रह कर दूध का गिरना
किसी मुसीबत आने की अलामत तो नहीं ?
क्यों न समय रहते खुद को कर लूँ सही !
आजकल
मन में सतत उधेड़ बुन लगी रहती है,
फल स्वरूप
एकाग्रता में कमी आ गई है।
दूध उबलने रखूं तो पूरा ध्यान होना चाहिए
दूध के बर्तन पर
ताकि दूध  बर्तन से उबालते समय बाहर निकले नहीं।
वैसे भी दूध हम चुरा कर पीते हैं !
कुदरत ने जिन के लिए दूध का प्रबंध किया है ,
हम इससे उन्हें वंचित कर
बाज़ार के हवाले कर देते हैं।
और हाँ, मंडी में नकली दूध भी आ गया है,
आदमी की नीयत पर प्रश्नचिह्न लगाने के निमित्त।
फिर इस दौर में आदमी
कैसे रखे स्वयं को प्रसन्न चित्त ?
दूध का अचानक बर्तन से बाहर निकलना
आदमी के मन में ठहराव नहीं रहा , को दर्शाता भर है।
वहम और भ्रम ने आदमी को
कहीं का नहीं छोड़ा , यह सच है।
इसमें कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं है।
२३/०१/२०२५.
कल की तरह
आज का दिन भी
बीत गया ,
बहुत कुछ भीतर भरा था
पर वह भी
लापरवाही के छेद की
वज़ह से
रीत गया।
अब पूर्णतः खाली हूँ ,
सो अपनी बात रख रहा हूँ।

कल
मैं घर पर ही रहा ,
बाहर चलने वाली
ठंडी हवाओं से डरता रहा।
सारा दिन अख़बार,
टेलीविजन,मोबाइल ,
बिस्तर या फिर चाय के
आसरे बीत गया।
फिर भी मैं रीता ही रहा।
देश, समाज, परिवार पर
बोझ बना रहा।

आज दफ़्तर में
कुछ ज़रूरी काम था,
सो घर से समय पर निकला
और ...
दफ़्तर छोड़ आगे निकल गया
जहां एक मित्र से मिलना हुआ
उसने हृदय विदारक ख़बर सुनाई।
मेरे गाँव का एक पुलिसकर्मी
नशे में डूबे बड़े घर के बिगड़ैल बच्चों की
लापरवाही का शिकार हो गया।
वह नाके पर डयूटी दे रहा था।
उसने कार में सवार लड़कों को
रुकने का इशारा किया ही था कि
वे लड़के उसे रौंदते हुए
कार भगा कर ले गए।
पता नहीं वे क्यों डर गए ?
घबराहट में वे अनर्थ कर गए।
फलत: वह बुरी तरह से घायल हुआ।
पहले उसे रूपनगर के राजकीय हस्पताल ले जाया गया ।
उसके बाद उन्हें चंडीगढ़ स्थित पीजीआई में
दाखिल करवाया गया।
जहां ऑपरेशन होने के बावजूद
उन्हें बचाया न जा सका।

आज उनका अंतिम संस्कार है।
यह सब कुछ जानकर
मैं उनके अंतिम संस्कार में शामिल हुआ।
बड़ा हृदय विदारक माहौल था।
एक संभ्रांत परिवार का कमाऊ सदस्य
अराजक तत्वों की भेंट चढ़ गया ।
परिवार पर अचानक दुःख का पहाड़ टूट पड़ा।

शाम सात बजे घर पहुंचा
तो मैं थोड़ा उदास और निराश था।
जिस सहृदय आदमी की विनम्रता को
सब कल तक सराहते थे ,
वह आज अचानक मानवीय क्रूरता का
बन गया था शिकार।
वह जन रक्षक था
पर अराजकता के कारण
खुद को बचा नहीं पाया।
वह दुर्घटना ग्रस्त होकर
जीवन में संघर्ष करते करते
चिर निद्रा में सो गया।
एक संवेदनशील व्यक्ति
काल के भंवर में खो गया।

मोबाइल पर उनके दाह संस्कार की बाबत
एक वीडियो डाली गई थी,
जिसमें अंतिम अरदास से लेकर
पुलिस कर्मियों के सैल्यूट करने,
सलामी देने की प्रक्रिया दर्शाई गई थी।

पुलिस के जवान
जब तब
चौबीसों घंटे
कभी भी
कहीं भी
अपनी डयूटी ढंग से निभाते हैं
तब भी वे
असुरक्षित क्यों होते जाते हैं ?
असमय
वे हिंसा का शिकार बन जाते हैं।
इस संबंध में
सभी को सोचना होगा।

इस समय मैं
कल और आज के दिन के बारे में
विचार कर रहा हूँ ,
आदमी अपने को हर पल व्यस्त रखे
तो ही अच्छा ,
वरना सुस्ती में
दिन कुछ खो जाने का अहसास कराता है।
आदमी के जीवन का एक और दिन
काल की भेंट चढ़ जाता है।
आदमी के हाथ पल्ले कुछ नहीं पड़ता है।
उसका जीवन पछतावे में बीतने लगता है।
आदमी कर्मठता की राह चले तो दिन भी अच्छे भले लगें।
वह कल ,आज और कल का भरपूर आनंद ले।
ताकि जीवन में सुख समृद्धि का अहसास
तन और मन को प्रफुल्लित करता रहे।
२३/०१/२०२५.
कभी कभी
पिता अपना आपा खो
बैठते हैं ,
जब वह अपने लाडले को
निठल्ला बैठे
देखते हैं ।

उनके क्रोध में भी
छिपा रहता है
लाड,दुलार और स्नेह।
पिता के इस रूप से
पुत्र होता है
भली भांति परिचित ,
फलत: वह रह जाता है चुप।
अक्सर वह पिता के आदेश का
करता है निर्विरोध पालन।
बेशक अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहे !
चाहता है पिता का साया हमेशा बना रहे !!

पिता के आक्रोश का क्या है ?
थोड़ी देर बाद एक दम से
ठोस से द्रव्य बन जाएगा !
कभी कभी वह छलक भी जाएगा !
जब पिता अपनी आंखों में दुलार भरकर ,
झट से पुत्र के लिए चाय बना कर
प्रेमपूर्वक लेकर आएगा।
...और जब पिता पुत्र
दोनों एक साथ मिलकर  
चाय और स्नैक्स के साथ
दुनिया भर की बातें
गहन आत्मीयता के साथ करेंगे ,
तब क्रोध और तल्खी के बादल
स्वत: छंटते चले जाएंगे।

पिता अपने आप ही
क्रोध पर
नियंत्रण का करने का करेंगे प्रयास
और
पुत्र पिता की डांट डपट को
यह तो है
महज़
मन के भीतर की गर्द और गुबार
समझ कर भूल जाएगा।
वह और ज़्यादा समझदार बनकर
पिता की खिदमत करता देखा जाएगा।

पिता और पुत्र का रिश्ता
किसी अलौकिक अहसास से कम नहीं।
दोनों ही अपनी अपनी जगह होते हैं सही।
बस उनमें कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए।
उनमें निरन्तर सहन शक्ति बनी रहनी चाहिए।

२२/०१/२०२५.
यहाँ वहाँ सब जगह
कुछ लोग
अपनी बात
बेबाकी से रख
आग में घी
डालने का काम
बहुत सफाई से करते हैं।
ऐसे लोग
प्रायः सभी जगह मिलते हैं!
लोग भी
इनकी बातों का समर्थन
बढ़ चढ़ कर करते हैं।

उनके लिए
लोग बेशक
लड़ते झगड़ते रहें ,
पर वे अपनी बात पर
डटे रहते हैं!
ऐसे लोग
प्रायः जनता जर्नादन के
प्रिय बने रहते हैं!
कुछ लोग
बड़े प्यार और सहानुभूति से
दुखती रग को
सहला कर
सोए दुःख को जगा कर
अपने को अलग कर लेते हैं !
वे अच्छे और सच्चे बने रहते हैं !
उन्हें देख समझ कर
आईना भी शर्मिंदा हो जाता है,
परंतु कुछ लोग सहज ही
इस राह पर चल कर
दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते हैं।
वे आँखों का तारा बने चमकते रहते हैं।

कुछ लोग
बात ही बात में
अपना उल्लू सीधा कर जाते हैं।
जब तक हकीकत सामने आती है,
वे सर्वस्व हड़प जाते हैं ,
चुपके से अराजकता फैला जाते हैं।
वे मुश्किल से व्यवस्था के काबू में आते हैं।

कुछ लोग
किसी असाध्य रोग से
कम नहीं होते हैं,
आजकल उनकी गिनती बढ़ती जा रही है,
व्यवस्था उनके चंगुल में फंसती जा रही है।
फिर कैसे जिन्दगी आगे बढ़े ?
या वह उन दबंगों से मतवातर डरती रहे ।
इस बाबत आप भी कभी अपने विचार प्रकट करें।
२१/०१/२०२५.
यह संभव नहीं
कि कभी मनुष्य
पूर्णतः विकार रहित हो सके।
फिर भी एक संभावना
उसके भीतर रहती है निहित,
कि वह अपने जीवनशैली
धीरे धीरे विकार रहित बना सके,
ताकि वह अपनी स्वाभाविक कमजोरियों पर
नियंत्रण करने में सफल रहे।

कोई भी विकार
सब किए धरे को
कर देता है बेकार ,
अतः व्यक्ति जीवन में संयमी बने
ताकि वह किसी हद तक
विकार रहित होकर
मन को शुद्ध रख सके,
जीवन धारा में शुचिता का
संस्पर्श कर सके।
वह सहज रहते हुए आगे बढ़ सके,
ताकि उस पर  लंपट होने का
कभी भी दोषारोपण न लग सके।
वह जीवन में
स्वयं के अस्तित्व को
सार्थक कर सके।
विकार रहित जीवन को
अनुभूति और संवेदना से
जोड़ कर
अपने व्यक्तित्व में
निखार ला सके।
वह प्यार और सहानुभूति को
चहुं ओर फैला सके,
चेतना से संवाद रचा सके,
अज्ञान की निद्रा से जाग सके।
२१/०१/२०२५.
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