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Joginder Singh Dec 2024
Only  passionate life
Can survive on earth ,
it has  too some extent  
worth and
a meaningful existence.
Joginder Singh Dec 2024
किसी भी तरह से
किसी किताब पर
लगना नहीं चाहिए
कोई भी प्रतिबंध।
यह सीधे सीधे
व्यक्तिगत आज़ादी पर रोक लगाना है।
बल्कि किताब तो समय के काले दौर को
आईना दिखाना भर है।
यह जरूरी नहीं कि हर कोई
प्रतिबंधित किताब को पढ़ेगा।
कोई जिज्ञासा के वशीभूत होकर इसे पढ़ेगा।
जिज्ञासू कभी नियंत्रण से बाहर नहीं जाएगा।
हां, वह कितना ही अच्छा या फिर बुरा हो,
वह देश ,समाज और दुनिया भर के खिलाफ़
अपनी टिप्पणी का इन्दराज करने से बचना चाहेगा।
कोई किसी के बहकावे और उकसावे में आकर
क्यों अपनी ज़िन्दगी को उलझाएगा ?
अपने शांत और तनाव मुक्त जीवन में आग लगाना चाहेगा।
प्रतिबंधित किताब को पढ़ने की आज़ादी सब को दो।
आदमी के विवेक और अस्मिता पर कभी तो भरोसा करो।
आदमी कभी भी इतना बेवकूफ नहीं रहा कि वह अपना घर-बार छोड़कर आत्मघाती कदम उठा ले।
यदि कोई ऐसा दुस्साहस करे
तो उसे कोई क्या समझा ले ?
ऐसे आदमी को यमराज अपनी शरण में बुला ले।
३१/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
कैसे कहूं ?
मन की ऊहापोह
तुम से !

सोचता हूं ,
आदमी ने
सदियों का दर्द
पल भर में सह लिया।
प्यार की बरसात में
जी भरकर नहा लिया।

कैसे कहूं ?
कैसे सहूं ?
मन के भीतर व्याप्त
अंतर्द्वंद्व
अब
तुम से!
तुम्हें देख देख
मन मैंने अपना
बहला लिया।
मन की खुशियों को
फूलों की खुशबू में
कुदरत ने समा लिया।
भ्रमरों के संग भ्रमण कर
जीवन के उतार चढ़ाव के मध्य
अपने आप को
कुछ हदतक भरमा लिया।

कैसे न कहूं ?
तुम्हें यादों में बसा कर
मैंने जिन्दगी के अकेलेपन से
संवेदना के लम्हों को पा लिया।
अपने होने का अहसास
लुका छिपी का खेल खेलते हुए,
उगते सूरज...!
उठते धूएं...!
उड़ते बादल सा होकर
मन के अन्दर जगा लिया।
कुछ खोया था
अर्से पहले मैंने
उसे आज अनायास पा लिया!
इसे अपने जीवन का गीत बना कर गा लिया!!

कैसे कहूं ?
संवेदना बिन कैसे जीऊं ?
आज यह अपना सच किस से कहूं ??
१४/१०/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
वैसे तो चेहरा
अपने आप में
होता है आदमी की पहचान।
पर चेहरा विहीन दुनिया के
मायाजाल में उलझते हुए ,
आज का आदमी है
इस हद तक चाहवान
कि मिले उसे इसी जीवन में
उसकी अपनी खोई हुई पहचान।

जब मन में व्याप्त हो जाएं
अमन के रंग और ढंग,
तब तन की पहचान
चेहरा क्यों रहना चाहेगा बदरंग ?
यह प्रेम के रंग में रंगा हुआ
क्यों नहीं इन्द्रधनुष सरीखा होना चाहेगा ?
वह कैसे नहीं ?
स्वाभाविक तौर पर
प्रियतम की स्वप्निल
उपस्थिति को
इसी लौकिक जीवन में
साकार करते हुए,
तन और मन से
प्रफुल्लित होकर,
नाच नाच कर
अपनी दीवानगी को
अभिव्यक्त करना चाहेगा !
वह खुद को पाक-साफ रखने का
कारण बनना चाहेगा !!
कोई उसे
इसे सिद्ध करने का
मौका तो दे दे,
और धोखा तो कतई न दे।
तभी चेहरा अपनी चिर आकांक्षित
पहचान को खोज पाएगा।
क्या स्वार्थ का पुतला बना
आज का आदमी इसे समझ पाएगा ?
१४/१०/२००६.
Joginder Singh Dec 2024
यह ठीक है कि
फूल आकर्षक हैं और
डालियों पर
खिले हुए ही
सुंदर , मनमोहक
लगते हैं।
जब इन्हें
शाखा प्रशाखा से
अलग करने का
किया जाता है प्रयास
तब ये जाते मुर्झा व कुम्हला।
ये धीरे-धीरे जाते मर
और धूल धूसरित अवस्था में
बिखरकर
इनकी सुगन्ध होती खत्म।
इनका डाल से टूटना
दे देता संवेदना को रिसता हुआ ज़ख्म।
कौन रखेगा इन के ज़ख्मों पर मरहम ?

बंधुवर, इन्हें तुम छेड़ो ही मत।
इन्हें दूर रहकर ही निहारो।
इनसे प्रसन्नता और सुगंधित क्षण लेकर
अपने जीवन को भीतर तक संवारो।
अपनी सुप्त संवेदना को अब उभारो।

ऐसा होने पर
तुम्हारा चेहरा खिल उठेगा
और आकर्षण अनायास बढ़ जाएगा।
जीवन का उद्यान
बिखरने और उजड़ने से बच जाएगा।
यह जीवन तुम्हें पल प्रति पल
चमत्कृत कर पाएगा।

यह सच है कि
फूल सुंदरता के पर्याय हैं।
ये पर्यावरण को संभालने और संवारने का
देते रहते हैं मतवातर संदेश।
मगर तुम्हारे चाहने तक ही
वरना हर कोई इन्हें
तोड़ना चाहता है,
जीवन को झकझोरना चाहता है ,
अतः अब से तुम सब
फूलों को डालियों पर खिलने दो !
उन्हें अपने वजूद की सुगन्ध बिखेरने दो !!
इतने भी स्वार्थी न बनो कि
कुदरत हम सब से नाराज़ हो जाए ।
हमारे आसपास प्रलय का तांडव होता नज़र आए ।

११/०१/२००८.
Joginder Singh Dec 2024
मन के भीतर
             हद से अधिक
यदि होने लगे कभी कभार उथल पुथल
तो कैसे नहीं हो जाएगा आदमी शिथिल ?
यकीनन वह महसूस करेगा खुद को निर्बल।
              मन के भीतर
              सोए हुए डर
  यदि अचानक एक एक कर जागने लगें ,
कैसे नहीं आदमी थोड़ा चलते ही लगे हांफने ?
यकीनन वह खुद को बेकाबू कर लगेगा कांपने।

              मन के भीतर
              बसा है संसार
जो समय बीतने के साथ बनाता सबको अक्लमंद।
यह उतार चढ़ाव भरी राहों से गुजारकर करता निर्द्वंद्व।
इस संसार की अनुभूतियों से सम्बन्ध होते रहते दृढ़।
               मन के भीतर
               बढ़े जब द्वंद्व
अंत समय को झट से ,अचानक अपने नज़दीक देख ।
आदमी जीवन से रचाना चाहता है संवेदना युक्त संवाद।
हो चुका है वह भीतर से पस्त,इसलिए रह जाता तटस्थ।
               मन के भीतर
               दुविधा न बढ़े
अन्तर्जगत अपनी आंतरिक हलचलों से निराश न करे।
बल्कि वह सकारात्मक विचारों से मन को प्रबुद्ध करे।
जीवन में डर सतत् घटें, इसके लिए मानव संयमी बने।
०९/०१/२००८.
      ‌
Joginder Singh Dec 2024
अजी  जिन्दगी  का  किस्सा  है  अजीबोगरीब,
जैसे  जैसे  दर्द  बढ़ता है , यह आती  है करीब!

दास्तान  ए  जिन्दगी  को  सुलाने  के  लिए
कितनी  साज़िशें  रची  हैं ,  है  न  रकीब !

जिन्दगी  को  जानने  की  होड़  में  लगे  हैं लोग ,
जीतते  हारते  सब  बढ़े  हैं , अपने  अपने  नसीब ।

जिन्दगी  एक  अजब  शह  है , बना  देती  फ़कीर ,
इसमें  उलझा  क्यों   हैं  ? अरे ! सुन ज़रा ऱफ़ीक़ !

यह  वह  पहेली   है  ,  जो  सुलझती  नहीं   कभी ,
खुद  को  चेताना  चाहा ,पर  जेहन  समझता  नहीं।
२१/०६/२००७.
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