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Joginder Singh Dec 2024
न्याय प्रसाद
और
अन्याय प्रसाद
के बीच जारी है द्वंद्व ।

न्याय प्रसाद
सबका भला चाहता है ,
वह सत्य का बनना  
चाहता है पैरोकार ,
ताकि मिटे जीवन में से
अत्याचार , अनाचार, दुराचार।

अन्याय प्रसाद
सतत् बढ़ाना चाहता है
जीवन के हरेक क्षेत्र में
अपना रसूख और असर।
वह साम ,दाम ,दंड , भेद के बलबूते
अपना दबदबा रखना चाहता है क़ायम ।

इधर न्यायालय में
न्याय प्रसाद
अन्याय प्रसाद से पूरी ताकत से
लड़ रहा है ,
उधर जीवन में
अन्याय प्रसाद
न्याय प्रसाद का विरोध
डटकर कर रहा है।
आम आदमी क्या खास आदमी तक
इन दोनों की
आपसी खींचतान के बीच
पिस रहा है,
घिस घिसकर मर रहा है।
जैसे चलती चक्की में गेहूं के साथ
घुन भी पिस रही हो ।
१२/०१/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
नये साल की चार तारीख को
खुल गई ‌नींद ठीक ‌भोर के चार बजे।
निश्चय किया अब मैं पुनः सोऊंगा नहीं !
अधिक देर सोया रहकर, अपने भविष्य को धोऊंगा नहीं !!
  ०४/०१/२०१७.
Joginder Singh Dec 2024
नफ़रत
हसरत की जगह
ले.......ले ,
भला यह कभी
हो सकता है ?
बगैर होंसले
कोई जी सकता है !

अतः
नफ़रत से बच !
यह झूठ को बढ़ावा दे रही है !!
झूठे को बलवान बनाना चाहती है !!!
.... और
सच को करना
चाहती है भस्म ।
नफ़रत
मारधाड़, हिंसा को बढ़ावा देती है।
यह मन की शांति छीन लेती है।
यह अच्छे और सच्चे को
भटकाती रहती है!
यह सच में
अच्छे भलों का जीवन
कष्टप्रद बना देती है।
दोस्त मेरे,
तुम इसके भंवरजाल से
जब तक बच सकता है, तब तक बच ।
यह मानव की सुख समृद्धि, संपन्नता और सौहार्द को
नष्ट करने पर तुली हुई है।
दुनिया इसकी वज़ह से
दुःख, दर्द, तकलीफ़, कष्ट, हताशा , निराशा की
दलदल में फंसी हुई है।
इससे बच सकता है तो बच
ताकि तुम्हारी सोच में बचा रहे सच ,
जो बना हुआ है हम सब के रक्षार्थ  एक सुरक्षा कवच।
१६/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
वह इस भरेपूरे संसार में
अपनेपन के अहसास के बावजूद
निपट अकेला है ।
वह ढूंढ रहा है सुख
पर...
उससे लिपटते जा रहें हैं दुःख ,
जिन्हें वह अपना समझता है
वे भी मोड़ लेते हैं
उससे मुख ।

काश ! उसे मिल सके
प्यार की खुशबू
ताकि मिट सके
उसके भीतर व्यापी बदबू ।

वह इस भरेपूरे संसार में
निपट अकेला है ,
क्यों कि दुनिया के इस मेले को
समझता आया एक झमेला है
फलत:
अपने अनुभव को
अब तक
बांट नहीं पाया है
अपने गीत
अकेले गाता आया है।
कोई उसे समझ नहीं पाया है।
शायद वह
अभी तक
स्वयं को भी नहीं समझ पाया है!
बस अकेला रह कर ही
वह जीवन जी पाया है।
वह भटकता रहा है अब तक
कोई उसके भीतर झांक नहीं पाया है!
उसके हृदय द्वार पर दस्तक
नहीं दे पाया है !
उसने खुद को खूब भटकाया है।
अब तो उसे भटकाव भाने लगा है!
इस सब की बाबत सोचता हुआ
वह पल पल रीत रहा है।
हाय! यह जीवन बीत चला है।
  १६/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
यदि
बनना चाहते तुम ,
सिद्ध करना चाहते तुम
पढ़ें लिखों की भीड़ में
स्वयं को प्रबुद्ध
तो रखिए याद
सदैव यह सच ,
यह याद रखना बेहद जरूरी है
कि अंत:करण बना रहे सदैव शुद्ध ।
अन्यथा व्यापा रहेगा भीतर तम ,
और तुम
अंत:तृष्णाओं के मकड़जाल में फंसकर
सिसकते, सिसकियां भरते रहे जाओगे ।
तुम्हारे भीतर समाया मानव
निरंतर दानव बनता हुआ
गुम होता चला जाएगा ,
वह कभी अपनी जड़ों को खोज नहीं पाएगा ।

वह
लापता होने की हद तक
खुद के टूटने की ,
पहचान के रूठने की
प्रतीति होने की बेचैनी व जड़ता से
पैदा होने के दंश झेलने तक
सतत् एक पीड़ा को अपनाते हुए
जीवन की आपाधापी में खोता चला जाएगा।
वह कभी अपनी प्रबुद्धता को प्रकट नहीं कर पाएगा।
फिर वह कैसे अपने से संतुष्ट रह पाएगा?
अतः प्रबुद्ध होने के लिए
अपने भीतर की
यात्रा करने में सक्षम होना
बेहद जरूरी है।
यह कोई मज़बूरी नहीं है ।
०३/१०/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
' मर ना शीघ्र ,
जीवन वन में घूम ।' ,
जीवन , जीव से , यह सब
पल प्रतिपल कहता है ।

जीवात्मा
जीवन से बेख़बर
शनै : शनै :
रीतती रहती है ।
यथाशीघ्र
जीवन स्वप्न
बीत जाता है ।
जीव अपने उद्गम को
कहां लौट पाता है ?
वह स्वप्निलावस्था में खो जाता है।

०३/१०/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
असहिष्णु को
सहिष्णु बनाना
हो सकता है
चुनौतीपूर्ण दुस्साहस !
आप इस बाबत
उड़ा सकते हैं उपहास !
सच यह है , दोस्त !
यह नामुमकिन नहीं ,
बशर्ते आप होना चाहें सही।
आप परिवर्तन को स्वीकारें ,
न कि खुद को
बाहुबली समझें और अंहकारे फिरें ।
मारामारी का दर्प पाल कर ,
मारे मारे फिरें ।
निज के विरोधाभासों से
सदैव रहें घिरे ।
अपने आप से होकर मंत्र मुग्ध !
खोकर अपनी सुध-बुध !
कहीं बन  न जाएं संदिग्ध!

तब आपकी पहचान संदेह के
घेरे में आ जाएगी ।
ज़िंदगी नारकीय हो जाएगी।
परिवर्तन अपरिहार्य है ,
हमें यही स्वीकार्य है।

०९/०४/२०१७.
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