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Joginder Singh Dec 2024
साथी
चाहता जब सुख
और
बिना हेर फेर
कर देता
अपनी चाहत का
इज़हार।

तब
एक  सकपकाहट
स्वत: भीतर आ जाती,
तोड़ देती
कभी-कभी
आत्मविश्वास तक !
आदमी सोचने लगता तब ,
अंदर भरे हैं ढ़ेरों दुःख ,
रह जाता वह तब चुप।

भीतर
एक डर
बना रहता है,
कहीं साथी
इसे कुछ और न मान लें !
काश ! वह मेरी मनोदशा जान ले !!
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
सफलता का इंतज़ार
किसी परीक्षा से कम नहीं है।
बड़ी मुश्किल से मुद्दतों इंतज़ार के बाद
सफल कहलाने की घड़ी आती है।
परीक्षा देते देते उम्र बीत जाती है।
०७/१२/२०२४.
Joginder Singh Dec 2024
करने दो
उसे इंतज़ार।
इंतज़ार में
समय कट जाता है !
युग तक रीत जाता है!!
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
संवाद
अंतर्मन से
जब हुआ ,
समस्त
विवाद भूल गया !
सचमुच !
मैं झूम उठा !!

२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
मुस्कराते चेहरे पर
रह रह कर
टिक जाती है नज़र
पर
चेहरे के 'चेहरे' पर
जब सचमुच पड़ती नज़र,
तब हक़ीक़तन
उड़ती चेहरे की मुस्कान!
खोने लगती पहचान !!
मुख पर परेशानी की
लकीरें दिखने लगतीं ।
खूबसूरती बदसूरती में
बदलती है जाती ।
यह मन मस्तिष्क को
बदस्तूर बेंधने लगती।
पल प्रतिपल
ऐसी मनोदशा में
नींद में सेंध लगने लगती !
रातें बेचैनी भरी जाग कर कटतीं!!
दिन में रह रह कर नींद आने लगती!!!
काम करने की कुशलता भी है घटती जाती।
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
जीवन में होती नहीं
जब कोई बनावट ।
मन मस्तिष्क में भी
जब तब सफल होने की ,
होने लगती है आहट ।

ऐसे में
चेहरे की बढ़ जाती है रौनक ,
होठों पर आन विराजती
रह रह कर मुस्कुराहट !
जो लेती हर , हरेक थकावट !!
२१/१२/२०१६.
Joginder Singh Dec 2024
यदि
कोई बूढ़ा
बच्चा बना सा
पढ़ता मिले कभी
तुम्हें
कोई चित्र कथा !
तब तुम
उसे बूढ़े बच्चे पर
फब्तियां
बिल्कुल न कसना ।
उसे
अपने विगत के  
अनुभवों की कसौटी पर
परखना।
संभव है कि वह
अपने अनुभव और अनुभूतियों को
बच्चों को सौंपने के निमित्त
रचना चाहता हो
नवयुग की संवेदना को
अपने भीतर  सहेजे हुए
कोई अनूठी
परी कथा।
बल्कि तुम
उसकी हलचलों के भीतर से
स्वयं को गुजारने की
कोशिश करना ।
संभव है कि तुम
उसे बूढ़े बच्चे से
अभिप्रेरित होकर
चलने लगो
अपनी मित्र मंडली के संग
सकारात्मकता से
ओतप्रोत
जीवन के पथ पर ।


यदि
कोई बालक
हाथ में पकड़े हुए हो
अपने समस्त बालपन के साथ
कोई वयस्कों वाली किताब !
तब तुम मत हो जाना
शोक मग्न!
मत रह जाना भौंचक्का !!
कि तुम्हें उस मुद्रा में देखकर लगे
उसे अबोध को धक्का !!
संभव है-
वह
बूढ़े दादा तक
घर के कोने में
पटकी हुई एक तिरस्कृत
संदूकची में
युवा  काल की स्मृति को
ताज़ा करने वाली
एक प्रतीक चिन्ह सरीखी निशानी को ,
धूल धूसरित
कोई अनोखी किताब
दिखाने ले जा रहा हो।

और...
हो सकता है
वे,दादा और पोता
अपनी अपनी अपनी उम्र को भूलकर
हो जाएं
हंसते हुए खड़े
और देकर
एक दूसरे के हाथ में
अपने हाथ
चल पड़े साथ-साथ
करने
समय का स्वागत ,
जो सदैव हमारे साथ-साथ
चल रहा है निरंतर ,
हमें नित्य ,नए अनुभव और अनुभूतियां
देता हुआ सा ,
हमारे भीतर चुपचाप स्मृतियां बन कर
समाता हुआ ,
हमें  प्रौढ़ बनाता हुआ ।
हमें निरंतर समझदार बनाता हुआ।

०५/११/१९९६.
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