Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
इन्तज़ार
देर तक करना पड़े
तो ज़िंदगी
लगने लगती पहाड़ !

इन्तज़ार
देर तक करना पड़े
तो ज़िंदगी
करने लगती चीर फाड़!!

सबकी ,
सर्वस्व की!
वर्चस्व की!!
चीरफाड़... ज़िन्दगी  में  हालात देखकर
की जानी चाहिए।
यह तो जिंदादिली से जी जानी चाहिए।
१०/०३/२०११.
कैसे कहूं तुमसे ? , दोस्त!
अब कुछ याद नहीं रहता।
याद दिलाने पर
भीतर
बुढ़ाते जाने का अहसास
सर्प दंश सा होकर
अंतर्मन को छलनी है कर जाता!!


अजब विडंबना है!
निज पर चोट करते
भीतरी कमियों को इंगित करते
कटु कसैले मर्म भेदी शब्द
कभी भुला नहीं पाया।
भले ही यह अहसास
कभी-कभी रुला है जाता।


सोचता हूं ...
स्मृति विस्मृति के संग
जीवन के बियावान जंगल में
भटकते जाना
आदमी की है
एक विडंबना भर ।

आदमी भी क्या करें?
जीवन यात्रा के दौरान
पीछे छूट जाते बचपन के घर ,
वर्तमान के ठिकाने
तो लगते हैं सराय भर !
भले ही हम सब
अपनी सुविधा की खातिर
इन्हें  कहें घर।

२९/१०/२००९.
यदि बोलोगे तुम झूठ,
बोलते ही रहोगे झूठ के बाद झूठ,
तुम एक दिन स्वयं को
एक झूठी दुनिया में गिरा पाओगे,
कभी ढंग से भी न पछता पाओगे,
शीघ्रातिशीघ्र
दुनिया से रुखसत कर जाओगे,
तब तुम कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे।
कुछ पाने के लिए
तुम मतवातर बोल रहे झूठ ,
क्यों बना रहे खुद को ही मूर्ख ?

जीवन में इतनी जल्दी
पीनी पड़ेगी ज़हर की घूट।
यह कभी सोचा नहीं था।
मुझ पर  मेरा दोस्त,
दुम कटा  कुत्ता
जो कभी भौंका तक न था,
अब लगता है कि वह भी
आज लगातार भौंक भौंक कर,
कर रहा है आगाह ,
अब और झूठ ना बोल ,
वरना हो जाएगा
इस जहान से  बिस्तर गोल ।
अब वह अपना सच बोलकर
मुझे काटने को रहता है उद्यत।

मुझे याद है
अच्छी तरह से ,
बचपन में एक दफा
झूठ बोलते पकड़े जाने पर
मिला था एक झन्नाटेदार चांटा ।

परंतु मैं बना रहा ढीठ!
और अब तो लगता है
कि मैंने ढीठपने की
लांघ दी हैं सब हदें।


अब मुझे तुम्हारा डांटना,
बार-बार आगाह करना,
नहीं  अखरता है ।
तुम्हारा यह कहा कि
यदि झूठ बोलूंगा,
तो काला कौआ भी भी बार-बार काटने से
करेगा गुरेज,
वह भी पीछे हट जाएगा,
सोचेगा, बार-बार काटूंगा,  
तो इस ढीठ पर होगा नहीं कोई  असर ।
मैं खुद को बेवजह  थकाऊंगा ।

आजकल
हरदम
मौत के क़दमों
की आहट,
मेरा पीछा नहीं छोड़ती।
कर देती है,
मेरी बोलती बंद।

वह घूरती आंखों से
मेरे भीतर बरपा रही है कहर,
मैं लगातार रहा हूं डर,
मेरे भीतर
सहम भर गया है।
जीवन कुछ रुक सा
गया है ।

अब आ रहा है याद
तुम्हारा कहा हुआ ,
" दोस्त,
झूठ बोलने से पहले
आईना देख लिया करो।
क्या पता कभी
आईने में सच देख लो ?
और झूठ से गुरेज कर लो !
झूठ के पीछे भागने से
तौबा कर लो।"

मैं  पछता रहा हूं।
जिंदगी की दौड़ में
पिछड़ता जा रहा हूं,
क्योंकि मेरे चरित्र पर
झूठा होने का ठप्पा लगा है।
सच! मुझे अपने ओछेपन की वज़ह से
जीवन में बड़ा भारी धक्का लगा है।
मेरा भविष्य भी अब हक्का-बक्का सा खड़ा है।
सोचता हूं,
मेरे साथ क्या हुआ है?
कोई भी मेरे साथ नहीं खड़ा है।
२९/०१/२०१५.
क़दम क़दम पर
झूठ बोलना
कोई अच्छी बात नहीं !
यह ग़लत को
सही ठहरा सकता नहीं !!
झूठ बोलने के बाद
सच को छिपाने के लिए
एक और झूठ बोल देना ,
नहीं हो सकता कतई सही ।

झूठ
जब पुरज़ोर
असर दिखाता है
तो जीता जागता आदमी तक ,
श्वास परश्वास ले रहा वृक्ष भी
हो जाता एक ठूंठ भर,
संवेदना जाती ठिठक ,
यह लगती  धीरे-धीरे मरने।

आदमी की आदमियत
इसे कभी नहीं पाती भूल
उसे क़दम दर क़दम बढ़ने के
बावजूद चुभने लगते शूल।
शीघ्रातिशीघ्र
घटित हो रहे ,
क्षण क्षण हो रहे , परिवर्तन
भीतर तक को , 
करते रहते ,कमज़ोर।
भीतर का बढ़ता शोर भी
रणभूमि में संघर्षरत
मानव को ,
चटा देते धूल।

दोस्त,
भूल कर भी न बोलो ,
स्व नियंत्रण खोकर
कभी भी  झूठ ,
ताकि कभी
अच्छी खासी ज़िंदगी का
यह हरा भरा वृक्ष
बन न जाए कहीं
असमय अकालग्रस्त होकर ठूंठ!
जीवन का अमृत
कहीं लगने लगे
ज़हर की घूट!!
झूठा दिखने से बच ,
ताकि  जीवन में जिंदादिली बची रहे,
और बचें रहें सब के अपने अपने सच !
२८/०१/२०१५.
पुत्र!

तुम्हारा  विकास

मेरे  सम्मुख  है   खास  ,

तुम   कल   तक   थे   बीज  ,

आज   बनने   को   हो   उद्यत  ,

एक   लम्बा   चौड़ा  ,   कद्दावर  ,

छायादार   ,   फलदार   वृक्ष   बनकर  ।

तुम   अपनी   व्यथा  -   कथा   कहो   ।

मैं   इसे   ध्यान   से   सुनूंगा   ।

बस   बीच  -  बीच   में

आवश्यकता   अनुसार   टिप्पणियां   करूंगा   ।

मैं   तुम्हारी   हैसियत   से   कतई   नहीं   डरूंगा  ।

तुम्हारा  ,

जनक  ।

२३/०६/२००५.
He is just wandering

here and there

in a timeless silent world

and looks like a pendulum moving

between the cradle of likes and

dislikes today


to play.
नीत्शे!
तुम से पूछना
चाहता हूं कुछ ,
अपनी जिज्ञासा की बाबत।
कहीं इस दुनिया में
ईश दिखा क्या ?
फिर ईश निंदा का
आरोप लगा कर इस
कायनात के भीतर
बसे जन समूहों में डर
क्यों भरा  जा रहा है ?
उन में से कुछ को
क्यों मारा जा रहा है?

ईश्वर पर
निंदा का असर हो सकता है क्या ?
असर होता है
बस! कुछ बेईमानों पर।
वे पर देते कतर
परिंदे उड़ न पाएं !
अपने लक्ष्य को हासिल न कर पाएं !!
०१/१२/२०२४.
Next page