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दीप ऐसा मैं !
मन के भीतर
जला पाऊं
कि खुद को समय रहते
जगा पाऊं मैं !
मुखौटा पहने लोगों की
दुनिया में रहते हुए ,
मन के अंधेरे,
और आसपास के
छल प्रपंच से
बच पाऊं ‌मैं !
नकारात्मकता को
सहजता से
त्याग पाऊं मैं !


दीप ऐसा
यशस्वी
बन पाऊं मैं
कि छेद कर  
छद्म आवरण
दुनिया भर के , मैं !
पार कुहासे और धुंध के
देख पाऊं मैं !
जीवन के छद्म रूपों और मुद्राओं को
सहजता से छोड़ कर
अपने भीतर दीप
जला पाऊं मैं !
कृत्रिमता का आदी यह तन और मन
अपनी इस मिथ्या की खामोशी को  त्याग कर
लगाने लगे अट्टहास,
कराने लगे
अपनी उपस्थिति का अहसास!
काश! तन और मन से
कुंठा ‌की मैल
धो पाऊं मैं !


दीप ऐसे जलें
मेरे भीतर और आसपास ,
अस्पष्ट होती दुनिया का
सही स्वरूप
स्पष्ट ‌स्पष्ट
समझ पाऊं मैं !
जिसकी रोशनी में
स्व -सत्य के
रूबरू होकर
बनूं मैं सक्षम
इस हद तक
कि स्व पीड़ा और ‌पर पीड़ा की
मरहम ढूंढ पाऊं  मैं!
अपना खोया आकाश छू पाऊं ,मैं !!

८/११/२००४.
दर्पण
दर्प न  जाने।
वह तो
समर्पण को
सर्वोपरि माने ।

जिस क्षण
दंभी की छवि
उस पर आने विराजे,
उस पल
वह दरक जाये ,
उसके भीतर से
आह निकलती जाये।
उसका दुःख
कोई विरला ही जान पाये।

२०/०८/२०२०.
वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखियों को तोड़।
याद कर
उस ऐतिहासिक क्षण को,
जब धर्म बचाने को ,
निर्बल को सबल बनाने को,
दिया था
दशमेश पिता ने ,
इतिहास को
नया मोड़ ।

समय रहा है बदल
तू उसके साथ चल,
न्यूटन जीवन मूल्य अपनाकर,
आज आडंबर छोड़।

वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखियों को छोड़ ।


किसी सरकार से,
न रख कोई अपेक्षा,
अपने पैरों पर
खड़ा होना सीख ।

तू धरा पुत्र है,
अन्नदाता है।
तू क्यों मांगे भीख?


वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखी छोड़।


आज निराशा छोड़कर
जिसके भीतर
कर्मठता भरकर
जीवन को दे
नया मोड़।



वैशाखी के मौके पर
पर निर्भरता की
बैसाखी छोड़, और
समय से कर ले होड़।

१०/०४/२००८.
जब से जंगल सिकुड़ रहे हैं ,
धड़ाधड़ पेड़ कट रहे हैं,
अब शेर भी बचे खुचे दिन गिन रहे हैं !
वे उदासी की गर्त में खोते जा रहे हैं!!

हाय! टूट फूट गए ,शेरों के दिल ।
जंगल में शिकारी आए खड़े हैं ।
वे समाप्त प्रायः शेरों का करना चाहते शिकार।
या फिर पिंजरे में कैद कर चिड़िया घर की शोभा बढ़ाना।

सच! जब भी जंगल में बढ़ती है हलचल,
आते हैं लकड़हारे ,शिकारी और बहुत सारे दलबल।
शेर उनकी हलचलों को ताकता है रह जाता ।
चाहता है वह ,उन पर हमला करना, पर चुप रह जाता है।

जंगल का राजा यह अच्छी तरह से जानता है,
यदि जंगल सही सलामत रहा, वह जिंदा रहेगा।
जैसे ही स्वार्थ का सर्प ,जंगल को कर लेगा हड़प।
वैसे ही जंगल की बर्बादी हो जाएगी शुरू,
एक-एक कर मरते जाएंगे तब ,जीव जगत और वनस्पति।
आदमी सबसे अंत में तिल तिल करके मरेगा।
ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण से आदमी घुट घुट कर मरेगा।
आदमी सर्प बन ,जंगल ,जंगल के राजा शेर को ले मरेगा।
क्या आदमी कभी अपने दुष्कृत्यों से  कभी डरेगा ?
अब कौन सूरमा शेर और जंगल को बचाने के लिए लड़ेगा?
आज जंगल में रहने वाले जीव और उनका राजा खतरे में है।
शेर का संकट  दिनों दिन विकट होता जा रहा है।
यह सोच , मन घबरा रहा है,दिमाग में अंधेरा भर गया है ।
शेर का अस्तित्व संकट में पड़ गया है, मेरा मन डर गया है।

जंगल का शेर ,आज सचमुच गया है डर।
वह तो बस आजकल, ऊपर ऊपर से दहाड़ता है।
पर भीतर उसका, अंदर ही  अंदर कांपता है ।
यह सच कि वह खतरे में है, शेर को भारी भांति है विदित।
यदि  जंगल  बचा रहेगा,  तभी  शेर  रह ‌पाएगा  प्रमुदित।
१३/०१/२०११.
समय की धुंध में
धुंधला जाती हैं यादें !
विस्मृति में की गर्त में
खो जाती हैं मुलाकातें !!
रह रह कर स्मृति में
गूंजती है खोए हुए संगी साथियों की बातें !!!

आजकल बढ़ती उम्र के दौर से गुज़र रहा हूं मैं,
इससे पहले की कुछ अवांछित घटे ,
घर पहुंचना चाहता हूं।
जीवन की पहली भोर में पहुंचकर
अंतर्मंथन करना चाहता हूं !
जिंदगी की 'रील 'की पुनरावृत्ति चाहता हूं !

अब अक्सर कतराता हूं ,
चहल पहल और शोर से।

समय की धुंध में से गुज़र कर ,
आदमी वर लेता है अपनी मंज़िल आखिरकार ।

उसे होने लगता है जब तब ,
रह ,रह कर ,यह अहसास !
कि 'कुछ अनिष्ट की शंका  है ,
जीवन में मृत्यु का बजता डंका है।'
इससे पहले की ज़िंदगी में
कुछ अवांछित घटे,
सब जीवन संघर्ष में आकर जुटें।

यदि यकायक अंदर बाहर हलचल रुकी ,
तो समझो जीवन की होने वाली है समाप्ति ।
सबको हतप्रभ करता हुआ,
समस्त स्वप्न ध्वस्त करता हुआ,
समय की धुंधयाली चादर को
झीनी करता हुआ , उड़ने को तत्पर है पंछी ।

इस सच को झेलता हूं,
यादों की गठरी को
सिर पर धरे हुए
निज को सतत ठेलता हूं !
सुख दुःख को मेलता हूं !!
जीवन के संग खेलता हूं!!!

२२/०१/२०११.
वह आदमी
जो अभी अभी
तुम्हारी बगल से निकला है ।
एक आदमी भर नहीं,
एक खुली किताब भी है।

दिमाग उसके में
हर समय चलता रहता
हिसाब-किताब  है ,
वह ज़िंदगी की बारीकियां को
जानने ,समझने के लिए रहा बेताब है,
उस जैसा होना
किसी का भी
बन सकता ख़्वाब है,
चाल ढाल, पहनने ओढ़ने,
खाने पीने, रहने सहने, का अंदाज़
बना देता उसे नवाब है।
वह सच में
एक खुली किताब है।

तुम्हें आज
उसे पढ़ना है,
उससे लड़ना नहीं।
वह कुछ भी कहे,
कहता रहे,
बस !उससे डरना नहीं ।
वह इंसान है , हैवान नहीं ।
उम्मीद है ,तुम उसे ,अच्छे से ,पढ़ोगे सही ।
न कि ढूंढते रहोगे, उस पूरी किताब के
किरदार में , कोई कमी।
जो तुम अक्सर करते आए हो
और जिंदगी में
खुली किताबों को
पढ़ नहीं पाए हो।
पढ़े लिखे होने के बावजूद
अनपढ़ रह गए हो।
बहुत से अजाब सह रहे हो।

३०/११/२०२४.
तकलीफें जब
सभी हदें लांघकर
आदमी को हताश और निराश कर देती हैं,
तब आदमी
बन जाता है पत्थर।
उसकी आंख के आंसू
सूख जाते हैं।
ऐसे में आदमी
हो जाता है
पत्थर दिल।

तकलीफें
उतनी ही दीजिए
जिसे आपका प्रिय जन
खुशी खुशी सह सके ।
अपनी ज़िन्दगी को
ढंग से जी सके।

कहीं तकलीफ़ का
आधिक्य
चेतना को
न कर दे
पत्थर
और
बाहर से
आदमी ज़िंदा दिखे
पर भीतर से जाए मर ।

२१/०२/२०१४.
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