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Joginder Singh Nov 2024
आप अक्सर जब
निस्वार्थ भाव से,
अपने प्रियजनों का
पूछते हैं कुशल क्षेम,
तब आप के भीतर
विद्यमान रहता है
प्रेम का सच्चा स्वरूप ।

उसे दिव्यता से जोड़ने पर
मन मन्दिर में
उभरता है
भक्ति की अनुभूति का
सम्मोहक स्वरूप।

और
यही भाव
लौकिकता से
जुड़ने पर  ले लेता है
अपना रंग रूप स्वरूप
कुछ अनोखे अंदाज में
जो होता है
प्रायः आकर्षण से भरपूर।
यहीं से सांसारिक सुख समृद्धि ,
लाड़, प्यार, मनुहार जैसी
भाव सम्पदा से सज्जित
जीवनाधार की शुरुआत होती है,
जहां जीवन हृदय में
कोमल भावनाओं के प्रस्फुटन के रूप में
पोषित, पल्लवित, पुष्पित, प्रफुल्लित होता है।

ऐसी मनोदशा में
प्रेम की शुद्धता और शुचिता का आभास होता है।
यहां 'प्रेम गली अति सांकरी' रहती है।
और जब इस शुचिता में सेंध लग जाती है,
तब यह प्रेम और प्यार का आधार
विशुद्ध वासना और हवस में बदल जाता है।
स्त्री पुरुष का अनुपम जोड़ा भटकता नज़र आता है।
इसके साथ साथ यह अन्यों को भी भटकाता है।
प्रेम, प्यार,लगाव के अंतकाल का , शीघ्रता से ,
घर, परिवार,देश, समाज और दुनिया जहान में ,
आगमन होता है,साथ ही नैतिकता का पतन हो जाता है।
३०/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
The present world seems to us
an unique and wonderful expression of the governing force of the universe.
You can named this force as the nature or as  the almighty God....
which according to our philosophy...
is Omnipotent, Omniscient, Omnipresent.

On the other aspect of the human psychology,
the governing force of the universe resides in the purity of Love where presence of more than two life partners is highly objectionable and
non permissible .
Joginder Singh Nov 2024
मुझे
अपने पास
बुलाता रहता है
हर पल
कोई अजनबी।
वह मुझे लुभाता है,
पल प्रति पल देता है
प्रलोभन।

वह
मृत्यु को सम्मोहक बताता है,
अपनी गीतों और कविताओं में
मृत्यु  के नाद की कथा कहता है
और  अपने भीतर उन्माद जगाकर
करता रहता है भयभीत।

यह सच है कि
मुझे नहीं है मृत्यु से प्रीत
और कोई मुझे...
हर पल मथता है ,
समय की चक्की में दलता है।


कहीं जीवन यात्रा
यहीं कहीं जाए न ठहर
इस डर से लड़ने को बाध्य कर
कोई मुझे थकाया करता है।

दिन रात, सतत
अविराम चिंतन मनन कर
अंततः चिंता ग्रस्त कर
कोई मुझे जीवन के पार
ले जाना चाहता है।
इसलिए वह
वह रह रह कर मुझे बुलाता है ।

कभी-कभी
वह कई दिनों के लिए
मेरे ज़ेहन से ग़ायब हो जाता है।
वे दिन मेरे लिए
सुख-चैन ,आराम के होते हैं।
पर शीघ्र ही
वह वापसी कर
लौट आया करता है।
फिर से वह
मुझे आतंकित करता है ।


जब तक वह या फिर मैं
सचमुच नहीं होते बेघर ।
हमें जीवन मृत्यु के के बंधनों से
मिल नहीं जाता छुटकारा।
तब तक हम परस्पर घंटों लड़ते रहते हैं,
एक दूसरे को नीचा दिखाने का
हर संभव किया करते हैं प्रयास,
जब तक कोई एक मान नहीं लेता हार।
वह जब  तब
मुझे
देह और नेह  के बंधनों से
छुटकारे का प्रलोभन देकर
लुभाया करता है।

हाय !हाय!
कोई मुझ में
हर पल
मृत्यु का अहसास जगा कर

और
जीवन में  मोहपाश से बांधकर
उन्माद भरा  करता है ,
ज़िंदगी के प्रति
आकर्षण जगा कर ,
अपना वफादार बना कर ,
प्रीत का दीप जलाया करता है।
कोई अजनबी
अचानक से आकर
मुझे
जगाने के करता है  
मतवातर प्रयास
ताकि वह और मैं
लंबी सैर के लिए जा सकें ।
अपने को भीतर तक थका सकें।
जीवन की उलझनों को
अच्छे से सुलझा सकें।
  २२/०९/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
लगता है
आज आदमी
आधा रह गया है,
उसमें लड़ने का माद्दा नहीं बचा है।
इसलिए जल्दी ही
देता घुटने
टेक।
कई दफा
बगैर लड़े
मान लेता हार,
उसकी बुजदिली पर कोई करेगा चोट
तो मुमकिन है
वह लड़ने के लिए
करे स्वयं को
तैयार
थाम ले हथियार ।
करअपना परिष्कार !!
तुम उसे उकसाओ तो सही।
उसे उसकी ताकत का
अहसास कराओ तो सही।
उसे सही दिशा दिखाओ तो सही।
उसे लड़ाकू होने की प्रतीति करवाओ  तो सही।
उसे, सही ढंग से समझाओ तो सही।
उसकी समझ की बही में सही होने,रहने का गणित लिखवाओ तो सही।
उस के भीतर मनुष्य होने का आधार बनाओ तो सही।
आज
बस उसके अहम् को खरा बनाओ तो सही।
समन्दर किनारे घर न बनाने के लिए
उसे समझाओ तो सही।
उसकी खातिर ,उसे उसके सही होने की ख़बर सुनाओ तो
सही।
कुछ और नहीं कर सकते तो उसे सही राम बनाओ तो सही।
उसे सही कुर्सी पर बैठाओ तो सही,
ठसक उसके भीतर भर  ही जाएगी जी।
जिजीविषा उसके भीतर
सही सही मिकदार में उत्पन्न हो ही जाएगी जी।
वह बिल्कुल सही है जी।
हम ही सहीराम को गलत समझे जी।
उसको करने दो  अपनी मनमर्जी जी।
जी लेने दो उसे जी भर कर जी।
... क्यों कि वह पूरा आदमी नहीं,
आधा अधूरा आदमी है जी।
परम्परा और आधुनिकता का सताया आदमी है जी,
जो बस रिरियाना और गिड़गिड़ाना जानता है जी।
२९/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
बेघर को
यदि
घर का
तुम दिखाओगे सपना
तो उसे कैसे नहीं
लगेगा अच्छा?
वह कैसे नहीं,
समझेगा तुम्हें अपना?
परंतु
आजकल
घर के बाशिंदों को
बेघर करने की
रची जा रही हैं साजिशें,
तो किसे अच्छा लगेगा ?
सच!
ऐसे में
भीतर उठती है
पीड़ा, बेचैनी,दर्द,कसक।
इन्सान होने की ठसक क्या!
सब कुछ मिट्टी में मिलता लगता है।
सब कुछ तहस नहस होता लगता है।
कभी कभी रोने का मन करता है,
परंतु दुनिया की निर्मम हंसी से डर लगता है।


मन मनन चिंतन छोड़ कर
करता है महसूस
वह घड़ी रही होगी मनहूस
जब किसी उत्पाती ने
दी थी आधी रात घर की देहरी पर दस्तक
और कर दिया था हम सब को
बेघर और अकेला।
दे दी थी भटकन सभी को।
बस! तभी से है मेरा मन आशंकित।
मुझे हर समय एक दुस्वप्न
घर की देहरी पर दस्तक देता लगता है।
मैं भीतर तक खुद को हिला और डरा पाता हूं।
इस भरी पूरी दुनिया में खुद को अकेला पाता हूं।
मुझे कहीं कोई ठौर ठिकाना नहीं मिलेगा,
बस इसी सोच से पल पल चिंतित रहता हूं।


आजकल मैं एक यतीम हुआ सा
सतत् भटकता हुआ आवारा बना घूमता हूं।
मन मेरा बेघर है ।
उसके भीतर बिछुड़न का डर  कर गया घर है।
अतः अंत के आतंक से भटक रहा गली गली डगर डगर है।
०२/०१/२०१२.
Joginder Singh Nov 2024
Here,in my country
constitutional institutions are
in deep trouble.
In my neighborhood countries
such an instability can also be seen.
Someone has guessed
the forces behind such crisis
can be associated with deep state,which is very active through out the world.
What can we do to check on these hurdles?
Think over it to save democracy and other setups of the different states.
Today anarchy is very harmful and dangerous.
So protect the constitution of yours respective statehood.
In critical times,
let us become self critical,
and follow the rules and regulations of the state.
Joginder Singh Nov 2024
तुम
शब्द साधना करो जरूर
शब्द
जब अनमने मन से
मुखारविंद से  निकलें,
तब लगने लगें
वे अपशब्द ।
कैसे करें वे
मन के भावों को
सटीकता से व्यक्त ।
आदमी अपनी संवेदना को अब कैसे बचाए?
वह भटकता हुआ, थका हारा, हताश नज़र आए।

शब्द
आदमी की अस्मिता को
अभिव्यक्त कर पाएं!
काश !
वे अपना जादू
चेतना पर कर जाएं!!
इसलिए
आदमी
शब्द की संप्रेषणीयता  के लिए
कभी तो ढूंढे
अपनी मानसिकता के अनुरूप
कोई नया उपाय।
यह बहुत जरूरी है कि
अब आदमी अपने मन  की बात
सहजता से कह पाए।
वरना चिंता और तनाव
मन के भीतर पैदा होते जायें।

सच के लिए
आज क्यों न सब
शब्द साधना को साधकर
अपने जीवन की राह चुनें।

अपनी बात कहते हुए
हम करें अपने शब्दों का सावधानी से चयन
कि ये न लगें अपशब्द।
ये मन की हरेक उमंग तरंग को
करें सहजता से अभिव्यक्त ।
मानव के भीतर रहते
झूठ को भी बेपर्दा करें ,
और करें सच को उद्घाटित,
ताकि जीवन में शब्द साधक
सच की उदात्तता को
अनुभूति का अंश बनाकर
आगे बढ़ सकें ।

सभी शब्द साधना करें जरूर
परंतु अपने अहंकार को छोड़कर ,
ताकि शब्दों पर अवलंबित
मानव इसी जीवन धारा में
जीवन के सच से रचा सके अपने संवाद।
भूल सके भीतर का समस्त विस्माद,वाद विवाद।
मिल सके जीवन को एक नया मोड़,
और मानव आगे बढ़े
निज के भीतर व्यापे अवगुण छोड़।


आदमी शब्द साधना जरूर करें
ताकि वह रोजमर्रा के अनुभवों को
जीवन की सघन अनुभूति में बदल सके।
वह अपने बिखराव को समेट
निज को उर्जित कर सके !
जीवन पथ पर निष्कंटक बढ़ सके !!

अतः ज़रूरी है मानव के लिए
जैसे-जैसे वह जीवन यात्रा में आगे बढ़ता जाए ।
धीरे-धीरे अपनी समस्त  कमियों को छोड़ता जाए ।
वह अपने जीवन में खूबियां को भरता जाए ।
अपनी लक्ष्य सिद्धि के लिए
शब्दों के संगीत से जुड़ता जाए।


दोस्त,
समय को समझने हेतु,
अपनी को बना लो एक सेतु
शब्दों और अर्थों में संतुलन बनाकर
शब्द साधना करते हुए
अभिव्यक्ति की खातिर
उजास को ढूंढों।


यदि व्यक्ति ने
खुद को जानना और पहचानना है
तो वह अपना जीवन
शब्द साधना को  करें समर्पित।

शब्द साधना करो जरूर !
इससे मिटता मन का गुरूर!!

आज
मानव के भीतर रहते
चंचल मन ने
मनुष्यों को ख़ूब भटकाया है ,
उसे लावारिस   बनाया है ,
उसे अनमनेपन के गड्ढों में ले जा डूबोया है।
उसके भीतर का साथी रहा शब्द,
आजकल गहरी नींद जा सोया है।

आज
मनुज को
इस गहरी नींद से
जगाना ज़रूरी है ।

शब्द साधना करके
मानव की
इस गहरी नींद को
तोड़ना अपरिहार्य है,
क्या यह सच तुम्हें
स्वीकार्य है ?
अतः शब्द साधना करना अपरिहार्य है।
जीवन की सार्थकता के लिए
यह निहायत जरूरी है ।
२१/०२/२०१७.
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