आज
एक साथी ने
मुझे
मेरे बड़े कानों की
बाबत पूछा।
मैंने सहज रहकर
उत्तर दिया,
"यह आनुवांशिक है।
मेरे पिता के भी कान बड़े हैं ।
वे बुढ़ापे के इस दौर में
शान से खड़े हैं।
दिन-रात घर परिवार के
कार्य करते हैं ,
अपने को हर पल
व्यस्त रखते हैं।"
अपने बड़े कानों पर
मैं तरह-तरह की
टिप्पणियां और फब्तियां
सुनता आया हूं।
स्कूल में बच्चे
मुझे 'गांधी' कहकर चिढ़ाते थे।
मुझे उपद्रवी बनाते थे।
कभी-कभी पिट भी जाते थे।
मास्टर जी मुझे मुर्गा बनाते थे।
कोई कोई मास्टर साहब,
मेरे कान
ताले में चाबी लगाने के अंदाज़ से
मरोड़कर
मेरे भीतर
दर्द और उपहास की पीड़ा को
भर देते थे।
मैं एक शालीन बच्चे की तरह
चुपचाप पिटता रहता था,
गधा कहलाता था।
कुछ बड़ा हुआ,
जब गर्मियों की छुट्टियों में
मैं लुधियाना अपने मामा के घर जाता था
तो वहां भी
सभी को मेरे बड़े-बड़े कान नज़र आते थे।
मेरा बड़ा भाई पेशे से मास्टर गिरधारी लाल
मुझे 'कन्नड़ ' कहता
तो कोई मुझे समोसा कहता ,
किसी को मेरे कानों में 'गणेश' जी नज़र आते,
और कोई सिर्फ़
मुझे हाथी का बच्चा भी कह देता,
यह तो मुझे बिल्कुल नहीं भाता था,
भला एक दुबला पतला ,मरियल बच्चा,
कभी हाथी का बच्चे जैसा दिख सकता है क्या?
उस समय मैं भीतर से खीझ जाया करता था।
सोचता था, पता नहीं सबको क्यों
मेरे ये कान भाते हैं ?
इतने ही अच्छे लगते हैं,
तो क्यों नहीं अपने कान भी
मेरी तरह बड़े करवा लेते।
लुधियाना तो डॉक्टरों का गढ़ है,
किसी डॉक्टर से ऑपरेशन करवा कर
क्यों नहीं करवा लेते बड़े , अपने कान?
कभी-कभी
मैं अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के सामने
अपने बड़े-बड़े कान
इस ढंग से हिलाता हूं
कि बच्चे हंसने मुस्कुराने लगते हैं।
इस तरह मैं एक विदूषक बन जाता हूं।
मनोरंजन तो करता ही हूं,
उनके मासूम चेहरों पर
सहज ही मुस्कान ले आता हूं।
मैं एक बड़े-बड़े कानों वाला विदूषक हूं।
पर विडंबना देखिए ,
आजकल मुझे कानों से सुनने में दिक्कत होती है।
अब मैं इसे सुनने का काम कम ही लेता हूं,
मेरा एक तरफ का कान तो काम ही नहीं करता,
सो मुझे पढ़ते समय चालाकी से काम लेना पड़ता है।
फिर भी कभी-कभी दिक्कत हो ही जाती है,
बच्चे और साथी अध्यापक मुझे इंगित कर हंसते रहते हैं।
और मैं कुछ-कुछ शर्मिंदा, थोड़ा सा बेचैन हो जाता हूं।
कई बार तो खिसिया तक जाता हूं ।
अब मैं हंसते हंसते दिल
बहलाने का
काम ज़्यादा करता हूं,
और
पढ़ने से ज़्यादा
गैर सरकारी काम ज़्यादा करता हूं,
यहां तक की सेवादार ,चौकीदार भी बन जाता हूं।
आजकल मैं खुद को
'कामचोर 'ही नहीं 'कान चोर 'भी कहता हूं।
कोई यदि मेरे जैसे
बड़े कान वाले का मज़ाक उड़ाता है ,
उसे उपहास का पात्र बनाता है ,
तो मैं भीतर तक
जल भुन जाता हूं ।
उससे लड़ने भिड़ने पर
आमादा हो जाता हूं।
बालपन में
जब मैं उदास होता था,
किसी द्वारा परेशान किए जाने पर
भीतर तक रुआंसा हो जाता था,
तब मेरे पिता जी मुझे समझाते थे ,
"बेटा , तुम्हारे दादाजी के भी कान बड़े थे।
पर वे किस्मत वाले थे,
अपनी कर्मठता के बल पर
घर समाज में इज़्ज़त पाते थे।
बड़े कान तो भाग्यवान होने की निशानी है।"
यह सब सुनकर मैं शांत हो जाता था,
अपने कुंठित मन को
किसी हद तक समझाने में
सफल हो जाता था।
अब मैं पचास के पार पहुंच चुका हूं ।
कभी-कभी मेरा बेटा
मेरे कानों को इंगित कर
मेरा मज़ाक उड़ाता है।
सच कहूं तो मुझे बड़ा मज़ा आता है।
आजकल मैं उसे बड़े गौर से देखा करता हूं,
और सोचता हूं, शुक्र है परमात्मा का, कि
उसके कान मेरे जैसे बड़े-बड़े नहीं हैं।
उस पर कान संबंधी
आनुवांशिकता का कोई असर नहीं हुआ है।
उसके कान सामान्य हैं !
भाग्य भी तो सामान्य है!!
उसे भी मेरी तरह जीवन में मेहनत मशक्कत करनी पड़ेगी।
उसे अपनी किस्मत खुद ही गढ़नी पड़ेगी ।
और यह है भी कटु सच्चाई ।
जात पात और बेरोजगारी
उसे घेरे हुए हैं,
सामान्य कद काठी,कृश काया भी
उसे जकड़े हुए हैं ।
सच कहूं तो आज भी
कभी-कभी मुझे
लंबे और बड़े
कानों वाली कुंठा
घेर लेती है,
यह मुझे घुटनों के बल ला देती है,
मेरे घुटने टिकवा देती है।