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Joginder Singh Nov 2024
ठीकरा
असफलता का
किसी और की तरफ़ उछाल दूं ,
अपना दामन झाड़ लूं ।

यह कतई ठीक नहीं ,
यह तो अपने को ठगना है ,
अपने को नष्ट करना है ।

अच्छा रहेगा,
सच से ही प्यार करूं ,
झूठ बोलकर जीवन न बेकार करूं ,
फिर मैं अपना और
दूसरों का
जीना क्यों दुश्वार करूं ?

ठीकरा
असफलता का
फोडूंगा न किसी पर ,
उस पर मिथ्या आरोप लगा ।
बल्कि
करूंगा निरंतर सार्थक प्रयास
और  करूंगा प्राप्त एक दिन
इसी जीवन में सफलता का दामन
खुले मन से,
बगैर किसी झिझक के।

अब स्वयं को
और ज्यादा न करूंगा शर्मिंदा ,
बनूंगा ख़ुदा का बंदा,
न कि कोई अंधा दरिंदा ।

इतना तो खुद्दार हूं,
संघर्ष पथ पर चलने की खातिर
द्वार तुम्हारे पर खड़ा तैयार हूं ।

तुम तो साथ दोगे न ?
दोस्ती का हाथ ,
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ,
आगे बढ़ाओगे ना !!

०१/१०/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
यह हक़ीक़त है कि
जब तक रोशनी है ,
तब तक परछाई है ।
आज तुम
खुद को रोशनी की जद में पहुंचा कर
परछाई से
जी भरकर लो खेल।
अंधेरे ने
रोशनी को
निगला नहीं कि
सब कुछ समाप्त!
सब कुछ खत्म!
पटाक्षेप !


और
है भी एक हक़ीक़त,
जो इस जीवन रूपी आईने का
भी है सच कि
जब तक अंधेरा है,
तब तक एक्स भी नजर नहीं आएगा।
अंधेरा है तो नींद है,
अंधेरे की हद में
आदमी भले ही
देर तक सो ले ,
अंधेरा छंटा नहीं कि
उसे जागना पड़ता है।

अंधेरा छंटा नहीं ,
समझो सच की रोशनी ने
आज्ञा के अंधेरे को निगला कि
सब कुछ जीवित,
जीवन भी पूर्ववत हुआ
अपनी पूर्व निर्धारित
ढर्रे पर लौटता
होता है प्रतीत।

जीवन  वक्त के संग
बना एक हुड़दंगी सा
आने लगता है नज़र।
वह समय के साथ
अपनी जिंदादिल होने का
रानी लगता है
अहसास,
आदमी को अपना जीवन,
अपना आसपास,
सब कुछ लगने लगता है
ख़ास।
बंधुवर,
आज तुम जीवन का खेल समझ लो।
जीवन समय के साथ-साथ
सच  को आग बढ़ाता जाता है ,
जिससे जीवन धारा की गरिमा
करती रहे यह प्रतीति कि
समय जिसके साथ
एक साथी सा बनकर रहता है,
वह जीवन की गरिमा को
बनाए रख पाता है ,
जीवन की अद्भुत, अनोखी, अनुपम,अतुल छटा को
जीवन यात्रा के क़दम क़दम पर  
अनुभूत कर पाता है ,
समय की लहरों के संग
बहता जाता है ,
अपनी मंजिल को पा जाता है ।

घटतीं ,बढ़तीं,मिटतीं, बनतीं परछाइयां
रोशनी और अंधेरे की उपस्थिति में
पदार्थ के इर्द-गिर्द
उत्पन्न कर एक सम्मोहन
जीवन के भीतर भरकर एक तिलिस्म
क़दम क़दम पर मानव से यह कहती हैं अक्सर ,
तुम सब रहो मिलकर परस्पर
और अब अंततः अपना यह सच जान लो कि
तुम भी एक पदार्थ हो,
इससे कम न अधिक... जीवन पथ के पथिक।
मत हो ,मत हो , यह सुनकर चकित ।
सभी पदार्थ अपने जीवन काल को लेकर रहते भ्रमित
कि वे बने रहेंगे इस धरा पर चिरकाल तक।
परंतु जो चीज बनी है, उसका अंत भी है सुनिश्चित।

२०/०५/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
झुकी कंधों वाले आदमी से
आप न्याय की अपेक्षा रखते हैं,
सोचते हैं कि
वह कभी लड़ेगा न्याय की खातिर ,
वह बनेगा नहीं कभी शातिर ।
आप गलत सोचते हैं ,
अपने को क्यों नोचते हैं ?
कहीं वह शख़्स आप तो नहीं ?
श्रीमान जी,
आप अच्छी तरह जान लें ,
जीवन सत्य को पहचान लें ।

दुनिया का बोझ
झुके कंधों वाला आदमी
कभी उठा सकता नहीं,
वह जीवन  की राह को
कभी आसान बना सकता नहीं ।
अतः बेशक आप
झुके कंधे वाले आदमी को
ज़रूर ऊपर उठाइए ,
आप आदमी होने जैसी
मुद्रा को तोअपनाइए ।

फिर कैसे नहीं
आदमी
अन्याय और शोषण के
दुष्चक्र को रोक पाएगा ?

वह कैसे नहीं
झुके कंधे वाले आदमी की
व्यथा को
जड़ से मिटा पाएगा ?
बस आदमी के अंदर
हौंसला होना चाहिए ।
परंतु
झुके कंधों वाले आदमी को
कभी हिम्मत और हौंसला
नसीब होते नहीं ।
वे तो अर्जित करने पड़ते हैं
जीवन में लड़कर ,
निरंतर संघर्ष जारी रख कर ,
अपने भीतर जोश बनाए रखकर
लगातार विपदाओं से जूझ कर ,
न कि जीवन की कठिनाइयों से भाग कर ,
इसलिए आगे बढ़ाने की खातिर
सुख सुविधाओं को त्याग कर
कष्टों और पीड़ाओं को सहने के लिए
आदमी खुद को
भीतरी ही भीतर तैयार करें ,
ताकि झुके कंधों वाला आदमी होने से
न केवल खुद को
बचा सके ,
बल्कि
जीवन में कामयाबी को भी अपना सके।

अतः इस समय
तुम जीवन को
सुख , समृद्धि , संपन्नता, सौहार्दपूर्ण बनाने की सोचो ,
न कि जीवन को प्रलोभन की आग से जलाओ।
इसके लिए तुम निरंतर प्रयास करो,
अपने भीतर
चेतना का बोध जगाओ।

यदि आप कभी
झुके कंधों वाले आदमी को ग़ौर से देखें
तो वह यकीनन
आपके भीतर
सौंदर्य बोध नहीं जगा पाएगा ,
बल्कि
वह आपके भीतर
दुःख और करूणा का अहसास कराएगा ।

झुके कंधों वाले आदमी को देखकर
बेशक  भीतर
कुछ वितृष्णा और खीझ पैदा होती है।
यही नहीं
ऐसा आदमी
कई बार
उलझा पुलझा सा
आता है नज़र,
इसे देख जाने अनजाने
लग जाती है नज़र
अपनी उसको ,
और उसकी किसी दूसरे को।

सच तो यह है कि
झुके कंधों वाला आदमी
कभी भी
दुनिया को पसंद नहीं आता ।
कोई भी उससे जुड़ना नहीं चाहता।
भले ही वह कितना ही काबिल हो।

पता नहीं हम कब
जीवन को देखने का
अपना नज़रिया बदलेंगे ?
यदि ऐसा हो जाए
तो झुके कंधों वाला आदमी भी
सुख-चैन को प्राप्त कर पाए।
वरना वह जीवन भर भटकता ही जाए।
२१/११/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
God  is a big magician for all,
big or small.
His magic is the base of our existence.
When such a mesmerizing potential is obtained by a common man.
He also become a magician himself.

Magic from the heart has massive impact on our lives.
No doubt magic sharps our imagination.
It may be a tricky,witty illusion.
But it heals our spirit through reducing out tensions of daily routine life.
Your ability to listen is truly magical.
It can bring many miracles in a  comman man 's life.


Life itself is a wonderful span
where magic and magician runs parallel to time.
The magic of Time is working in us.
So we all are magicians residing on mother Earth.
Super Magician Time always keep himself  busy to make our existence worthy and fruitful.
Joginder Singh Nov 2024
The children of celebrities
always passes through a phase of
  Identity crisis in their lives where within
a span of time
they struggle, Jumps over a lot of hurdles
because of surroundings of being
the children of celebrities.

We must respect their privacy ,
they need a lot of protection
because sometimes they are a natural victim of their high profile status.
Joginder Singh Nov 2024
आज
एक साथी ने
मुझे
मेरे बड़े कानों की
बाबत पूछा।

मैंने सहज रहकर  
उत्तर दिया,
"यह आनुवांशिक है।
मेरे पिता के भी कान बड़े हैं ।
वे बुढ़ापे के इस दौर में
शान से खड़े हैं।
दिन-रात घर परिवार के
कार्य करते हैं ,
अपने को हर पल
व्यस्त रखते हैं।"


अपने बड़े कानों पर
मैं तरह-तरह की
टिप्पणियां और फब्तियां
सुनता आया हूं।


स्कूल में बच्चे
मुझे 'गांधी' कहकर चिढ़ाते थे।
मुझे उपद्रवी बनाते थे।
कभी-कभी पिट भी जाते थे।
मास्टर जी मुझे मुर्गा बनाते थे।
कोई कोई मास्टर साहब,
मेरे कान
ताले में चाबी लगाने के अंदाज़ से
मरोड़कर
मेरे भीतर
दर्द और उपहास की पीड़ा को
भर देते थे।
मैं एक शालीन बच्चे की तरह
चुपचाप पिटता रहता था,
गधा कहलाता था।



कुछ बड़ा हुआ,
जब गर्मियों की छुट्टियों में
मैं लुधियाना अपने मामा के घर जाता था
तो वहां भी
सभी को मेरे बड़े-बड़े कान नज़र आते थे।
मेरा बड़ा भाई पेशे  से मास्टर गिरधारी लाल
मुझे 'कन्नड़ ' कहता
तो कोई मुझे समोसा कहता ,
किसी को मेरे कानों में 'गणेश' जी नज़र आते,
और कोई सिर्फ़
मुझे हाथी का बच्चा भी कह देता,
यह तो मुझे बिल्कुल नहीं भाता था,
भला एक दुबला पतला ,मरियल बच्चा,
कभी हाथी का बच्चे  जैसा दिख सकता है क्या?
उस समय मैं भीतर से खीझ जाया करता था।
सोचता था, पता नहीं सबको क्यों
मेरे ये कान भाते हैं ?
इतने ही अच्छे लगते हैं,  
तो क्यों नहीं अपने कान भी
मेरी तरह बड़े करवा लेते।
लुधियाना तो डॉक्टरों का गढ़ है,
किसी डॉक्टर से ऑपरेशन करवा कर
क्यों नहीं करवा लेते बड़े , अपने कान?


कभी-कभी
मैं अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के सामने
अपने बड़े-बड़े कान
इस ढंग से हिलाता हूं
कि बच्चे हंसने मुस्कुराने लगते हैं।
इस तरह मैं एक विदूषक बन जाता हूं।
मनोरंजन तो करता ही हूं,
उनके मासूम चेहरों पर
सहज ही मुस्कान ले आता हूं।


मैं एक बड़े-बड़े कानों वाला विदूषक हूं।
पर  विडंबना देखिए ,
आजकल मुझे कानों से सुनने में दिक्कत होती है।
अब मैं इसे सुनने का काम कम ही लेता हूं,
मेरा एक तरफ का कान  तो काम ही नहीं करता,
सो मुझे पढ़ते समय चालाकी से काम लेना पड़ता है।
फिर भी कभी-कभी दिक्कत हो ही जाती है,
बच्चे और साथी अध्यापक मुझे इंगित कर हंसते रहते हैं।
और मैं कुछ-कुछ शर्मिंदा, थोड़ा सा बेचैन हो जाता हूं।
कई बार तो खिसिया तक जाता हूं ।
अब मैं हंसते हंसते दिल
बहलाने का
काम ज़्यादा करता हूं,
और
पढ़ने से ज़्यादा
गैर सरकारी काम ज़्यादा करता हूं,
यहां तक की सेवादार ,चौकीदार भी बन जाता हूं।
आजकल मैं खुद को
'कामचोर 'ही नहीं 'कान चोर 'भी कहता हूं।



कोई यदि मेरे जैसे
बड़े कान वाले का मज़ाक उड़ाता है ,
उसे उपहास का पात्र बनाता है ,
तो मैं भीतर तक
जल भुन जाता हूं ।
उससे लड़ने भिड़ने पर
आमादा हो जाता हूं।



बालपन में
जब मैं उदास होता था,
किसी द्वारा परेशान किए जाने पर
भीतर तक रुआंसा हो जाता था,
तब मेरे पिता जी मुझे समझाते थे ,
"बेटा , तुम्हारे दादाजी के भी कान बड़े थे।
पर वे किस्मत वाले थे,
अपनी कर्मठता के बल पर
घर समाज में इज़्ज़त पाते थे।
बड़े कान तो भाग्यवान होने की निशानी है।"

यह सब सुनकर मैं शांत हो जाता था,
अपने कुंठित मन को
किसी हद तक समझाने में
सफल हो जाता था।


अब मैं पचास के पार पहुंच चुका हूं ।
कभी-कभी मेरा बेटा
मेरे कानों को इंगित कर
मेरा मज़ाक उड़ाता है।
सच कहूं तो मुझे बड़ा मज़ा आता है।


आजकल मैं उसे बड़े गौर से देखा करता हूं,
और सोचता हूं, शुक्र है परमात्मा का, कि
उसके कान मेरे जैसे बड़े-बड़े नहीं हैं।
उस पर कान संबंधी
आनुवांशिकता का कोई असर नहीं हुआ है।
उसके कान सामान्य हैं !
भाग्य भी तो सामान्य है!!
उसे भी मेरी तरह जीवन में मेहनत मशक्कत करनी पड़ेगी।
उसे अपनी किस्मत खुद ही गढ़नी पड़ेगी ।
और यह है भी  कटु सच्चाई ।
जात पात और बेरोजगारी
उसे घेरे हुए हैं,
सामान्य कद काठी,कृश काया भी
उसे जकड़े हुए हैं ।

सच कहूं तो आज भी
कभी-कभी मुझे
लंबे और  बड़े
कानों वाली कुंठा
घेर लेती है,
यह मुझे घुटनों के बल ला देती है,
मेरे घुटने टिकवा देती है।
Joginder Singh Nov 2024
My hero often repeats a sentence,
"Nothing is impossible in the world of love and war."
And, his opponent oftenly repeats a sentence ,"I want peace on rent in this cunning world."
And myself while thinking about their destiny , suddenly conclude that both are wrong to follow their ways .
The world of love and war is like a toy made of clay to play in the hands of dictators and lovers.
Peace on rent is absolutely a ridiculous  impossible idea which cannot be executed in the world of love, hate , rivalries, inequality, dissatisfaction,jealousy and war.
The warmth of life is still miles away from us and so is the peace, contentment,love,affection,attraction and also satisfaction in day to day lives of ambitious human beings.
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