कभी प्यार के इर्द-गिर्द
मंडराया करती थीं
मनमोहक ,रंग बिरंगी ,
अलबेली उड़ान भरतीं
तितलियां।
अब वहां बची हैं
तो तल्ख़ियां ही तल्ख़ियां ।
कभी उनसे
मिलने और मिलाने का ,
अखियां मिलाने और छुपाने का
सिलसिला
अच्छा खासा रहा था चल
फिर अचानक हमारे बीच
आ गया था चंचल मन
मचाया था उसने उत्पात
किया था उसने हुड़दंग ।
बस फिर क्या था
यह सिलसिला गया था थम
समझो सब कुछ हुआ खत्म
फिर हमारे बीच तकरार आ गई
यह संबंधों को खा गई
प्यार के वसंत के बाद
अचानक एक काली अंधेरी आ गई
जो मेरे और उनके बीच एक दीवार उठा गई।
अभी हम मिलते हैं,
पर दिल की बात नहीं कह पाते हैं,
अपने बीच एक दीवार,
उस दीवार पर भी एक दरार
देख पाते हैं,
हमें अपने हुजूर के आसपास
मकड़ी के जाले लगे नजर आते हैं,
हम उस मकड़ जाल में फंसते चले जाते हैं।
अब यह दीवार
और ऊंची उठती जा रही है ।
कभी-कभी
मैं इस दीवार के इधर
और वह इस दीवार के उधर
या फिर इससे उल्ट।
जब इस स्थिति को पलटते हैं ,
तो वह इस दीवार के इधर ,
और मैं इस दीवार के उधर ,
आते हैं नज़र ।
हम ना मिल सकते के लिए
हैं अब अभिशप्त
तो अब हमारे घरों में
तल्ख़ियां आ गईं हैं,
और हम चुप रहते हैं,
अंदर ही अंदर सड़ते रहते हैं ।
आज हमारे जीवन में अब
कहां चली गई है मौज मस्ती ?
अब तो बस हमारे संबंधों में
तल्ख़ियां और कड़वाहट ही बचीं हैं।
जीवन में मौज मस्ती बीती बात हुई।
यह कहीं उम्र बढ़ने के साथ पीछे छूटती गई।
अब तो बस मन में
तल्ख़ियां और कड़वाहटें भरती जा रहीं हैं।
यह हमें हर रोज़ की ज़िंदगी में घुटनों के बल ला रही हैं ।
हाय ! प्यार में तल्खियां बढ़ती जा रहीं हैं।
यह दिन रात हमारे अस्तित्व को खा रहीं हैं।