Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Joginder Singh Nov 2024
सच
अनुभूति बनकर
सुख  फैलाता है।

श्रम
केवल परिश्रम ही
सच को प्रत्यक्ष करने का ,
बन पाता है
माध्यम।

सच और श्रम,
दोनों
अनुभूति का अंश बनकर
कर देते हैं
जीवन में कायाकल्प।

यदि तुम जीवन में
आमूल चूल परिवर्तन देखना चाहते
तो जीवन में शुचिता को वर्षों,
उतार-चढ़ावों के बीच
बहती

इस जीवन सरिता पर
तनिक
चिंतन मनन करो,

सच और श्रम के सहारे
जीवन मार्ग को करो
प्रशस्त।

तुम विनम्र बनो।
निज देह को
शुचिता  की
कराओ प्रतीति।
ताकि
सच  और श्रम
अंतर्मन में
उजास भर सकें,
जीवन में
सुख की छतरी सके तन,
तन और मन रहें प्रसन्न।
सब
दुःख , दर्द , निर्दयता की
बारिश से बच सकें।
जीवन रण में
विजय के हेतु
डट सकें
और आगे बढ़ सकें।
२०/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
हर हाल में
उम्मीद का दामन
न छोड़, मेरे दोस्त!
यह उम्मीद  ही है
जिसने साधारण को
असाधारण तो बनाया ही है ,
बल्कि
जीवन को
जीवंत बनाए रखा है ।
इसके साथ ही
बेजोड़ !
बेखोट!
एकदम कुंदन सरीखा !
अनमोल और उम्दा !
साथ ही  तिलिस्म से भरपूर ।
उम्मीद ने ही
जीवन को
नख से शिख तक ,
रहस्यमय और मायावी सा
निर्मित किया है,
जिसने मानव जीवन में
एक नया उत्साह भरा है।

उम्मीद ही
भविष्य को संरक्षित करती है,
यह चेतन की ऊर्जा  सरीखी है।
यह सबसे यही कहती है कि
अभी
जीवन में
बेहतरीन का आगाज़
होना है ,
तो फिर
क्यों न इंसान
सद्कर्म करें!
वह चिंतातुर क्यों रहे?
क्यों न वह
स्वयं के भीतर उतरकर
श्रेष्ठतम जीवन धारा में बहे !
संवेदना के
स्पंदनों को अनुभूत करे !!
Joginder Singh Nov 2024
बंदर  के   घर   बंदर   आया ,

आते  ही  उसने  उत्पात  मचाया ।

बंदरिया और    बच्चे  थे  , डर  गए।

वे   चुपके   से   बिस्तर   में   घुस  गए  ।

मेहमान   के   जाने     के     बाद    ,

किया  सबने   मेहमान   को    याद   ।

सारे    खिलखिला  कर   हँस    पड़े   ।

सूरज  ने   भी   इसका  आनंद  उठाया  ।
बंदर कवि खुद है जी!
Joginder Singh Nov 2024
बहुत बार
नौकर होने का आतंक
जाने अनजाने
चेतन पर छाया है ,
जिसने अंदर बाहर
रह रहकर तड़पाया है ।

बहुत बार
अब और अधिक समय
नौकरी न करने के ख़्याल ने ,
नौकर जोकर न होने की ज़िद्द ने
दिल के भीतर
अपना सिर उठाया है ,
इस चाहत ने
एक अवांछित अतिथि सरीखा होकर
भीतर मेरे बवाल मचाया है ,
मुझे भीतर मतवातर चलने वाले
कोहराम के रूबरू कराया है।


कभी-कभी कोई
अंतर्घट का वासी
उदासी तोड़ने के निमित्त
पूछता है धीरे से ,
इतना धीरे से ,
कि न  लगे भनक ,
तुम्हारे भीतर
क्या गोलमाल चल रहा है?
क्यों चल रहा है?
कब से चल रहा है?

वह मेरे अंतर्घट का वासी
कभी-कभी
ज़हर सने तीर
मेरे सीने को निशाना रख
छोड़ता है।
और कभी-कभी वह
प्रश्नों का सिलसिला ज़ारी रखते हुए ,
अंतर्मन के भीतर
ढेर सारे प्रश्न उत्पन्न कर
मेरी थाह  लेने की ग़र्ज से
मुझे टटोलना शुरू कर देता है ,
मेरे भीतर वितृष्णा पैदा कर देता है ।


मेरे शुभचिंतक मुझे  अक्सर ‌कहते हैं ।
चुपचाप नौकरी करते रहो।
बाहर बेरोजगारों की लाइन देखते हो।
एक आदर्श नौकरी के लिए लोग मारे मारे घूमते हैं।
तुम किस्मत वाले हो कि नौकरी तुम्हें मिली है ।

उनका मानना है कि
दुनिया का सबसे आसान काम है,
नौकरी करना, नौकर बनना।
किसी के निर्देश अनुसार चलना।
फिर तुम ही क्यों चाहते हो?
... हवा के ख़िलाफ़ चलना ।

दिन दिहाड़े , मंडी के इस दौर में
नौकरी छोड़ने की  सोचना ,
बिल्कुल है ,
एक महापाप करना।

जरूर तेरे अंदर कुछ खोट है ,
पड़ी नहीं अभी तक तुझ पर
समय की चोट है, जरूर ,जरूर, तुम्हारे अंदर खोट है ।
अच्छी खासी नौकरी मिली हुई है न!
बच्चू नौकरी छोड़ेगा तो मारा मारा फिरेगा ।
किसकी मां को मौसी कहेगा ।
तुम अपने आप को समझते क्या हो?

यह तो गनीमत है कि  नौकरी
एक बेवकूफ प्रेमिका सी
तुमसे चिपकी हुई है।
बच्चू! यह है तो
तुम्हारे घर की चूल्हा चक्की
चल रही है ,
वरना अपने आसपास देख,
दुनिया भूख ,बेरोजगारी ,गरीबी से मर रही है ।

याद रख,
जिस दिन नौकरी ने
तुम्हें झटका दे दिया,
समझो जिंदगी का आधार
तुमने घुप अंधेरे में फेंक दिया।
तुम सारी उम्र पछताते नज़र आओगे।
एक बार यह छूट गई तो उम्र भर पछताओगे।
पता नहीं कब, तुम्हारे दिमाग तक
कभी रोशनी की किरण पहुंच पाएगी।

यदि तुमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी,
तो तुम्हारी कीमत आधी भी न रह जाएगी ।
यह जो तुम्हारी आदर्शवादी सोच है न ,
तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगी।
न रहोगे घर के , न घाट के।
कैसे रहोगे ठाठ से ?
फिर गुजारा चलाओगे बंदर बांट से ।


इतनी सारी डांट डपट
मुझे सहन करनी पड़ी थी।
सच! यह मेरे लिए दुःख की घड़ी थी।
मेरी यह चाहत धूल में मिली पड़ी थी।

मेरे अंतर्मन ने भी मुझे डांट लगाई।
उसने कहा,"अरे नासमझ! अपनी बढ़ती उम्र का
कुछ तो ख्याल कर,
बेवजह तू बवाल न कर।
नौकरी छोड़ने की सोच कर,
तूं भर लेगा अपने अंदर डर।
मारा  मारा फिरेगा डगर डगर।
अपनी नहीं तो
घरवाली और बच्चों की फ़िक्र कर ।

तुमसे तो
चिलचिलाती तेज धूप में
माल असबाब से भरी रिक्शा,
और उसे पर लदी सवारियां तक
ढंग से खींचीं न जाएगी।
यह पेट में जो हवा भर रखी है,
सारी पंचर होकर
बाहर निकल जाएगी।
फिर तुम्हें शूं शूं शूं  शू शूंशूंश...!!!
जैसी आवाज ही सुनाई देगी ,
तुम्हारी सारी फूंक निकल जाएगी।
हूं !बड़ा आया है नौकरी छोड़ने वाला !
बात करता है नौकरी छोड़ने की !
गुलामी से निजात पाने की!!
हर समय यह याद रखना ,....
चालीस साल
पार करने के बाद
ढलती शाम के दौर में
शरीर कमज़ोर हो जाता है
और कभी-कभी तो
यह ज़वाब देने लगता है।
इस उम्र में यदि काम धंधा छूट जाए,
तो बड़ी मुश्किल होती है।
एक अदद नौकरी पाने के लिए
पसीने छूट जाते हैं।


यह सच है कि
बाज़ दफा
अब भी कभी-कभी
एक दौरा सा उठता है
और ज्यादा देर तक
नौकरी न करने का ख़्याल
पागलपन, सिरफ़िरेपन की हद तक
सिर उठाता है ।
पर अलबेला अंतर्घट का वासी वह
कर देता है करना शुरू,
रह रहकर, कुछ उलझे सुलझे सवाल ।
वह इन सवालों को
तब तक लगातार दोहराता है,
जब तक मैं मान न लूं उससे हार ।
यही सवाल
मां-बाप जिंदा थे,
तो बड़े प्यार और लिहाज़ से
मुझसे पूछा करते थे।
वे नहीं रहे तो अब
मेरे भीतर रहने वाला,
अंतर्घट का वासी
आजकल पूछने लगा है।
सच पूछो तो, मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि
उसके सामने
मेरा जोश और होश
ठंड पड़ जाता है,
ललाट पर पसीना आ जाता है।
अतः अपनी हार मानकर
मैं चुप कर जाता हूं।
अपना सा मुंह लेकर रह जाता हूं ।


मुझे अपना अंत आ गया लगता है ,
अंतस तक
दिशाहीन और भयभीत करता सा लगता है।

सच है...
कई बार
आप बाह्य तौर पर
नज़र आते हैं
निडर व आज़ाद
पर
आप अदृश्य रस्सियों से
बंधे होते हैं ,
आप कुछ नया नहीं
कर पाते हैं,
बस !अंदर बाहर तिलमिलाते हैं ,
आपके डर अट्टहास करते जाते हैं।
Joginder Singh Nov 2024
अकेलेपन में
ढूंढता है
अरे बुद्धू  !
अलबेलापन।
जो
तू खो चुका है ,
सुख की नींद सो चुका है ।

अब
जीवन की भोर
बीत चुकी है।

समय के
बीतते बीतते ,‌
ज़िंदगी के
रीतते रीतते ,
अलबेलापन
अकेलेपन में
गया है बदल ।

चाहता हूं
अब
जाऊं संभल!
पर
अकेलापन ,
बन चुका है
जीने का संबल।
रह रह कर
सोचता हूँ ,
अकेलापन
अब बन गया है
काल का काला कंबल।
जो जीवन को
बुराइयों और काली शक्तियों से
न केवल बचाता है ,
बल्कि
दुःख सुख की अनुभूतियों ,
जीवन धारा में
मिले अनुभवों को
अपने भीतर लेता है  समो ,
और
आदमी
अकेलेपन के आंसुओं से
खुद को लेता है भिगो ।


सोचता हूँ
कभी कभार
अकेलापन करता है
आदमी को बीमार।

आदमी है एक घुड़सवार  
जो अर्से है ,
अकेलेपन के घोड़े पर सवार !

कहां रीत गया
यह अलबेलापन ?
कैसे बीत जाएगा
रीतते रीतते ,
आंसू सींचते सींचते,
यह अकेलापन ?

अब तो प्रस्थान वेला है ,
जिंदगी लगने लगी एक झमेला है!
हिम्मत संजोकर,
आगे बढ़ाने की ठानूंगा !


जैसा करता आया हूं  
अब तक ,‌
अपने अकेलेपन से
लड़ता आया हूं अब तक ।

देकर
सतत्
अनुभूति के द्वार पर दस्तक।

अपने मस्त-मस्त ,
मस्तमौला से
अलबेलेपन को
कहां छोड़ पाया हूं ?


अपने अलबेलेपन के
बलबूते पर
अकेलेपन की सलीब को
ढोता आया हूं !
अकेलेपन की नियति से
जूझता आया हूं !!


२१/०२/२०१७.
Joginder Singh Nov 2024
मुख मुरझा गया अचानक
जब सुख की जगह पर पहुंच दुःख
सोचता रहा बड़ी देर तक
कि कहां हुई मुझ से भूल ?
अब कदम कदम पर चुप रहे हैं शूल।


उसी समय
रखकर मुखौटा अपने मुख से अति दूर
मैं कर रहा था अपने विगत पर विचार,
ऐसा करने से
मुझे मिला
अप्रत्याशित ही
सुख चैन और सुकून।
सच !उस समय
मैंने पाया स्वयं को तनाव मुक्त ।


दोस्त,
मुद्दत हुए
मैं अपनी पहचान खो चुका था।
अपनी दिशा भूल गया था।
हुआ मैं किंकर्तव्यविमूढ़,
असमंजस का हुआ शिकार ,
था मैं भीतर तक बीमार,
खो चुका था अपने जीवन का आधार।
ऐसे में
मेरे साथ एक अजब घटना घटी ।
अचानक
मैंने एक फिल्म देखी, आया मन में एक ख्याल।
मन के भीतर दुःख ,दर्द ,चिंता और तनाव लिए
क्यों भटक रहे हो?
क्यों तड़प रहे हो?
तुम्हें अपने टूटे बिखरे जीवन को जोड़ना है ना !
तुम विदूषक बनो ।
अपने दुःख दर्द भूलकर ,
औरों को प्रसन्न करो।
ऐसा करने से
शायद तुम
अपनी को
चिंता फिक्रों के मकड़ जाल से मुक्त कर पाओ।
जाओ, अपने लिए ,
कहीं से एक मुखौटा लेकर आओ।
यह मुखौटा ही है
जो इंसान को सुखी करता है,
वरना सच कहने वाले इंसान से
सारा जमाना डरता है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं ,
अपनी जिंदगी अपने ढंग से जियो।
खुद को
तनाव रहित करो ,
तनाव की नाव पर ना बहो।
तो फिर
सर्कस के जोकर की तरह अपने को करो।
भीतर की तकलीफ भूल कर, हंसो और खिलखिलाओ।
दूसरों के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव जगाओ।


उसे दिन के बाद
मैं खुद को बदल चुका हूं।

सदैव
एक मुखौटा पहने रखता हूं,
ताकि
निज को सुरक्षित रख सकूं।

दोस्त,
अभी-अभी
मैं अपना प्यारा मुखौटा
रख कर गया हूं भूल।

यदि वह तुमको मिले
तो उसे मुझ को दो सौंप,
वरना मुखौटा खोने का ऋण
एक सांप में बदल
मुझे लेगा डस,
जीवन यात्रा थम जाएगी
और वेब सी मेरे भीतर
करने के बाद भी भरती जाएगी,
जो मुझे एक प्रेत सरीखा बनाएगी।

मुझे अच्छी तरह से पता है
कि यदि मैं मुखौटा ओढ़ता हूं,
तो तुम भी कम नहीं हो,
हमेशा एक नक़ाब पहने  रहते-रहते
बन चुके हो एक शातिर ।
हरदम इस फ़िराक़ में रहते हो,
कब कोई नजरों से गिरे,
और मैं उसका उपहास उड़ाऊं।
मेरे नकाबपोश दोस्त,
अब और ना मुझे भरमाओ।
जल्दी से मेरा मुखौटा ढूंढ कर लाओ।
मुझे अब और ज़्यादा न सताओ।
तुम मुझे भली भांति पहचानते हो!
मेरे उत्स तक के मूल को जानते हो।

मेरा सच है कि
अब मुखौटे में निहित है अस्तित्व का मूल।
दोस्त , नक़ाब तुम्हारी तक पर
पहुंच चुकी है मेरे मुखौटे की धूल।
तुमने ही मुझसे मेरा मुखौटा चुराया है।
अभी-अभी मुझे यह समझ आया है।
तुम इस समय नकाब छोड़ , मेरा मुखौटा ओढ़े हो।
मेरे मुखौटे की बू, अब तुम्हारे भीतर रच चुकी है।
मेरी तरह ,अब तुम्हारी
नक़ाब पहनने की
जिंदगी का खुल गया है भेद।


मुझे विदित हो चुका है कि
कृत्रिमता की जिंदगी जी कर
व्यक्ति जीवन में
छेदों वाली नौका की सवारी करता है
और पता नहीं,
कब उसकी नौका
जीवन के भंवर में जाए डूब।
कुछ ऐसा तुम्हारे साथ घटित होने वाला है।
यह सुनना था कि
मेरे नकाबपोश मित्र ने
झट से
मेरा मुखौटा दिया फैंक।

उस उसे मुखौटे को अब मैं पहनता नहीं हूं ।
उसे पहन कर मुझे घिन आती है।
इसीलिए मैंने मुखौटे का
अर्से से नहीं किया है इस्तेमाल।

आज बड़े दिनों के बाद
मुझे मुखौटे का ख्याल आया है।
सोचता हूं कि
मुखौटा मुझ से
अभी तक
अलहदा नहीं हो पाया है।

आज भी
कभी-कभी
मुखौटा मेरे साथ
अजब से खेल खेलता है।

शायद उसे भी डर है कि
कहीं मैं उसे जीवन में अनुपयोगी न समझने लगूं।

कभी-कभी वह
तुम्हारी नक़ाब के
इशारे पर
नाचता  नाचता
चला जाना चाहता है
मुझ से बहुत दूर
ताकि हो सके
मेरा स्व सम्मोहन
शीशे सा चकनाचूर ।

हकीकत है...
अब मैं उसके बगैर
हर पल रहता हूं बेचैन
कमबख़्त,
दिन रात जागते रहते हैं
अब उसे दिन मेरे नैन।

कभी-कभी जब भी मेरा मुखौटा
मुझे छोड़ कहीं दूर भाग जाता है
तू रह रहकर मुझे तुम्हारा ख्याल आता है।

मैं सनकी सा होकर
बार-बार दोहराने लगता हूं।
दोस्त , मेरा मुखौटा मुझे लौटा दो।
मेरे सच को मुझ से मिला दो ।
अन्यथा मुझे शहर से कर दो निर्वासित ।
दे दो मुझे वनवास,
ताकि कर सकूं मैं
आत्म चिंतन।

मैं दोनों, मुखौटे और सच से
मुखातिब होना चाहता हूं ।
कहीं ऐसा न हो जाए कभी ।
दोनों के अभाव में,
कि कर न सकूं
मैं अपना अस्तित्व साबित।
बस कराहता ही नज़र आऊं !
फिर कभी अपनी परवाज़ न भर पाऊं !!

१७/०३/२००६. मूल प्रारूप।
संशोधन ३०/११/२००८.
और २४/११/२०२४.
Joginder Singh Nov 2024
हम लिखेंगे जरूर
काल के फलक पर
नित्य नूतन अनोखी पटकथाएं
खुद को संकटों में आजमाने की !


हम पढ़ेंगे जरूर
महाकाल की संवेदना में जीवित
जन जन की व्यथित करतीं
जिंदगी में लड़कर हार जाने की कथाएं।


हम करेंगे पहल और कोशिशें जरूर
जीवन के विशाल पटल पर
हारे हुए योद्धाओं ,लाचारों के  
दर्द को पढ़ पाने की,
उनके मन से भार हटाने की ।
जीवन में आगे बढ़ पाने की ।


हम जानते हैं जीवन का यह सच
कि अपना वज़न सभी उठाते हैं !
पर जो गैरों का वज़न उठा पाएं,
वही जीवन की राह सुझाते हैं !
जीवन की गुत्थी समझ पाते हैं!
जीवन में अपनी पहचान बनाते हैं!
थके हारे में उत्साह भर, आगे बढ़ाते हैं।


फिर आप , वह और मैं इसी पल
जीवन में कुछ सार्थक करने की,
जीवन की मलिनता को साफ करने की,
क़दम दर क़दम आगे बढ़ने की,
लगातार कोशिशें क्यों नहीं करते ?
जीवन के चौराहे पर असमंजस में हैं क्यों खड़े?


हम जानते हैं भली भांति ,
नहीं है भीतर कोई भ्रांति ,
हम लिखेंगे काल के फलक पर
नित्य नूतन नवीन पटकथाएं ।


हम समझेंगे इसी जीवन में संघर्ष करते
निर्बलों, शोषितो, वंचितों की व्यथाएं।
हम बनना चाहते हैं सभी का सहारा,
हम ज्ञान दान देकर, उनके भीतर आलोक जगाएंगे।
उनको जीवन की सुंदरता का अहसास कराएंगे।

हम परस्पर सहयोग करते हुए,
सब में उत्साह ,उमंग ,जोश भरते हुए,
पूरे मनोयोग से जीवन पथ पर आगे बढ़ेंगे।
कभी काली अंधेरी घटाओं से नहीं डरेंगे।
साथी, हम मरते दम तक, करते रहेंगे संघर्ष,
ताकि ढूंढ सकें कर्मठ रहकर, जीवन में उत्कर्ष सहर्ष !

०४/०१/२००८.
Next page