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Joginder Singh Nov 2024
जब संबंध शिथिल हो चुके हैं,
अपनी गर्माहट खो चुके हैं,
तब अर्से से न मिलने मिलाने का शिकवा तक,
हो चुका होता है बेअसर,
खो चुका होता है अपने अर्थ।
ऐसे में लगता है
कि अब सब कुछ है व्यर्थ।
कैसे कहूं  ?
किस से कहूं ?
क्यों ही कहूं?
क्यों न अपने  में सिमट कर रहूं ?
क्यों धौंस पट्टी सब की सहूं ?
अच्छा रहेगा ,अब मैं
चुप रहकर
अकेलेपन का दर्द सहूं।
वक्त की हवा के संग बहूं।


कभी-कभी
अपने मन को समझाता हूं,
यदि मन जल्दी ही समझ लेता है ,
जीवन का हश्र
एकदम से ,
तो हवा में
मैं उड़ पाता हूं !
वरना पर कटे परिंदे सा होकर
पल प्रति पल
कल्पना के आकाश से ,
मतवातर नीचे गिरता जाता हूं ,
जिंदगी के कैदखाने में
दफन हो जाता हूं।


मित्र मेरे,
पर कटे परिंदे का दर्द
परवाज़  न भर पाने की वज़ह से
रह रह कर काटता है मुझे ,
अपनी साथ उड़ने के लिए
कैसे तुमसे कहूं?
इस पीड़ा को
निरंतर मैं सहता रहूं ।
मन में पीड़ा के गीत गुनगुनाता रहूं ।
रह रह कर
अपने पर कटे होने से
मिले दर्द को सहलाता रहूं।
पर कटे परिंदे के दर्द सा होकर
ताउम्र याद आता रहूं।

१०/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
भीतर के प्रश्न
क्या अब हो गए हैं समाप्त?  
क्या इन प्रश्नों में निहित
जिज्ञासाओं को
मिले कोई संतुष्टिप्रद उत्तर ?
क्या वे हैं अब संतुष्ट ?


कभी-कभी
उत्तर
करने लगते हैं प्रश्न !
वे हमें
करने लगते हैं
निरुत्तर!

आज
कर रहें हैं
वे प्रश्न,
' भले आदमी,
तुम कब से हो मृत?
तुमने चिंतन करना
क्यों छोड़ दिया है ?
तुम तो अमृतकुंड की
तलाश में
सृष्टि कणों के
भीतर से निकले थे।
फिर आज क्यों
रुक गए?
अपनी यात्रा पर
आगे बढ़ो, यूं ही
रुक न रहो। '
३०/११/२००८.
Joginder Singh Nov 2024
कितने चाँद
तुम
ढूंढना
चाहते हो
जीवन के
आकाश में ?
तुम रखो याद
जीने की खातिर
एक चाँद ही काफ़ी है ,
सूरज की तरह
जो मन मन्दिर के भीतर
प्रेम जगाए,
रह रह कर झाँके
जीवन कथा को बाँचे।
और साथ ही
जीवन को
ख़ुशी के मोतियों से
जड़कर
इस हद तक
बाँधे,
कोई भी
जीवन रण से
न भागे।
१०/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
औपचारिकता
लेती है जब
सर्प सी होकर
डस।
आदमी का
अपने आसपास पर
नहीं
चलता कोई
वश।

तुम
अनौपचारिकता को
धारण कर,
उससे
अकेले में
संवाद रचा कर,
आदमी की
समसामयिक
चुप्पी  को तोड़ो।
उसे
जिंदगी के
रोमांच से
जोड़ो ।

तुम
जोड़ो
उसे जीवन से
ताकि
वह भी
निर्मल
जल धारा सा
होकर बहे ,
नाकि
अब और अधिक
अकेला रहे
और
अजनबियत का
अज़ाब सहे।

१०/०१/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
'सिगरेट पीना
स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।'
'धूम्रपान से कैंसर होता है।'
इसी तरह की
बहुत सारी जानकारी
हम पढ़ते भर हैं,
उस पर अमल नहीं करते
क्यों कि मृत्यु से पहले
हम डरना नहीं चाहते ।
हम बहादुर बने रहना चाहते हैं ।
हम जीना चाहते हैं !
हम आगे बढ़ना चाहते हैं !!

सिगरेट पीने से पहले ,
सिगरेट पीने के बाद
लोग कतई नहीं सोचते
कि उन्होंने अपनी देह को
एक ऐशट्रे में बदल डाला है।
बहुत से घरों में
बहुत पहले ऐशट्रे
ड्राइंग रूम की टेबल पर
सजा कर रखी जाती थी,
ताकि कोई सिगरेट पीने वाला आए,
तो वह  ऐशट्रे का इस्तेमाल आसानी से कर सके।

हमारे भीतर भी
एक ऐशट्रे पड़ी रहती है
जिसके भीतर
हमारी बहुत सारी मूर्खताओं की राख
पड़ती रहती है
ऐशट्रे के भरने और खाली होने तक।

ऐशट्रे का जीवन
सतत
करता रहता हमें स्तब्ध!
यही स्तब्धता कर देती हमें हतप्रभ!!
अचानक थर थर कंपाने लगती है।

अपने जीवन को ऐशट्रे सरीखा न बनाएं।
वायु मंडल में घर कर चुका प्रदूषण ही पर्याप्त है,
जिससे मानव जीवन ख़तरे में हे।
इसे कोई भी समझना नहीं चाहता।
११/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
प्राप्य को
झुठलाते नहीं ,
उसे दिल से स्वीकारते हैं ।
अगर वह ना मिले तो भी
उसे हासिल करने की
चेष्टा करना ही
मानव का सर्वोपरि धर्म है ।
यह जीवन का मर्म है ।
प्राप्य की खातिर
जीवन में जिजीविषा भरना ,
परम के आगे की गई
एक प्रार्थना है ।


जिसके भीतर
प्राप्य तक
पहुंचने की बसी हुई
संभावना है!!

जीवन अपने आप में
बहुत बड़ी प्राप्ति है,
जन्म और मरण के बीच
नहीं हो सकती
इसकी समाप्ति है ।

अतः आज तुम कर लो
खुद पर तुम यक़ीन
कि यकीनन
जीवन की समाप्ति
असंभव है,
मृत्यु भी एक प्राप्ति ही है
जो मोक्ष का मार्ग है ,
शेष
परमार्थ के धागे से बंधा
इच्छाओं के जाल में
फंसे आदमी का स्वार्थ भर है।
इसे न समझ पाने से
जीवन का नीरस होना
मरना भर है!
अपने अंदर डर भरना भर है !

११/०५/२०२०.
Joginder Singh Nov 2024
रचनाकार के पास एक सत्य था ।
उसका अपना ही अनूठा कथ्य था ।
उसने इसे जीवन का हिस्सा बनाया।
और अपनी जिंदगी की कहानी को ,
एक किस्सा बनाकर लिख दिया।



जब यह किस्सा, संपादक के संपर्क में आया।
तब सत्य ही , संपादक ने इसे अपनी नजरिये से देखा।
और उसने अपनी दृष्टिकोण की कैंची से, किया दुरुस्त।
फिर उसने इस किस्से को, पाठकों को दिया सौंप।


पाठक ने इसे पढ़कर, गुना और सराहा।
परंतु रचनाकार में पनप रहा था असंतोष।
उसे लगा कि संपादक ने किया है अन्याय।
रचनाकार खुद को महसूस कर रहा था असहाय।,


संपादक की जिम्मेदारी उसे एक सीमा में बांधे थी।
पाठक वर्ग  और कुछ नीति निर्देशों से संपादक बंधा था।
वह रचनाओं की कांट, छांट, सोच समझ कर करता था ।
और रचनाकार को संपादक पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगता था।


समय चक्र बदला, अचानक रचनाकार बना एक संपादक।
अब अपने ढंग से रचना को असरकारी बनाने के निमित्त,
किया करता है, सोच और समझ की कैंची से काट छांट।
सच ही अब, उसे हो चुका है, संपादन शैली का अहसास।

अब एक रचनाकार के तौर पर, वह गया है समझ।
रचनाकार भावुक ,संवेदनशील हो ,जाता है भावों में बह।
उसके समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह चुके हैं धुल अब।
जान चुका है भली भांति , संपादक की कैंची की ताकत।


बेशक रचनाकार के पास अपना सत्य और कथ्य होता है।
पर संपादक के पास एक नजरिया ,अनूठी समझ होती है।
वह रचना पर कैंची चलाने से पूर्व अच्छे से जांचता है।
तत्पश्चात वह रचना को संप्रेषणीय बनाने की सोचता है।


जब जब  संपादक ने  कैंची से एक सीमा रेखा खींची।
तब तब रचना का कथ्य और सत्य असरकारक बना।
आज रचनाकार, संपादक और पाठक की ना टूटे कड़ी।
करो प्रयास, नेह स्नेह के बंधन से सृजन की डोर रहे बंधी।
न उठे  रचनाकार के मानस में, दुःख ,बेबसी की आंधी।

२९/०८/२००५.
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