मेरे देश!
एक मुसीबत
जो दुश्मन सी होकर
तुम्हें ललकार रही है ।
उसे हटाना,
जड़ से मिटाना
तुम्हारी आज़ादी है!
बेशक! तुम्हारी नजर में ...
अभी ख़ाना जंगी
समाज की बर्बादी है!!
पर...
वे समझे इसे... तभी न!
मेरे दोस्त!
मुसीबत
जो रह रहकर
तुम्हारे वजूद पर
चोट पहुंचाने को है तत्पर!
उसे दुश्मन समझ
तुम कुचल दो।
फ़न
उठाने से पहले ही
समय रहते
सांप को कुचल दो ।
इसी तरह अपने दुश्मनों को
मसल दो ,
तो ही अच्छा रहेगा।
वरना ... सच्चा भी झूठा!
झूठा तो ... खैर , झूठा ही रहेगा।
झूठे को सच्चा
कोई मूर्ख ही कहेगा ।
मुसीबत
जो आतंक को
मन के भीतर
रह रहकर
भर रही है ,
उस आतंक के सामने
आज़ादी के मायने
कहां रह जाते हैं ?
माना तुम अमन पसंद हो,
अपने को आज़ाद रखना चाहते हो ,
तो लड़ने ,
संघर्ष करने से
झिझक कैसी ?
तनिक भी झिझके
तो दुश्मन करेगा
तुम्हारे सपनों की ऐसी तैसी ।
अतः
उठो मेरे देश !
उठो मेरे दोस्त !
उठो ,उठो ,उठो,
और शत्रु से भिड़ जाओ ।
अपनी मौजूदगी ,
अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति
दिन रात परिश्रम करके करो ।
यूं ही व्यर्थ ही ना डरो।
कर्मठ बनो।
अपने जीवन की
अर्थवत्ता को
संघर्ष करते करते
सिद्ध कर जाओ।
हे देश! हे दोस्त!
उठो ,कुछ करो ।
उठो , कुछ करो।
समय कुर्बानी मांगता है।
नादान ना बने रहो।
१६/०८/२०१६.