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Joginder Singh Nov 2024
अदालत के भीतर बाहर
सच के हलफनामे के साथ
झूठ का पुलिंदा
बेशर्मी की हद तक
क़दम दर क़दम
किया गया नत्थी!
सच्चे ने देखा , महसूसा , इसे
पर धार ली चुप्पी।
ऐसे में,
अंधा और गूंगा बनना
कतई ठीक नहीं है जी।

यदि तुम इस बाबत चुप रहते हो,
तो इसके मायने हैं
तुम भीरू हो,
हरदम अन्याय सहने के पक्षधर बने हो।
इस दयनीय अवस्था में
झूठा सच्चे पर हावी हो जाता है।
न्यायालय भी क्या करे?
वह बाधित हो जाता है।
अब इस विकट स्थिति में
मजबूरी वश
सच्चे को झुकना पड़ता है।
बिना अपराध किए सज़ा काटनी पड़ती है।

क्या यही है सच्चे का हश्र और नियति ?
बड़ी विकट बनी हुई है परिस्थिति।
सोचता हूं कि अब हर पल की यह चुप्पी ठीक नहीं।
इससे तो बस चहुं ओर उल्टी गंगा ही बहेगी।
अब तुम अपनी आवाज़ को
बुलंद बनाने की कोशिशें तेज़ करो।
सच के पक्षधर बनो, भीतर तक साहसी बनो।
छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतार फेंको।
० ४/०८/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
जानवरों में
होती है जान!
पेड़ों,पक्षियों, सूक्ष्म जीवों में
होते हैं प्राण!!

आदमी
सरीखे पशु में
रहता आया है
सदियों सदियों से
आत्म सम्मान!


फिर क्यों हम
जीव जन्तुओं के वैरी बने हुए?
क्यों न हम सब
परस्पर सुरक्षित रहने की ग़र्ज से
एक विशालकाय
वानस्पतिक सुरक्षा छतरी बुनें?
आज हम सब पर्यावरण मित्र बनें।


बंधुवर! तुम आज इसी पल
पर्यावरण मित्र बनो
और संगी साथियों के साथ
प्रदूषण के दैत्य से लड़ो।
सच की रोशनी में ही आगे बढ़ो।
  १७/०९/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
अब अक्सर
भीतर का चोर
रह रहकर
चोरी को उकसाता है,
शॉर्टकट की राह से
सफलता के स्वप्न दिखाता है
पर...
विगत का अनुभव
रोशन होकर
ईमानदार बनाता है।
वह
चोरी चोरी
चुपके चुपके
हेरा फेरी के नुकसान गिनाता है!
अनुशासित जीवन से जोड़ पता है!!



भीतर का चोर
अपना सा मुंह लेकर रह जाता है।
बावजूद इसके
वह शोर मचाता है ,
देर तक चीखता चिल्लाता है।
अंतर् का चोर
भीतर की शांति भंग करना चाहता है।
जब उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है,
तब वह थक हार कर सो जाता है।
अच्छा है वह सोया रहे,
भीतर का चिराग जलता रहे ,
जीवन अपनी रफ्तार से आगे बढ़ता रहे!
बाहर भीतर चिंतन व्यापा रहे!
मन के भीतर सदैव शांति बनी रहे!
अंतर्मन में शुचिता बनी रहे!!
अंतर्मन का चोर सदैव असफल रहे।
Joginder Singh Nov 2024
तुम मुझ से
स्व शिक्षितों की सामर्थ्य के विषय में
अक्सर पूछते हो।
उन जैसा सामर्थ्य प्राप्त कर लेना
कोई आसान नहीं।
इस की खातिर अथक प्रयास करने पड़ते हैं,
तब कहीं जाकर मेहनत
अंततः मेहनत फलीभूत होती है।


पर यही सवाल तुम मुझ से
अनपढ़ों की बाबत करते,
तो तुम्हे यह जवाब मिलता।

काश!अब
आगे बढ़ती दुनिया में
कोई भी न रहे अशिक्षित ।
कोई भी न कहलाए
अब कतई अंगूठा छाप।
अनपढ़ता कलंक है
सभ्य समाज के माथे पर।
यह इंसानों को
पर कटे परिंदे जैसी बना देती है,
उनकी परवाज़ पर रोक लगा देती है।

जन जन के सदप्रयासों से
अनपढ़ता का उन्मूलन किया जाना चाहिए।
शिक्षा,प्रौढ़ शिक्षा का अधिकार
सब तक पहुंचना चाहिए।

आप जैसा जागरुक
अनपढ़ों तक ,
'शिक्षा बेशकीमती गहना है,
इसे सभी ने पहनना है ।,'का पैगाम
पहुँचा दे,तो एक क्रांति हो सकती है।
देश,समाज,परिवार का कायाकल्प हो सकता है।
अतः आज जरूरत है
अनपढ़ों को
शिक्षा का महत्त्व बताने की,
उन्हें जीवन की राह दिखाने की
उनकी जीवन पुस्तक पढ़ पाने की।
यदि ऐसा हुआ तो
कोई नहीं करेगा खता।
उन्हें सहजता से सुलभ हो जाएगा,
मुक्ति का पता।
जिसे शोषितों, वंचितों से छुपाया गया,
उन्हें अज्ञानी रखकर बंधक बनाया गया।
Joginder Singh Nov 2024
दुनिया को कर भी ले विजित
किसी चमकदार दिन
कोई सिकंदर
और कर ले हस्तगत सर्वस्व।
धरा की सम्पदा को लूट ले।
तब भी माया बटोरने में मशगूल,
लोभ,लालच, प्रलोभन के मकड़जाल में जकड़ा
वह,महसूस
करेगा
किसी क्षण
भले वह विजयी हुआ है,
पर ...यह सब है  व्यर्थ!
करता रहा जीवन को
अभिमान युक्त।
पता नहीं कब होऊंगा?
अपनी कुंठा से मुक्त।!

कभी कभी वजूद
अपना होना,न होना को  परे छोड़कर
खो देता है
अपनी मौजूदगी का अहसास।
यह सब घटना-क्रम
एक विस्फोट से कम नहीं होता।


सच है कि यह विस्फोट
कभी कभार ही होता है।
ऐसे समय में  
रीतने का अहसास होता है।
अचानक एक विस्फोट
अन्तश्चेतना में होता है,
विजेता को नींद से जगाने के लिए!
मन के भीतर व्यापे
अंधेरे को दूर भगाने के लिए!!
Joginder Singh Nov 2024
स्वप्न जगाती
दुनिया में बंद दुस्वप्न
पता नहीं
कब
ओढ़ेंगे कफन ?



मुझे भली भांति है विदित
दुस्वप्नों के भीतर
छिपे रहते हैं हमारे अच्छे बुरे रहस्य।
इन सपनों के माध्यम से
हम अपना विश्लेषण करते हैं,
क्योंकि सपने हमारे आंतरिक सच का दर्पण होते हैं।


मुझे चहुं और
मृतकों के फिर से जिंदा होने
उनकी  श्वासोच्छवास का
हो रहा है मतवातर अहसास।
मेरे मृत्यु को प्राप्त हो चुके मित्र संबंधी
वापस लौट आए हैं
और वे मेरे इर्द-गिर्द जमघट लगाए हैं।
वे मेरे भीतर चुपचाप ,धीरे-धीरे डर भर रहे हैं।
मैं डर रहा हूं और वह मेरे ऊपर हंस रहे हैं।



अचानक मेरी जाग खुल जाती है,
धीरे-धीरे अपनी आंखें खोल,देखता हूं आसपास ।
अब मैं खुद को सुरक्षित महसूस कर रहा हूं।
अपने तमाम डर किसी ताबूत में चुपचाप भर रहा हूं।


हां ,यकीनन
मुझे अपने तमाम डर
करने होंगे कहीं गहरे दफन
ताकि कर सकूं मैं निर्मित
रंग-बिरंगे , सम्मोहन से भरपूर
वर वसन, वस्त्र
और उन्हें दुस्वप्नों पर ओढ़ा सकूं।


इन दुस्वप्नों को
बार बार देखने के बावजूद
मन में चाहत भरी है
इन्हें देखते रहने की,
बार-बार डरते, सहमते रहने की।



चाहता हूं कि
स्वप्न जगती इस अद्भुत दुनिया में
सतत नित्य नूतन
सपनों का सतत आगमन देख सकूं
और समय के समंदर की लहरों पर
आशाओं के दीप तैरा सकूं।



मैं जानता हूं यह भली भांति !
दुस्वप्न फैलाते हैं मन के भीतर अशांति और भ्रम।
फिर भी इस दुनिया में भ्रमण करने का हूं चाहवान।
दुस्वप्न सदैव, रहस्यमई,डर भरपूर
दुनिया की प्रतीति कराते हैं।
चाहे इन पर कितना ही छिड़क दो
संभावनाओं का सुगंधित इत्र।!
ये जीवन की विचित्रताओं का अहसास बनकर लुभाते हैं।



काश! मैं होऊं इतना सक्षम!
मैं इन दुस्वप्नों से लड़ सकूं।
उनसे लड़ते हुए आगे बढ़ सकूं।

१६/०२/२००९.
Joginder Singh Nov 2024
कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से
हो जाते थे तृप्त !
उन दिनों हम थे संतुष्ट।

अब दिन बदल गए क्या?
नहीं ,दिन तो वही हैं।
हम बदल गए हैं।
थोड़े स्वार्थी अधिक हुए हैं ।

उन दिनों
दिन भर खाने पीने की जुगत भिड़ाकर ।
इधर बिल्ली ,उधर कुत्ते को परस्पर लड़ा कर ।
हेरा फेरी, चोरी सीनाज़ोरी ,
मटरगश्ती, मौज मस्ती में रहकर ।
समय बिताया करते थे,
चिंता फ़िक्र को अपने से दूर रखा करते थे।
परस्पर एक दूसरे के संग
उपहास , हास-परिहास किया करते थे।


आजकल
सूरज की पहली किरण से लेकर,
दिन छिपने तक रहते असंतुष्ट !
कितनी बढ़ गई है हमारी भूख?
कितने बढ़ गए हैं हमारे पेट?
हम दिन रात उसे भरने का करते रहते उपक्रम।
अचानक आन विराजता है, जीवन में अंत।
हम आस लगाए रखते कि जीवन में आएगा वसंत।
हमारे जीवन देहरी पर,मृत्यु है आ  विराजती।
किया जाने लगता,
हमारा क्रिया कर्म।



कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से,
हो जाते थे तृप्त!
उन दिनों हम सच में थे संतुष्ट!!



अब अक्सर सोचता रहता हूं...
... दिन तो वही हैं...
हमारी सोच ही है प्रदूषण का शिकार हुई,
हमारे लोभ - लालच की है जिह्वा बढ़ गई,
वह ज़मीर को है हड़प  कर गई,
और आदमी के अंदर -बाहर गंदगी भर गई!
चुपचाप उज्ज्वल काया को मलिन कर गई!!



काश! वे दिन लौट आएं!
हम निश्चल हंसी हंस पाएं!!
इसके साथ ही, चाय पकौड़ी से ही प्रसन्न और संतुष्ट रहें।
अपने जीवन में छोटी-छोटी खुशियों का संचय करें।
जिंदगी की लहरों के साथ विचरकर स्वयं को संतुष्ट करें ।

  १८/०१/२००९.
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