हर कविता के पीछे
होती है एक शब्द की पुकार
इस कविता का जन्म भी
हुआ है एक पुकार से
शब्द है क्षितिज
कितना ख़ूबसूरत शब्द है ना
क्षितिज!
जैसे एक ही पहलू में भव्यता और सादगी
जैसे दूर किसी वीराने में सन्नाटे का शोर
जैसे किरणों के सफर की शुरुआत
क्षितिज!
कितना खूबसूरत शब्द है ना?
सच कहूं तो मुझे इस शब्द का मायना नहीं पता
सच कहूं तो मुझे फर्क नहीं पड़ता
सच कहूं तो मैं डरता हूँ
कि इस शब्द का असल मायना
मेरे गढ़े मायने को झुठला न दे
झुठलाया जाना आसान नहीं होता
आसान नहीं होता किसी शब्द की खूबसूरती को
शब्दार्थों की झुंझलाहट में उलझते देखना
कह जाना आसान होता है
पिरो पाना मुश्किल
मुश्किल होता है हथेली पर से फिसलते रेत के दानों की तरह
इन शब्दों को सम्भाल पाना
झुंझलाहट में रो देना आसान होता है
मुश्किल होता है कुंठा के बीच खुद को पोषित करना
ज़हर को मथ कर अमृत उपजाना आसान नहीं होता
किसी और को खुद से बेहतर घोषित कर देना आसान होता है
खुद ही का खुद से झुठलाया जाना मुश्किल
किसी दूसरे का लिखा पढ़ जाना आसान होता है
खुद को पढ़ कर लिख पाना मुश्किल
मुश्किल होता है
एक ही पहलू में भव्यता और सादगी को देख पाना
वीराने में उठते सन्नाटेे का शोर सुनना आसान नहीं होता
खुद में मौजूद प्रकाश पुंज को निहारना आसान नहीं होता
आसान नहीं होता
तीव्रता के बीच किरणों की शुरुआत देख पाना
भीतर ही भीतर इन किरणों को दबाये रखना
आसान होता है
आसान होता है व्यस्त हो जाना
और खुद को भूला देना
खालीपन के क्षितिज पर बैठकर
खुद को पहचान पाना आसान नहीं होता।
-आकाश हिन्दुजा