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Jul 2014
बैठा हूँ इस पल जहाँ,
यह जल के तीन आकाशों का समागम,
लगता हो प्रतिबिम्ब उस विशाल गगन का,
एक परमात्म सा स्थिर, असीमित,
दूसरा स्वात्म सा अस्थिर, विचलित|| (१)

हिलोरे उठते सागर में,
उत्कंठित होता ज्यों आत्म परात्म को पाने,
पर लौट आता तटबंध की ओर,
मोह संसार का छोड़ना वो ना जाने,
कभी क्रोध, कभी मोह, कभी मान की,
चट्टानों से तितर-बितर हो,
पुनः घूमता लाख चौरासी|| (२)

पर वह देखो! तट से दूर,
सागर से सिन्धु बनने की जुगत में,
जब लहरें मौन हुईं, जब संसारी दूर हुए,
जब मटमैला नीला होता गया,
जब पर्बतों को पाट दिया बल-स्वाभिमान से|| (३)

तब वो देखो!
दूर क्षितिज पे सिन्धु मिलता है व्योम से,
जैसे फर्क ही न रह गया हो शेष,
आत्म-परात्म में,
जब मैं हूँ उसमें और वो है मुझमें,
हो गया इसका आभास मुझे!! (४)
This poem was written by me sitting on the southernmost shore of the Indian mainland in Kanniyakumari. The meditative feeling that spewed within me while watching the confluence of the three great seas at The Triveni Point, got vented through these words. It starts with comparing the sea as a human life while the sky at the top of it as the Supreme Soul himself. My poem draws a parallel between the tumultuous and disorderly journey of the sea and the human life. This is a story of how man finds his Lord after he peeps within himself and unravels the biggest mystery of this world. An intense poem, this will compel you to look deep within yourself! :)
Krishna
Written by
Krishna  Varanasi
(Varanasi)   
  947
   Chitvan Sharma
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