आदमी को मयस्सर होती रहे ज़िन्दगी में कामयाबी दर कामयाबी बनी रहती भीतर ठसक। जैसे ही कामयाबी का सिलसिला कहीं पीछे छूटा , लगने लगता कि भाग्य भी अचानक ही रूठा। आदमी की न चाहकर भी टूट जाती ठसक। भीतर ही भीतर बढ़ती जाती कसक। बेचैनी के बढ़ने से झुंझलाहट बढ़ जाती ! ज़िन्दगी में उलझनें भी बढ़ने लगती ! ज़िन्दगी जी का जंजाल बन कर तड़पाने लगती ! ज़िन्दगी में भागदौड़ यकायक बढ़ जाती , आदमी एक अंतर्जाल में फंसता चला है जाता। वह दिन हो या रात, कभी भी सुकून का अहसास नहीं कर पाता। ०४/०५/२०२५.