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May 4
आदमी को
मयस्सर होती रहे
ज़िन्दगी में
कामयाबी दर कामयाबी
बनी रहती भीतर
ठसक।
जैसे ही कामयाबी का
सिलसिला
कहीं पीछे छूटा ,
लगने लगता कि भाग्य भी
अचानक ही रूठा।
आदमी की
न चाहकर भी
टूट जाती ठसक।
भीतर ही भीतर
बढ़ती जाती कसक।
बेचैनी के बढ़ने से
झुंझलाहट बढ़ जाती !
ज़िन्दगी में उलझनें भी बढ़ने लगती !
ज़िन्दगी जी का जंजाल बन कर तड़पाने लगती !
ज़िन्दगी में भागदौड़ यकायक बढ़ जाती ,
आदमी एक अंतर्जाल में फंसता चला है जाता।
वह दिन हो या रात,
कभी भी सुकून का अहसास नहीं कर पाता।
०४/०५/२०२५.
Written by
Joginder Singh
27
 
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