अचानक अप्रत्याशित कुदरत का कहर जब तब , कभी टूटता है। यह सबसे पहले नास्तिक का गुरूर तोड़ता है। आस्तिक फिर भी दुःख के बावजूद अपने मन को समझाता है। वह जल्दी से जीवन को पुनर्व्यवस्थित करने में जुट जाता है। कुदरत के कहर को सहने के अलावा क्या हम सब के पास कोई चारा है ? आदमी तो बस बेचारा है ! है कि नहीं ? जीवन में कुदरत से तालमेल बनाकर चलो , ताकि कुदरत के प्रकोप और कहर से बच सको। २०/०४/२०२५.