सब एक दौड़ में ले रहे हैं हिस्सा। कौन किस से आगे जा पाए ? इसका ढूंढें कैसे उपाय ? इसकी बाबत सोच सोच कर बहुत से लोग भुला बैठे अपना सुख चैन। चिंता और तनाव से चिता की राह पर असमय चल पड़े हैं, क्या वे स्वयं को नहीं छल रहे हैं ? यही बनती है अक्सर आदमी की हार की वज़ह। ढूंढे से भी नहीं मिल पाती इस हारने के दंश की दवा। ऊपर से दिन रात चलने वाली एक दूसरे से आगे निकलने , हराने , विजेता कहलाने की होड़ , आदमी को सतत् बीमार कर रही है। आधी से ज्यादा लोगों की आर्थिकता पर यह व्यर्थ की दौड़ धूप और भागम भाग चोट कर रही है। इसकी मरहम भी समय पर नहीं मिल रही है। यह सारी गतिविधि आदमी को बेदम करती जा रही है। दम बचा रहा तो ही हैं हम ! बस ! इस छोटी सी बात को समझ लें हम ! तब ही सब अस्तित्व की लड़ाई जीत पाएंगे हम ! वरना निरंतर हारने की मनोदशा में जाकर हम ! कब तक अपने को सुरक्षित रख पाएंगे हम ? फिर तो जीवन में बढ़ता ही जाएगा कहीं न पहुँचने की टीस से उत्पन्न गम। इस समस्या की बाबत ठंडे दिल से सोचो । पागलपन की दौड़ से समय रहते ख़ुद को बाहर निकालो। ख़ुद को अनियंत्रित हो जाने से रोको। ०७/०४/२०२५.