हरेक जीव विशेष होता है और उसके भीतर स्वाभिमान कूट कूट कर भरा होता है। परंतु कभी कभी आदमी को मयस्सर होती जाती है एक के बाद एक एक करके सफलता दर सफलता , ऐसे में संभावना बढ़ जाती है कि भीतर अहंकार उत्पन्न हो जाए , आदमी की हेकड़ी मकड़ी के जाल सरीखी होकर उस मकड़जाल में आदमी की बुद्धिमत्ता को उलझाती चली जाए, आदमी कोई ढंग का निर्णय लेने में मतवातर पिछड़ता चला जाए। उसका एक अनमने भाव से लिया गया फ़ैसला कसैला निर्णय बनता चला जाए , आदमी जीवन की दौड़ में औंधे मुंह गिर जाए और कभी न संभल पाए , वह बैठे बिठाए पराजित हो जाए। वह एकदम चाहकर भी खुद में बदलाव न कर पाए। अंतिम क्षणों में जीत उसके हाथों से यकायक फिसल जाए। उसकी हेकड़ी धरी की धरी रह जाए। उसे अपने बेबस होने का अहसास हो जाए। हो सकता है इस झटके से वह फिर से कभी संभल जाए और जड़ से विनम्र होने की दिशा में बढ़कर सार्थकता का वरण कर पाए। ०५/०४/२०२५.