बिगड़ैल का सुधरना किसी सुख के मिलने जैसा है , किसी का बिगड़ना विपदा के आगमन जैसा है। इस बाबत आप की सोच क्या है ? बिगड़े हुए को सुधारना कभी होता नहीं आसान। वे अपने व्यवहार में समय आने पर करते हैं बदलाव। इसके साथ साथ वे रखते हैं आस , उनकी सुनवाई होती रहे। वे सुधर बेशक गए , इसे भी अहसान माना जाए। उनका कहना माना जाए। वरना वे बिगड़ैल उत्पात मचाने फिर से आते रहेंगे।
कुछ मानस बिगड़े बच्चों को लठ्ठ से सुधारना चाहते हैं, आजकल यह संभव नहीं। आज भी उनकी सोच है कि डर अब भी उन सब पर कायम रहना चाहिए। ऐसी दृष्टि रखने वालों को आराम दे देना चाहिए। बिगड़ैल को पहले प्यार मनुहार से सुधरने का मौका देना चाहिए। फिर भी न मानें वे, तो उन्हें अपने माता पिता से मिला प्रसाद दे ही देना चाहिए। कठोर दंड या तो सुधार देता है अथवा बदमाश बना देता है। उन्हें कभी कभी ढीठ बना देता है। कई बार सुधार के चक्कर में आदमी खुद को बिगाड़ लेता है। हरेक ऐसे सुधारवादी पर हंसता है, चुपके चुपके चुटकियां भरता है, और कभी कभी अचानक फब्तियां भी कसता है। किसी किसी समय आदमी को उसकी सुधारने की जिद्द महंगी पड़ जाती है, सारी अकड़ धरी धराई रह जाती है, छिछालेदारी अलग से हो जाती है। आप बताइए, ऐसे मानस की इज्ज़त कहां तक बची रह पाती है ? ०२/०४/२०२५.