हमने अज्ञानता वश कर दी है एक भारी भरकम भूल , जिस भूल ने जाने अनजाने चटा दी है बड़े बड़ों को धूल और जो बनकर शूल सबको मतवातर बेचारगी का अहसास करवा रही है , अंदर ही अंदर हम सब को कमजोर करती जा रही है।
हमने लोग क्या कहेंगे , जैसी क्षुद्रता में फंसे रहकर जीवन के सच को छुपा कर रखा हुआ है , अपने भीतर अनिष्ट होने के डर को भर स्वयं को सहज होने से रोक रखा है। यही असहजता हमें भटकाती रही है , दर दर की ठोकरें खाने को करती रही है बाध्य , जीवन के सच को छुपाना सब पर भारी पड़ गया है ! यह बन गया है एक रोग असाध्य !! आदमी आजतक हर पल सच को झूठलाने की व्यर्थ की दौड़ धूप करता रहा है , वह स्वयं को छलता रहा है , निज चेतना को छलनी छलनी कर रहा है ! स्व दृष्टि में गया गुजरा बना हुआ सा इधर उधर डोल रहा है , चाहकर भी मन की घुंडी खोल नहीं रहा है , वह एक बेबस और बेचारगी भरा जीवन बिता रहा है , और अपने भीतर पछतावा भरता जा रहा है। अतः यह जरूरी है कि वह जीवन के सच को बेझिझक बेरोक टोक स्वीकार करे , जीवन में छुपने छुपाने का खेल खेलने से गुरेज करे। वह इर्द गिर्द फैली जीवन की खुली किताब को रहस्यमय बनाने से परहेज़ करे। इसे सीधी-सादी ही रहने दे। इसे अनावृत्त ही रहने दे। ताकि सब सरल हृदय बने रह कर इसे पढ़ सकें , जीवन पथ पर आगे बढ़ सकें। आओ , इस की खातिर सब चिंतन मनन करें। जीवन में कुछ भी छिपाना ठीक नहीं, ताकि हम अपनी नीयत को रख सकें सही। ०१/०४/२०२५.