धर्म का अर्थ जीवन को गति देने वाले नियमों और सिद्धांतों को अपनाना है। उनको बिना किसी विरोध के मानते जाना है। धार्मिक होना कुछ और ही होना है , यह किसी हद तक कांटों के बिछौने पर सोना है। धार्मिक आदमी कतई सांप्रदायिक नहीं होता है, उसे कभी इतनी फुर्सत नहीं होती कि किसी शर्त से बंध सके, समाज में हिंसा और अराजकता फैला कर तनाव भर दे। उसका रास्ता तो तनाव मुक्ति का पथ अपनाना है। जो इस राह में रोड़ा बने ,उसे दरकिनार करते हुए अपने को आगे ले जाना है। इसलिए मैं मानता हूं कि धार्मिक होना सरल नहीं है , यह अपने जीते जी जीने की इच्छा का अंत करना है, यह गरल पीना है और खुल कर खुली किताब बनकर जीना है। किसी किसी में धार्मिक बनने का जिगरा होता है , वरना सांप्रदायिक और अधार्मिक यानिकि नास्तिक हर कोई होता है, बल्कि कह लीजिए एक भेड़चाल का शिकार होकर अपने आप को नास्तिक कहना एक फैशन सा हो गया है। हर प्राणी नचिकेता नहीं हो सकता , जो धर्म का मूल जान गया था, अपने अहंकार को मिटा पाया था, सच्ची धार्मिक विभूति बन पाया था। बेशक आज हमें अपने इर्द गिर्द धार्मिकों की भीड़ नहीं जुटानी है, जीवन धारा आगे गंतव्य पथ पर बढ़ानी है ताकि आदमी की मनमानी रुके और वह सत्य के सम्मुख ही झुके। १९/०३/२०२५.