वह इस भरे पूरे संसार में दुनियावी गोरखधंधे सहित अपने वजूद के अहसास के बावजूद कभी कभी खुद को निपट अकेलेपन से संघर्ष करते , जूझते हुए पाता है , पर कुछ नहीं कर पाता है, जल्दी ही थक जाता है। वह ढूंढ रहा है अर्से से सुख पर... उसकी चेतना से निरन्तर दुःख लिपटते जा रहे हैं , उसे दीमक बनकर चट करते जा रहे हैं। जिन्हें वह अपना समझता है, वे भी उससे मुख मोड़ते जा रहे हैं। काश! उसे मिल सके जीवन की भटकन के दौर में सहानुभूति का कोई ओर छौर। मिल सके उसे कभी प्यार की खुशबू ताकि मिट सके उसके अपने किरदार के भीतर व्यापी हुई बदबू और सड़ांध! वह पगलाए सांड सा होकर भटकने से बचना चाहता है , जीवन में दिशाहीन हो चुके भटकाव से छुटकारा चाहता है।
कभो कभी वह इस दुनियावी झंझटों से उकता कर एकदम रसविहीन हो जाता है , अकेला रह जाता है, वह दुनिया के ताम झाम से ऊब कर दुनिया भर की वासनाओं में डूबकर घर वापसी करना चाहता है, पर उस समझ नहीं आता है, क्या करे ? और कहां जाए ? वह दुनिया के मेले को एक झमेला समझता आया है। फलत: वह भीड़ से दूर रहने में जीवन का सुख ढूंढ़ रहा है, अपना मूल भूल गया है। वह अपने अनुभव से उत्पन्न गीत अकेले गाता आया है, अपनी पीड़ा दूसरों तक नहीं पहुँचा पाया है। सच तो यह है कि वह आज तक खुद को व्यक्त नहीं कर पाया है। यहाँ तक कि वह स्वयं को समझ नहीं पाया है। खुद को जानने की कोशिशों को मतवातर जारी रखने के बावजूद निराश होता आया है। वह नहीं जान पाया अभी तक आखिर वह चाहता क्या है? उसका होने का प्रयोजन क्या है? निपट अकेला मानुष कभी कभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, वह खुद को असंमजस में पाता है। अपनी बाबत कोई निर्णय नहीं कर पाता है। सदैव उधेड़ बुन में लगा रहता है। १६/०३/२०२५. ( १६/१२/२०१६).