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Mar 16
आज से सालों पहले
मेरे विद्यार्थी जीवन के दौर में
मेरा शहर और राज्य
आतंक से ग्रस्त था ,
इससे हर कोई त्रस्त था।
किसान धरना लगाने के बहाने
शहर की सड़कों पर उतर आते थे,
जमकर उत्पात मचाते थे।
हम स्कूल और ट्यूशन से भागकर
तमाशा देखने जाते थे।
आगजनी, पथराव ,भाषणबाजी का
लुत्फ़ उठाते थे।
इससे भी पहले नक्सली लहर का
रहा सहा असर थोड़ा बहुत दिख जाता था,
उसके बाद पड़ोसी देश के साथ युद्ध ,
ब्लैक आउट डेज,
महंगाई ,
गरीबी हटाओ के नारे की आड़ में
गरीब हटाओ का काम ,
लड़ाई , झगड़ा , असंतोष ,
मिट्टी के तेल से खुद को आग लगाने का सिलसिला,
समाज में बढ़ता गिला शिकवा और शिकायत
और अंततः आपातकाल का दौर ,
फिर समाज में सत्ता परिवर्तन लेकर आया था नई भोर।
कुछ इस तरह के कालखंड से निकल
कॉलेज में पहुँचा था
तो उस समय आतंकवाद
चरम पर था,
हरेक के भीतर
डर भर गया था ,
जन साधारण को बसों से उतार
मारा जाने लगा था।
कुछ ऐसे उथल पुथल के
दौर से गुजरते हुए
अचानक एक समय
उच्च शिक्षा भी गई थी रुक।
और...
बेरोजगारी के दौर से गुज़र
एक अदद नौकरी का मिलना,
तन मन का खिलना
अब बीता समय हो गया है।
पर इस सब से पिछड़ने का अहसास
अब सेवा निवृत्ति के बाद भी
कभी कभी मन को अशांत करता है।

आज पॉडकास्ट का समय है
अभी अभी सुना है कि
विगत चार माह में
सूबे में आतंक की बारह के लगभग
बंब विस्फोट ,आतंक , आगजनी,कत्ल की वारदात
घटने और उसका प्रशासन पर दुष्प्रभाव की बाबत
सुन रहा था विचार विमर्श।
इसके साथ ही
पुलिस कर्मियों पर मुकदमा चलाए जाने ,
कुछ मामलों में आला और साधारण पुलिस कर्मियों के कैदी बनने की बात चली
तो मुझे आतंक के दमन का वह सुनहरा दौर याद आया ,
जब कांटे को कांटे से हटाया गया था,
धीरे धीरे अमन चैन , सामान्य हालात को क़ायम किया गया था।
आज भी उस नेक काम का दुष्परिणाम लोग भुगत रहे हैं ,
अब भी राज्य की अर्थ व्यवस्था कर्ज़े के जाल में धंसी है।
इस हालात में कौन प्रशासनिक नियन्त्रण क़ायम करे ?
वोट बैंक की राजनीति के चलते
मुफ़्त के लाभ देकर , ढीला ढाला शासन चलाया जा रहा है।
कोई मुख्य मंत्री को कोस रहा है तो कोई अधिकारियों को।
जबकि हकीकत यह है कि अच्छा काम करने वाला बुरा बनता है और पिटता है।
उस समय का काला दौर अब भी ज़ारी है।
यह दौर रोका जा सकता है!
अपराधी को टोका जा सकता है!!
जैसे को तैसा की नीति से ठोका जा सकता है!!!
पर सब के मन में डर है !
अच्छा करने के बावजूद यदि उपहास और त्रास मिला तो क्या होगा ?
स्वार्थों से चालित इस व्यवस्था का अंजाम दलदल में धंसने जैसा तो नहीं होगा !
सो काला दौर ज़ारी है।
अच्छे और सच्चे दौर की आमद के लिए
जन जागरण का हो रहा है इंतजार !
यह सच है कि देश दुनिया और समाज शुचिता की ओर बढ़ रहा है।
काला दौर भी किसी हद तक अपनी समाप्ति से भीतर ही भीतर डर रहा है।
१६/०३/२०२५.
Written by
Joginder Singh
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