यदि किसी आदमी को अचानक पता चले कि उसकी लुप्त हो गई है संवेदना। वह जीवन की जीवंतता को महसूस नहीं कर पा रहा है , बस जीवन को ढोए चला जा रहा है , तो स्वाभाविक है , उसे झेलनी पड़े वेदना। एक सच यह भी है कि आदमी हो जाता है काठ के पुतले सरीखा। जो चाहकर भी कुछ महसूस नहीं कर पाता , भीतर और बाहर सब कुछ विरोधाभास के तले दब जाता। आदमी किसी हद तक किंकर्तव्यविमूढ़ है बन जाता। वह अच्छे बुरे की बाबत नहीं सोच पाता। १३/०३/२०२५.