Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Feb 27
बचपन में
परिश्रम करने की
सीख
अक्सर दी जाती है,
परिश्रम का फल
मीठा होता है,
बात बात पर
कहा जाता है।
बचपन
खेल कूद ,
शरारतों में बीत जाता है।
देखते देखते
आदमी बड़ा होते ही
श्रम बाज़ार में
पहुँच जाता है,
वहाँ वह दिन रात खपता है,
फिर भी उसे मीठा फल
अपेक्षित मात्रा में
नहीं मिलता है,
परिश्रम के बावजूद
मन में कुछ खटकता है।
श्रम का फल
ठेकेदार बड़ी सफाई से
हज़म कर जाता है।
यहाँ भी पूंजीवादी
बाज़ी मार ले जाता है।
मेहनत मशक्कत करनेवाला
प्रतिस्पर्धा में टिकता ज़रूर है।
शर्म छोड़कर बेशर्म बनने वाला
बाज़ार में सेंध लगा लेता है,
हाँ,वह मज़दूर से तनिक ज़्यादा कमा लेता है !
नैतिकता की दृष्टि से वह भरोसा गंवा लेता है!!
शर्म छोड़कर कुछ जोखिम उठाने वाला
श्रमिक की निस्बत
अपना जीवन स्तर थोड़ा बढ़िया बना लेता है !
वह अपनी हैसियत को ऊँचा उठा लेता है !!
आज समाज भी श्रम की कीमत को पहचाने।
वह श्रमिकों को आगे ले जाने,
खुशहाल बनाने की
कभी तो ठाने।
वे भी तो कभी पहुंचें
जीवन की प्रतिस्पर्धा में
किसी ठौर ठिकाने।
आज सभी समय रहते
श्रम की कीमत पहचान लें ,
ताकि जीवन धारा नया मोड़ ले सके।
श्रमिक वर्ग में असंतोष की ज्वाला कुछ शांत रहे ,
वे कभी विध्वंस की राह चलकर अराजकता न फैलाएं।
काश! सभी समय रहते श्रमिक को
श्रम की कीमत देने में न हिचकिचाएं।
वे जीवन को सुख समृद्धि और संपन्नता तक पहुँचाएं।
२७/०२/२०२५.
Written by
Joginder Singh
40
   Raven Star
Please log in to view and add comments on poems