किसी की आस्था से खिलवाड़ करना ठीक नहीं है , यह न केवल पाप कर्म है , बल्कि यह अधर्म है । यदि ऐसा करने पर सुख मिलता , तो सभी इस में संलिप्त होते , वे जीवन के अनुष्ठान में भाग न लेकर भोग विलास में लिप्त होते।
किसी की आस्था पर चोट करना सही नहीं , बेशक तुम बुद्धि बल से जीवन संचालित करने के हो पक्षधर , तुम आस्थावादी के मर्म पर अकारण न करो चोट , न पहुंचाओ कोई ठेस, न करो पैदा किसी के भीतर क्लेश। यदि कोई अनजाने दुःखी होकर कोई दे देता है बद्दुआ, समझो कि अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली , अपने भीतर देर सवेर बेचैनी को हवा दी , अपने सुख समृद्धि और संपन्नता को अग्नि के हवाले कर दिया , अपना जीवन श्राप ग्रस्त कर लिया। किसी के विश्वास पर जान बूझ कर किया गया आघात है बरदाश्त से बाहर । यही मनोस्थिति श्राप की वजह बनती है। भीतर की संवेदनशीलता अंदर ही अंदर पछतावा भरती है , जो किसी श्राप से कम नहीं है। अतः आस्था पर चोट न करना बेहतर है , अच्छे और सच्चे कर्म करना ही मानव का होना चाहिए , कर्म क्षेत्र है। आस्था के विरुद्ध किया कर्म अधर्म है , न केवल यह पाप है , बल्कि तनावयुक्त करने वाला एक श्राप है, मानवता के खिलाफ़ किया गया अपराध है। 12/02/2025.