जीव के भीतर जीवन के प्रति बना रहना चाहिए आकर्षण ताकि जीवन के रंगों को देखने की उत्कंठा जीव , जीव के भीतर स्पष्टता और संवेदना के अहसासों को भरती रहे , उन्हें लक्ष्य सिद्धि के लिए प्रेरित करती रहे , मन में उमंग तरंग बनी रहे।
कभी अचानक जीवन में अस्पष्टता का हुआ प्रवेश कि समझो जीवन की गति पर लग गया विराम। देर तक रुके रहने से जीवन में मिलती है असफलता , जो सतत चुभती है , असहज करती है , व्यथित करती है , व्यवहार में उग्रता भर देती है। यह जिन्दगी को कष्टदायक कर देती है।
अक्सर यह आदमी को असमय थका देती है , उसे झट से बूढ़ा बना देती है।
यह सब न केवल जीवन में रूकावटें पैदा करती है , बल्कि यह जिन्दगी में निराशा और हताशा भर कर समस्त उत्साह और उमंग को लेती है छीन , भीतर का संबल आत्मबल होता जाता क्षीण। आदमी धीरे धीरे होने लगता समाप्त। वह अचानक छोड़ देता करने प्रयास। फलत: वह जीवन की दौड़ में से हो जाता बाहर , वह बिना लड़े ही जाता , जीवन रण को हार। यही नहीं वह भीतर तक हो जाता भयभीत कि पता नहीं किस क्षण अब उड़ने लगेगा उसका उपहास ! यही सोच कर वह होने लगता उदास !! जीवन का आकर्षण महज एक तिलिस्म लगने लगता ! धीरे धीरे निरर्थकता बोध से जनित जीवन में अपकर्षण बढ़ने है लगता !! ११/०२/२०२५.