आदमी का दंभ जब कभी कभी अपनी सीमा लांघ जाता है, तब वह विद्रूपता का अहसास कराता है, यह न केवल उसे जीवन में भटकने को बाध्य करता है, बल्कि उसे सामाजिक ताने-बाने से किसी हद तक बेदखल कर देता है। यह उसे जीवन में उत्तरोत्तर अकेला करता चला जाता है, आदमी दहशतज़दा होता रहता है। वह अपना दर्द भी कभी किसी के सम्मुख ढंग से नहीं रख पाता है।
कोई नहीं होना चाहता अपने जीवन में विद्रूपता के दंश का शिकार, पर अज्ञानता के कारण जीवन के सच को जान न पाने से, अपने विवेक को लेकर संशय से घिरा होने की वज़ह से वह समय रहते जीवन में ले नहीं पाता कोई निर्णय जो उसे सार्थकता की अनुभूति कराए , उसे निरर्थकता से निजात दिलवा पाए , उसे विद्रूपता के मकड़जाल में फंसने से बचा जाए।
विद्रूपता का दंश आदमी की संवेदना को लील लेता है, यह उसे क्रूरता के पाश में जकड़ लेता है, आदमी दंभी होकर एक सीमित दायरे में सिमट जाता है , फलत: वह अपने मूल से कटता जाता है , अपनी संभावना के क्षितिज खोज नहीं पाता है ! दिन रात भीतर ही भीतर न केवल हरपल कराहता रहता है, बल्कि वह अंतर्मन को आहत भी कर जाता है। उसका जीवन तनावयुक्त बनता जाता है , वह शांत नहीं रह पाता है ! असमय कुम्हला कर रह जाता है !! २८/०१/२०२५.