हम कितनी ही फराखदिली और सहिष्णुता की बात आपस में कर लें , हमारे मन में मान सम्मान जैसी मानवीय कमज़ोरी अवचेतन में पड़ी रह जाती है, जब जीवन में उपेक्षित रह जाने का दंश दर्प को ठोकर अचानक अप्रत्याशित ही दे जाता है तब मानव सहज नहीं रह पाता है , वह भीतर तक तिलमिला जाता है , वह प्रतिद्वंद्वी को झकझोरना चाहता है।
इस समय मन में गांठ पड़ जाती है जो आदमी के समस्त ठाट-बाठ को धराशायी कर जाती है , यह सब घटनाक्रम आदमी के भीतर को अशांत और व्यथित कर जाता है। वह प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने की ताक में लग जाता है।
विनाश काल , विपरीत बुद्धि वाले दौर में विवेक का अपहरण हो जाता है, आदमी अपना बुरा भला तक सोच नहीं पाता है। ऐसा अक्सर सभी के साथ होता है , इस नुकसान की भरपाई की चेष्टा करते हुए दिन रात सतत प्रयास करने पड़ते हैं , तब भी वह पहले जैसी बात नहीं बनती है , मन के भीतर पछतावे की छतरी रह रह कर तनती है। यह मनोदशा मरने तक आदमी को हैरान व परेशान मतवातर करती रहती है। पर विपरीत परिस्थितियों के आगे किसकी चलती है ? यह उलझन आदमी का पीछा कभी नहीं छोड़ती है। २७/०१/२०२५.