कभी कभी पतंग किसी खंबे में अटक जाती है, इस अवस्था में घुटे घुटे वह तार तार हो जाती है। उसके उड़ने के ख़्वाब तक मिट्टी में मिल जाते हैं।
कभी कभी पतंग किसी पेड़ की टहनियों में अटक अपनी उड़ान को दे देती है विराम। वह पेड़ की डालियों पर बैठे रंग बिरंगे पंछियों के संग हवा के रुख को भांप नीले गगन में उड़ना चाहती है। वह उन्मुक्त गगन चाहती है, जहां वह जी भर कर उड़ सके, निर्भयता के नित्य नूतन आयामों का संस्पर्श कर सके।
मुझे पेड़ पर अटकी पतंग एक बंदिनी सी लगती है, जो आज़ादी की हवा में सांस लेना चाहती है, मगर वह पेड़ की टहनियों में अटक गई है। उसकी जिन्दगी उलझन भरी हो गई है , उसका सुख की सांस लेना, आज़ादी की हवा में उड़ान भरना दुश्वार हो गया है। वह उड़ने को लालायित है। वह सतत करती है हवा का इंतज़ार , हवा का तेज़ झोंका आए और झट से उसे हवा की सैर करवाए , ताकि वह ज़िन्दगी की उलझनों से निपट पाए। कहीं इंतज़ार में ही उसकी देह नष्ट न हो जाए । दिल के ख़्वाब और आस झुंझलाकर न रह जाएं । वह कभी उड़ ही न पाए। समय की आंधी उसको नष्ट भ्रष्ट और त्रस्त कर जाए। वह मन माफ़िक ज़िन्दगी जीने से वंचित रह जाए। कभी कभी ज़िंदगी पेड़ की टहनियों से उलझी पतंग लगती है, जहां सुलझने के आसार न हों, जीवन क़दम क़दम पर मतवातर आदमी को परेशान करने पर तुला हो। ऐसे में आदमी का भला कैसे हो ? जीवन भी पतंग की तरह उलझा और अटका हुआ लगता है। वह भी राह भटके मुसाफ़िर सा तंग आया लगता है। सोचिए ज़रा अब पतंग कैसे आज़ाद फिजा में निर्भय होकर उड़े। उसके जीवन की डोर , लगातार उलझने और उलझते जाने से न कटे। वह यथाशक्ति जीवन रण में डटे।