Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Jan 23
आज
दूध  
पता नहीं
मन में चल रही
उधेड़ बुन से
या फिर वैसे ही
लापरवाही से
उबालते समय
बर्तन से बाहर निकल गया ,
यह डांट डपट की
वज़ह बन गया कि
घर में कोई
कब दूध की क़दर करेगा ?
एक समय था जब दूध को तरस जाते थे और
अब घोर लापरवाही !
आज भी आधी आबादी दूध को तरसती है।
और यहां फ़र्श को दूध पिलाया जा रहा है।

पत्नी श्री से कहा कि
घर में
आई नवागंतुक
जूनियर ब्लैकी को
दूध दे दो ,
बेचारी भूखी लगती है ।
वह ऊपर गईं
और फिसल गईं।
दूध का कटोरा
नीचे गिरा ,
दूध फ़र्श पर फैला,
डांट डपट का
एक और बहाना गढ़ा गया।
जैसे सिर मुंडाते ही ओले पड़ें !
न चाहकर भी तीखी बातें सुननी पड़ें !!

सोचता हूँ...
यह रह रह कर दूध का गिरना
किसी मुसीबत आने की अलामत तो नहीं ?
क्यों न समय रहते खुद को कर लूँ सही !
आजकल
मन में सतत उधेड़ बुन लगी रहती है,
फल स्वरूप
एकाग्रता में कमी आ गई है।
दूध उबलने रखूं तो पूरा ध्यान होना चाहिए
दूध के बर्तन पर
ताकि दूध  बर्तन से उबालते समय बाहर निकले नहीं।
वैसे भी दूध हम चुरा कर पीते हैं !
कुदरत ने जिन के लिए दूध का प्रबंध किया है ,
हम इससे उन्हें वंचित कर
बाज़ार के हवाले कर देते हैं।
और हाँ, मंडी में नकली दूध भी आ गया है,
आदमी की नीयत पर प्रश्नचिह्न लगाने के निमित्त।
फिर इस दौर में आदमी
कैसे रखे स्वयं को प्रसन्न चित्त ?
दूध का अचानक बर्तन से बाहर निकलना
आदमी के मन में ठहराव नहीं रहा , को दर्शाता भर है।
वहम और भ्रम ने आदमी को
कहीं का नहीं छोड़ा , यह सच है।
इसमें कहीं कोई शक की गुंजाइश नहीं है।
२३/०१/२०२५.
Written by
Joginder Singh
44
 
Please log in to view and add comments on poems