दविंदर ने एक दिन अचानक पहले पहल शिवालिक की नीम पहाड़ी इलाके में भ्रमण करते हुए दिखाया था एक कीड़ा जो गोबर को गोल गोल कर रहा था धकेल। आज उस का एक चित्र देखा। उस की बाबत लिखा था कि यह गोबर की गंध से होता है आकर्षित और इसे गोलाकार में लपेटता हुआ अपने बिल में ले जाने को होता है उद्यत पर गोबर की गेंद नुमा यह गोला आकार में बिल के छेद से बन जाता है कुछ थोड़ा सा बड़ा वह इसे बिल में धकेलने की करता है कोशिशें पर अंत में थक हार कर अपनी बिल में घुस जाता है। इस घटनाक्रम की तुलना आदमी की अंतरप्रवृत्ति से की गई थी। इस पर मुझे दविंदर का ध्यान आया था । मैंने भी खुद को गोबर की गंध से आकर्षित हुए कीट की तरह जीवन को बिताया था और अंततः मैं एक दिन सेवा निवृत्त हो घर लौट आया था पर मैं ढंग से अपने इकट्ठे किए गोबर के गोले अर्थात् संचित सामान को सहेज नहीं पाया था। मैं खाली हाथ लौट पाया था जस का तस गोबरैला बना हुआ सा। २०/०१/२०२५.