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Jan 20
दविंदर ने
एक दिन अचानक
पहले पहल
शिवालिक की नीम पहाड़ी इलाके में
भ्रमण करते हुए
दिखाया था एक कीड़ा
जो गोबर को गोल गोल कर
रहा था धकेल।
आज उस का एक चित्र देखा।
उस की बाबत लिखा था कि
यह गोबर की गंध से
होता है आकर्षित
और इसे गोलाकार में
लपेटता हुआ
अपने बिल में ले जाने को
होता है उद्यत
पर गोबर की गेंद नुमा यह गोला
आकार में बिल के छेद से बन
जाता है कुछ थोड़ा सा बड़ा
वह इसे बिल में धकेलने की करता है कोशिशें
पर अंत में थक हार कर
अपनी बिल में घुस जाता है।
इस घटनाक्रम की तुलना
आदमी की अंतरप्रवृत्ति से की गई थी।
इस पर मुझे दविंदर का ध्यान आया था ।
मैंने भी खुद को गोबर की गंध से आकर्षित हुए
कीट की तरह जीवन को बिताया था
और अंततः मैं एक दिन सेवा निवृत्त हो घर लौट आया था
पर मैं ढंग से अपने इकट्ठे किए गोबर के गोले अर्थात् संचित सामान को सहेज नहीं पाया था।
मैं खाली हाथ लौट पाया था
जस का तस गोबरैला बना हुआ सा।
२०/०१/२०२५.
Written by
Joginder Singh
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