आदमी के पास एक संतुलित दृष्टिकोण हो और साथ ही हृदय के भीतर प्रभु का सिमरन एवं स्मृतियों का संकलन भी प्रवेश कर जाए , तब आदमी को और क्या चाहिए ! मन के आकाश में भोर,दोपहर,संध्या, रात्रि की अनुभूतियों के प्रतिबिंब जल में झिलमिलाते से हों प्रतीत ! समस्त संसार परम का करवाने लगे अहसास दूर और पास एक साथ जूम होने लगें ! जीवन विशिष्ट लगने लगे !! इससे इतर और क्या चाहिए ! प्रभु दर्शन को आतुर मन सुगंधित इत्र सा व्याप्त होकर करने लगता है रह रह कर नर्तन। यह सृष्टि और इसका कण कण ईश्वरीय सत्ता का करता है पवित्रता से ओत प्रोत गुणगान ! पतित पावन संकीर्तन !! इससे बढ़कर और क्या चाहिए ! वह इस चेतना के सम्मुख पहुँच कर स्वयं का हरि चरणों में कर दे समर्पण! १७/०१/२०२५.