आज असंतोष की आग हर किसी के भीतर धधक रही है। यह आग दावानल सी होकर निरन्तर बढ़ती जा रही है और सुख समृद्धि और संपन्नता को झुलसाती जा रही है। यह कभी रुकेगी भी कि नहीं ? इस बाबत कुछ कहा नहीं जा सकता ; आदमी का लोभ,लालच, प्रलोभन सतत दिन प्रति दिन बढ़ रहा है, फलत: आदमी असंतोष की आग में झुलसता जा रहा है। वह इस अग्नि दहन से कैसे बचे ? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है। उसके भीतर अस्पष्टता का बादल घना होता जा रहा है। यह कभी बरसेगा नहीं , यह भ्रम उत्पन्न करता जा रहा है। असंतोष जनित आग निरन्तर रही धधक। पता नहीं यह कब अचानक उठे एकदम भड़क ? कुछ कहा नहीं जा सकता । इससे आत्म संयम से ही है बचा जा सकता। और कोई रास्ता सूझ नहीं रहा। मनो मस्तिष्क में इस आग से उत्पन्न धुंधलका अस्पष्टता की हद तक बढ़ता जा रहा। इस आग की तपिश से हरेक है घबरा रहा। १६/०१/२०२५.